10/10/2021

प्रथम चीन जापान युद्ध के कारण, परिणाम/महत्व

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प्रथम चीन जापान युद्ध 

चीन का जापान के साथ युद्ध का प्रमुख कारण कोरिया प्रश्‍नों के लेकर था। 1894-95 के दौरान चीन और जापान के मध्य कोरिया पर प्रशासनिक तथा सैन्य नियंत्रण को लेकर लड़ा गया था। कोरिया चीन के पूर्व में तथा चीन जापान के मध्‍य में स्थित था, और उसके दोनों से घनिष्‍ठ संबंध थें। कोरिया पर चीन का नियंत्रण नहीं था। यह नाममात्र के लिए चीन के अधीन था। जापान ने कोरिया को नियंत्रण में लाने के लिए 1869, 1870 और 1876 ई. मे वहां शिष्‍ट मंडल भेजे थे। दोनों में समझौता हो गया। तीन कोरियाई बंदरगाहों को जापान के लिए खोल दिया गया, जिसका विरोध चीन ने किया। अंत में 1885 ई. में कोरिया और जापान में समझौते हो गए। इसके कारण चीन और जापान में मतभेद बढ़ गया। 

चीन जापान युद्ध के कारण (pratham china japan yudh)

प्रथम चीन जापान युद्ध के लिए निम्‍नलिखित कारण उत्तरदयी थे--

1. यूरोपीय देशों की प्रेरणा

जापान पुर्तगाल, नीदरलैण्‍ड़ और स्‍पेन के व्‍यापारियों के आने से पहले जापान शांति प्रिय देश था। 16वीं शताब्‍दी में पूर्तगाल, नीदरलैण्‍ड़ और स्‍पेन के व्‍यापारियों ने और ईसाई पादरियों ने जापान को जहां राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक हानि पहुंचाई वहीं ज्ञान और विज्ञान में जापानी नवयुवकों को प्रगति और विकास का भी सन्‍देश दिया। इन व्‍यापारियों का प्रवेश जापान के द्वार पूरी तरह से नहीं खुल सका परन्‍तु अमेरिकी जनरल कमोडोर पैरी ने दबाव डालकर 1853 में दो जापानी बन्‍दरगाह पर अधिकार कर लिया तथा जापान से राजनीतिक, आर्थिक सुविधायें भी प्राप्‍त कीं। जापान ने इन सभी से ज्ञानार्जन कर शिक्षा प्राप्‍त की और इन से शोषण, अनुचित दबाव से राष्‍ट्रीयता, स्‍वतंत्रता और आत्‍मनिर्भरता का पाठ सीखा। जापानियों ने अनुभव किया कि यूरोपियनों के द्वारा हुई हानि की अगर पूर्ति करनी है तो इनकी शक्तियों का सफलता पूर्वक सामना करना पड़ेगा। तो जापान को सैनिक तथा आर्थिक रूप में सम्‍पंन और शक्तिशाली बनाना आवश्‍यक है। अतः उसने इन उद्देश्‍यों की पूर्ति के लिये जापान ने अपने साम्राज्‍यावादी पंजे चीन ओर बढ़ायें। 

2. चीन और जापान युद्ध के आर्थिक कारण

आर्थिक रूप से जापान की कोरिया पर पैनी नजर थीं। क्‍योंकि जापान कोरिया को अपने यहाँ निर्मित माल को बेचने तथा कच्‍चे माल की प्राप्ति के लिए बाजार की आवश्‍यकता थीं। जापान की दृष्टि से चीन और कोरिया ही ऐसे प्रदेश थे, जहां अपने आधिपत्‍य कर वह अपनी आर्थिक समस्‍या से उभर सकता था। जापान के लिए चीन का मार्ग कोरिया से होकर ही जाता था। उधर पश्चिम ने जापान को यह सिखा दिया था कि किसी देश में अपनी आर्थिक स्थिति सुरक्षित करने का सबसे अच्‍छा उपाय हैं वहां पर राजनीतिक प्रभुत्‍व की स्‍थापना कर ली जाए। फिर जापान के सैन्‍यवादी उग्र साम्राज्‍य विस्‍तार की नीति के लिए सरकार पर दबाव डाल रहे थें। 

3. चीन और जापान युद्ध का राजनीतिक कारण

कोरिया में बहुत ही बुरी तरह से विद्रोह और अराजकता फैली हुई थीं। कोरिया की आन्‍तरिक राजनीतिक स्थिति बहुत ही खराब थीं। कोरिया का शासन विकृत और दलबन्‍दी  का शिकार था। रूस उत्तरी एशिया में अपना प्रभुत्‍व स्‍थापित कर चुका था, कोरिया में वह अपनी सेना को संगठित कर रहा था। इसके लिये उसने कोरिया के केलजारेक बन्‍दरगाह पर आंशिक अधिकार कर लिया था। रूसी कार्यवाही जापानी सुरक्षा के लिये एक खतरा था। चीन भी इस समय अत्‍यन्‍त कमजोर था तथा वह रूस के चीन या कोरिया में प्रभाव को रोकने में असमर्थ था। अतः जापान ‘कोरिया की रक्षा जापान की रक्षा‘ समझता था। उसने कोरिया में हस्‍तक्षेप किया और कोरिया को संधि करने के लियें विवश कर दिया। दोनों के बीच 1876 ई. की संधि में कोरिया को स्‍वतंत्र मान लिया और निर्बलता के कारण 1884 ई. में चीन ने भी इस संधि को मान लिया था। परन्‍तु दोनो ने 1885 ई. में चीन-जापान ने संधि कर माना कि वे कभी बिना बतायें कोरिया के विषय में हस्‍तक्षेप नहीं करेंगे। 

4. चीन और जापान युद्ध का धार्मिक कारण

कोरिया में एक नयें धार्मिक संप्रदाय का जन्‍म हुआ जिसे तोंगहाक के नाम से जाना जाता हैं। यह संप्रदाय विदेशी लोगो का हस्‍तक्षेप अपने देश में नापसंद करते थे और अपने विदेशी विरोधी विचारों के प्रचार में तत्‍पर थे। कोरिया इस संप्रदाय के विचारों कों अवांछनीय समझती थीं। इसलिए एक राजाज्ञा द्वारा इसके प्रचार कार्य को रोक दिया गया। इस सरकारी अध्‍यादेश में इसके नेताओं को जादूगर तथा अविश्‍वासी बतलाया गया। 1883 ई. में इस संप्रदाय के लोगों ने एक प्रार्थना पत्र देकर सम्राट से निवेदन किया कि वह उनके धर्म के प्रचार के विरूद्ध राजाज्ञा को रद्द करे तथा इस धर्म के प्रति उदारता वरते। कोरिया की सरकार ने इस प्रार्थना पत्र को अस्‍वीकार कर दिया। फलस्‍वरूप अनेक स्‍थानों पर विद्रोह प्रारंभ हो गये। सरकार ने इस विद्रोह का दमन करने के लियें एक सेना भेजी जो कि बुरी तरह परास्‍त हुई। अतः कोरिया सरकार ने मदद के लिये चीन की तरफ मदद का हाथ बढ़ाया और सहायता देने का आग्रह किया। ली के आदेश पर एक सैनिक दस्‍ता कोरिया पहुंच गया और 1885 ई. के समझौते अनुसार जापान को भी सूचित किया गया। कोरिया की गंभीर स्थिति के कारण जापान ने भी एक बड़ी सेना कोरिया भेज दी। पर इसी बीच तोगहाक विद्रोह शांत हो गया। अब इस बात में कोई तुक नही था कि चीन की सेनांए कोरिया में रहें, परंतु चीन ने तब तक अपनी सेनांए हटाने से मना कर दिया, जब तक जापान अपनी सेनांए वापस नहीं बुला लेता। सेना वापसी के संबंध में चीन और जापान में समझौता नहीं हो सका और परिस्थितियों में कुछ इस प्रकार परिवर्तन हुआ कि जापान ने चीन के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 

5. युद्ध की घोषणा

कोरिया से सेनाएं वापस बुलाने के सन्‍दर्भ में दोनों के बीच कोई समझौता नहीं हो पाया। जिसमें की जापान ने बड़ी तीव्रता के साथ चीन पर आक्रमण कर दिया। इससे चीन को संभलने का अवसर नहीं मिल पाया और रूस एंव कोई भी यूरोपीय राष्‍ट्र चीन की मदद करने नहीं पहुंच पाया। यालू नदी के मुहाने पर चीन का नौ-सेनिक बेड़ा पराजित हो गया और जापान ने उसके समुद्र पर अधिकार करके कोरिया में अपनी सेनायें भेज दीं। 

शिमोनास्‍की की संधि 

युद्ध में जापान के द्वारा चीन पराजित हो चुका था। युद्ध में पराजित हो जाने पश्‍चात् चीन ने जापान से संधि करने के लियें ली-हूंग-चांग को नियुक्‍त किया। एक उन्‍मादी व्‍यक्ति ने जापान में ली पर हमला किया जबकि वह संधि वर्ता के लिए गया हुआ था। संधि वार्ता में इस कारण कुछ विलंब हुआ, परंतु इससे चीन को कुछ लाभ हुआ। चीन के प्रतिनिधि के इस प्रकार घायल हो जाने से खेद प्रकट करने के विचार से जापान ने अपनी संधि, जो शिमोनोसकी संधि कहलाती हैं, संबंधी शर्ते कुछ उदार कर दीं। इस संधि की शर्ते निम्‍नलिखित थी--

1. कोरिया को एक स्‍वतंत्र राज्‍य मान लिया गया और उस पर चीन ने अपना सम्‍पूर्ण अधिकार छोड़ दिया। 

2. चीन ने कुछ क्षेत्र जापान को दे दिए जिनमें लिआओतुंग, फारमोसा तथा पेरस्‍काडारे द्वीप शामिल थे। 

3. चीन का युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 20 करोड़ चीनी मुद्रा जापान को देना पड़े। 

4. चीन और जापान के मध्‍य एक व्‍यापारिक संधि भी हुई जिसके तहत चीन को कई बन्‍दरगाह जापान के व्‍यापार के लिए खोलना पड़े। 

यूरोपीय राज्‍यों का शिमोनेस्‍की की संधि का विरोध

शिमोनेस्‍की की संधि के तहत लिआओतुंग का प्रदेश जापान को दिया गया था। यह बात रूस को बहुत आपत्तिजनक लगी। रूस की सीमा मंचूरिया से मिलती थीं और इस क्षेत्र में राज्‍य विस्‍तार की उसकी इच्‍छा थी। इस क्षेत्र पर जापान के कब्‍जे के कारण उसके लिए अब यह कठिन हो गया था। इस कारण रूस ने जापान के लिआओतुंग पर अधिकार का विरोध आरंभ कर दिया। फ्रांस ने भी इसका विरोध किया। इस बीच रूस और फ्रांस में एक संधि भी हो गई थीं, इस कारण यूरोप की राजनीति में इन दोनो के संबंध बहुत घनिष्‍ठ हो गए थें। जर्मनी ने भी इस मामले में रूस और फ्रांस का साथ दिया। इन तीन शक्तिशाली राज्‍यों के विरोध के कारण जापान ने लिआओतुंग पर से अपने अधिकार का त्‍याग दिया। उसके बदले में चीन से हर्जाने की अतिरिक्‍त रकम प्राप्‍त की। 

चीन-जापान युद्ध के महत्‍व और परिणाम (pratham china japan yudh ka mahatva)

आरंभ में जापान एक छोटा सा राष्‍ट्र था जो कि एक परंपरागत राष्‍ट्र के रूप में जाना जाता था। लेकिन जापान की चीन पर विजय के बाद उसका अन्‍तर्राष्‍ट्रीय महत्‍व स्‍थापित हो गया। अब सारी दुनिया को जापान की ताकत का पता चल गया। अब उसकी गिनती यूरोपीय महाशक्तियों में होने लगी और उसने पूर्व में की गई भेदभाव पूर्ण संधियों को समाप्‍त कर दिया। इस प्रकार जापान अब यूरोपीय देशों के समकक्ष आ गया था। इस युद्ध के उपरांत चीन महत्‍व बिल्‍कुल समाप्‍त सा हो गया। इस युद्ध के बाद चीन की ताकत और प्रशासन की पोल खुल गयी। अब यूरोपीय ताकतों ने खुलकर उसकी लूट-खसोट प्रारंभ कर दी। इस युद्ध का महत्‍व इस बात में भी है कि इसके बाद जापानी साम्राज्‍यवाद को एक विश्‍वास और विकसित होने का आधार मिल गया। इस युद्ध के आधार पर ही जापान का साम्राज्‍यवाद आगे विकसित हुआ। जापान के आधुनिकीकरण के बाद उसने जो शक्ति संचय की थी उसका जापान सफल परीक्षण हो गया था। इस सफलता ने उसे वह शक्ति प्रदान कि जिससे वह अगले 10 वर्षो में एक यूरोपीय देश को पराजित किया।

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