अध्यापक या शिक्षक शिक्षा का अर्थ (adhyapak shiksha kya hai)
adhyapak shiksha arth paribhasha uddeshy avdharna;अध्यापक शिक्षा या शिक्षक शिक्षा एक ऐसी शैक्षिक व्यवस्था है जिसमें अध्यापकों को इस प्रकार से शिक्षित करने का प्रयास किये जाते है कि ज्ञान तथा मूल्यों का एक एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक इस तरह हस्तांतरण किया जाये कि उसमें शैक्षणिक व विकासात्मक उत्तरदायित्वों का आरोपण किया जा सके और वो वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सांस्कृतिक दक्षता, प्रयोगधर्मी सोच (innovative thinking) तथा मानवीय प्रवृत्ति विकसित कर सके। क्योंकि अध्यापक को एक व्यवसाय मान लिया गया है यह जरूरी है कि अध्यापक शिक्षा की व्यवस्था भी इस प्रकार हो कि उसकी व्यावसायिक दक्षता व संवेगात्मक पहलू की ओर भी ध्यान दिया जा सके।
अतः सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक पहलुओं के अतिरिक्त उसके लोकतंत्रान्त्रिक मूल्यों को ग्रहण करना भी महत्वपूर्ण है। यह एक व्यवस्था है जो लोगों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षक की आधुनिक तथा बदलती हुई भूमिका का निर्वाह करने की योग्यता व दक्षता को ग्रहण करने के लिए शिक्षित करती है। इस अर्थ मे अध्यापक शिक्षा मात्र एक कार्यक्रम नही है बल्कि एक मिशन है।
अध्यापक शिक्षा की परिभाषा (adhyapak shiksha ki paribhasha)
प्रो. एस. एन. मुखर्जी के अनुसार," विभिन्न शिक्षा केंद्रों मे सुधार की आवश्यकता है और इस उद्देश्य हेतु 'अध्यापक शिक्षा' एक बेहतर शब्द है क्योंकि यह अध्यापक निर्माण संबंध क्षेत्र को विस्तृत बनाती है।"
मुनरो के अनुसार," अध्यापक शिक्षा का अर्थ है सम्पूर्ण शिक्षापूर्ण अनुभव जो विद्यालयों मे शिक्षण पद के लिए व्यक्ति को तैयार करती है परन्तु यह शीर्षक शैक्षणिक संस्थानों द्वारा आयोजित विभिन्न कार्स और अन्य अनुभवों संबंधी कार्यक्रमों पर लागू होता है जो शिक्षक और अन्य शैक्षणिक सेवाओं हेतु व्यक्ति को तैयार करने के उद्देश्य के लिए बनाए जाते है। ये कार्यक्रम अध्यापक महाविद्यालयों, सामान्य विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों मे लागू होते है।"
गुड के शिक्षा कोष के अनुसार," अध्यापक शिक्षा मे वे सभी अनुभव तथा औपचारिक एवं अनौपचारिक क्रियाएं सम्मिलित है जो किसी भी व्यक्ति को शिक्षण-व्यवसाय का दायित्व संभालने की योग्यता प्रदान करती है।"
अध्यापक शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्य (adhyapak shiksha ke uddeshy)
शिक्षक या अध्यापक शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्य निम्नलिखित है--
1. शिक्षक शिक्षा के द्वारा शिक्षक को भिन्न-भिन्न प्रचलित तथा आधुनिकतम विधियों से अवगत कराना।
2. अध्यापक शिक्षा के द्वारा मनोविज्ञान का ज्ञान प्रदान कर शिक्षकों को छात्रों के शिक्षण हेतु प्रभावी बनाना।
3. शिक्षकों को पाठ के शिक्षण संबंधी विषयवस्तु की योजना बनाने का ज्ञान देना।
4. छात्र की व्यक्तिगत विभिन्नताओं तथा आवश्यकताओं की जानकारी प्राप्त करना तथा उनके अनुसार शैक्षिक प्रक्रिया की समायोजना पर काम करना।
5. भिन्न-भिन्न शैक्षिक साधनों, उपकरणों, दृश्य-श्रव्य साधनों तथा शैक्षिक सामग्री के विकास और उनका प्रयोग करने मे अध्यापकों की सहायता करना।
6. अध्यापक को अपने दर्शन निर्माण के साथ-साथ भिन्न-भिन्न दर्शनों का ज्ञान देना।
7. छात्रों की प्रकृति के प्रति सूझ-बूझ का विकास करने के लिए अध्यापकों की सहायता करना।
8. शिक्षक शिक्षा द्वारा शिक्षकों को शैक्षिक सामग्री का सही प्रयोग करना सिखाना।
9. विद्यालय मे अध्यापकों को किन-किन कर्तव्यों को निभाना है, इसका ज्ञान देना।
10. कक्षा प्रबंधन तथा शिक्षण सिद्धांतों की सही जानकारी उपलब्ध करना।
11. शिक्षक-शिक्षा द्वारा छात्रों की निजी समस्याओं से अवगत कराना तथा उसे हल करने में सहायता प्रदान करने हेतु शिक्षित करना।
12. श्रेणी तथा वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर ज्ञान देने की योग्यता प्रदान करना।
13. विद्यालय की पाठ्यचर्या, पाठ्य सहगामी क्रियाओं के संगठन पर्यवेक्षण और उसमें भाग लेने के लिए अध्यापकों की सहायता करना।
14. भिन्न-भिन्न विधियों द्वारा छात्रों की उपलब्धियों का मूल्यांकन करना सिखाना।
अध्यापक शिक्षा के लिये आधारभूत अवधारणायें
अध्यापक शिक्षा या शिक्षक शिक्षा की निम्नलिखित आधारभूत धारणायें है--
1. जबकि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का निर्माण करना है तब एकाकी, प्रजातांत्रिक एवं समाजशास्त्रीय समाज के निर्माण में मौन सहायता प्रदान कर सकता है अतः अध्यापक शिक्षा मनुष्य निर्माण प्रक्रिया को निश्चित करती है।
2. मानव निर्माण की प्रक्रिया शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक शुरू होती है। अतः अध्यापक शिक्षा के सभी स्तर ऐसे अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम को विकसित करने मे सहायक होगें जो कि, एक ओर वातावरण एवं दूसरी ओर सीखने वालों की विभिन्नताओं तथा सामाजिक आवश्यकता को निश्चित करें।
3. अध्यापक शिक्षा का विभिन्नात्मक पक्ष इस बात पर बल देता है कि प्रत्येक स्तर पर अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम का निरूपण बच्चों के विकास एवं देश के उद्देश्यों के संदर्भ मे करना चाहिए।
4. अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम को प्रत्येक स्तर पर आगे की ओर बढ़ाना चाहिए।
(अ) प्रशिक्षण संबंधी पाठ्यवस्तु,
(ब) समुदाय के साथ कार्य तथा
(स) विषयवस्तु एवं विधि-संबंधित पाठ्यवस्तु एवं अभ्यास शिक्षण पाठ्यवस्तु।
5. संपूर्ण अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम मे समुदाय के साथ कार्य करते हुए छात्र एवं विधि संबंधी भाग एक स्तर से दूसरे स्तर तक परिवर्तित होंगे।
6. तीन भाग जो कि पहले कहे गये है, वे अध्यापक शिक्षा का केंद्र निर्माण करेंगे, वे निम्न है--
(अ) भावी अध्यापकों को इन सभी वस्तुओं से परिचित कराना चाहिए-- कैसे एवं क्यों अध्यापक व्यवहार हो? इन प्रश्नों के उत्तर मनोविज्ञान, प्रशिक्षणशास्त्र एवं समाजशास्त्र के आधार पर दिये जायेंगे।
(ब) नेता एवं समाज का पथ प्रदर्शक होना चाहिए।
(स) भावी अध्यापक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए और अपने विषय में शिक्षण विधि का विशेषज्ञ होना चाहिए।
7. अध्यापक शिक्षा के अभिन्न भागों मे परिणामस्वरूप भावी अध्यापक कक्षा-कक्ष की स्थितियों मे बाहर एवं अदंर कार्य करते है, वे वैज्ञानिक ज्ञान धनात्मक दृष्टिकोण एवं तकनीकियों का प्रयोग करते है जो कि सीखने के व्यवहार को और अधिक संशोधित करें व जिसका प्रयोग सीखने वाले की वास्तविक क्षमताओं का प्रयोग कर सकें।
8. एक प्रभावशाली अध्यापक बनने के लिए अध्यापक को समाज की आवश्यकताओं का ध्यान होना चाहिए एवं उस समुदाय का, जिसमें वह रहता है और उसे सामाजिक कौशल का ज्ञान होना चाहिए जिससे समुदाय विकास एवं वांछनीय समाज-परिवर्तन लाने में सहायता मिले।
9. अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम उस सीमा तक विश्वसनीय होगे जहाँ तक मौखिक अनुभवों को दृश्य, पुस्तकों एवं कौशल अनुभवों द्वारा पुनर्बलन प्रदान किया जाये।
10. अध्यापक शिक्षा एक निरन्तर चरने वाली प्रक्रिया होने के कारण उसे तीन विशेषताओं की आवश्यकता है, जैसे कि लचीलापन, मानवीय एवं अन्तः अनुशासन।
11. अध्यापक शिक्षा को दो प्रकार के पाठ्यक्रमों को सम्मिलित करना चाहिए-विषय संबंधी पाठ्यवस्तु एवं विधि संबंधी पाठ्यवस्तु। विषय-संबंधी पाठ्यवस्तु मे सीखने के अनुभव, जो कि शिक्षण विषय से संबंधित हों। विधि संबंधी पाठ्यवस्तु में दो प्रकार के कौशल का विकास करना चाहिए--
(अ) सामान्य शिक्षण कौशल अध्यापक शिक्षा के सभी स्तरों के लिये, तथा
(ब) विशेष शिक्षण कौशल।
पूर्व-प्राथमिक स्तर पर अध्यापक शिक्षा के उद्देश्य
यह माना गया है कि उन अध्यापकों को जिनको प्राथमिक अध्यापक से संस्थान में शिक्षित किया जायेगा, वे साधारणतः 3 वर्ष से लेकर 8 वर्ष तक के बच्चों को पढ़ायेंगे। ये वर्ष मानव-जीवन बनाने के लिये मनोवैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण माने जाते है।
फ्राॅयड को विश्वास था कि व्यक्ति के व्यक्तित्व की आधारशिला जीवन के पहले 5 वर्षों मे पड़ जाती है। इसी कारणवश पूर्व-प्राथमिक स्कूलों मे शिक्षकों को अत्यन्त सक्षम होना चाहिए ताकि वे एक दृढ़ व्यक्तित्व की नींव डाल सकें एवं शिक्षक मे वे सभी कौशल होने चाहिए जिससे कि व्यक्तित्व की वास्तविक दबी हुई क्षमतायें सामने आयें। हमारे देम मे अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रम का निर्माण अत्यंत विचारणीय दृष्टिकोण से नही किया जाता है, जो कि भावी अध्यापक मे ज्ञान कौशल एवं दृष्टिकोण को विकसित करने मे सहायता प्रदान करे।
रा. शै. अनु. प्र. परिषद् के आलेख के अनुसार पूर्व-प्राथमिक स्तर पर अध्यापक शिक्षण के निम्नलिखित उद्देश्य है--
1. बाल्यावस्था की शिक्षा के सैद्धांतिक एवं प्रयोगात्मक ज्ञान को प्राप्त करना।
2. बालक के विकास के आधारभूत सिद्धांतों का ज्ञान।
3. भारत के संदर्भ में बालकों की शिक्षा में सैद्धांतिक एवं प्रयोगात्मक ज्ञान का प्रयोग करना।
4. बोध, कौशल, दृष्टिकोण एवं रूचि को विकसित करना, जो कि उसको इस योग्य बना सकें कि वह बालक का संपूर्ण विकास ठीक से कर सकें।
5. ऐसे कौशलों का विकास करना, जो कि बालक की शारीरिक भावात्मक स्वास्थ्य की रक्षा करें अर्थात बालक को उचित वातावरण प्रदान कर सकें।
6. वार्तालाप कौशल को विकसित करना।
7. दृश्य-श्रव्य सामग्री का उचित प्रयोग करने के लिये कौशल का विकास करना।
8. बालक के घर के वातावरण को जानना तथा घर व स्कूल मे सामंजस्य एवं संबंध स्थापित करना।
9. परिवर्तित होते हुए समाज में स्कूल एवं अध्यापक के कार्यों को जानना।
प्राथमिक स्तर पर अध्यापक शिक्षा के उद्देश्य
प्राथमिक स्तर के बच्चों के ज्ञानात्मक, कौशलात्मक एवं भावात्मक क्षमतायें पहले से अधिक विकसित हो जाती है। इस स्तर पर बच्चों मे पूर्व-प्राथमिक स्तर के बच्चों की तुलना मे निम्न बातों मे अधिक क्षमतायें आ जाती है-- जैसे कि लिखना, सोचना, तर्क करना, कारण निकालना, शब्दों को जोड़ना, वार्तालाप करना या अपनी बात को कहना, सामाजिक मान्यताओं के अनुसार अपनी भावनाओं को व्यक्त करना। इन सभी का विकास नई समस्याओं, नई दिशाओं, नई सम्भावनाओं के कारण होता है। इस स्तर पर पूर्व-प्राथमिक स्तर की तुलना मे शिक्षक में वार्तालाप अत्यधिक महत्वपूर्ण है। एक सफल अध्यापक बनने के लिये भावी अध्यापक को निम्नलिखित व्यावहारिक परिवर्तन लाना चाहिए--
1. प्रथम एवं द्वितीय भाषा का ज्ञान, गणित का ज्ञान, सामाजिक एवं प्राकृतिक विज्ञान तथा वातावरण संबंधी अध्ययनों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
2. पहचानने, चयन करने की तथा विषय से संबंधित अनुभवों को सीखने के लिये व्यवस्था करना आदि मे कौशल को विकसित करना।
3. बच्चे के स्वास्थ्य, शारीरिक एवं क्रियात्मक क्रियाओं, कार्य-अनुभवों नाटक, खेल, क्रियात्मक कला एवं संगीत आदि का सैद्धांतिक एवं प्रयोगात्मक ज्ञान प्राप्त करना एवं उन सभी को व्यवस्थित करने के लिए कौशल प्राप्त करना।
4. बच्चे की शिक्षा के संदर्भ से सैद्धांतिक एवं प्रयोगात्मक ज्ञान प्राप्त करना।
5. बच्चों की शिक्षा के संदर्भ से सैद्धांतिक एवं प्रयोगात्मक ज्ञान प्राप्त करना।
6. औपचारिक एवं अनौपचारिक स्थितियों मे सीखने के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समझना।
7. क्रियात्मक अनुसंधान करना।
8. बच्चों के व्यक्तित्व को बनाने मे एवं घर-स्कूल मे उचित संबंधों को विकसित करने मे स्कूल सम-आयु समूह एवं समुदाय मे भूमिका को समझना।
9. परिवर्तनशील समाज मे स्कूल एवं शिक्षक की भूमिका को समझना।
माध्यमिक स्तर पर अध्यापक शिक्षा के उद्देश्य
आधार
1. इस समय बच्चा किशोरावस्था के स्तर पर होता है एवं उसकी अपनी विशिष्ट समस्यायें होती है।
2. संपूर्ण विकास।
3. इस स्तर पर बच्चे की रूचि विभिन्न स्थितियों के प्रति हो जाती है।
4. किशोरावस्था की पूर्णता के पश्चात बालक व्यवसाय चुनने के लिए तथा अपने उचित स्तर को प्राप्त करने के लिये तैयार हो जाता है।
5. बच्चे का धर्म, समाज, राजनीति, देश तथा कार्य के लिये रूचि प्रदर्शित होने लगती है।
उद्देश्य
1. नवीन स्कूल पाठ्यक्रमों के संदर्भ में शिक्षण एवं सीखने के मानवीय सिद्धांतों के अनुसार अपने विशिष्ट क्षेत्र के विषय को पढ़ाने की क्षमता रखना।
अन्तिम व्यवहार
(अ) अपने अनुशासन के विषय मे गहन ज्ञान।
(ब) मानक के परोक्ष मे आदर्श एवं सिद्धांत द्वारा लेख की बाहरी व आन्तरिक गुणवत्ता को बनाना।
(स) लेखक द्वारा की गई कमियों, त्रुटियों को इंगित करना।
(द) इन कमियों को दूर करने का सुझाव देना।
(य) उन विधियों को जानना जिससे कि किशोर सीखता है।
(र) कार्य एवं अनुभव के सिद्धांत को समझना।
(ल) 10+2 के कारणों की प्रशंसा करना, पढ़ाने का कौशल रखना।
2. समझदारी, कौशल, रूचि एवं दृष्टिकोण विकसित करना, जो कि उसे इस योग्य बना सके जिससे कि वह बालक के पूर्ण विकास की रक्षा कर सकें।
अन्तिम व्यवहार
(अ) व्यक्तित्व के संपूर्ण सिद्धांत को समझना।
(ब) विभिन्न तकनीकियों को जानना, जिसके द्वारा संपूर्ण व्यक्तित्व विकसित हो जाये।
(स) बच्चों को अपने संपूर्ण व्यक्तित्व को विकसित करने के योग्य बनाने के महत्व का ज्ञान कर सकें।
(द) अपने मनोवैज्ञानिक की औपचारिक एवं अनौपचारिक स्थितियों में प्रदर्शित करना।
(क) बच्चे मे उचित शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक एवं सामाजिक विकास के प्रति धनात्मक एवं गर्म दृष्टिकोण दिखाना।
(ख) बच्चे के विकास मे जो कि निम्न बातों को इंगित करना ही, उसमें रूचि दिखाना--
(A) आन्तरिक एवं बाहरी अध्ययन जो किशोरावस्था के विकास की समस्याओं एवं आवश्यकताओं से संबंधित हो,
(B) सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रम की व्यवस्था,
(C) किशोरों के साथ गोष्ठियाँ।
3. किशोरावस्था के स्वास्थ्य, शारीरिक, शिक्षा कार्यक्रम, कार्य अनुभव एवं क्रियात्मक गतिविधियों के विषय मे सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक ज्ञान रखना।
अन्तिम व्यवहार
(अ) इस सभी के स्त्रोतों को जानना-संस्था, घर-पड़ौस एवं संस्था की स्थानीय व्यवस्था जो स्वास्थ्य को प्रभावित करें।
(ब) प्रक्रिया की विभिन्न संरचनाओं को जानना।
(स) प्रक्रिया के कारणों की कमियों को जानना।
(द) खेल की भूमिका को जानना एवं उन गतिविधियों को जानना, जो कि किशोरों के स्वास्थ्य को इस योग्य बना सकें कि वे उन कारणों को समाप्त कर सकें जो स्वास्थ्य को बिगाड़ते हैं।
(क) उन्हें इस योग्य बनाना कि वे प्राकृतिक शारीरिक कमियों को जान सकें तथा किस प्रकार के सुधार की आवश्यकता है यह वे जान सकें।
(ख) पूर्व प्रथामिक चिकित्सा का ज्ञान हो।
4.अपने विशिष्ट विषय के प्रति चयन, नवीन खोज एवं सीखने के अनुभवों को विकसित कर सकें।
अन्तिम व्यवहार
(अ) सीखने के सिद्धांतों को जानना।
(ब) निम्नलिखित कारणों द्वारा सीखने के अनुभव को पहचानना--
1. सीखने की विषयवस्तु के पदों का विश्लेषण करना।
2. शिक्षण इकाई से विशिष्ट उद्देश्यों को विकसित करना।
3. प्रत्येक उद्देश्य के इकाई को व्यवहार के विशिष्टीकृत करना।
4. विशिष्ट व्यवहार को विकसित करने वाली क्रियाओं को विकसित करना।
(स) विभिन्न अनुभवों द्वारा सीखने के अनुभवों का प्रयोग करना।
(द) अनुसंधान के संदर्भ में सीखने के अनुभवों को प्रस्तुत करना।
(क) उनको उस परिस्थिति में रखना जिससे कि उनमें अपने आप प्रत्यक्षीकरण करने, अपने अहम को जगाने तथा अपनी आकांक्षा, महत्वाकांक्षा के स्तर को जागरूक एवं ऊपर उठा सकें।
5. विकास के मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों, व्यक्तिगत भिन्नता एवं समानता एवं सर्जनात्मक, कौशलात्मक, भावात्मक, सीखने के प्रति ज्ञान को विकसित करना।
अन्तिम व्यवहार
(अ) विकास के सिद्धांतों को समझना।
(ब) शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, भावात्मक विकास के सिद्धांतों को जानना।
(स) विशिष्ट-सीखने के आउट-पुट (प्रदा) मे प्रत्येक योग्यता को बताना।
(द) योग्यात्मक, मनोवैज्ञानिक योग्यताओं संबंधी व्यवहार को जानना।
6. शैक्षिक एवं व्यावसायिक विषयों के साथ-साथ शैक्षिक एवं शारीरिक व्यक्तिगत समस्याओं के प्रति परामर्श एवं निर्देशन देने के कौशल को विकसित करना।
अन्तिम व्यवहार
(अ) निर्देशन एवं परामर्श के सिद्धांतों को जानना।
(ब) निर्देशन एवं परामर्श के मध्य अंतर को स्पष्ट करना।
(स) बच्चों की बुद्धि से संबंधित शैक्षिक प्राप्तिकरण से संबंधित समस्याओं में निर्देशन एवं परामर्श की विधियों का प्रयोग करना।
(द) निर्देशन की व्यवस्था करना।
(क) संस्था, व्यक्तिगत, समुदाय, विशिष्ट एवं व्यक्तिगत आंकलन में सहयोग उत्पन्न करना।
(ख) बच्चे के व्यक्तिगत विकास में स्कूल, घर, समुदाय की भूमिका को जानना तथा स्कूल एवं घर से संबंध विकसित करना।
(ग) क्रियात्मक अनुसंधान/प्रयोगात्मक अनुसंधान, रिसर्च प्रोजेक्टों को अपने-अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए जानना तथा बच्चों को अपनी क्षमताओं को विकसित करने के योग्य बनाना।
विद्यालय स्तर पर अध्यापक शिक्षा के उद्देश्य
अध्यापक प्रशिक्षण के निम्नलिखित उद्देश्य है--
1. विद्यार्थी इस स्तर पर एक संक्रमण स्थिति मे होते है जिसमें वह किशोरावस्था से युवावस्था की ओर बढ़ता है।
2. विद्यार्थी व्यावसायिक एवं सामाजिक समायोजन के द्वारा अपने आप जीवन-यापन करने के लिए तैयार होते हैं।
3. विद्यार्थी धीरे-धीरे कठिन एवं स्थिर क्षमताओं की ओर बढ़ता है तथा उसकी आदतें बन जाती है और कार्य करने का तरिका एवं व्यक्तित्व मे परिवर्तन आता है।
4. विद्यार्थी अमूर्त ज्ञान, तार्किक ज्ञान, सिद्धांत निर्माण करने के योग्य हो जाता है।
उद्देश्य
1. विद्यालय के लिये भावी अध्यापकों को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान, नवीन प्रवृत्तियों से परिचित एवं उचित विधियों द्वारा पढ़ाने की क्षमता होनी चाहिए।
2. साधारण एवं उच्च स्तरीय शिक्षा के उद्देश्यों को विकसित कर उसे प्रजातंत्रीय, एकाकी एवं समाजशास्त्रीय समाज के प्रति जागरूक बनाना चाहिए।
अन्तिम व्यवहार
(अ) शिक्षा के दार्शनिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का ज्ञान।
(ब) शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्यों को पहचानना।
(स) साधारण एवं उच्च शिक्षा के उद्देश्य को जानना।
(द) उच्च शिक्षा के साधारण एवं विशिष्ट उद्देश्यों को जानना।
(क) व्यक्ति के एकाकी प्रजातंत्रीय समाजशास्त्रीय समाज से जुड़े व्यावसायिक गतिविधियों को जानना।
(ख) प्रजातंत्रीय समाज के निर्माण में सहायक गतिविधियों को जानना।
3. अपने विशिष्ट विषय को पढ़ाने के लिये कौशलात्मक एवं ज्ञानात्मक कौशल को विकसित करना।
4. अपने विशिष्ट विषय के शिक्षण मे शिक्षा तकनीकी के प्रयोग करने के कौशल को विकसित करना।
अन्तिम व्यवहार
(अ) शिक्षा तकनीकी के सिद्धांतों को जानना।
(ब) शैक्षिक एवं नेदेशनात्मक तकनीकी की भूमिका की प्रशंसा करना।
(स) सीखने में सहायक शिक्षा तकनीकी की भूमिका की प्रशंसा करना।
(द) शैक्षिक पदों का विश्लेषण करना।
(य) सूक्ष्म पाठ्य योजना, अभिक्रमित अनुदेशन को बनाना तथा उन्हें कक्षा-कक्ष परिस्थितियों मे प्रयोग करना।
(र) विभिन्न विशिष्ट प्रारूप के अनुरूप शिक्षण की व्यवस्था करना।
5. किशोरावस्था को जीव-मनो-सामाजिक आवश्यकताओं को जानना और इन आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर उत्पन्न समस्याओं के प्रति जागरूक होना एवं इस प्रकार के कौशल को विकसित करना जो कि किशोरावस्था की शैक्षिक होना एवं व्यक्तिगत समस्याओं का समाधाध करने में सहायता प्रदान करें।
अन्तिम व्यवहार
(अ) आवश्यकता के सिद्धांत को जानना।
(ब) आधारभूत आवश्यकताओं को जानना।
(स) उन प्रयासों के मध्य अंतर स्पष्ट करना, जो कि व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति न हो सकने के कारण उत्पन्न हुए हों।
(द) जैविक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं के मध्य अंतर स्पष्ट करना।
(क) किशोरों के लिये निर्देशन के महत्व को जानना।
(ख) निर्देशन एवं परामर्श पद्धित के क्रमिक पदों को जानना।
(ग) परीक्षण लेने, निर्देशन देने, उत्तर पुस्तिका के अंकन एवं उचित मूल्यांकन की पद्धित को जानना तथा इसके कौशल को विकसित करना।
(घ) जिसे आवश्यक हो उसे मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करना।
6. शोध प्रोजेक्ट, क्रियात्मक अनुसंधान, प्रयोगात्मक अनुसंधान को ऐसे क्षेत्र में करना, जो कि उनके व्यवहारों तथा कक्षा-कक्ष की समस्याओं से संबंधित हों।
7. परिवर्तन होते हुए समाज में अध्यापक एवं स्कूल की भूमिका का ज्ञान होना।
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