आलोचना हिन्दी गद्य की प्रमुख विधा है। आलोचना का अर्थ हैं किसी रचना को उचित प्रकार परख कर उसके गुण दोषों की समीक्षा करना और उसके विषय मे अपने विचार प्रस्तुत करना। आज हम आलोचना क्या हैं? आलोचना का क्या अर्थ हैं? आलोचना किसे कहते है? पर चर्चा करेंगें। आलोचना के लिए समीक्षा शब्द का प्रयोग भी किया जाता हैं।
हिन्दी आलोचना के वास्तविक रूप का विकास तीसरे एवं चौथे दशकों मे आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा हुआ। हिन्दी साहित्य का इतिहास तथा 'तुलसी' "सूर" एवं जायसी की समीक्षात्मक भूमिकाओं द्वारा व्यावहारिक आलोचना तथा चिन्तामणि के निबन्धों द्वारा सैद्धांतिक समीक्षा को शुक्ल जी ने विशेष शास्त्रीय गरिमा प्रदान की। वस्तुतः शुक्ल जी हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं नगेन्द्र जैसे समीक्षकों ने आगे बढ़ाया है। समसामयिक युग में अज्ञेय, देवीशंकर अवस्थी, इन्द्रनाथ मदान, रामविलास शर्मा, डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
शिवशंभु का 'चिट्ठठा' और "खत" मे यदि गुप्त जी ने लार्ड कर्जन को अपने व्यंग्य का निशाना बनाया था तो डाॅ. नामवर सिंह ने 'बकलम खुद' के निबन्धों मे लेखकों, राजनीतिज्ञों, गांधीवादियों, कागज का राज, अखबार, शिक्षा, पूंजीवाद आदि पर तीखे व्यंग्य किए है।
आलोचना के लिए समालोचना एवं समीक्षा शब्दों का भी प्रयोग होता हैं।
कुछ समालोचक लेखकों के नाम इस प्रकार हैं---
1. डाॅ. श्यामसुन्दर दास
2. आचार्य रामचंद्र शुक्ल
3. डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
4. डाॅ. नागेन्द्र
5. डाॅ. रामविलास शर्मा
6. बाबू गुलाबराय
7. आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी आदि।
इस लेख मे हमने जाना की आलोचना क्या हैं? आलोचना किसे कहते है? आलोचना का क्या अर्थ हैं। अगर आपका इस लेख से सम्बंधित कोई सवाल हैं तो नीचे comment कर जरूर बताएं।
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आलोचना का अर्थ तथा आलोचना किसे कहते हैं?{alochana kise kahte hai}
आलोचना का अर्थ है किसी साहित्यिक रचना को पूरी तरह से देखना, परखना। इस प्रकार रचना का प्रत्येक दृष्टि से विश्लेषण और मूल्यांकन कर पाठकों को उस रचना के मूल तक पहुँचाने मे सहायता करना आलोचना का मुख्य उद्देश्य हैं। सैद्धांतिक आलोचना की परम्परा संस्कृत एवं हिन्दी मे बहुत पुरानी है, पर आधुनिक साहित्य के विवेचन एवं मूल्यांकन के लिए व्यावहारिक आलोचना की आवश्यकता पड़ी। इस नई आलोचना का पहला रूप पुस्तक समीक्षाओं के रूप मे भारतेंदु युग मे प्रारंभ हो गया था। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने आलोचना के क्षेत्र मे पुस्तक समीक्षा का स्तर ऊँचा किया और प्राचीन कवितायों की व्यवस्थित आलोचना की परिपाटी चलाई।हिन्दी आलोचना के वास्तविक रूप का विकास तीसरे एवं चौथे दशकों मे आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा हुआ। हिन्दी साहित्य का इतिहास तथा 'तुलसी' "सूर" एवं जायसी की समीक्षात्मक भूमिकाओं द्वारा व्यावहारिक आलोचना तथा चिन्तामणि के निबन्धों द्वारा सैद्धांतिक समीक्षा को शुक्ल जी ने विशेष शास्त्रीय गरिमा प्रदान की। वस्तुतः शुक्ल जी हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं नगेन्द्र जैसे समीक्षकों ने आगे बढ़ाया है। समसामयिक युग में अज्ञेय, देवीशंकर अवस्थी, इन्द्रनाथ मदान, रामविलास शर्मा, डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
शिवशंभु का 'चिट्ठठा' और "खत" मे यदि गुप्त जी ने लार्ड कर्जन को अपने व्यंग्य का निशाना बनाया था तो डाॅ. नामवर सिंह ने 'बकलम खुद' के निबन्धों मे लेखकों, राजनीतिज्ञों, गांधीवादियों, कागज का राज, अखबार, शिक्षा, पूंजीवाद आदि पर तीखे व्यंग्य किए है।
आलोचना के लिए समालोचना एवं समीक्षा शब्दों का भी प्रयोग होता हैं।
कुछ समालोचक लेखकों के नाम इस प्रकार हैं---
1. डाॅ. श्यामसुन्दर दास
2. आचार्य रामचंद्र शुक्ल
3. डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
4. डाॅ. नागेन्द्र
5. डाॅ. रामविलास शर्मा
6. बाबू गुलाबराय
7. आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी आदि।
इस लेख मे हमने जाना की आलोचना क्या हैं? आलोचना किसे कहते है? आलोचना का क्या अर्थ हैं। अगर आपका इस लेख से सम्बंधित कोई सवाल हैं तो नीचे comment कर जरूर बताएं।
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very nice
जवाब देंहटाएंThanks for sharing your thoughts,
हटाएंAp bhut achi jankari dete uske liye bhut bhut dhanyawad
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