1/29/2022

राज्य का स्वरूप

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राज्य का स्वरूप 

इस विषय में विभिन्न विद्वानों में मतैक्य नही है। यहाँ कुछ प्रमुख मतों का संक्षिप्त विवेचन किया गया हैं--

1. राज्य एक सर्वोच्च समुदाय है 

अरस्तु का कहना है कि," राज्य की उत्पत्ति मनुष्यों के जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हुई है, किन्तु राज्य मनुष्यों के जीवन को अच्छा बनाने के लिए स्थिर हैं (The state came into existance for the sake of hife, but continues to exist for the sake of good life)।"  

अरस्तु तो यह मानता था कि प्रत्येक समुदाय का उद्देश्य मानव की भलाई करना है और राज्य जो सर्वोत्तम और सर्वोच्च समुदाय है, उसका उद्देश्य तो मनुष्यों की सर्वाधिक भलाई करना हैं। 

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2. राज्य का आधार शक्ति या इच्छा 

कुछ विद्वानों का मत है कि राज्य शक्ति के बल पर स्थापित रहता हैं, शक्ति के बल पर ही उसका अस्तित्व कायम रहता है और जब शक्तिहीनता उसमें आ जाती है तो वह समाप्त हो जाता है। इतिहास साक्षी है कि शक्ति के बल पर बड़े-बड़े राज्य स्थापित हुए, उनका विस्तार हुआ और जब शक्ति समाप्त हो गयी तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। मैकियावेली तथा ट्रिटस्के इसी मत के समर्थक रहे है। परन्तु आज इस मत का खण्डन किया जाता है। अब शक्ति के स्थान पर इच्छा को राज्य का आधार माना जाता हैं।

ग्रीन ने लिखा है कि," राज्य की आधार शक्ति नहीं बल्कि इच्छा हैं" (Will not force is the basis of the state)। अराजकतावादी एवं साम्यवादी दोनों ही राज्य के विरूद्ध हैं और वे आदर्श समाज की स्थापना का  स्वप्न देखते हैं जिसमें राज्य का कोई अस्तित्व न रहेगा। इतना होने पर भी राज्य एक शक्तिशाली वर्ग की शक्ति और प्रभुत्व को कायम रखने का साधन माना जाता है (The state is an organization of class dominating the other)। 

3. राज्य का आधार समझौता है 

कुछ विद्वान कहते है कि राज्य का अस्तित्व समझौते के आधार पर स्थापित हुआ। वे राज्य को प्राकृतिक या ईश्वरीय न मानकर मनुष्यकृत एवं कृत्रिम मानते है। वह यह भी कहते है कि समझौता भंग भी किया जा सकता है और राज्य का अस्तित्व समाप्त किया जा सकता हैं। परन्तु यह धारणा कुछ जँचती नही हैं। राज्य को साझेदारी की कम्पनी के समान मानना उचित नही प्रतीत होता। राज्य का अस्तित्व तो मनुष्य के लिए सभ्य और सामाजिक जीवन की एक आवश्यक शर्त हैं। राज्य ऐच्छिक नहीं शरन् अनिवार्य समुदाय हैं। उसका आधार समझौता नहीं हो सकता।

4. राज्य मनुष्यों के कल्याण का साधन हैं 

वर्तमान में अधिकांश विद्वान राज्य को मानव कल्याण का सबसे महत्वपूर्ण साधन मानते है। उनका कहना है कि राज्य का ध्येय कल्याणकारी (good or welfare) हैं। मैकाईवर ने "राज्य को सामाजिक मनुष्य का साधन" माना हैं। ग्रोशियस तथा अल्थ्युसियम ने "राज्य को एक कल्याणकारी व्यवस्था" (Welfare system) माना हैं। अरस्तु ने भी इसे "अच्छे जीवन के लिए अति आवश्यक" बताया हैं। 

5. राज्य अनेक संघों में से एक संघ है 

बहुलवादी विचारक यह मानते है कि "समाज अनेक संघों से मिलकर बनता है, राज्य भी उन संघों में से एक हैं।" अन्य संघ भी राज्य के समान स्वाभाविक और आवश्यक है। व्यक्तिवादी लोग "राज्य को एक आवश्यक बुराई" (necessry evil) मानते है। अराजकतावादी चिंतक राज्य का आधार शक्ति मानकर उसका विरोध करते हैं तथा उसके उन्मूलन में विश्वास करते हैं। समाजवादी विद्वान राज्य को समाज के हित का आवश्यक साधन मानते हैं। 

6. राज्य एक कानूनी व्यवस्था है 

न्यायशास्त्री लोग राज्य को एक कानूनी व्यवस्था मानते हैं। उसका संगठन कानून के आधार पर होता है जो मनुष्यों के जीवन को कानून द्वारा व्यवस्थित करता है। कानूनी दृष्टि से राज्य की शक्ति असीमित होती है परन्तु वास्तव में उस पर सीमायें भी होती हैं यह राज्य का महत्वपूर्ण पहलू है परन्तु राज्य के उच्चातर उद्देश्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता हैं। 

7. राज्य एक सावयव प्राणी है 

कुछ विद्वान राज्य को एक जीवित प्राणी के समान मानते हैं। जिस प्रकार मनुष्य शरीर मे अनेक अंग होते है जो विभिन्न प्रकार के कार्य करते हैं, वैसे ही राज्य के भी विभिन्न अंग होते हैं, जिनके कार्यक्षेत्र निश्चित होते हैं। हर्वर्ट स्पेन्सर भी राज्य को जीवित प्राणी के समान मानता हैं। राज्य और व्यक्ति एक-दूसरे पर आश्रित रहते हैं परन्तु कुछ विद्वान राज्य को सावयव प्राणी नहीं मानते हैं। 

राज्य के विषय मे अनेक मत हैं परन्तु इन सबमें उत्तम मत ए. बाइल्डे का हैं जो कहते हैं कि," सामाजिक कल्याण का आदर्श ऐसा समुदाय है जिसके सदस्य स्वतंत्र उत्तरदायी हों और जो अपने सुख की प्राप्ति सम्भवतया स्वयं ही करें। इस तथ्य से कि इस आदर्श का उच्चतम विकास का प्रशिक्षण और अनुकूल वातावरण द्वारा ही हो सकता हैं। हमें यह न भूलना चाहिए कि राज्य इनकी पूर्ति में केवल उन दशाओं की तैयारी कर सकता हैं जिनके आधार पर व्यक्तियों को अपने नैतिक विकास के लिए प्रयत्न करने चाहिए। इन शर्तों के अनुसार तथा इनके साथ ही हम स्वीकार करते हैं कि राज्य अधिकारों का संगठनकर्ता और सामाजिक न्याय का संरक्षक हैं।"

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