प्रश्न; सत्ता से आप क्या समझते हैं? सत्ता की प्रकृति का वर्णन कीजिए।
सत्ता का अर्थ (satta kya hai)
सत्ता शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द Authority का हिन्दी रूपान्तरण है । अंग्रेजी भाषा के Authority (अथॉरिटी) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द 'ऑक्टोरिटास' शब्द से मानी जाती है। इस शब्द का अर्थ होता है बढ़ाना अर्थात् सत्ता वह गुण है जो इच्छा, संकल्प अथवा पसन्द को विवेक के साथ जोड़कर उसका विस्तार करती है। सत्ता का प्रयोग रोम में भी किया जाता था। इसका प्रयोग वहाँ सीनेट करती थी। रोम में जब सीनेट सार्वजनिक सभाओं में कानूनो को अपनी स्वीकृति देती थी तो यह माना जाता था कि वहाँ कानूनों को ऑक्टोरिटास प्राप्त हो गया अर्तात् उन्हें सत्ता मिल गयी। अर्थात् इन्हें रोम में परम्पराओं के अनुरूप मान्यता मिल जाती थी। अरस्तू ने सत्ता को रेटॉरिक (Rhetoric) के रूप में प्रयोग किया। उन्होंने तर्कों को सत्ता पर आधारित करने का कार्य किया। रेटॉरिक किसी भी विषय पर अनुनय के साधनों को ढूँढ़ने की भी क्षमता माना जाता है। सामान्यतया सत्ता को शक्ति से सम्बन्धित माना गया है। उसे आदेश देने तथा उसके पालन करवाने के अधिकार का नाम भी दिया गया है। कुछ विचारकों ने इसे संगठन की तरफ से किसी व्यक्ति को कुछ करने के लिये दी गयी आज्ञायें माना है।
संक्षिप्त में," लोकतंत्रीय समाज में सत्ता शक्ति का एक रूप हैं। जब शक्ति (Power) को वैधता (Legitimacy) मिल जाती हैं तो इसे 'सत्ता' नाम दिया जाता हैं। इसीलिए सत्ता को आदेश देने का अधिकार कहा जाता हैं।
सत्ता की परिभाषा (satta ki paribhasha)
बायर्सटेड के अनुसार, " सत्ता शक्ति के प्रयोग का संस्थागत अधिकार है, वह स्वयं शक्ति नहीं है।"
बीच के अनुसार, " दूसरों के कार्यों को प्रभावित करने या निर्देशित करने के औचित्यपूर्ण अधिकार को सत्ता कहते हैं।"
ओसलन के अनुसार, " सत्ता की परिभाषा औचित्यपूर्ण शक्ति के रूप में की जाती है। ऐसी शक्ति का प्रयोग व्यक्ति के मूल्यों के अनुसार और उन अवस्थाओं में किया जाता है जिनको वह ठीक समझता है।"
राबर्ट ए. डहल के अनुसार, " उचित शक्ति को प्रायः सत्ता का नाम दिया जाता है।"
मैकाइवर के अनुसार, " सत्ता की परिभाषा प्रायः शक्ति के रूप में की जाती है यह दूसरों से आज्ञाएं पालन करवाने की शक्ति है"।
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइंसेज के अनुसार, " सत्ता एक समूह पर प्राप्त अथवा स्वभाविक उच्चता प्रयोग करने की योग्यता है सत्ता शक्ति को प्रकट करती है तथा अपने अधीन व्यक्तियों से आज्ञा पालन करवाती है।"
अरेन के अनुसार, " सत्ता वह शक्ति है जो स्वीकृति पर आधारित है। इसकी प्रमुख विशेषता उन लोगों की पूर्ण स्वीकृति होती हैं जिन्हें इसका आज्ञापालन करना होता है।"
जोविनल के अनुसार, " सत्ता से अर्थ अन्य व्यक्तियों की स्वीकृति या इच्छा प्राप्त करना है।"
अतः सत्ता का राज्य में वही स्थान है जो आत्मा का शरीर में है। सत्ता द्वारा ही सभी महत्त्वपूर्ण निर्णय किए जाते हैं तथा अधीनस्थों द्वारा उन्हें स्वीकार किया जाता है। आज्ञाएं देना तथा अधीनस्थों द्वारा स्वीकारना सत्ता के ये दो प्रमुख पहलु हैं। अतः जब राज्य की शक्ति की वहां की जनता का औचित्यपूर्ण Legitimate) समर्थन प्राप्त हो तो उसे सत्ता कहा जाता है बिना इस समर्थन के उसका समरूप शक्ति का ही रहेगा। यही कारण है कि लोकतंत्रीय शासन प्रणाली में तानाशाही शासन की तुलना में सरकार को अधिक औचित्यपूर्ण सत्ता (Legitimate Authrotity) की आवश्यकता है।
'सत्ता' को प्रभाव (Influence) का ही एक रूप माना जा सकता है सत्ता निर्णय लेने की वह शक्ति है जो दूसरे व्यक्तियों के कार्यों को प्रभावित करती है। हर्बर्ट साइमन ने भी सत्ता को निर्णय लेने की शक्ति के रूप में परिभाषित किया है। इसके अतिरिक्त सत्ता दो व्यक्तियों के संबंध को भी स्पष्ट करती है। जिनमें एक सर्वोच्च तथा दूसरा अधीनस्थ व्यक्ति होता है। सर्वोच्च व्यक्ति द्वारा आज्ञा दी जाती है उसका पालन अधिकारियों द्वारा किया जाता है। अधीन पदाधिकारी ऐसे निर्णयों की आशा रखते हैं तथा उनका व्यवहार भी निर्णयों के द्वारा ही निश्चित होता है।
यूनेस्को की 1955 की एक रिपोर्ट के अनुसार, " सत्ता वह शक्ति है जो स्वीकृत सम्मानित, ज्ञात और औचित्यपूर्ण है।" राबर्ट डहल (Robert Dahl) ने कहा है, " जब एक व्यक्ति 'अ' दूसरे व्यक्ति 'व' को आदेश देता है तथा 'व' यह अनुभव कि 'अ' को ऐसा आदेश जारी करने का पूर्ण अधिक तथा उसका (ब का) यह कृत्य है कि ऐसे आदेश का पालन किया जाए तो 'अ' की स्थिति शक्ति को विधि-अनुकूल कहा जाएगा तथा इसी का नाम सत्ता है, अर्थात् विधि-अनुकूल शक्ति को ही प्रायः सत्ता कहा जाता है।
सत्ता के तत्व एवं विशेषताएं (satta ki visheshta)
सत्ता के तत्व तथा विशेषताएं निम्नलिखित हैं--
1. सत्ता सदैव औपचारिक शक्ति नही हैं
कुछ लोगों का ऐसा मानाना कि सत्ता हमेशा औपचारिक होती हैं, सही नही हैं। क्योंकि सत्ता में औपचारिक शक्ति के गुणों का अभाव भी हो सकता हैं। सत्ता शक्ति उत्पन्न करती है लेकिन यह शक्ति नही हैं।
सी. जे. फ्रेडरिक का कथन है कि," फ्रेडरिक का कथन है कि," सत्ता शक्ति की किस्म नहीं हैं वरन् एक ऐसा तत्व है जो शक्ति के साथ होता हैं। सत्ता व्यक्तियों एवं वस्तुओं में एक ऐसा गुण होता है जो उनकी शक्ति में वृद्धि करता है। यह एक ऐसा गुण है जो शक्ति उत्पन्न करता है किन्तु यह स्वयं शक्ति नहीं हैं।"
इसका आशय यह है कि किसी व्यक्ति की सत्ता को बिना शक्ति के स्वीकार किया जा सकता है, जैसे, एक व्यक्ति बहुत लम्बे समय तक एक विषय को पढ़ाकर रिटायर हो जाये तो वह शक्ति रहित होने के बाद भी अपने ज्ञान के क्षेत्र में एक सत्ता होगा। अतः शक्ति बिना सत्ता के भी हो सकती है और सत्ता बिना शक्ति के नही हो सकती।
2. सत्ता विवेक पर आधारित होती हैं
सत्ता की एक मुख्य विशेषता यह है कि यह विवेक पर आधारित होती हैं न की शरीरिक बल पर यानि की शरीरिक शक्ति से हीन व्यक्ति के पास भी सत्ता हो सकती हैं। फ्रेडरिक तथा हडल के अनुसार," सत्ता का मूल तत्व विवेक हैं। फ्रेडरिक के शब्दों में," जिस व्यक्ति के पास सत्ता होती हैं, मेरे विचार मे, उसके पास विवेकपूर्ण व्याख्या करने की योग्यता भी होती हैं।" दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हम ठोस तर्कों के आधार पर ही किसी को सत्ता मान सकते हैं अन्यथा नहीं।
3. वैधानिकता सत्ता की क्षमता को निश्चित करती है
वास्तव में, वैधता किसी भी प्रकार की सत्ता का सारांश हैं। विवेकयुक्त आदेशों को ही वैधता प्राप्त होती हैं। हडल के अनुसार," बी को ए आदेश देता है और बी यह अनुभव करता है कि ए को ऐसा करने का पूर्ण अधिकार है तो बी द्वारा आदेश का पालन करना उसका उत्तरदायित्व हैं। इस प्रकार की शक्ति न्यायोचित है किन्तु जब बी यह अनुभव करता है कि ए को अपने आदेशों का पालन करने के लिए बी को कहने का कोई अधिकार नही है एवं ए के आदेशों का पालन करने हेतु बी का कोई उत्तरदायित्व नही हैं बल्कि बी का उत्तरदायित्व ऐसे आदेशों का विरोध करना है तो ए की ऐसी शक्ति को अवैध या अनुचित शक्ति कहा जाता हैं, वैध शक्ति को ही प्रायः सत्ता का नाम दिया जाता हैं।"
4. सत्ता शक्ति से भिन्न होती हैं
सत्ता की एक विशेषता यह है कि सत्ता शक्ति से भिन्न होती हैं। सत्ता शक्ति उत्पन्न तो करती है लेकिन सत्ता शक्ति नही होती। सत्ता में शक्ति के साथ वैधता भी होती हैं।
5. उत्तरदायित्व
सत्ता का प्रयोग उत्तरदायित्व के आधार पर किया जाता हैं। प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ताधारी दल अपने कार्यों तथा नीतियों के लिए विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होता है तथा विधानमंडल जनता के प्रति उत्तरदायी होता है। सत्ता चाहे किसी भी प्रकार की क्यों न हो, उत्तरदायित्व से सम्बद्ध होती हैं।
6. प्रभुत्व
इसका आशय यह है कि सत्ताधारी व्यक्ति व्यवस्था में हो रहे कार्यों, निर्गतों एवं निवेशों तथा संरचनाओं पर प्रभुत्व रखता है। दूसरे शब्दों में," राजनीतिक संस्थाओं, कार्यों तथा संरचनाओं और उनकी क्रियाओं इत्यादि का संचालन तथा नियंत्रण सत्ता द्वारा किया जाता हैं।
7. सत्ता कानूनी होती
सत्ता की एक विशेषता यह भी है कि यह कानूनी होती हैं।
8. मूल्यात्मकता, औचित्यपूर्णता और स्वीकृत का गुण
सत्ता में मूल्यात्मकता, औचित्यपूर्णता एवं स्वीकृत के गुण पाये जाते है जो इसके प्रभाव को बढ़ाते हैं।
9. सत्ता सार्वजनिक जनकल्याण के कार्यों को सम्पन्न करती हैं।
10. सत्ता आदेश देने एवं पालन करने का प्रतीक हैं।
11. सत्ता मूल्य सापेक्ष मानी जाती हैं।
सत्ता के प्रकार (satta ke prakar)
सत्ता के प्रकार निम्नलिखित हैं--
1. दैवी अधिकारों पर आधारित सत्ता
दैवी अधिकारों पर आधारित सत्ता का रूप अत्यधिक विचित्र लगता हैं क्योंकि आधुनिक युग लोकतंत्र का युग है जिसमें दैवी अधिकारों के सिद्धांत का कोई महत्व नही रह गया हैं किन्तु मध्यकाल में इस सिद्धान्त का अत्यधिक महत्व था। इंग्लैण्ड में जेम्स प्रथम तथा चार्ल्स प्रथम कहा करते थे कि राज्य सत्ता उनको एक दैवी अधिकार के रूप में प्राप्त हुई है। फ्रांस का लुई चौदहवाँ भी कहता था कि," वह धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि हैं।" किन्तु वर्तमान मे इस प्रकार की दैवी सत्ता का समय अब समाप्त हो चुका है तथा दैवी अधिकारो पर आधारित सत्ता की धारणा का भी अब अंत हो चुका हैं।
2. बल पर आधारित सत्ता
राज्य के विकासवादी सिद्धान्त के अन्तर्गत राज्य के उदय में बल को एक महत्वपूर्ण तत्त्व माना गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार शक्तिशाली व्यक्ति कमजोरों को अपने अधीन करके शासक बन जाता है किन्तु लोकतंत्र में सत्ता प्राप्त करने का साधन बल न होकर लोगों का समर्थन प्राप्त करना हैं। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' का सिद्धान्त उस समय उचित था जब व्यक्ति असभ्य था किन्तु वर्तमान में बल को सत्ता का आधार नहीं माना जाता।
3. पैतृक परम्परा पर आधारित सत्ता
इस प्रकार की सत्ता से आशय उस सत्ता से है जो सत्ता पैतृक परम्परा पर आधारित होती है अर्थात् जो सत्ता विरासत में प्राप्त होती हैं। राजतंत्र में सत्ता का यही रूप होता हैं। यद्यपि इंग्लैण्ड, जापान आदि देशों में आज भी सत्ता का यही रूप विद्यमान हैं परन्तु आधुनिक युग में इसका महत्व बहुत कम हो गया हैं।
4. विशिष्ट जनों की सत्ता
इस प्रकार की सत्ता में, सत्ता ऐसे व्यक्तियों के हाथ में होती है जो ज्ञान, धन या शक्ति के कारण समाज के उच्च वर्ग के रूप में प्रभावशाली होते हैं।
5. संवैधानिक सत्ता
जब किसी व्यक्ति को संविधान द्वारा सत्ता प्राप्त होती हैं तो उसे 'संवैधानिक सत्ता' कहते है। उदाहरणार्थ, भारत के राष्ट्रपति को भारतीय संविधान द्वारा जो शक्तियाँ सौंपी गयी हैं, उनका आधार संवैधानिक सत्ता ही हैं।
6. अवैध सत्ता
जो सत्ता कानून या संविधान के अनुसार न होकर अनुचित साधनों द्वारा प्राप्त होती हैं, उसे 'अवैध सत्ता' कहा जाता हैं। जब कोई अधिकारी या सैनिक अधिकारी बल द्वारा अवैध सत्ता स्थायी नही होती और जनता कभी भी इसके विरूद्ध हो सकती हैं। सन् 1977 में श्रीमति गाँधी द्वारा तानाशाही प्रवृत्तियाँ लागू करने का प्रयत्न किया गया था किन्तु जनता ने चुनाव में इन्दिरा गाँधी को पराजित कर अपना विरोध व्यक्त कर दिया था।
जर्मन विचारक मैक्स वेबर ने अपनी पुस्तक 'जैम जेमवतल व बबपंस दक म्बवदवउपव वतहदप्रजपवद' में आधुनिक राज्य में सत्ता के तीन प्रकारों या रूपों का वर्णन किया है--
1. परम्परागत सत्ता
यह सत्ता किसी व्यक्ति को योग्यता या वैज्ञानिक नियमों के अन्तर्गत पद पर आसीन होने के कारण नहीं बल्कि परम्परा या वंशानुगत द्वारा स्वीकृत पद पर आसीन होने के कारण प्राप्त होती है। परम्परागत सत्ता इस मान्यता पर टिकी हुई है कि प्रचलित मूल्य या मान्यताएं यथोचित होती है। यहां यह माना जाता है कि जो व्यक्ति या वंश प्रचलित परम्परा के अनुसार देश में शासन करता रहा है, उसे ही शासन करने का अधिकार है। जैसे-- जनजातियों में मुखिया की सत्ता, कृषि युग में पंचायतों की सत्ता, ब्रिटेन में राजतंत्र इत्यादि। यहां उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार वैधानिक सत्ता कानूनों के अनुसार निश्चित व सीमित होती है उस प्रकार से परम्परोगत सत्ता सीमित व निश्चित नहीं होती क्योंकि इसमें स्पष्ट व निश्चित नियमों का अभाव होता है।
2. करिश्माई सत्ता
करश्माई सत्ता ऐसे नेतृत्व के रूप में व्यक्त होती है जिसके अनुयायी अपने नेता के गुणों को बढ़ा-चढ़ा कर आंकते है। इसमें सत्ता का स्त्रोत वैयक्तिक गुण व उसकी अपनी विशेषताएं होती है समाज या अधीनस्थ उस व्यक्ति के गुणों के कारण उसमें अलौकिकता का बोध करता है और अपने समस्त अधिकारों को उस व्यक्ति को सौंप देता है। जैसे-- शंकराचार्य, दलाई लामा, पोप, महात्मा गांधी जूलियस सीजर इत्यादि।
3. वैधानिक सत्ता
यह सत्ता समाज में स्वीकृत और प्रचलित वैधानिक कानूनों के साथ जुड़ी हाती है, व्यक्ति विशेष के साथ नहीं। अर्थात जो व्यक्ति जिस पद पर आसीन होता है उसके हाथों में उस पद से सम्बन्धित समस्त सत्ता होती है। व्यवस्था से जुड़े व्यक्ति निर्धारित योग्यताओं के आधार पर चुने जाते है किसी परम्परा या करिश्मा के आधार पर नहीं। अतः इसका क्षेत्र वहीं तक सीमित होता है जहां तक वैधानिक नियम उस पद को विशिष्ट अधिकार प्रदान करते है।
सत्ता की प्रकृति (satta ki prakriti)
सत्ता की प्रकृति के सम्बन्ध में विचार भेद है और इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। ये दोनों ही सिद्धान्त प्रो. बीच द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं जो निम्न प्रकार हैं--
1. औपचारिक सत्ता सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार सत्ता को आदेश देने का अधिकार माना जाता है और सत्ता का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर चलता है। यह अधिकार व्यवस्थाओं एवं संगठनों में विशिष्ट एवं वरिष्ठ अधिकारियों को दिया जाता है और इससे आदेश या सत्ता का पदक्रम बन जाता है।
सत्ता के पीछे व्यवस्था या संगठन की औचित्यपूर्ण शक्ति होती है इस शक्ति के कारण उसे स्वीकार किया जाता है। सत्ता आवश्यक रूप से सत्ताधारी की व्यक्तिगत श्रेष्ठता को नहीं बतलाती सत्ताधारी तो व्यवस्था या संगठन में अन्तर्निहित शक्ति का कार्यशील प्रतीक मात्र है। मैकाइवर ने इसे 'शासन का जादू' कहा है कि एक व्यक्ति जो आदेश देता है, वह भले ही अपने अधीनस्थों से अधिक बुद्धिमान न हो, अधिक योग्य न हो और किसी भी दृष्टि से अपने सामान्य साथियों से श्रेष्ठ न हो, कभी-कभी तो उसका स्तर इन सबसे हीन भी हो सकता है, लेकिन वह सत्ता की स्थिति में होने के कारण आदेश-निर्देश देता है और उसके आदेशों पालन किया जाता है।
2. स्वीकृति सिद्धान्त
व्यवहारवादी या मानव सम्बन्धवादी औपचारिक सत्ता सिद्धान्त में विश्वास न रखते हुए 'स्वीकृति सिद्धान्त' का प्रतिपादन करते हैं। इन यथार्थवादी अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, सत्ता कानूनी रूप से तो केवल औपचारिक होती है, किन्तु वास्तव में सत्ता या आदेश के अधिकार की सफलता अधीनस्थों की स्वीकृति पर निर्भर करती है जब अधीनस्थ अपनी समझ और योग्यता के दायरे में आदेशों को स्वीकार कर लेते हैं तो यह स्थिति 'सत्ता स्थिति' बन जाती है।
बनार्ड अपनी रचना The Functions of the Executive में लिखते हैं कि अधीनस्थ आदेशों को स्वीकार करें, इसके लिए चार शर्तें पूरी होनी आवश्यक हैं--
(अ) अधीनस्थ अधिकारी आदेश अथवा सूचना को समझता या समझ सकता हो,
(ब) अपने निश्चय करने के समय उसका यह विश्वास हो कि आदेश संगठन के उद्देश्यों के साथ असंगत नहीं है,
(स) निर्णय लेने के समय में वह यह सोचता हो कि एक समग्रता के रूप में सम्बन्धित आदेश उसके व्यक्तिगत हितों के अनुकूल है तथा
(द) वह मानसिक और शारीरिक दृष्टि से उस आदेश के अनुपालन की क्षमता रखता हो।
वस्तुतः सत्ता की प्रकृति के सम्बन्ध में प्रतिपादित इन दोनों ही सिद्धान्तों की अपनी दुर्बलताएँ हैं और इन्हें अतिवादी कहा जा सकता है। इन दोनों सिद्धान्तों की सत्यताओं को ग्रहण करते हुए एक सन्तुलित दृष्टिकोण का विकास हुआ है, जिसके अन्तर्गत सत्ता की अवधारणा में संस्थाकृत औचित्यपूर्ण शक्ति और अधीनस्थों की स्वीकृति दोनों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। यही उचित दृष्टिकोण है और राजनीति विज्ञान में सामान्यतया इसी को अपनाया गया है।
सत्ता का आधार
दुनिया में किसी भी प्रकार की सत्ता का आधार उसकी औचित्यपूर्णता होती है। अन्य आधारों में हम वैचारिककता, सुशासन, लोकमत के प्रति समर्पण आदि का उल्लेख कर सकते है।
सीमायें:-- शक्ति की तरह सत्ता की भी सीमा होती है। जिस जन स्वीकृति के आधार पर सत्तायें खड़ी होती है वहीं जनता का मोह भंग उसकी सबसे बड़ी सीमा होती है विधिक एवं परम्परागत दोनो प्रकार की सत्ताओं को देश की सीमा के बाहर भी कार्य करना पड़ता है। इसके साथ अन्तरराष्ट्रीय विधि एवं संगठनों तथा महाशक्तियों के घात प्रतिघात भी देश की सत्ता की सीमा को निर्धारित करते हैं। देश के भीतर विभिन्न संगठनों कर्मचारियों किसानों कामगारों आदि के हितों का टकराव भी इसकी सीमा है। मानवीय दुर्बलता इसकी सीमा है ही शक्ति सत्ता एवं प्रभाव का अर्न्तसम्बन्ध- ये तीनों एक दूसरे से सम्बद्ध एवं भिन्न हैं तिलक एवं गाँधी के पास सत्ता नहीं किन्तु व्यापक गहरा और सकारात्मक प्रभाव था। हिटलर मुसोलिनी के पास सत्ता थी और शक्ति किन्तु उनका प्रभाव नकारात्मक स्तर का था। उनकी शक्ति की प्रचुरता पूरी मानवा के लिये खतरा बन गयी माओ और स्टालिन के पास भी शक्ति एवं सत्ता दोनों ही थे किन्तु वे भी सकारात्मक प्रभाव स्थापित नहीं कर पाये गोर्वाचोव के पास सत्ता थी किन्त पर्याप्त शक्ति न थी इसलिये वे भी प्रभावहीन थे नेहरू का उदाहरण अनोखा एवं अद्भुत है। सत्ता प्राप्ति से पहले ही उनके पास जनता में पर्याप्त प्रभाव था तथा सत्ता प्राप्त होने के बाद इससे उपजी शक्ति से उन्होंने देश में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना की। नेहरू ने भारत के व्यक्ति आधारित सत्ता की परम्परा जिसे हम सामन्तवाद के नाम से भी जानते हैं को निर्मूल करते हुये भारत की जनता को एक नयी लोक तांत्रिक शक्ति से अभ्यस्त कराया। उन्होने सत्ता का निवैयक्तिकरण करते हुये इसका संस्थानीकरण किया। सत्ता इतिहास में बहुत सारे ऐसे शासकों के हाथ में रही जिन्होने दण्ड और भौतिक शक्ति की प्रचुरता से उत्पन्न भय से आम जनमानस को उत्पीड़ित किया जैसे ई. डी. अमीन, कर्नल गद्दाफी और पोलपोट आदि। जन विरोधी होने के कारण ये वैश्विक स्तर पर अवैध सिद्ध हुये और जनता ने इन्हे उखाड़ फेंका। राबर्ट डहल ने जिस प्रभाव को अपने अध्ययन का केन्द्रीय विषय बनाया, वे भी प्रभाव का आधार लोक स्वीकृति ही मानते हैं। अतः सत्ता शासक की शक्ति न होकर शासन और जनता के मध्य सेतु है।
शक्ति व सत्ता में परस्पर संबंध
सामान्यतः सत्ता और शक्ति बहुत कुछ समानार्थी लगते हैं तथापि राजनीति सिद्धान्त में ये दोनो शब्द अपना पृथक व विशेष स्थान रखते है जब शक्ति को कानूनी रूप दे दिया जाता है तो वह सत्ता बन जाती है। शक्ति का अस्तित्व सत्ता के अभाव में सम्मय तो है परन्तु उसका दीर्घकालीन स्थायित्व सत्ता के अभाव में सम्भव नहीं है। शक्ति के स्थायित्व के लिए जरूरी है कि उसका प्रयोग अधिकार के रूप में किया जाए तथा उसके आदेशों को कर्तव्य के रूप में स्वीकार किया जाए। अतः इस प्राकार शक्ति असंस्थागत परिस्थितिजन्य एवं अनिश्चित होती है जबकि सत्ता संस्थागत स्पष्ट तथा निश्चित होती है सहमति व स्वीकृति के बिना शक्ति हिंसा, बल प्रयोग एवं उत्पीड़न के रूप में अमान्य एवं निन्दनीय मानी जाती है।
सत्ता संस्थागत स्पष्ट व निश्चित होती है यद्यपि सत्ता के दो मुख्य घटक शक्ति और वैधता होते तथापि सत्ता शक्ति के अभाव में भी विद्यमान रह सकती है जैसे एक डॉक्टर, प्रोफेसर या संत धार्मिक गुरु की सत्ता किन्तु इसमें भी संदेह नहीं है कि शक्ति के बिना सम्पूर्ण समाज पर आधिकारिक निर्णयों एवं नियमों को लागू करना बहुत कठिन होता है क्योंकि कुछ लोग अपने तात्कालीन लाभ व स्वार्थ सिद्धि के लिए वैधानिक नियमों की अवहेलना कर समाज में कानून व व्यवस्था को स्थापित करने में बाधा उत्पन्न करते है जैसे यातायात के नियमों की अवहेलना। अतः यदि शक्ति की तुलना नंगी तलवार से करें तो सत्ता अपने म्यान में ढकी हुई तलवार है जो जरूरत पड़ने पर ही बाहर निकाली जाती है इसलिए शक्ति व सत्ता परस्पर सम्बद्ध है और दोनों को अपने प्रयोग के लिए एक दूसरे की आवश्यकता होती है।
सत्ता और शक्ति में अन्तर
सत्ता तथा शक्ति राजनीतिक विज्ञान की दो महत्वपूर्ण तथा भिन्न भिन्न अवधारणएं है। सत्ता को आदेश देने का अधिकार है जबकि शक्ति आदेश देने का क्षमता है। सत्ता का स्तरूप कानूनी होता है, जबकि यह आवश्यक नहीं कि शक्ति का रूप भी कानूनी ही हो।
निम्नलिखित मुख्य आधारों पर शक्ति तथा सत्ता का अन्तर स्पष्ट किया जा सकता है--
1. शक्ति बल पर, जबकि सत्ता नियमों व धारणाओं पर आधारित
शक्ति व सत्ता दोनों का अर्थ साधारण तौर पर नियंत्रण में रखने की स्थिति से लिया जाता परन्तु वास्तव में शक्ति का आधार बल अर्थात अन्यों पर अपने निर्णयों को बल-पूर्वक लागू कराने को शक्ति कहा जा सकता है। जबकि कानूनों, नियमों, धारणाओं, विश्वास तथा मुल्यों के अनुसार अपने निर्णय को अन्यों पर लागू करने को सत्ता कहा जायगा।
2. शक्ति वैध या अवैध, परन्तु सत्ता वैध
शक्ति औचत्यिपूर्ण भी हो सकती है अथवा अवैध यानि अनौचित्यपूर्ण भी हो सकती है परन्तु सत्ता प्रायः औचित्यपूर्ण या वैध ही होती हैं।
3. सत्ता में विवेक का अंश होता है जबकि शक्ति में यह अंश नहीं होता
सत्ता के लिये यह आवश्यक है कि विवेक के आधार पर अपने विचारों द्वारा अन्य लोगों को सहमत कराना जबकि शक्ति अन्य के व्यवहारों को अपने पक्ष में करने की क्षमता का नाम है, क्योकि आज्ञा प्रदान करने की क्षमता ही शक्ति है।
4. सत्ता शक्ति की तुलना बहुउद्देश्यीय है
शक्ति की तुलना में सत्ता बहुउद्देश्यीय है सत्ता का प्रयोग सामान्य उद्देश्यों के लिये किया जाता है। जबकि शक्ति का प्रयोग विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिये किया गया है।
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जवाब देंहटाएंसत्ता का क्या निष्कर्ष निकलता है आपको यह भी देना चाहिए था आपसे निवेदन है कि आप इस कार्य को शीघ्र अति शीघ्र पूरा करें धन्येवाद
जवाब देंहटाएंOr ache se smjayiye
जवाब देंहटाएंसत्ता अनेक प्रकार से लोगों के हित में ही काम करती है
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