8/29/2021

अध्यापक/शिक्षक शिक्षा की चुनौतियाँ/समस्याएं

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अध्यापक शिक्षा की चुनौतियाँ/समस्याएं 

अध्यापक या शिक्षक शिक्षा की निम्नलिखित चुनौतियां या समस्याएं है-- 

1. छात्राध्यापकों के प्रवेश की समस्या 

अध्यापक शिक्षा मे प्रवेश की समस्या एक विकट रूप मे शिक्षा विभागों के सम्मुख एक बाधा बनी रहती है। इसमें प्रवेश के लिये जो छात्र आते है, वे शैक्षणिक योग्यता की दृष्टि से हीन होते है एवं उन्हें रोजगार नही मिल पाता है। इससे शिक्षा का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। अतः प्रवेश संबंधी नियम कड़े किये जायें तथा बुद्धि परीक्षा एवं सामान्य ज्ञान आदि के द्वारा चयन कार्य सम्पन्न किया जाना चाहिए। 

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2. अनुपयुक्त पाठ्यक्रम 

अध्यापक शिक्षा संस्थाओं का पाठ्यक्रम अत्यंत संकुचित, निर्जीव एवं पुराना है। प्रशिक्षण की अवधि मे सैद्धांतिक पक्ष पर ज्यादा जोर दिया जाता है और अभ्यासात्मक पक्ष उपेक्षित रहता है। छात्रों की रूचियों, अभिरूचियों, दृष्टिकोणों, कल्यना शक्ति, सृजनशीलता, नेतृत्व आदि को परिमार्जित करने पर भी कोई ध्यान नही रहता है। पाठयोजना की घिसी-पिटी परिपाटी अपनाई जाती है एवं उसके अक्षरतसः पालन करने की अपेक्षा की जाती है। प्रशिक्षण में अर्जित ज्ञान अध्यापकगण वास्तविक परिस्थितियों मे प्रयोग नही लाते है। इससे प्रशिक्षण की उपयोगिता ही संदिग्ध हो जाती है। प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत होती है। जिससे प्रशिक्षण काल मे प्राप्त ज्ञान का अध्यापक गण वास्तविक जीवन मे प्रयोग करें एवं अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनायें। 

3. सुयोग्य एवं अनुभवी अध्यापकों का अभाव 

हमारे शिक्षा विभागों में ज्यादातर अध्यापक शैक्षणिक योग्यता, रूचि व अभिवृति तथा अनुभव की दृष्टि से अनुपयुक्त है। इसके फलस्वरूप अध्यापक शिक्षा संबंधी कार्यों को सुचारू रूप से संपन्न नही किया जाता है एवं सिर्फ उनकी खाना-पूर्ति ही की जाती है। अतः इस समस्या का निराकरण करना जरूरी है। 

4. अच्छे शोध कार्य का अभाव 

वैसे तो अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र में भारत मे किये गये अनुसंधान कार्यों की विशाल श्रृंखला है। लेकिन अच्छे अनुसंधान कार्य का अभाव सा प्रतीत होता है। भारतवर्ष मे अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र मे किया जाने वाला शोध कार्य अभी भी अपनी शैशवावस्था मे प्रतीत होता है। विदेशों विशेषकर ब्रिटेन एवं अमेरिका मे किये जाने वाले अनुसंधानों को भारतीय परिस्थितियों में दोहराना भारतीय शैक्षिक अनुसंधानकर्ताओं का प्रिय विषय रहा है। नितान्त मौलिक अनुसंधानों का तो भारत में अभाव रहा है। खेद का विषय है कि शिक्षा की स्नातकोत्तर व अनुसंधान उपाधियों से युक्त तथाकथित महान प्रोफेसरगण शिक्षा को कोई नितांत मौलिक बात नही दे पाये है। आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय परिवेश को ध्यान मे रखकर शिक्षा एवं अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र मे मौलिक अनुसंधान किये जायें ताकि सामान्य शिक्षा एवं अध्यापक शिक्षा दोनों की गुणवत्ता बढ़ाई जा सके। 

5. मानवीय मूल्यों की अवहेलना 

प्रशिक्षण मे केवल उद्देश्य, विधियों आदि पर इतना बल दिया जाता है कि छात्राध्यापक अपने विचारों, मूल्यों आदि पर ध्यान नही देते। इससे उनमें मौलिक चिन्तन का ह्रास होने लगता है। इसी कारण वह अपनी छोटी-छोटी सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ रहते है। अतः अध्यापक शिक्षा में मानवीय मूल्यों एवं आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना आवश्यक है। 

6. सैद्धांतिक पक्ष पर अधिक बल 

प्रशिक्षण की अवधि मे सिद्धांत को ज्यादा महत्व दिया जाता है। कुछ शिक्षा विभागों व प्रशिक्षण संस्थाओं मे तो शिक्षणाभ्यास केवल दो सप्ताह में पूरा कर दिया जाता है और इसको सिर्फ औपचारिक क्रिया मात्र समझा जाता है। अतः शिक्षा के व्यावहारिक पक्ष की पूर्णरूप से अवहेलना की जाती है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हमारे शिक्षा विभागों के अध्यापक भी इस समस्या की तरफ ध्यान नही देते है।

7. स्वतंत्र वातावरण का अभाव 

शिक्षा विभागों एवं प्रशिक्षण विद्यालयों मे आज भी छात्राध्यापकों को स्वतंत्र वातावरण प्रदान नही किया जाता है। छात्र प्रायः चापलूसी करते रहते है तथा अध्यापक श्रेणी के भय से उन्हें डराते रहते है। यह समस्या लगातार बल पकड़ती जा रही है। 

8. पृथकता की समस्या 

यह समस्या अध्यापक शिक्षा मे तीन रूपों मे व्याप्त है। प्रथम विश्वविद्यालय एवं कालिज के अन्य विभागों में पृथकता, दूसरे शिक्षा विभागों का माध्यमिक स्कूलों से अलगाव, तीसरा प्रशिक्षण महाविद्यालयों मे प्राथमिक व माध्यमिक स्तरों मे परस्पर सहयोग का अभाव पाया जाता है। इससे एक विभाग के अध्यापक दूसरे स्तर के अध्यापकों को हेय दृष्टि से देखने लगते है। यह अध्यापक शिक्षा हेतु बहुत अहितकर है। कोठारी आयोग ने इस समस्या को हल करने हेतु जोरदार सिफारिश की है। 

9. व्यावसायिक प्रशिक्षण मे सुधार की समस्या 

शिक्षा विभागों के शिक्षकों की व्यावसायिक कुशलता मे कमी होने से शिक्षा का स्तर निरंतर गिर रहा है। साथ ही साथ शिक्षण में प्रचलित कार्यक्रमों पर जोर दिया जाता है। वे अत्यंत परम्परागत एवं रूढिबद्ध हैं। अतः व्यावसायिक शिक्षण को सजीव बनाना जरूरी है।

10. प्रदर्शनात्मक विद्यालयों का अभाव 

शिक्षा विभाग की मान्यता का आधार विभाग से सम्बद्ध प्रदर्शनात्मक विद्यालय की सुविधा होनी चाहिए। जिन विभागों के पास अपना शिक्षण विद्यालय नही है उन्हें मान्यता ही न दी जाये क्योंकि दिन-प्रतिदिन के शैक्षिक प्रयोगों तथा अध्यापन के कार्यों मे कठिनाई होगी। बहुत कम शिक्षा विभाग ऐसे है जिनके पास अपना प्रदर्शनात्मक विद्यालय है। जिस प्रकार विज्ञान विषय प्रयोगशाल के बिना नही पढ़ाया जा सकता ठीक इसी प्रकार अध्यापक शिक्षा के लिए प्रदर्शनात्मक विद्यालय है। 

11. दोषपूर्ण अध्यापन विधि 

शिक्षा विभागों में प्रवक्ताओं द्वारा अध्यापन में प्रायः भाषण विधि का प्रयोग किया जाता है। वह परम्परागत है। भाषण निरर्थक होते है। छात्राध्यापक केवल निष्क्रिय रूप में बैठे रहते है। इससे उनमें उचित दृष्टिकोण का विकास नही होता। अच्छा अध्यापक विचारों से पूर्ण होना चाहिए। उसे आवश्यकतानुसार गतिशील अध्यापन विधियों का उपयोग करना चाहिए। अतः सामूहिक वाद-विवाद, विचार-विमर्श, विचार-गोष्ठी, सम्मेलन, वर्कशॉप तथा प्रश्नोत्तर विधि आदि का समय-समय पर आयोजन आवश्यक है। मेरठ विश्वविद्यालय ने इस संबंध मे महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं। महाविद्यालयों में प्रत्येक कलांश 60 मिनट का कर दिया गया है। उद्देश्य यही है कि अध्यापक द्वारा भाषण के अतिरिक्त विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श संभव हो और छात्र उनमें सक्रिय रूप से भाग ले सकें। छात्रों के मानसिक विकास के लिए यह आवश्यक है। 

12. दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली 

अध्यापक शिक्षा की परिक्षा प्रणाली बहुत दोषपूर्ण है। वह प्रायः विषयनिष्ठ है तथा ज्ञान की सही परिक्षा नही करती। शिक्षण में प्रारूप छात्राध्यापकों को छोटी-छोटी बातों पर धमकी दी जाती है। कहीं-कहीं अध्यापकों में बदले की भावना पाई जाती है। विभागों में अध्यापक स्वयं भी आपस मे लड़ते-झगड़ते है। इसका बुरा प्रभाव छात्राध्यापकों पर भी पड़ता है। उनमें सहयोग, समूह-भावना तथा एकता का सर्वथा अभाव है। वास्तव मे शिक्षा विभाग आदर्श होने चाहिए। छात्राध्यापकों का मूल्यांकन पूर्णतया वस्तुनिष्ठ हो। उसमें सिफारिश अथवा द्वेष आदि का कोई स्थान न हो। निष्पक्ष भाव से प्रयोगात्मक कार्य का मूल्यांकन किया जाये। सम्पूर्ण मूल्यांकन के आधार पर ही कोई निष्कर्ष निकालना चाहिए। 

13. अनुपयुक्त पाठ्य-पुस्तकें 

अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र मे अच्छी पाठ्य-पुस्तकों का अभाव है। बाजार प्रश्नोत्तर, सस्ते नोट्स, गाइड से भरा पड़ा है। वे प्रायः निम्न स्तर के अध्यापकों द्वारा लिखी जाती है। अच्छे अनुभवी अध्यापक इसमें रूचि नही लेते। कुछ पुस्तकें क्षेत्र से बाहर के व्यक्तियों द्वारा भी लिखी जाती है। इससे शिक्षा-स्तर में बहुत गिरावट आ गई है। विश्वविद्यालय तथा अध्यापकों को इस कार्य में छात्राध्यापकों का मार्गदर्शन करना चाहिए। सस्ते नोट्स व प्रश्नोत्तर पुस्तकों पर रोक लगाई जाये। छात्रो को मौलिक शिक्षा ग्रंथ पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। उनमे स्वतंत्र अध्ययन की आदत डाली जाये। अध्यापक इसमे बहुत सहायक हो सकता है। 

14. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का अभाव 

बहुत कम विभाग इस प्रकार की क्रियाओं को संगठित करने मे रूचि लेते है। अधिकतर स्थानों पर पाठ्यक्रम की खानापूरी करना ही सब कुछ है। पाठ्यक्रम मे निर्धारित शारिरिक शिक्षा, स्काउटिंग व गाइड, प्राथमिक चिकित्सा तथा हस्तकला आदि के प्रशिक्षण पर ध्यान नही दिया जाता है। इस प्रकार के प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापकों से स्कूलों मे विभिन्न क्रियाओं को संगठित करने की क्या आशा की जा सकती है। अतः इसमे सुधार की आवश्यकता है। 

15. विषयों के चयन मे कठिनाई 

शिक्षा विभागों मे छात्राध्यापकों को अध्यापन के विषयों का चयन सावधानी से करना चाहिए। प्रवेश के समय ही इस ओर ध्यान दिया जाये। कभी-कभी कुछ ऐसे विद्यार्थी प्रवेश पा जाते है, जिनके स्नातक स्तर के विषय विद्यालयों मे नही होते। विवश होकर उन्हें ऐसे विषय दिलाने पड़ते है जिन्हें उन्होंने कभी नही पढ़ा है और न ही उनके प्रति उन्हें रूचि है। अतः विषयों के उचित चुनाव की ओर ध्यान दिया जायें। 

16. आदर्श पाठों का अभाव 

प्रायः अध्यापक आदर्श पाठों का आयोजन करने मे रूचि नही लेते। वे अपने को इस कार्य मे दक्ष नही पाते। वास्तव में शिक्षा विभाग के अध्यापकों को कुछ समय अनिवार्य रूप से विद्यालयों मे अध्यापन कार्य करना चाहिए। इसमें हम विद्यालय के अन्य अनुभवी अध्यापकों की सहायता ले सकते है। प्रत्यन होना चाहिए कि समय-समय पर आदर्श अध्यापन छात्राध्यापकों के सम्मुख उपस्थित किया जाये। यह कार्य विद्यालयों मे अध्यापन कार्य प्रारंभ करने से पहले अथवा बीच मे भी संगठित किया जा सकता है। आर्दश पाठों का प्रशिक्षण में अपना स्थान तथा महत्व है। इसमें नवीन रीति का अनुसरण किया जाये।

17. कक्षा शिक्षण में लापरवाही 

विद्यालयों में शिक्षण कार्य को सावधानी से संगठित किया जाये। प्रायः छात्राध्यापकों इसमें लापरवाही करते है। वे खानापूरी करते है। पाठ योजनाओं की नकल करते हैं। पाठ योजनायें बड़ी पुरानी व परम्परागत होती हैं। कुछ पाठों को बिना पढ़ाये विद्यालय अध्यापकों से हस्ताक्षर करा लिये जाते हैं। ऐसा करना बड़ा घातक है। हम ऐसे अध्यापकों से क्या आशा कर सकते हैं? उनका दृष्टिकोण कुछ सीखने का होना चाहिए। यदि थोड़ी सी सावधानी से कार्य करें तो उनके अध्यापन कार्य में काफी सुधार हो सकता है। निरीक्षक को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। 

18. सहयोग व समन्वय का अभाव

विद्यालयों तथा शिक्षा विभागों में परस्पर संपर्क की भारी कमी है। उनमे कोई साम्य नही है। वे एक दूसरे की न परवाह करते और न ध्यान देते है। दृष्टिकोण मे भी बड़ा अंतर पाया जाता है। इससे बड़ी हानि हो रही है। शिक्षा-विभागों द्वारा अपनाई गई विधियाँ, प्रविधियाँ तथा सहायक सामग्री शिक्षा विभाग तक ही सीमित रह जाती है, वे विद्यालयों तक नही पहुंच पातीं। विद्यालयों में मुख्यतः पुरानी परम्परागत पुस्तक-पाठन विधि का ही प्रचलन है। हमारे छात्राध्यापक विद्यालयों के अध्यापकों की इस कार्य मे कोई रूचि न लेने की शिकायत करते है। राज्य के शिक्षा विभाग भी इसमें कोई रूचि नही दिखाते। अतः वे तीनों मे परस्पर सहयोग तथा संपर्क स्थापित करना जरूरी है। प्रत्येक दशा  में यह पृथकता समाप्त होनी चाहिए। सब सहयोग व रूचि से मिलजुल कर कार्य करें। सिद्धांत व व्यवहार में अंतर नही रहना चाहिए। 

19. रूढ़िवादिता 

अध्यापन कार्य में प्रायः शिक्षा विभागों के अध्यापक अपनी रूढिवादी व परम्परागत विधि का अनुसरण करते हैं। वे नवीन विचारों अध्यापन विधियों तथा प्रविधियों से सर्वथा अभिन्न है। उन्हें स्वतंत्र अध्ययन की आदत नही है। आजकल ज्ञान का विकास तीव्र गति से हो रहा है। अध्यापक को अपना ज्ञान निरन्तर नया तथा पूर्ण रखना चाहिए। इसके लिए शैक्षिक पत्रिकाओं का अध्ययन आवश्यक है। समय-समय पर आयोजित विचार-गोष्ठी, वर्कशॉप तथा शैक्षिक सम्मेलनों मे उन्हें भाग लेना चाहिए। कक्षा अध्यापन में नवीन विधियों को प्रयोग करने की क्षमता उनमें चाहिए। 

20. अस्वस्थ वातावरण 

शिक्षा विभागों में वातावरण में प्रायः बनावट व कृत्रिमता पाई जाती है। अध्यापक तथा छात्र का संबंध केवल ऊपरी दिखावे का रहता है। इस संबंध मे छात्रों का दृष्टिकोण जानना आवश्यक है। वे प्रायः एक अध्यापक के सामने उसकी तारीफ व चापलूसी तथा दूसरे अध्यापकों की बुराई करते है। कुछ अध्यापक इससे प्रसन्न होते है। शिक्षा विभागों के लिए यह दुर्भाग्य की बात है। हमें विभागों का वातावरण अधिक प्रकृतिक, वास्तविक तथा ठोस बनाने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए और छात्र व अध्यापक संबंध घनिष्ठता तथा निकटता को स्थापित करना चाहिए।

21. उचित निरीक्षण का अभाव 

छात्राध्यापकों के अध्यापन के समय अध्यापक निरीक्षण कार्य करते है। इसमे प्रायः लापरवाही बरती जाती है। खानापूरी अधिक रहती है। इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। निरीक्षण पूर्ण हो। वह पूर्णतया वस्तुनिष्ठ हो। सुझाव वास्तविक तथा ठोस हों और उनके द्वारा छात्राध्यापक के अध्यापन में उन्नति संभव हो। वास्तव में अध्यापन में सुधार अच्छे निरीक्षण पर निर्भर करता है। निरीक्षकों का दृष्टिकोण स्वस्थ होना चाहिए और वे छात्रों को नवीन विधियों के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित करें।

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