9/06/2021

सेवारत अध्यापक शिक्षा की अवधारण, नियम, संस्थाएं, समस्याएं

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सेवारत अध्यापक शिक्षा की मूलभूत अवधारणायें 

सेवारत् अध्यापक शिक्षा का नियोजन कुछ निश्चित अवधारणाओं पर आधारित है। उनमे से कुछ मुख्य अवधारणायें इस प्रकार हैं-- 

1. सेवारत् अध्यापकों की शिक्षा उनके पूरे व्यावसायिक जीवन मे एक नियोजित ढंग से की जाये। 

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2. सेवारत् अध्यापक शिक्षा के द्वारा शिक्षा के विभिन्न पहलुओं में गुणात्मक विकास किया जा सकता है। 

3. सेवारत अध्यापक को दिया गया पूर्व प्रशिक्षण उनके व्यावसायिक जीवन में प्रभावशाली ढंग से अपने कार्य को संचालित करने के लिये पर्याप्त नही होता हैं। 

4. जीवन के अनेक क्षेत्रों नित्य प्रति मानवीय क्षेत्रों मे परिवर्तन हो रहा है, जिससे कि शिक्षा भी प्रभावित होती है। इससे यह आवश्यक है कि अध्यापक उन परिवर्तनों से भली भाँति अवगत होता रहे। 

5. शिक्षा में परिवर्तन लाने के लिये यह आवश्यक है कि अध्यापक अन्य संबंधित क्षेत्रों मे हो रहे परिवर्तन से अवगत होता रहे तथा इसके लिये यह आवश्यक है कि अध्यापकों की योगयता, ज्ञान, कौशल, अभिवृत्ति जो कि शिक्षा के लिये आवश्यक तत्व है, उनमें परिवर्तन लाया जाये तथा विकास किया जाये। 

6. शैक्षिक समस्याओं को हल करने के लिये यह आवश्यक है कि इस प्रकार की गोष्ठियों का आयोजन किया जाये, जिसका उपयोग प्रभावशील ढंग से हो सके।

7. यह शिक्षा के विकास के लिये एक आवश्यक तत्व है। 

सेवारत् अध्यापक शिक्षा के मूलभूत नियम 

यह आवश्यक है कि सेवारत अध्यापक शिक्षा के प्रत्यय के उन नियमों को समझा जाये, जो इस कार्यक्रम के नियोजन मे सहायता प्रदान करते है तथा उन नियमों, कार्यक्रमों तथा योजनाओं को समझा जाये, जिस पर कि इसकी सफलता आधारित होती है। कुछ नियमों का उल्लेख नीचे किया जा रहा है-- 

1. सेवारत् अध्यापक-शिक्षा एवं पूर्व सेवारत् अध्यापक-शिक्षा में अंतर पाया जाता है। 

2. सेवारत अध्यापक-शिक्षा एक प्रकार की प्रौढ़-शिक्षा है। 

इस प्रकार अधिगम के नियम, अभिप्रेरणा जो कि उनके व्यवहारों को परिवर्तित करते हैं, उन नियमों, सिद्धांतों का प्रयोग सेवारत् अध्यापकों के सफल व्यावसायिक जीवन के लिए किया जाता है। 

3. विशिष्ट उद्देश्यों का उपयोग सेवारत् अध्यापक-शिक्षा के लिये निर्देशन के रूप मे किया जा सकता है। इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए, शैक्षिक सामग्री मूल्यांकन प्रविधियों आदि इस कार्यक्रम को सफल बनाने मे सहायक होते हैं। 

4. सेवारत् अध्यापक-शिक्षा का कार्यक्रम शिक्षा जगत को तभी अत्याधुनिक बना सकता है जब यह स्वयं गतिशील रहे। 

सेवारत् अध्यापक शिक्षा की संरचना और प्रतिमान 

विभिन्न अनुसंधानों एवं सिफारिशों के परिणामस्वरूप सेवारत् अध्यापक-शिक्षा के विभिन्न प्रतिमान प्रयोग में आये। वे इस प्रकार है-- 

1. अभिविन्यास पाठ्यक्रम

2. अवकास कालीन पाठ्यक्रम 

3. अन्तराल पाठ्यक्रम 

4. पुनश्चर्या पाठ्यक्रम 

5. पत्राचार पाठ्यक्रम 

6. संध्या कालीन पाठ्यक्रम 

7. प्रयोजित पाठ्यक्रम 

8. कार्यशाला 

9. गोष्ठियाँ एवं सिम्पोजियम 

10. शैक्षिक सम्मेलन 

11. विशेषज्ञों का आदान-प्रदान 

12. प्रसार केन्द्र 

13. अल्पकालीन-पाठ्यक्रम 

14. प्रकाशन विभाग 

15. व्यावसायिक लेखन 

16. अप्रत्यक्ष लेखन 

17. प्रयोग करना 

18. वैज्ञानिक गोष्ठी आदि। 

सेवारत् शिक्षा की संस्थाएं एवं सेवारत् अध्यापक हेतु साधन 

विभिन्न प्रकार के सेवारत अध्यापक-शिक्षा की संस्थाएं निम्नलिखित है-- 

1. राज्य संस्थाएं 

इस प्रकार की संस्थाओं की स्थापना सेवारत् अध्यापक की शिक्षा के लिये एवं अध्यापक, प्राध्यापकों के लिए विभिन्न राज्यों में की गयी। इन संस्थाओं में पक्षों (पाठ्यक्रम, विधियों, प्रविधियों) पर शोध कार्यों का आयोजन किया जाता है। विभिन्न प्रकार की कार्यशालाओं, गोष्ठियों, पाठ्यक्रमों एवं वाद-विवाद का आयोजन किया जाता है। 

2. राज्य की विज्ञान संस्थाएं 

इस प्रकार की संस्थाओं में प्राथमिक एवं माध्यमिक दोनों स्तरों पर विज्ञान शिक्षा के गुणात्मक विकास पर विशेष बल दिया जाता है। 

3. अंग्रेजी शिक्षा की राज्य संस्थाएं 

देश के विभिन्न राज्यों मे बारह संस्थायें है, जिसमें अंग्रेजी शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता है। केन्द्रीय अंग्रजी शिक्षा संस्थान हैदराबाद में है। चण्डीगढ़ का क्षेत्रीय अंग्रेजी शिक्षा संस्थान पंजाब, हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेश में सेवा प्रदान करता है। सेवारत अध्यापकों के लिये चार माह का प्रशिक्षण अंग्रेजी शिक्षण की प्रविधियों को सीखने के लिये दिया जाता है। 

4. विस्तार सेवा विभाग 

देश के 104 महाविद्यालयों मे पूर्ण रून से प्रसार-सेवा केन्द्र खोले गये हैं। इन विभागों के खुलने का उद्देश्य अध्यापक-शिक्षा का पुनःनवीनीकरण करना होता है। गोष्ठियाँ वाद-विवाद आदि के द्वारा नये विषयों की शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों मे सुधार किया जाता है। 

5. अध्यापकों के लिए पत्राचार पाठ्यक्रम 

दिल्ली केन्द्रीय शिक्षा संस्थान द्वारा सर्वप्रथम अप्रशिक्षित अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था पत्राचार पाठ्यक्रम द्वारा की गयी। इसी प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन क्षेत्रीय शिक्षा विद्यालयों मे भी शुरू किये। सबसे नवीनतम विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश का है, जिसमें बी. एड. एवं एम.ए.एड. के पत्राचार शुरू किया गया। सन् 1972 में विश्वविद्यालय ने एम.ए. के पाठ्यक्रम पर रोक लगा दी तथा बी.एड. के पाठ्यक्रम को यथावत् जारी रखा। 

6. एम. एड. का संध्याकालीन पाठ्यक्रम 

कुछ स्थानों पर सेवारत् अध्यापकों के लाभ के लिये संध्याकालीन पाठ्यक्रमों का आयोजन किया गया। केन्द्रीय शिक्षा संस्थान दिल्ली ने एम.एड. को दो वर्षीय पाठ्यक्रम आरंभ किया। पंजाब विश्वविद्यालय एवं पंजाबी विश्वविद्यालय ने इस प्रकार की सेवा क्रमशः पटियाला और चण्डीगढ़ में शुरू की, लेकिन इस प्रकार के पाठ्यक्रम का समय एक बर्ष रखा रखा।

7. अध्यापकों के लिये अवकाशकालीन संस्थाएं 

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं अवकाशकालीन विश्वविद्यालय के सहयोग से विशेष रूप से विज्ञान में देश के विभिन्न भागों मे गर्मी के अवकाश में सेवारत् अध्यापकों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है, क्योंकि ऐसी संस्थाओं की समय सीमा छः सप्ताह तक होती है, इससे वे इस कार्यक्रम मे अधिक समय लेते हैं, जिससे कि उनको नया विषय का ज्ञान दिया जाये। 

8. गोष्ठियाँ 

सामान्य गोष्ठियों का कार्यक्रम एक सप्ताह से छः सप्ताह तक होता है। इस प्रकार गोष्ठियों की सेवारत् अध्यापकों के प्रशिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 

9. पुनश्चर्या पाठ्यक्रम 

नये पाठ्यक्रमों की सहायता से अध्यापकों के मध्य नये विचारों को समाहित करते हैं। शिक्षा आयोग ने सुझाव दिया कि प्रत्येक शिक्षा को पाँच वर्ष बाद तीन माह के लिए जरूरी रूप से इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए। इस क्षेत्र मे क्षेत्रीय शिक्षा विद्यालय ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारतीय संघ के अध्यापक संगठन (1957) एवं महत्वपूर्ण कार्यक्रम का आयोजन किया। 

10. व्यावसायिक साहित्य 

सेवारत् अध्यापक-शिक्षा का विकास छोटी-छोटी किताबों एवं पत्रिकाओं की सहायता से किया जा रहा है। इस प्रकार की शिक्षण संस्थाओं का प्रकाशन राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान, भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय, राज्य शिक्षा के विभिन्न विभागों एवं अन्य संस्थाओं के द्वारा किया जा रहा है। 

11. अल्पकालीन पाठ्यक्रम 

सेवारत् अध्यापकों को अल्पकालीन पाठ्यक्रमों की सहायता से शिक्षा दी जाती है। 

12. अन्तराल पाठ्यक्रम 

दूरवर्ती शिक्षा की सहायता से भी सेवारत् अध्यापकों को शिक्षा दी जाती है। 

13. कार्यशालाओं का आयोजन 

सेवारत् अध्यापकों की शिक्षा का आयोजन विभिन्न कार्यशालाओं के माध्यम से किया जाता है। 

उपरोक्त वर्णित सभी संसाधनों के अलावा भी कुछ साधन इस प्रकार है, जो कि सेवारत् अध्यापक की शिक्षा मे सहायता प्रदान करते है। ये निम्न प्रकार है-- 

1. राष्ट्रीय प्रशिक्षण एवं शिक्षा अनुसंधान परिषद् ,

2. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग,

3. शिक्षा के विश्वविद्यालय विभाग, 

4. क्षेत्रीय शिक्षा के विद्यालय, 

5. अध्यापकों के व्यावसायिक संस्थान तथा 

6. विद्यालयों के समूह। 

सेवारत शिक्षा से संबंधित समस्याएं 

वर्तमान समय मे सेवारत् अध्यापक-शिक्षा का कार्यक्रम अधिक दोषों से भर पूर रहा है। यह सफलतापूर्वक कार्यक्रम का नियोजन नही कर पा रहा है। सेवारत् अध्यापक-शिक्षा की निम्न प्रकार की समस्याएं हैं-- 

1. उद्दीपकों की कमी होना, 

2. प्रेरणा की कमी होना, 

3. इच्छाशक्ति की कमी होना, 

4. अनुपयुक्त विधियों एवं प्रविधियों का प्रयोग किया जाना, 

5. अनुपयुक्त पाठ्यक्रम होना, 

6. अपर्याप्त सुविधा या समस्या को सोत के अध्ययन का अभाव होना, 

8. अध्यापकों को अपर्याप्त प्रशिक्षण होना, 

9. प्रशासकीय समस्यायें होना, 

10. संस्थागत समस्याएं होना, 

11. उद्देश्यों के विशिष्टीकरण की कमी होना, 

12. अनुवर्ती कार्यक्रमों की कमी होना, तथा 

14. सेवारत् अध्यापक-शिक्षा एवं संस्था के संबंधों में आवश्यक कमी होना।

सेवारत् अध्यापक शिक्षा के विकास के लिये सुझाव  

सेवारत अध्यापक-शिक्षा के लिये शिक्षा आयोग ने बड़े स्तर पर अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाओं एवं सहयोगी कार्यक्रम की आवश्यकता पर बल दिया है। इस योजना को चालू रखने के लिये भारतीय परिवेश में अनेक प्रकार की समस्यायें हैं। इस समस्या का निराकरण एक लम्बे समय में ही किया जा सकता है। निम्नलिखित संवेदनशील प्रयास ही इस समस्या को सुलझाने का काम दीर्घकाल में कर सकते हैं-- 

1. सतत् अध्यापक-शिक्षा की व्यवस्था विश्वविद्यालय द्वारा प्रत्येक स्तर पर की जानी चाहिए। विश्वविद्यालय के सहयोग से संस्था से पूर्व की शिक्षा एवं संघ से पूर्व की शिक्षा लम्बे पैमाने पर नियोजित की जानी चाहिए। 

2. अपने साधनों की कमियों को ध्यान में रखते हुए अध्यापकों के लिए प्रारंभिक अवस्था से ही प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए। प्रशिक्षण की अवधि निरंतर तीन माह के लिए प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद होना चाहिए। यह कार्य उनके सेवाकाल में ही होना चाहिए।

3. राष्ट्रीय स्तर पर एक मूलभूत नीति का प्रयोग करके प्रत्येक सेवारत् अध्यापकों के व्यावसायिक गुणों में वृद्धि की जा सकती है। भारत मे विगत दिनों मे प्राथमिक स्तर के अध्यापकों को उनके व्यावसायिक गुणों के विकास के लिये इस प्रकार की सुविधा नही थी, लेकिन उनके लिये मूर्त रूप मे कुछ न कुछ किया जा सकता है।

4. राष्ट्रीय प्रशिक्षण एवं शिक्षा अनुसंधान परिषद् ने प्रत्येक राज्य को कुछ वैधानिक सुझाव दिये जिसके द्वारा सतत् शिक्षा के लिए तीन श्रेणियों में व्यवस्था की जानी चाहिए। प्रथम श्रेणी में अध्यापकों की शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। द्वितीय श्रेणी में माध्यमिक अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए तथा तृतीय एवं अन्तिम श्रेणी में प्रधानाध्यापकों की शिक्षा की व्यवस्था कुछ विशेषज्ञों के द्वारा की जानी चाहिए। प्रथम श्रेणी मे रखे गए प्राथमिक अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था द्वितीय एवं तृतीय श्रेणी में रखे गए शिक्षणार्थी द्वारा होनी चाहिए।

5. विभिन्न वर्गों से संबंधित अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था का स्वरूप भिन्न होना चाहिए। सतत् शिक्षा का कार्यक्रम इन सबके लिए परिवर्तित होना चाहिए।

6. सतत् शिक्षा का नियोजन एक व्यापक रूप मे होना चाहिए जिसका आधार विद्यालय की आवश्यकता, अध्यापकों की आवश्यकता, निकटतम भविष्य में सम्भावित विकास होना चाहिए। व्यवस्थापक को सच्चे-अर्थों में अपने प्रयास करने चाहिए तथा भाग ले रहे अध्यापकों में धीरे-धीरे सुधार एवं विकास की प्रक्रिया को संचालित करना चाहिए। 

7. सतत् शिक्षा में गहराई से चिन्तन करने एवं विचारों को व्यावहारिक करने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। 

वर्तमान समय मे यह प्रत्यय अपने अस्तित्व (प्रौढ़ अध्यापक-शिक्षा, विस्तार शिक्षा एवं सतत् शिक्षा के मिश्रण) में विलीन कर दिया है। सतत् शिक्षा के एक आत्म-निर्भर केंद्र को खोलने का प्रयास हो रहा हैं।

8. पूर्व सेवारत् अध्यापक एवं सेवारत अध्यापक के मध्य एक संबंध भी स्थापित होना चाहिए। उनके मध्य किसी भी प्रकार की विभिन्नता नही रखनी चाहिए। 

9. सतत् अध्यापक-शिक्षा सेवा की सफलता विशेषज्ञों की योग्यता एवं गुणवत्ता पर निर्भर होती है। अध्यापकों में व्यावसायिक ज्ञान की वृद्धि के लिए उनको अनेक प्रकार के उद्दीपकों एवं अवसरों को प्रदान करना चाहिए। 

10. अध्यापकों को इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए एक नीति तैयार की जा सकती है, जिससे कि उनके अंदर बुनियादी प्रेरणा एवं उद्दीपक के द्वारा उनको प्रेरित किया जा सकता है। आन्तरिक उद्दीपकों में पुरस्कार, स्तर में विकास, लिखित प्रोत्साहन आदि आते है। 

11. इस प्रकार के आयोजनों का मूल्यांकन दो स्तर पर किया जा सकता है। प्रथम अवस्था वह है जबकि सतत् शिक्षा का नियोजन किया गया हो और दूसरी अवस्था वह है जबकि सेवारत् अध्यापक अपनी शिक्षण अवधि समाप्त करके वापस जा रहे हों। इन दोनों स्तरों पर शिक्षा का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। 

12. इस प्रकार के वातावरण को तैयार करने की आवश्यकता है जो कि इस प्रकार के कार्यक्रम के सहायक सिद्ध हो। सम्मिलित होने वाले अध्यापकों में इस प्रकार की भावना नही होनी चाहिए कि यह एक व्यर्थ क्रिया है। उनके अंदर इस प्रकार की भावना का विकास किया जाना चाहिए जिससे वे इस प्रत्यय के लिए सृजनात्मक एवं संवेदनात्मक चिन्तन कर सकें। 

13. सतत् शिक्षा के लिए धन, मानव शक्ति एवं समय की आवश्यकता होती है। इसलिए यह आवश्यक है कि सतत् शिक्षा हेतु प्राथमिकता का निर्धारण राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहिए, ऐसा करने पर सतत् शिक्षा का प्रभावी रूप में क्रियान्वयन संभव हो सकेगा। 

14. विस्तार सेवा आयोग को प्रशिक्षण महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों एवं अन्य शैक्षिक संस्थाओं से संबंधित कर दिया जाना चाहिए लेकिन वर्तमान समय मे इसकी स्थिति बड़ी दयनीय है। परिस्थिति को सामान्य करने के लिये सुझाव दिया जाता है कि विस्तार सेवा प्रशिक्षण महाविद्यालयों के मध्य अपना निजी अस्तित्व बनाये रखना चाहिए। इस प्रकार का संशोधन वास्तव में इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन में सहायता प्रदान करता है।

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