वैदिक कालीन शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श
वैदिक शिक्षा का स्वरूप व्यापक था। यह शिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास हेतु प्रयासतर थी। अतः इसका वृहद उद्देश्य था-- संपूर्ण तथा बहुआयामी व्यक्तित्व का विकास करना। अतः शिक्षा वर्तमान जीवन की श्रेष्ठता के लिए कार्य न करके आगामी जीवन की तैयारी के रूप मे प्रदान की जाती थी। यह विशाल उद्देश्य सिर्फ वैदिक शिक्षा की ही देन है। जहाँ मानव जीवन की वृहद संकल्पना को श्रेष्ठ शिक्षा के माध्यम से संस्कारिता किया गया है, जबकि यूरोपियन शिक्षाशास्त्री भावी जीवन की शिक्षा को आजन्म संपूर्ण रूप से नकराते है। पर भारतीय वैदिक संस्कृति ने शिक्षा के द्वारा इन दोनों जीवनों मे (वर्तमान तथा मृत्यु पश्चात) सुखद संश्लेषण किया है।
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संक्षेप मे इस शिक्षा के त्रिआयामी सूत्र स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते है---
(अ) ज्ञान की प्राप्ति,
(ब) सामाजिक धार्मिक कर्त्तव्यों का समावेश एवं,
(स) चरित्र निर्माण।
वैदिक कालीन शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श निम्नलिखित है--
1. ईश-भक्ति तथा धार्मिक भावनाओं की उन्नति एवं विकास
वैदिक शिक्षा धर्म प्रधान थी। वैदिक समाज मे प्रायः ब्राह्मण तथा पुरोहित ही अनौपचारिक रूप से शिक्षा प्रदान करने का कार्य करते थे, जिनका संबंध शिक्षा के माध्यम से ईश्वरीय ज्ञान तथा भक्ति की अनुभूति कराना था। अतएव वे " सा विद्यया या विमुक्तये" के अनुरूप शिक्षा का अभ्यास करते थे। यही कारण है कि तात्कालिक शिक्षा को दो स्वरूपों मे विभाजित किया गया था--
(अ) अपरा विद्या
इसके अंतर्गत समस्त वेदों का अध्ययन निहित था। इसे 'त्रयी स्वाध्याय" (ऋग, साम, यजुर्वेद) नाम दिया गया था। इसके अलावा छात्र को लौकिक साहित्य जैसे-- व्याकरण, ध्वनि-विज्ञान, वृत्त, दंडनीति (राजनीति विज्ञान), धनुर्विद्या (युद्ध शास्त्र), इतिहास, तर्कशास्त्र, दर्शन, ज्योतिषशास्त्र, चिकित्सा विज्ञान तथा ललित कलाओं आदि का ज्ञान दिया जाता था।
यह विद्या मनुष्य को सांसारिक जीवन की कुशलताओं मे पूर्ण करके उसे जीवन यापन मे मदद करती थी, पर वैदिक शिक्षा का दीर्घगामी लक्ष्य था। मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन की तैयारी, जिसके लिए उसे 'परा विद्या" का अध्ययन करना होता था।
(ब) परा विद्या
'मुंडकोपनिषद्' मे इस विद्या की विस्तार से चर्चा की गयी है। उसके अनुसार," परा विद्या' वह विद्या है, जो कि मानव का 'चरम सत्य' से साक्षात्कार कराती है। इसे 'सर्वविद्या प्रतिष्ठा' के पद पर भी आसीन किया गया था। इसे वैदिक ज्ञान का केन्द्र बिन्दु माना गया था जिसमें सभी अपरा विद्याओं का सूक्ष्म चिंतन तथा विश्लेषण शामिल किया गया था। कई ऐसे उदाहरण उपनिषदों मे भरे पड़े हैं जहाँ कि अपरा विद्या के अस्तित्व को नकारते हुए 'आत्म साक्षात्कार' के मार्ग के बारे में पूछा गया है।
छांदोग्य उपनिषद् में एक महत्वपूर्ण उदाहरण देखने मे आता है जब 'श्वेतकेतु' समस्त वेदों का अध्ययन करके बारह वर्ष बाद लौटे तो पिता द्वारा किये गये प्रश्न का उत्तर न दे पाने पर उन्हें अज्ञानी सिद्ध कर दिया गया।
इन उदाहरणों मे शिक्षा के उस व्यापक स्वरूप के दर्शन होते है-- जबकि शिक्षा को मोक्ष का मार्ग माना जाता था। अतः निःसंदेह यह कहा जा सकता है कि प्राचीन शिक्षा उच्च आदर्शों से सुसज्जित ईश तथा धार्मिकता की उर्ध्वाधर उन्नति कारण थी।
2. चारित्रिक निर्माण
वैदिक शिक्षा मानव मे चारित्रिक विकास करने वाली थी। इसे अलग-अलग खण्डों मे बाँटकर व्यवस्थित किया गया था। इसमें जो खण्ड जीवन की शिक्षा के लिये उपयुक्त माना गया था, उसे ब्रह्राचर्य कहा गया था। वैदिक काल में विद्यार्थी गुरूकुलों मे रहकर उन कठोर वृत्तों, नियमों का पालन करने के लिये बाध्य था, जिससे उसकी शिक्षा एवं व्यक्तित्व निर्माण में किसी भी प्रकार की कठिनाई उत्पन्न न हो सके।
3. सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास
वैदिक शिक्षा मनुष्य की ही नही बल्कि संपूर्ण व्यक्तित्व विकास की संकल्पना से ओत-प्रोत थी। इसलिए व्यक्ति की आवश्यकता, इच्छा, योग्यता एवं पुरूषार्थ के अनुरूप दो प्रकार की विधाओं का समावेश किया गया था।
सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास के लिए शिक्षा को चित्तवृत्ति निरोध का कठोर प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था, क्योंकि जीवन के किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य को अपने गतिशील चित्त मन तथा कार्यों पर अंकुश रखना आवश्यक है। इसके अलावा उचित शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक तथा चारित्रिक शिक्षा की भी व्यवस्था की गयी थी।
4. नागरिक गुणों एवं सामाजिक कुशलताओं का संप्रेषण
वैदिक शिक्षा का मूलमंत्र था नागरिकता, सामाजिकता के गुणों एवं उन कार्यों मे कुशलता का विकास करना। सामाजिक कुशलता से अभिप्राय है कि मनुष्य ने जिस समाज मे रहकर अपनी शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति की है, उस समाज हेतु अपेक्षित योगदान देना।
वैदिक शिक्षा में इसकी सुंदर व्यवस्था थी सिर्फ सामान्य व्यक्ति नही, योगी तथा महर्षियों हेतु सामाजिक धर्मों की उपेक्षा करना एक वर्जनीय अपराध माना जाता था। क्योंकि जब तक व्यक्ति समाज के साथ संबंधित है उसके लिए अपेक्षित कर्तव्यों तथा धर्मों का निर्वाह करना आवश्यक है।
5. राष्ट्रीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार तथा संरक्षण
वैदिक शिक्षा ने राष्ट्रीय विरासत तथा संस्कृति के प्रचार, प्रसार और सुरक्षा प्रदान करने मे अनुकरणीय कार्य किया है। इसी कारण हजारों वर्षों पश्चात भी यह अपनी अमिट छाप मानव मात्र पर छोड़ती है। यह एक पीढ़ी से आगे आने वाली पीढ़ियों तक बगैर किसी रोक-टोक के हस्तांतरित होती रही है। यह पूर्ण मानव निर्माण की प्रक्रिया में शाश्वत रूप से संबद्ध रही है। यह मानव की मोक्ष प्राप्ति का साधन है। यह मानव मे समस्त गुणों को प्रस्फुटित करती है। यह मानव के सामाजिक, धार्मिक, बौद्धिक मूल्यों को उजागर करती है। कौटिल्य ने शिक्षार्थी की श्रेष्ठता के लिए निम्न मानदंडो को स्वीकार किया है," एक उत्तम शिक्षार्थी को सफल विद्या प्राप्त करने के लिए निम्न गुणों का अनुसरण नही करना चाहिए-- सुंदरता, क्रोध, लालच, घमंड, मद, हर्ष तथा अहंकार एवं विद्या ग्रहण करते समय ध्वनि, स्पर्श, रंग, स्वाद, गंध सम्मत समस्त विकृतियों का निराकरण कर लेना चाहिए।" ये गुण आज भी तर्कसंगत प्रतीत होते हैं।
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