संप्रभुता का अर्थ (samprabhuta kya hai)
samprabhuta meaning in hindi;संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च इच्छा शक्ति का दूसरा नाम है। राज्य के सभी व्यक्ति और संस्थाएं संप्रभुता के अधीन है। संप्रभुता बाहरी तथा आंतरिक दोनों दृष्टि से सर्वोपरारि होति है।
सम्प्रभुता से तात्पर्य राज्य की उस शक्ति से है, जिसके कारण राज्य अपनी सीमाओं के अंतर्गत कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है। राज्य के अंदर कोई भी व्यक्ति अथवा समुदाय राज्य के ऊपर नही हो सकता। बाहरी दृष्टि से संप्रभुता का अर्थ है राज्य किसी बाहरी सत्ता के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष नियंत्रण मे किसी भी प्रकार से नही रहेगा।
राज्य के चार आवश्यक तत्वों में संप्रभुता सबसे अधिक और सबसे महत्वपूर्ण तत्व हैं। इसके कारण ही राज्य को अन्य संस्थाओं से अलग विशिष्ट स्थान प्राप्त होता हैं। राज्य के तीन अन्य तत्व तो दूसरे संगठनों में भी पाये जा सकते हैं, किन्तु संप्रभुता केवल राज्य का ही तत्व हैं।
संप्रभुता की परिभाषा (samprabhuta ki paribhasha)
बोदां के अनुसार " संप्रभुता राज्य की अपनी प्रजा तथा नागरिकों के ऊपर वह सर्वोच्च सत्ता है जिस पर किसी विधान का प्रतिबंध नही है। "
ग्रोसियस के अनुसार " सम्प्रभुता किसी को मिली हुई वह सर्वोच्च शक्ति है जिसके ऊपर कोई प्रतिबंध नही है, और जिसकी इच्छा की उपेक्षा कोई नही कर सकता है।
सोल्टाऊ के अनुसार " राज्य द्वारा शासन करने की सर्वोच्च कानूनी शक्ति सम्प्रभुता है। "
बर्गेस के अनुसार " राज्य के सब व्यक्तियों व व्यक्तियों के समुदायों के ऊपर जो मौलिक, सम्पूर्ण और असीम शक्ति है, वही संप्रभुता है।"
डुग्वी के शब्दों मे " सम्प्रभुता राज्य की वह सर्वोच्च शक्ति है जो राज्य-सीमा क्षेत्र मे निवास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी बन्धन के आज्ञा प्रदान करती है।
विलोबी के अनुसार," प्रभुसत्ता राज्य की सर्वोत्तम इच्छा होती हैं।"
जेंक्स के अनुसार," सम्प्रभुता वह अन्तिम व अमर्यादित अधिकार है जिसकी इच्छा द्वारा ही नागरिक कुछ कर सकते हैं।
पोलक के अनुसार," प्रभुसत्ता वह शक्ति है जो न तो अस्थायी होती है, न किसी अन्य द्वारा प्रदान की हुई होती हैं, न किन्ही ऐसे विशिष्ट नियमों द्वारा बंधी हुई होती है जिन्हें वह स्वयं न बदल सके और न जो पृथ्वी पर अन्य किसी शक्ति के प्रति उत्तरदायी होती हैं।
लास्की के अनुसार," राज्य अपने प्रदेश में स्थित सभी व्यक्तियों तथा व्यक्ति-समुदाय को आदेश देता है परन्तु वह इनमें से किसी के द्वारा आदेश प्राप्त नहीं करता।"
प्रभुसत्ता संबंधी उपर्युक्त परिभाषाओं का सार यही हैं कि एक निश्चित क्षेत्र में राज्य की सर्वोपरि शक्ति होती हैं। किन्तु इनमें से अधिकांश परिभाषाएं एक पक्षीय हैं। वे संप्रभुता के केवल एक पक्ष-आन्तरिक संप्रभुता का ही विमोचन करती हैं, जबकि संप्रभुता के दो पक्ष-आन्तरिक संप्रभुता तथा बाहरी संप्रभुता होते हैं। यहाँ संप्रभुता के दोनों पक्षों पर संक्षिप्त विचार किया जा सकता है--
आंतरिक संप्रभुता
आंतरिक संप्रभुता से आशय केवल इतना है कि राज्य की भौगोलिक सीमा में निवास करने वाला कोई भी व्यक्ति समुदाय व संगठन, चाहे वह कितना ही बड़ा, पुराना या शक्तिशाली ही क्यों न हो, राज्य की संप्रभुता से ऊपर कभी नही हो सकता।
लास्की ने लिखा है कि," राज्य प्रदेश के सभी मनुष्य व समुदायों को आज्ञा प्रदान करता है और उसे इनमें से कोई भी आज्ञा नहीं देता।
गार्नर के शब्दों में," संप्रभुता राज्य के संपूर्ण क्षेत्र में विस्तृत होती है और एक राज्य के अंतर्गत स्थित सभी व्यक्ति और समुदाय इनके अधीन होते हैं।"
बाहरी संप्रभुता
संप्रभुता के बाहरी पक्ष से यह आशय है कि कोई भी संप्रभु राज्य अपनी विदेश नीति बनाने व विदेशों से संबंध स्थापित करने में पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। लास्की संप्रभुता को स्वतंत्र राष्ट्रों की इच्छा व्यक्त करने वाली शक्ति बतलाता हैं, जिस पर किसी बाहरी शक्ति का कोई प्रभाव पड़ने की आवश्यकता नही हैं।
निष्कर्ष
प्रभुसत्ता या संप्रभुता राज्य की वह सर्वोच्च शक्ति हैं जिसके द्वारा राज्य के निश्चित क्षेत्र के अंतर्गत स्थित सभी व्यक्तियों एवं समुदायों पर नियंत्रण रखा जाता है और जिसके परिणामस्वरूप एक देश अपने ही समान दूसरो देशो के साथ संबंध स्थापित कर सकता हैं।
संप्रभुता की विशेषताएं या लक्षण (samprabhuta ki visheshta)
1. असीमता
सम्प्रभुता का पहला और अंतिम लक्षण उसका सर्वोच्च और असीम होना है। राज्य की संप्रभुता निरंकुश और असीम होती है। इसका तात्पर्य यह है कि वह विधि के द्वारा भी सीमित नही की जा सकती है। संप्रभुता के ऊपर अन्य किसी शक्ति का प्रभुत्व या नियंत्रण नही होता है। वह आन्तरिक और बाहरी विषयों मे पूर्णतया स्वतंत्र है। वह किसी अन्य शक्ति की आज्ञाओं का पालन करने के लिये बाध्य नही है, वरन् देश के अंतर्गत निवास करने वाले समस्त व्यक्ति उसकी आज्ञाओं का पालन करते है। यदि कोई शक्ति संप्रभुता को सीमित करती है तो सीमित करने वाली शक्ति ही संप्रभुता बन जाती है।
2. स्थायित्व
संप्रभुता कुछ समय के लिए रहती है और कुछ समय के लिए नही रहती ऐसा नही होता। राज्य की संप्रभुता मे स्थायित्व होता है। प्रजातांत्रिक राज्यों मे सरकार के बदलने से संप्रभुता पर कोई अंतर नही आता क्योंकि संप्रभुता राज्य का गुण है सरकार का नही। संप्रभुता के अंत का अभिप्राय राज्य के अंत से होता है।
3. मौलिकता
संप्रभुता की तीसरी विशेषता यह की संप्रभुता राज्य की मौलिक शक्ति है अर्थात् उसे यह शक्ति किसी अन्य से प्राप्त नही होती, बल्कि राज्य स्वयं अर्जित करता है और स्वयं ही उसका प्रयोग भी करता है। जबकि संप्रभुता ही सर्वोच्च शक्ति होती है। वह न तो किसी को दी जा सकती है और न ही किसी से ली जा सकती है।
4. सर्वव्यापकता
देश की समस्त शक्ति एवं मानव समुदाय संप्रभुता की अधीनता मे निवास करते है। कोई भी व्यक्ति इसके नियंत्रण से मुक्त होने का दावा नही कर सकता। राज्य अपनी इच्छा से किसी व्यक्ति विशेष को कुछ विशेष अधिकार प्रदान कर सकता है अथवा किसी प्रान्त को स्वायत्त-शासन का अधिकार दे सकता है। राज्य विदेशी राजदूतों से विदेशी राजाओं को राज्योत्तर संप्रभुता प्रदान करता है, किन्तु इससे राज्य के अधिकार व उसकी शक्ति परिसीमित नही हो जाती। वह ऐसा करने के उपरांत भी उतना ही व्यापक है जितना कि वह इससे पूर्व था।
5. अदेयता
संप्रभुता चूँकि अखण्ड और असीम होती है, इसलिए यह किसी और को नहीं सौंपी जा सकती। यदि प्रभुसत्तासम्पन्न राज्य अपनी संप्रभुता किसी और को हस्तान्तरित करना चाहे तो उसका अपना अस्तित्व ही मिट जायेगा।
दूसरे शब्दों में, राज्य के हाथ से संप्रभुता निकल जाने पर वह राज्य ही न रह जायेगा। यदि एक राज्य अपने क्षेत्र का कोई हिस्सा किसी राज्य को अर्पित कर देता है तो उस हिस्से पर उसकी से अपनी संप्रभुता समाप्त हो जाएगी और दूसरे राज्य की संप्रभुता स्थापित हो जाएगी। यदि कोई संप्रसत्ताधारी सिंहासन या सत्ता का त्याग करता है तो ऐसी हालात में सरकार बदल जाती है, संप्रभुता का स्थान नहीं बदलता।
गार्नर ने कहा है कि," सम्प्रभुता राज्य का व्यक्तित्व और उसकी आत्मा है। जिस प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व अदेय है और वह उसे किसी दूसरे को नहीं दे सकता, इसी प्रकार राज्य की सम्प्रभुता भी किसी अन्य को नहीं दी जा सकती।"
रूसो कहता है कि," प्रभुसत्ता में सामान्य इच्छा का अनुष्ठान होने के कारण उसका भी विच्छेद नहीं किया जा सकता ... ..शक्ति हस्तान्तरित की जा सकती है, पर इच्छा नहीं।"
लीवर ने कहा है, " जिस प्रकार आत्महत्या के बिना मनुष्य अपने जीवन को या वृक्ष अपने फलने-फूलने के गुण को पृथक् नहीं कर सकता है, उसी प्रकार प्रभुसत्ता को भी राज्य से पृथक् नहीं किया जा सकता है।"
6. अविभाज्यता
संप्रभुता चूंकि पूर्ण और सर्वव्यापक होती है, इसलिए इसके टुकड़े नहीं किए जा सकते। यदि संप्रभुता के टुकड़े कर दिए जाएँ तो राज्य के भी टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगें। अन्य समूह या संस्थाएँ अपने सदस्यों के सन्दर्भ में जिस सत्ता का प्रयोग करती हैं, वह उन्हें राज्य की संप्रभुता में से काटकर नहीं दी जाती, बल्कि वह राज्य की प्रभुसत्ता की देन होती है। राज्य की प्रभुसत्ता के सामने अन्य सब व्यक्तियों और संस्थाओं की सत्ता गौण होती है। संघीय व्यवस्था (Federal System) के अन्तर्गत भी संप्रभुता संघ और इकाइयों में बँट नहीं जाती बल्कि निर्दिष्ट विषयों के सन्दर्भ में उनके अधिकार क्षेत्र बंटे होते हैं। अधिकार क्षेत्रों का यह वितरण या उनमें कोई संशोधन भी प्रभुसत्ता के प्रयोग से ही सम्भव होता है।
काल्होन के अनुसार, " सर्वोच्च सत्ता एक पूर्ण वस्तु है। इसको विभक्त करना, इसको नष्ट करना है। यह राज्य की सर्वोच्च शक्ति है। जिस प्रकार हम अर्द्ध वर्ग अथवा अर्द्ध-त्रिभुज की कल्पना नहीं कर सकते, उसी प्रकार अर्द्ध सर्वोच्च सत्ता की भी कल्पना नहीं की जा सकती है।"
गेटेल ने भी कहा है, " अगर संप्रभुता पूर्ण नहीं होती है तो किसी भी राज्य का अस्तित्व नहीं रह सकता अगर प्रभुसत्ता विभाजित है, तो इसका अर्थ एक से अधिक राज्यों का अस्तित्व है।
7. अनन्यता
संप्रभुता अनन्य मानी गई है। इसका अर्थ यह है कि राज्य मे केवल एक ही संप्रभुता शक्ति हो सकती है, दो नही। संप्रभुता का अपने क्षेत्र मे कोई प्रतिद्वंद्वी नही होता है। क्योंकि यदि एक राज्य में दो प्रभुसत्ताधारी (Sovereign) मान लिये जाएँ तो उससे राज्यों की एकता नष्ट हो जाती है। एक प्रभुत्वसम्पन्न राज्य (Sovereign State) के अन्दर दूसरा प्रभुत्व सम्पन्न राज्य नही रह सकता।
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