8/27/2021

माध्यमिक शिक्षा की समस्याएं, समाधान

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माध्यमिक शिक्षा क्या है? 

madhyamik shiksha ka arth samasya;कुछ लोगों का विचार है कि सिर्फ हायर सैकेण्डरी शिक्षा ही माध्यमिक (सैकेण्डरी) शिक्षा है। कुछ लोग हाईस्कूल की IX तथा X कक्षा को ही सैकेण्डरी शिक्षा समझते है, लेकिन यह गलत है। सैकेण्डरी शिक्षा प्राइमरी तथा हायर सैकेण्डरी शिक्षा की बीच मे दी जाने वाली शिक्षा है। अतः सैकेण्डरी शिक्षा में मिडिल, हाई या हायर-सैकेण्डरी कक्षाएं सम्मिलित हैं। 

पंजाब, हरियाणा तथा हिमालय प्रदेश मे स्कूल की पहली पाँच कक्षाओं को प्राइमरी शिक्षा मे गिना जाता है अतः हाईस्कूल की VI से लेकर X कक्षा तक और हायर-सैकेण्डरी स्कूल की XI से लेकर XII तक सैकेण्डरी शिक्षा मे सम्मिलित है। कुछ प्रान्तों मे विशेषकर बिहार, गुजरात तथा महाराष्ट्र में 7 सालों की प्राइमरी शिक्षा है। वहाँ मिडिल नही है वहाँ उनकी सैकेण्डरी शिक्षा नीति से पाँच वर्ष की हैं। 

माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) के अनुसार 

माध्यमिक शिक्षा आयोग शिक्षा के निम्न ढाँचे की सिफारिश करता है-- 

1. 4 या 5 वर्ष की प्राइणरी शिक्षा।

2. सैकेण्डरी शिक्षा के दो भाग होने चाहिए-- 

(अ) तीन वर्ष की मिडिल या जूनियर सैकेण्डरी या सीनियर बेसिक शिक्षा। 

(ब) चार वर्ष की हायर-सैकेण्डरी शिक्षा।

कोठारी आयोग द्वारा निर्धारित शिक्षा ढाँचा-- 

कोठरी आयोग (1964-66) ने शिक्षा के एक लचीले ढाँचे का सुझाव दिया है जिसकी विशेषताएं इस तरह है-- 

1. सात या आठ वर्ष की प्राइमरी अवस्था, जिसके दो भाग हों-- 

(अ) चार अथवा पाँच वर्ष की निम्न प्राइमरी अवस्था।

(ब) तीन वर्ष की हायर प्राइमरी अवस्था। 

2. सामान्य शिक्षा के लिये दो या तीन वर्ष की लोअर सैकेण्डरी अथवा हाईस्कूल शिक्षा।

3. सामान्य शिक्षा हेतु दो वर्ष की हायर सैकेण्डरी। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1992) के अनुसार-- 

राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत यह जरूरी है कि सारे देश मे एक ही तरह की शैक्षिक संरचना हो। 10+2+3 के ढाँचे को पूरे देश मे स्वीकार कर लिया गया है। इन वर्षों का विभाजन इस प्रकार है-- 

1. पाँच वर्ष की प्राइमरी शिक्षा।

2. तीन वर्ष की उच्च प्राइमरी शिक्षा।

3. दो वर्ष की हाईस्कूल शिक्षा। 

4. दो वर्ष की सीनियर सैकण्डरी स्कूल शिक्षा। 

निष्कर्ष 

उपरोक्त विचारों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि प्राइमरी तथा सैकेण्डरी शिक्षा के विस्तार का विभाजन इस तरह होना चाहिए-- 

1. आठ वर्ष की प्रारंभिक शिक्षा

(अ) पाँच वर्ष की प्राइमरी 

(ब) तीन वर्ष की उच्च प्राइमरी

2. चार वर्ष की सैकेण्डरी शिक्षा 

(अ) दो वर्ष की हाईस्कूल शिक्षा, 

(ब) दो वर्ष की सीनियर सैकेंडरी शिक्षा

माध्यमिक शिक्षा शैक्षिक संरचना की मध्यस्थ कड़ी है जिसके नीचे प्रारंभिक शिक्षा ऊपर विश्वविद्यालय शिक्षा होती है। माध्यमिक शिक्षा मे 14 से 18 वर्ष की आयु के बालक-बालिकायें शिक्षा प्राप्त करते है। इसके अंतर्गत कक्षा 9 से 12 तक की शिक्षा दी जाती है। कक्षा 9 तथा 10 को उच्च-माध्यमिक एवं कक्षा 11 व 12 को उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कहा जाता है।

सी. वी. गुड महोदय ने माध्यमिक शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि," माध्यमिक शिक्षा, शिक्षा का वह समय है जो सामान्यतः 12 से  17 आयु वर्ग के बालकों के लिये होता है।

माध्यमिक शिक्षा की समस्याएं एवं समाधान 

माध्यमिक शिक्षा की निम्नलिखित समस्याएं है-- 

1. समस्या उद्देश्यहीनता 

हमारी माध्यमिक शिक्षा की उद्देश्यहीनता एक स्वयं सिद्ध सत्य है। वस्तुतः इस शिक्षा का जो उद्देश्य, पराधीन भारत मे था, वही स्वाधीन भारत मे भी है। माध्यमिक शिक्षा ग्रहण करने वाले भारतीय छात्रों के सिर्फ दो उद्देश्य होते है-- उच्च शिक्षा की किसी मे प्रवेश पाना अथवा कोई छोटी-मोटी नौकरी प्राप्त करना। 

उपरोक्त दो उद्देश्यों मे से किसी एक की प्राप्ति के लिए विद्यार्थीगण अपने सुख एवं स्वास्थ्य की आहुति देकर पुस्तकों की विषय-सामग्री को कण्ठस्थ करने मे अपना समय व्यतीत करते है तथा उनके अभिभावक अपने सुख और धन व्यय न करके, उसे उनको दे देते है। लेकिन जिन विद्यार्थियों को अपने उद्देश्य की प्राप्ति मे असफलता मिलती है, वे तथा उनके अभिभावक दोनों भग्नाशा का शिकार बनकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते है।

समाधान- निश्चित उद्देश्य 

माध्यमिक शिक्षा को उपकारी तथा गुणकारी बनाने के लिए उसके उद्देश्यों को सतर्कता से निश्चित किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। उपयुक्त उद्देश्यों के अभाव मे उसका सफल तथा सार्थक होना असंभव है। यहां एक स्वाभाविक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य किस आधार पर निर्धारित किये जाने चाहिए? इस विषय मे डाॅ. एस. एन. मुकर्खी का परामर्श है," माध्यमिक शिक्षा स्वयं मे पूर्ण होनी चाहिए तथा उसे छात्रों को उच्च शिक्षा हेतु तैयार करना चाहिए। उसे कुछ छात्रों को जीवन मे प्रवेश करने के लिए तथा दूसरों की विश्वविद्यालय मे प्रवेश करने के लिए तैयार करना चाहिए। 

2. समस्या- छात्र अनुशासनहीनता 

वर्तमान माध्यमिक शिक्षा की एक नवीन जटिल समस्या देशव्यापी छात्र-अनुशासनहीनता की है। इसके लिए छात्रों पर दोषारोपण करना, उनके प्रति असीम अन्याय करना है। इसका कारण यह है कि अनुशासनहीनता के लिए छात्र नही, बल्कि कई शैक्षिक, आर्थिक तथा सामाजिक कारण उत्तरदायी है। इन कारणों मे सबसे ज्यादा गंभीर है-- अनुपयुक्त पाठ्यक्रम, दोषपूर्ण परीक्षा-प्रणाली, उद्देश्यहीन शिक्षा, सहशिक्षा का प्रचलन, जातीय पक्षपात, आर्थिक कठिनाइयाँ, सामाजिक मान्यताओं मे परिवर्तन छात्रों के प्रति अध्यापकों की उदासीनता, राजनीतिक दलों का छात्रों को प्रोत्साहन, कामोद्दीपक चलचित्र, अश्लील गीत इत्यादि। इन सब कारणों के फलस्वरूप छात्रों मे अनुशासनहीनता की इतनी तीव्र गति से वृद्धि हो रही है कि छात्र-वर्ग, समाज के भाल पर कलंक की कालिमा को प्रतिदिन अधिक ही अधिक गहरा करता चला जा रहा है। अगर इस समस्या का तुरंत समाधान नही किया गया तो वह असाध्य रोग बनकर हमारे देश के लिए दारूण दुःख का कारण बन सकती है। 

समाधान- कुछ सुझाव 

देश में सर्वत्र विद्यमान, छात्र अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान करने हेतु 6 उपायों का सुझाव दिया जा सकता है। पहला, माध्यमिक शिक्षा को दोषयुक्त करके, समयानुकूल बनाया जाये, ताकि वह वयस्क-जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके। दूसरा, छात्रों को अनुशासन का महत्व बताकर, उनके ह्रदय मे अनुशासन के प्रति प्रेम तथा श्रद्धा की भावना जाग्रत की जाये। तीसरा, छात्रों तथा शिक्षकों मे पारस्परिक प्रेम और आदर की भावना जाग्रत करके, उनमें मधुर संबंधों की स्थापना की जाये। चौथा, एक कानून बनाकर छात्रों को राजनीतिक आंदोलन मे भाग लेना दंडनीय अपराध घोषित कर दिया जाये। पाँचवीं, सरकार द्वारा कामुक गीतों तथा चलचित्रों पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया जाये। छठवाँ, हुमायूँ कबीर के अनुसार," विद्यालयों मे प्रदान की जाने वाली शिक्षा मे नैतिक सामग्री को समाविष्ट करने का प्रयास किया जाये।" 

3. समस्या-निर्देशन का अभाव 

भारत के कई माध्यमिक स्कूलों मे निर्देशन कार्यक्रमों का अभाव है। इन स्कूलों मे निर्देशन न सिर्फ छात्रों की दृष्टि से, बल्कि शिक्षकों तथा प्रधानाचार्यों की दृष्टि से भी आवश्यक है। छात्रों की दृष्टि से इसलिए जरूरी है, क्योंकी अपरिपक्व मस्तिष्क वाले होने के कारण वे अपनी क्षमताओं के अनुकूल पाठ्य-विषयों का चयन करने मे असमर्थ होते है। त्रुटिपूर्ण चयन का परिणाम होता है परीक्षा मे उनकी असफलता तथा असफलता-अपव्यय का कारण बनती है। जहाँ तक शिक्षकों तथा प्रधानाचार्यों का प्रश्न है, निर्देशन उनको अपने छात्रों की अभिरूचियों और मान्यताओं का ज्ञान प्रदान करता है, जिससे पैदा होकर वे उनकी शैक्षिक प्रगति मे ज्यादा योग दे सकते है। 

समाधान- निर्देशन की व्यवस्था 

'माध्यमिक शिक्षा आयोग' की सिफारिश के अनुसार भारत के 13 राज्यों मे निर्देशन-सेवाओं की व्यवस्था कर दी गई है, जिनसे लगभग 3,000 माध्यमिक स्कूलों के छात्र, शिक्षक तथा प्रधानाचार्य लाभान्वित हो रहे है। अतः हम कह सकते है कि अब तक छात्रों को निर्देशन प्रदान करने की दिशा मे जो कार्य किया गया है, वह सिर्फ नाममात्र के लिए है। आवश्यकता इस बात की है कि भारत के प्रत्येक हाईस्कूल तथा हायर सेकण्डरी स्कूल के छात्रों के लिए निर्देशन सेवाओं को सुलभ बनाया जाये।

4. समस्या- शिक्षण का निम्न स्तर 

वर्तमान माध्यमिक शिक्षा की एक विकट समस्या शिक्षण का निम्न स्तर है। पिछले कुछ वर्षों से माध्यमिक शिक्षा की संरचना को नवीन स्वरूप प्रदान करने हेतु उसका पुनर्गठन किया जा रहा है। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उसके उद्देश्यों पाठ्य-विधियों तथा कार्यक्रमों मे कई परिवर्तन किये गये है। परिणामतः आज के माध्यमिक स्कूल 10 या 10 वर्ष पहले के माध्यमिक स्कूल नही है, उनको नवीन कार्य तथा उत्तरदायित्व सौंपे गये है। उनकी सफलता मुख्यतः दो बातों पर निर्भर है-- उपयुक्त शिक्षण-विधियाँ एवं उत्साही शिक्षक।

जहाँ तक शिक्षण-विधियों का प्रश्न है, वे सर्वथा अनुपयुक्त है। इसका कारण यह है कि प्रचलित शिक्षण-विधियाँ सिर्फ कुछ सीमा तक छात्रों का मानसिक विकास करती है। वे निर्जीव नीरस तथा अमनोवैज्ञानिक होने के कारण न तो छात्रों के संपूर्ण व्यक्तित्व पर प्रतिक्रिया करती है एवं न उनके समस्त गुणों का विकास करने मे सहायता देती है। जहाँ तक उत्साही शिक्षकों का प्रश्न है, उनकी उपलब्धि की सुदूर भविष्य मे भी आशा नही है। इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए " माध्यमिक शिक्षा-आयोग" ने लिखा है," हमें इस बात से अत्यधिक दुःख हुआ कि शिक्षकों की सामाजिक स्थिति वेतन तथा कार्य की दशायें अत्यंत असंतोषजनक है। वास्तव मे, हमारा सामान्य विचार यह है कि समग्र रूप मे उनकी स्थिति पहले से बहुत अधिक खराब है।" 

समाधान-कुछ सुझाव 

वर्तमान माध्यमिक स्कूलों मे शिक्षण स्तर को समुन्नत बनाने हेतु दो सुझाव दिये जा सकते है-- शिक्षण की विधियों तथा शिक्षक की स्थिति मे सुधार शिक्षण विधियों के सुधार के संबंध मे माध्यमिक शिक्षा आयोग ने जो सुझाव दिये है, वे प्रशंसनीय है तथा उनकी प्रमुख विशेषताएं निम्न है-- 

1. शिक्षण विधियों मे 'क्रिया-पद्धति' तथा 'योजना पद्धित' का प्रमुख स्थान होना चाहिए। 

2. शिक्षण-विधियों के छात्रों को व्यक्तिगत प्रयासों से ज्ञान का अर्जन करने तथा उसे प्रयोग करने का अवसर देना चाहिए।

3. शिक्षण-विधियों को छात्रों मे कार्य को प्रेम, कुशलता, ईमानदारी तथा पूर्ण रूप से करने की शक्तिशाली इच्छा उत्पन्न करनी चाहिए। 

4. शिक्षण-विधियों को छात्रों की वैयक्तिक विभिन्नताओं के प्रति ध्यान देना चाहिए और सभी को प्रगति करने के समान अवसर देने चाहिए।

शिक्षण-स्तर को उच्च बनाने का दायित्व शिक्षक पर है। अगर शिक्षक थोड़ी सी ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वाह करता है तो शिक्षण के स्तर को उच्च बनाया जा सकता है। सरकार ने शिक्षक की स्थिति को सुधारने के लिए जितने प्रयत्न किये है, उतने शिक्षक ने अपने शैक्षिक दायित्व के निर्वाह के लिए प्रयत्न नही किये हैं।

माध्यमिक शिक्षा के विस्तार की समस्या 

माध्यमिक स्तर पर शिक्षा में अनियंत्रित प्रसार का होना ही विस्तार की एक सामान्य समस्या है। आज हमारे देश की आर्थिक दशा अच्छी न होने के कारण समस्त छात्रों को माध्यमिक स्तर पर शिक्षा न देकर, छात्र संख्या का अनुमान देश की मानव शक्ति की आवश्यकताओं से लगाकर इसी के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था करनी होगी। इसका अनुमान हमें इस स्तर पर हुए शिक्षा के प्रचार संबंधी आँकड़ों को देखने पर प्रतीत होता है कि शिक्षा मे विस्तार की समस्या न केवल भारत मे ही है वरन् यूनेस्को के अनुसार 1950 तथा 1965 के बीच विश्व के स्कूली छात्रों की संख्या मे लगभग 15% प्रतिशत की वृद्धि हुई। 

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार," शीघ्र विस्तार के कारण नई जटिल समस्याएं पैदा हो गई है और इससे बहुत से ऐसे लाभ नही मिल सके है, जिनके मिलने की आशा थीं। 

मध्यकालीन शिक्षा के प्रसार से संबंधित समस्याएं इस तरह है-- 

1. स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या मे निरन्तर एवं शीघ्रता से वृद्धि।

2. शिक्षा के गुण एवं उसकी दक्षता मे गिरावट।

3. व्यावसायिक, तकनीकी एवं वैज्ञानिक शिक्षा पाने वाले छात्रों की संख्या मे कमी।

4. शिक्षा मे प्रबंध संबंधी क्षमता मे गभीर त्रुटि।

5. शिक्षा को श्रम संबंधी आवश्यकताओं के अनुसार और ज्यादा ढालने की आवश्यकता।

6. प्रत्येक छात्र पर होने वाले खर्च में बढ़ोत्तरी।

7. शैक्षिक उद्देश्यों के लिए सीमित वित्तीय साधन।

8. ऐसी शिक्षा पद्धित का विस्तार जो विकसित देशों से ली गई हो और विकासशील देशों की आवश्यकता के अनुसार बिल्कुल न हो।

प्रो. आर्चोबाल्ड कालवे के शब्दों में," युवकों में बेरोजगारी का एक बड़ा कारण स्वयं औपचारिक शिक्षा का शीघ्र विस्तार रहा है।

माध्यमिक शिक्षा के विस्तार के कारण 

माध्यमिक स्तर पर शिक्षा मे विस्तार के निम्न कारण है-- 

1. जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि का होना।

2. सामान्य आर्थिक परिस्थितियों मे सुधार हुआ है। 

3. कमजोर व पिछड़े वर्गों मे शिक्षा में प्रगति हुई है।

4. अनुदान मे उदारता एवं छात्रों की फीस मे छूट के कारण।

5. प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के प्रसार के कारण।

6. माध्यमिक स्तर पर कार्य अनुभव के कारण पर शिक्षा की व्यवस्था का अभाव तथा सामान्य शिक्षा पर अधिक बल देना।

7. विश्वविद्यालयी शिक्षा प्राप्त करने की लालसा के कारण।

अन्य कारण 

1. अध्यापकों का अभाव 

शिक्षा के प्रसार की समस्या का प्रमुख कारण है-- अध्यापकों का अपने व्यवसाय में असंतुष्ट होना क्योंकि हमारी सरकार अध्यापकों को अन्य वर्गों के समान सुविधा एवं समान देने की तरफ कोई ध्यान नही दे पा रही है। 

2. शिक्षा के समुचित संचालन का अभाव 

आज शिक्षा का प्रबंध भी भलीभाँति नही किया जा रहा है। हमारे देश मे 80% प्रतिशत शिक्षा का संचालन निजी प्रबंध तंत्र कर रहा है। पूर्ण ज्ञान एवं अनुभव के अभाव मे विद्यालयों का समुचित प्रबंध इनके द्वारा न कर पाने के कारण आज विद्यालयों का स्तर दिन प्रतिदिन पतन के गर्त मे गिरता जा रहा है। 

3. विद्यालयों की संख्या में कमी 

आज हमारे देश मे जिस गति के साथ जनसंख्या में वृद्धि हो रही है उसके अनुपात में विद्यालयों की संख्या अत्यंत कम है।

4. कर्मचारियों का कार्य के प्रति निष्ठा का अभाव 

आज शिक्षा-विभाग मे कार्यरत कर्मचारियों मे अपने कार्य के प्रति निष्ठा की भावना नही रही है। सर्वत्र रिश्वतखोरी, बेईमानी तथा भ्रष्टाचार व्याप्त है। ऐसे माहौल मे शिक्षा का प्रसार कैसे किया जा सकता है। 

विस्तार की समस्या का निराकरण 

कोठारी आयोग के अनुसार-- 

1. प्रवेश का आधार योग्यता के अनुसार चयन करना हो।

2. प्राथमिक अवस्था के बाद 20% स्कूली छात्रों का व्यावसायिक जीवन में प्रवेश करना।

3. आवेदकों में से सर्वश्रेष्ठ छात्रों को ही चुना जाये।

4. राष्ट्रीय नामांकन नीति के अनुसार माध्यमिक शिक्षा केवल इच्छुक एवं कुशल छात्रों को ही देनी चाहिए।

5. माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं की शिक्षा का प्रसार करने हेतु विशेष प्रयत्न किये जायें। 20 वर्ष में निम्नतर माध्यमिक स्तर पर लड़के व लड़कियों का अनुपात 1:2 और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 1:3 हो जाना चाहिए। बालिकाओं के लिये पृथक माध्यमिक स्कूल स्थापित किये जायें एवं उनके लिये छात्रावास तथा छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाये।

6. माध्यमिक शिक्षा को व्यावसायिक रूप प्रदान किया जाये। 1986 तक निम्नतर माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या इस स्तर की कुल संख्या का 20% तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या इस स्तर की कुल छात्र संख्या का 50% कर दी जाये। 

7. एक ही स्थान पर 2 स्कूलों मे एक सी व्यवस्था करने के कारण साधनों के अपव्यय को रोकने के लिए स्कूलों की स्थापना एक राष्ट्रीय नीति के आधार पर की जाये। छोटे तथा आर्थिक दृष्टि से हितकर नये स्कूलों की स्थापना की जाये।

8. विविध प्रकार की अंशकालिक तथा पूर्णकालिक व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जाये। निम्नतर माध्यमिक स्तर पर लड़के एवं लड़कियों पर 20% छात्रों के लिए और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 25% छात्रों हेतु अंशकालिक शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। अंशकालिक शिक्षा के अंतर्गत कृषि शिक्षा एवं बालिकाओं के लिये गृहविज्ञान की व्यवस्था भी हो।

9. माध्यमिक शिक्षा स्तर पर अगले 20 वर्षों में छात्रों की संख्या नियमित करने के लिए-- 

(अ) माध्यमिक स्कूलों की उचित स्थापना, 

(ब) स्तरमान मे वृद्धि,

(स) योग्य, छात्रों को बाह्रा परीक्षा तथा स्कूल रिकार्ड के परिणामों के आधार पर चुनने का आयोजन किया जाये। 

इसके अतिरिक्त अन्य उपाय इस तरह है-- 

1. छात्रों का नामांकन व्यावसायिक पाठ्यक्रम मे किया जाना चाहिए।

2. माध्यमिक स्कूलों की स्थापना संबंधी नियम कठोर करना। 

3. विकलांग छात्रों हेतु अलग स्कूलों की व्यवस्था की जाये।

4. क्षेत्रीय असमानताओं को दूर किया जाये। 

5. प्रवेश जनशक्ति की आवश्यकता के अनुरूप किया जाये।

6. अंशकालीन व पत्राचार पाठ्यक्रम द्वारा शिक्षा की व्यवस्था करना।

7. माध्यमिक शिक्षा की स्थापना विकास की रूपरेखा एक इकाई के रूप मे प्रत्येक जिला पर बनायी जाये।

8. पिछड़ी एवं अनुसूचित जनजातियों के लिये आश्रम विद्यालय खोले जायें।

विस्तार की समस्या के प्रभाव 

1. शिक्षा का स्तर निम्न होना।

2. छात्रों के नियंत्रण करने मे कठिनाई का होना।

3. स्कूलों मे सुविधाओं की कमी का होना।

4. शिक्षा का प्रबंध सुचारू रूप से न होना।

5. शैक्षिक बेरोजगारी को बढ़ावा।

अतः माध्यमिक शिक्षा का विस्तार करते समय शिक्षा की मांग एवं पूर्ति को ध्यान मे रखना होगा। इसके लिये विद्यमान विद्यालयों के संगठनों को दृढ़ तथा प्रभावशाली बनाने पर बल देना चाहिए एवं उनमें स्वस्थ शैक्षिक वातावरण स्थापित करने का प्रयत्न करना जरूरी है।

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