सेवारत अध्यापक शिक्षा
यह सत्य है कि व्यक्ति के ज्ञान मे दिन-प्रतिदिन तेजी से वृद्धि हो रही है। प्रत्येक दस बर्ष बाद व्यक्ति का ज्ञान दुगना हो जाता है। ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र मे नये-नये सिद्धांतों, नियमों, प्रवृत्तियों एवं विचारों का समावेश हो रहा है। एक बार प्राप्त ज्ञान कुछ दिनों बाद क्षीण एवं पुराना हो जाता है। हमारे अध्यापक-प्रशिक्षण की योजना का निर्माण शिक्षण व्यवसाय से संबंधित तथ्यों, सिद्धांतों, नियमों, प्रविधियों के लिये किया जाता है।
दूसरे शब्दों में, अध्यापक-प्रशिक्षण की योजना का उद्देश्य भावी अध्यापक को शिक्षण क्रिया से संबंधित सिद्धांतों, नियमों, तथ्यों एवं विधियों का ज्ञान एवं बोध कराने से है। भावी अध्यापक अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर के अपने व्यावसायिक जीवन में सीखे हुए ज्ञान का प्रयोग करते है। लेकिन अध्यापक-शिक्षा के भी दिन-प्रतिदिन विकास के कारण, समय बीतने के साथ-साथ उनका ज्ञान अध्यापक-शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन एवं निरपेक्ष होता जाता है। हम अपने समाज के मूल्यों एवं मानकों मे परिवर्तन को भी देख रहें है। तकनीकी का क्षेत्र भी दिन-प्रतिदिन विकसित हो रहा है। दूसरे, एक अध्यापक कम्प्यूटर की तरह कार्य नही कर सकता है, क्योंकि अध्यापक अपने प्रशिक्षण की अवधि में सीखे हुए ज्ञान को धीरे-धीरे भूल जाता है।
सेवारत अध्यापक शिक्षा की परिभाषा
सेवारत् अध्यापक-शिक्षा की परिभाषा विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न ढंगों से दी गयी है--
एम. बी. बुच के अनुसार," सेवारत् अध्यापक-शिक्षा एक क्रियाबद्ध योजना है, जिसका उद्देश्य अध्यापक के निरन्तर विकास से है, इसमें अध्यापक का स्वयं एवं शैक्षिक विकास किया जाता है।"
सेवारत् अध्यापक शिक्षा के प्रत्यय के द्वारा उन क्रियाओं या गुणों का विकास किया जाता है, जिसके द्वारा व्यावसायिक सदस्यों मे नयी चेतना, विकास, बोध एवं सहयोग की क्रियाओं का विकास होता है। अध्यापकों मे ऐसी भावना पैदा करना होता है, जिससे कि वे अपने प्रत्येक संभव सुधार एवं विकास कर सकें।
दूसरे शब्दों में," इस प्रत्यय में उन समस्त क्रियाओं एवं अनुभवों का समावेश होता है, जिसका कि अध्यापक प्रशिक्षण काल से सेवारत् अध्यापकों के लिये किया जाता है इन क्रियाओं एवं अनुभवों की योजना या व्यवस्था विभिन्न संस्थाओं द्वारा की जाती है, जो कि अध्यापक को उनके व्यवसाय के लिये परिपक्वता प्रदान करती है।
केन के अनुसार," वे समस्त क्रियायें एवं पाठ्यक्रम जिनका उद्देश्य सेवारत् अध्यापक के व्यावसायिक गुणों को स्थायी करना तथा उनमें इच्छा शक्ति एवं कौशलों का विकास करना होता है, अध्यापक शिक्षा के प्रत्यय में आता है।"
इन परिभाषाओं में अधोलिखित तथ्य सम्मिलित किये गये हैं--
1. व्यावसायिक ज्ञान प्राप्त करना,
2. कौशल का विकास करना,
3. व्यवसाय के प्रति अभिवृत्ति उत्पन्न करना,
4. व्यवसाय से संबंध रखना,
5. व्यावसायिक कौशल, (प्रशासकीय कौशल, प्रबन्धकीय कौशल, व्यवस्थापकीय कौशल, नेतृत्व कौशल आदि) को विकास करना।
6. शिक्षण व्यवसाय के प्रति अभिरूचि उत्पन्न करना।
7. पाठ्यक्रम ऐसा हो, जिसमें शिक्षण-विधियों को सम्मिलित किया हो, जो शोध कार्यों पर आधारित है, तथा
8. अन्य कार्य (सेमीनार, सेम्पोजियम, गोष्ठी, वार्तालाप आदि) की व्यवस्था करना है।
केन (1969) के विश्लेषण के आधार पर अध्यापक शिक्षा का मुख्य रूप से सेवारत् अध्यापकों के सतत् प्रशिक्षण से है। इसमें ऐसे पाठ्यक्रम को रखा जाता है, जिसकी वैधता एवं उपयोगिता का परीक्षण किया जा चुका होता है। इसकी व्यवस्था सेवारत् अध्यापकों के लिये की जाती है जिससे कि उनके व्यावसायिक गुणों में अनुभूति एवं अधिकतम उपलब्धि छात्र कर सकें।
सेवारत् अध्यापक प्रशिक्षण के उद्देश्य
सेवारत् अध्यापक-शिक्षा का नियोजन निःसंदेह एक अर्थपूर्ण सतत् विकास की प्रक्रिया है जिसके द्वारा अध्यापक के व्यवहारों में वांछित दिशा में परिवर्तन लाया जा सकता है--
सेवारत् अध्यापक शिक्षा के उद्देश्य इस प्रकार है--
1. शिक्षा की कार्य कुशलता को बढ़ाने के लिये नये-नये उद्दीपनों को प्रदान करना।
2. अध्यापकों को अपनी समस्याओं के प्रति जानकारी प्रदान करना तथा उनको हल करने के लिये उनके ज्ञान एवं बोध का उपयोग करने मे सहायता प्रदान करना।
3. प्रभावशाली शिक्षण प्रविधियों के उपयोग मे सहायता प्रदान करना।
4. शिक्षा में हो रही शिक्षण प्रविधियों एवं आविष्कारों से सेवारत अध्यापक को अवगत कराना।
5. अध्यापक के मानसिक दृष्टिकोण मे विस्तार करना।
6. सेवारत अध्यापकों को मूल्यांकन प्रविधायों एवं पाठ्यक्रम के विषय में जानकारी प्रदान करना।
7. अध्यापकों का उनके व्यावसायिक गुणों में वृद्धि करना।
राष्ट्रीय शिक्षा शोध संगठन विभाग (यू. एस.ए.) की सेवारत् अध्यापकों के लिए योजना इस इस प्रकार है--
1. अध्यापकों की कमियों को दूर करना, जो उन्हें अच्छे अध्यापक बनने में बाधा उत्पन्न करती है।
2. नये अध्यापक जो कि प्रथम बार कक्षागत कठिनाइयों का अनुभव कर रहे हैं, उनके निर्वाण में सहायता प्रदान करना।
3. सेवारत् अध्यापकों में सतत् प्रशिक्षण एवं ज्ञान की वृद्धि करना।
'जेकसन' का अपना तर्क है कि इस संगठन का नियोजन सेवारत् अध्यापकों की कमियों को दूर करने का प्रयास नही होना चाहिए। अपितु अध्यापक के व्यावसायिक गुणों में विकास करना होना चाहिए।
'भारतीय अध्यापक-शिक्षा समिति' इस समिति ने अध्यापक-शिक्षा सेवा के नियोजन के निम्न उद्देश्य बतलाये हैं--
1. अध्यापक प्राध्यापक को, प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम को अत्याधुनिक बनाने में सहायता प्रदान करना। संस्था को नेतृत्व प्रदान करना तथा उनका विकास करना।
2. प्राध्यापकों के ज्ञान में नये अनुसंधानों एवं क्रियाओं के द्वारा वृद्धि करना, जिससे कि उनका ज्ञान नवीनतम बना रहे।
3. सेवारत अध्यापकों को स्वाध्याय एवं स्वतंत्र चिन्तन के लिए प्रेरित करना।
4. नयी शिक्षण प्रविधियों की खोज एवं विश्लेषण में सहायता-प्रदान करना, जिससे कि नये-नये दृष्टिकोण का विकास हो सके।
5. अध्यापकों को व्यर्थ की विधियों को छोड़ देने तथा नयी प्रविधियों के उपयोग के लिये उत्साहित करना।
6. सहयोग की भावना का विकास करना तथा ऐसा वातावरण तैयार करना जिससे उनको अपने विषय क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रोत्साहन मिले।
7. राष्ट्र के विकास के लिए सेवारत् अध्यापकों में धनात्मक दृष्टिकोण पैदा करना तथा उनकी योग्यता स्तर में वृद्धि करना।
सेवारत अध्यापक प्रशिक्षण का महत्व
यद्यपि इन विवरणों मे यह निहित है कि सेवारत अध्यापक के लिये शिक्षा की क्या उपदेयता है? लेकिन यहाँ पर उन कारणों को बताना सार्थक है जिनके कारण अध्यापक-शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। विद्वान इसके विभिन्न पक्षों पर बल देते हैं--
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1949)
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने अध्यापक शिक्षा का महत्व इन शब्दों में व्यक्त किया है," यह असाधारण बात है कि विद्यालय का अध्यापक जो शिक्षा 25 वर्ष की आयु तक सीखता है, उसी के आधार पर अध्यापन करता रहता है और अपने अनुभवों के अतिरिक्त किसी नवीन ज्ञान को नही प्राप्त कर पाता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि अध्यापक को नवीन ज्ञान के समय-समय पर अवगत कराता रहना चाहिए तभी वह अपने व्यवसाय के प्रति पूर्णतः कर्तव्य निर्वाह कर सकता है।"
"I extraordinary that school teachers learn all of whatevee subject they teacher befor reaching the age of 24 or 25 and then aal their futrher education is left to experiences which is another name for stagnation, We must realize that experiment before reaching its fullness and the teacher to keep alive and fresh become a learner from time to time".
माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952 ने अध्यापक शिक्षा के प्रत्यय को विशेष महत्व दिया और इसकी आवश्यकता के सुझाव निम्न शब्दों में व्यक्त किये हैं--
"अध्यापक प्रशिक्षण संस्थायें कितने ही श्रेष्ठतम नियोजन करें, लेकिन वे श्रेष्ठतम अध्यापक पैदा करने मे असमर्थ होती हैं। वे केवल अध्यापकों के अंदर उन गुणों, कौशलों एवं अभिवृत्तियों का समावेश कर सकती हैं, जिनसे कि वे अपने कार्य संचालन अच्छे ढंग एवं विश्वास से कर सकें और उनके अन्तर्गत अधिकतम अनुभव समाहित हो सकें।"
"However excellent the programme of teacher traning may be, it does not by itself produce an excellent teacher. Can only eager the knowledge skills and attitudes which will unable the teacher to begin his task with reasonable degree of confidence and with the minimum amount of experience".
जे. पी. लियोनार्ड ने अपने अनुच्छेद 'सीखना जीवनपर्यंत होता है' जिसका उदाहरण आई. जे. पटेल, एम. बी. बुच एवं एम. एन. पालसर ने अपनी पुस्तक 'रीडिंग इन सर्विस एजुकेशन मे किया है। उसके अनुसार सेवारत् अध्यापक शिक्षा के निम्नलिखित आधार बतायें हैं--
1. शिक्षा एक जीवनपर्यंत चलने वारी प्रक्रिया है, और औपचारिक प्रशिक्षण संस्थायें ही केवल व्यावसायिक सेवा के लिए अध्यापकों को तैयार नही कर सकती है।
2. शिक्षण के क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन नये-नये अनुसंधानों की सहायता नये-नये विचारों का प्रादुर्भाव हो रहा है कि शिक्षार्थी को क्या और कैसे पढ़ाया जाये?
3. प्रत्येक व्यक्ति की यह प्रवृत्ति होती है कि वह अपने पूर्व व्यवहारों को दोहराता है। उसकी तरह अध्यापक भी अपने उसी ढंग से पढ़ाना चाहता है, जैसे कि वह पहले पढ़ाता रहा है।
4. भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विशेष रूप से गाँवों में या छोटे कस्बों में पुस्तकों का अभाव रहता है। शोध-निर्देशों एवं सफल अनुभवों या अनुदेशों का सदा अभाव रहता है, जिसको सहायता से अध्यापक अपने व्यवसाय में दक्ष हो सकते हैं।
जबकि जे.ई. ग्रीन ने अपनी पुस्तक 'स्कूल पर्सनल एडमिनिस्ट्रेशन' में विभिन्न कारणों का उल्लेख किया है, जिनके कारण कि सेवारत अध्यापक-शिक्षा की आवश्यकता का पता लगता है, ये निम्नलिखित पर आधारित हैं--
1. ज्ञान के क्षेत्र में पुन:अर्थापन की प्रवृत्ति का विकास तीव्र गति से हो रहा है जिससे कि अध्यापक प्रशिक्षण के समय दी गयी शिक्षा की निरपेक्षता का मूल्यांकन किया जा सके।
2. देश में अयोग्य एवं असाधारण अध्यापकों की एक बड़ी संख्या है जिनका लाभ देश एवं समाज को नही हो पा रहा है।
3. बहुत-सी ऐसी शिक्षण प्रविधियों का विकास हो रहा है, जिसका उपयोग पुराने अध्यापक नही कर पा रहे है।
4. विद्यालयी शिक्षण में नये एवं उपयोगी अनुदेशन माध्यमों की खोज की जा रही है। भाषा, प्रयोगशाला, शिक्षण मे मशीन, कम्प्यूटर और दूरदर्शन का उपयोग नये ढंग से शिक्षण एवं अधिगम के लिये हो रहा है।
5. शोध द्वारा शिक्षण की प्रकृति मे नयी चेतना का विकास किया जा रहा है, जिससे कक्षागत शिक्षण की व्यवस्था में सुधार हो रहा है।
6. दिन-प्रतिदिन अध्यापक को शिक्षार्थी की अनेक समस्याओं को हल करना पड़ता है।
7. सामाजिक वातावरण, मूल्यों, मानकों आदि में परिवर्तन के कारण अध्यापक को नवीन विधियों एवं युक्तियों का प्रयोग करना होता है। इससे मूल्यांकन की प्रविधि में भी परिवर्तन होता है।
8. अध्यापक को विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह करना होता है, जिसके लिए विभिन्न प्रकार के ज्ञान, अभिवृत्ति एवं कौशल की आवश्यकता होती है।
9. कुछ समय बाद सामान्यतः अध्यापक यह भूल जाता है कि उनकी व्यवसाय आरंभ करने से पहले क्या ज्ञान दिया गया था?
10. अध्यापक के नैतिक मूल्यों एवं व्यवहारों मे भी गिरावट होती है।
सेवारत अध्यापक प्रशिक्षण की आवश्यकता
निम्नलिखित छः सामान्य बिन्दुओं द्वारा सेवारत् अध्यापक शिक्षा की आवश्यकता स्पष्ट कि जा सकती है--
1. अध्यापकों के व्यावसायिक जीवन मे प्रशिक्षण की व्यवस्था का नियोजन योजनाबद्ध एवं क्रमिक रूप से किया जाता है।
2. शैक्षिक विस्तार के द्वारा अध्यापकों की गुणवत्ता मे विकास करना।
3. अध्यापकों की सेवापूर्ण प्रशिक्षण के द्वारा दी गयी शिक्षा उनके व्यावसायिक जीवन में उचित एवं पर्याप्त ढंग से प्रयोग नही हो पाती है।
4. मानवीय व्यवहारों में ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं, जिसमें नित्य नये-नये परिवर्तन हो रहे हैं, इसके लिये आवश्यक है कि शिक्षा निरन्तर उन परिवर्तनों से भली-भाँति परिचित होती रहे। इन नये आविष्कारों एवं सुधारों का शैक्षिक परिवेश मे उपयोग आवश्यक है। परिवर्तन के फलस्वरूप शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रमों, शिक्षण विधियों, अनुदेशन सामग्रियों के द्वारा शिक्षा प्रक्रिया को आवश्यक रूप से अत्याधुनिक एवं गतिशील बनाया जा सकता है। शिक्षा के विस्तार द्वारा सेवारत अध्यापकों एवं अन्य अध्यापकों को अनेक अपेक्षित व्यवहारों में परिवर्तन लाया जा सकता है।
5. शिक्ष्ज्ञा मे परिवर्तन करने के लिये, अन्य विषय क्षेत्रों मे हो रहे परिवर्तनों से सेवारत् अध्यापक के गुणों मे विकास एवं परिवर्तन करना चाहिए। इसके लिये अध्यापकों के कौशल, प्रवणता, अभिरूचियों में आवश्यक परिवर्तन करना चाहिए।
6. शिक्षा प्रसार के द्वारा यह प्रयास करना चाहिए कि जो शिक्षा परिवर्तन हो रहे हैं उनको विद्यालय के अध्यापकों को अवगत करना चाहिए जिससे वह नये परिवेश मे जो शैक्षिक समस्यायें आ रही हैं उन्हें भली प्रकार समझ कर उनका समाधान कर सकें। इस प्रकार की आवश्यकता का अनुभव अध्यापक व्यक्तिगत रूप में तथा सामूहिक रूप में करता है कि समस्याओं का स्वरूप भी बदलता जा रहा है। इसलिए इनके सामाधान हेतु नवीन युक्तियों की जानकारी होना आवश्यक हैं।
यह भी पढ़े; सेवारत अध्यापक शिक्षा की अवधारण, नियम, संस्थाएं, समस्याएं
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