4/27/2021

भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत

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भक्ति आन्‍दोलन के प्रमुख संत

आलवार व नायनयार भक्‍त

आलवार केरल तथा मद्रास के विभिन्‍न भागों के निवासी थे तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र आदि जातियों में जन्में थे। आलवारों के भक्ति गीत ‘नलायिरा दिव्‍य प्रबन्‍धम‘ में संकलित है। इस प्रबन्‍धम के विवेचक डॉ. मलिक मोहम्‍मद ने यह मत स्‍थापित किया है कि यह प्रबन्‍धम है, भागवत पुराण नहीं , डॉ.रामधारी सिंह दिनकर ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘‘संस्‍कृति के चार अध्‍याय‘‘ में इस मत का समर्थन किया है। उन्‍होंने विष्‍णु के प्रति अपनी भक्ति रचनाओं से जन साधारण में विशेष सम्‍मात पाया। उन्‍होंने जात-पात को महत्‍व दिये बगैर सर्व साधारण को भक्ति का अधिकारी घोषित किया। आलवार भक्‍तों के जीवन चरित्रों से अनेक चमत्‍कारिक कहानियां जुड़ गयी। जनता ने उन्‍हें श्रद्धावत शंख चक्र आदि से सुशोभित कर अवतार मान लिया। आलवार का शाब्दिक अर्थ है- भगवद् भक्ति में संलग्‍न संत। पोयंगें आलवार और तिरूमंगेई आलवार भक्‍त हुए। वैष्‍णव भक्ति को आधुनिक रूप प्रदान करने में आलवरों का योगदान अत्‍यंत महत्‍वपुर्ण है। इनकी भक्ति रचनाएं तमिल व संस्‍कृत में है। 

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दक्षिण नायन्‍यार भक्‍त भी आलवरों के समकालीन थे। इन्‍होंने शिव को केन्‍द्र बनाकर अपने भक्ति गीत लिखे। नायन्‍मार संतों की रचनाओं को 11 तिरूमुरेयों के रूप में प्रकाशित किया गया है। समाज में नायन्‍यार भक्‍तों और उनकी भक्ति रचनाओं को आलवरों के समान ही आदर किया। 

आचार्य रामानुज 

भक्ति आन्‍देालन के प्रथम प्रणेता महान वैष्‍णवा सन्‍त रामानुज थे जो बारहवी सदी के प्रारम्भिक काल में हुये थे। रामानुज ने दक्षिण वैष्‍णवाद में दार्शनिक सिद्धान्‍तों का प्रतिपादन किया जो विशिष्‍ट अद्धैतवाद के रूप में ज्ञात है। उनके अनुसार मोक्ष का मार्ग ‘कर्म‘, ‘ज्ञान‘ और भक्ति में निहित है। बिना किसी स्‍वार्थ के कर्त्तव्‍य-पालन से मन पवित्र होता है, इससे जीव स्‍वंय चिंतन करने में समर्थ होता है। इस प्रकार ‘जीव‘ को स्‍वंय तथा ईश्‍वर पर निर्भर होने का ज्ञान मिलता है, उसमें ईश्‍वर के प्रति प्रेम जगता है। भक्ति में चिंतन समाहित है। इस प्रकार भक्ति में ज्ञान का योग होता है। चिन्‍तन में ईश्‍वर के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना का अनुभव होता है। इस प्रकार उन्‍होनें ईश्‍वर भक्ति का मत चलाया और कहा कि केवल इसी से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। रामानुज ने बताया कि शूद्र तथा जाति से बाहर के लोग भी अपने गुरू की इच्‍छा के आगे पूर्ण समर्पण कर मुक्ति प्राप्‍त कर सकते थे। उन्‍होने उन्‍हें निश्चित दिन तक कुछ मंदिरों में आने की अनुमति दे दी और गुरू के प्रति पुर्ण आत्‍म-समर्पण और अधीनता की भावना रखने का उपदेश दिया। रामानुज के विचार उत्तर और दक्षिण दोनों में ही जनप्रिय हो उठे और इस प्रकार उन्‍होनें लोक-कल्‍याण के एक शक्तिशाली सार्वजनिक आन्‍दोलन की नींव रखी। 

निम्‍बार्काचार्य 

भक्ति आन्‍देालन के दूसरे प्रमुख सन्‍त निम्‍बार्क थे। ये रामानुज के समकालीन थे। इनका जन्‍म मद्रास में हुआ था। इन्‍होनें अद्वैतवादी दर्शन का खण्‍डन किया। वे राधा और कृष्‍ण के उपासक थे। इन्‍होंने ‘भेदाभेद‘ के सिद्धान्‍त का प्रतिपादन किया था। इनका मानता था कि ब्रह्म सर्वशक्तिमान है। सगुण ब्रह्म ही ईश्‍वर है। जीव, जगत, परमात्‍मा इनकी दृष्टि में एक होते हुये भी विभिन्‍न थे। 

रामानन्‍द 

भक्ति आन्‍देालन को उत्तर में लाने का श्रेय रामानन्‍द को है। रामानंद वैष्‍णव धर्म उपदेशक थे। 15 शताब्‍दी में प्रयाग में एक कान्‍यकुब्‍ज परिवार में जन्‍में रामानन्‍द ने बाकी प्रवर्तकों की भांति जाति-विभेद का खण्‍डन किया। इनके मुख्‍य शिष्‍य विभिन्‍न वर्गो से सम्‍बन्धित थे। रामानन्‍द ने ‘‘राम भक्ति‘ का व्‍यापक प्रसार किया। 

कबीर 

रामानन्‍द के सभी शिष्‍यों में कबीर का महत्‍व सर्वाधिक है। कबीर विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे तथा उनका लालन-पालन वाराणसी के एक मुसलमान जुलाहा परिवार में हुआ था, उन्‍होंने अपना अधिक समय योगियों, संतों तथा सूफियों के साथ बीताया था। उनके विचार क्रांतिकारी तथा समता पर आधारित हैं और सामाजिक कुरीतियों पर कठोर प्रहार करते हैं। कबीर संभवतः लाग-लपेट की बातें नहीं जानते थे, इसलियें उन्‍होंने जो कुछ भी कहना चाहा खुले शब्‍दों में कहा। कबीर ने किसी धर्म सम्‍प्रदाय का मार्गदर्शन नहीं किया। वे सम्‍पुर्ण समाज के हित-चिंतक थे। कबीर की मृत्‍यु के बाद उनके विचारों से प्रभावित कुछ लोगों ने कबीर की शिक्षाओ एंव विचारों पर आधारित ‘कबीर पंथ‘ की स्‍थापना की। कबीरदास का पूरा चिंतन समाज के हित के लिये था। दरअसल जब कबीर का जन्‍म हुआ तब समाज में साम्‍प्रदायिक भेद-भाव बहुत बढ़ गया था तथा हिन्‍दू और मुसलमान दोनों में कट्टर-पंथ बढ़ रहा था। कबीर ने अपने चिंतन से समाज को सुधारने का प्रयास किया। कबीर का चिन्‍तन विश्‍व प्रेमका चिन्‍तन है, वे सम्‍पूर्ण समाज की भलाई चाहते है। उन्‍होंने स्‍वंय लिखा है कि उनकी किसी से मित्रता नहीं है और न ही किसी से बैर। किन्‍तु वे अक्रियाशील भी नहीं हैं। वे सभी का अच्‍छा चाहते है। कबीर समाज को सुधारने के लियें अपना सर्वस्‍व बलिदान करने को भी कहते है। उनका कथन है कि जो व्‍यक्ति अपना स‍ब कुछ छोड़कर चलने को तैयार है, वह उनके साथ चले और समाज-सुधार के लिये कार्य करे। कबीरदास समाज-सुधार के लिये सन्‍यास लेने का विरोध करते हैं। वे गृहस्‍थों के द्वारा ही समाज से सन्‍यास लेने का विरोध करते है। वे गृहस्‍थों के द्वारा ही समाज की भलाई चाहते है तथा कर्मवादिता को चाहते हुये अधिक धन कमाने या जमा करने के विरोधी थे। भुख और गरीबी को सामाजिक बुराई मानते हुये भी वे इतना ही कमाने की सलाह देते है। जिसमें समाज में भेद-भाव न बढ़ सके।  

गुरू नानक देव 

इनका जन्‍म वर्तमान पाकिस्‍तान के पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर के निकट तालबंडी नामक स्‍थान पर कार्तिक पूर्णिमा को 1469 ई. में हुआ था। तीस वर्ष की आयु में वह ज्ञान की प्राप्ति के लियें घर से निकल गए। उन्‍होंने हिन्‍दी, फारसी तथा संस्‍कृत का ज्ञान पाया और आडम्‍बरों का विरोध कर ईश्‍वर की श्रेष्‍ठता में विश्‍वास किया। वे वेद, जातिवाद व मूर्ति पूजा के विरोधी और मानव समानता के प्रबल समर्थक थे। उनके शिष्‍यों में हिन्‍दू, मुसलमान व अछुत सभी शामिल थे। उनके मत में ईश्‍वर के चरणों से अनुराग करने से ही मोक्ष मिल सकता है। उन्‍होनें कर्म तथा पुनर्जन्‍म के सिद्धान्‍त का समर्थन किया। 

सूरदास 

कृष्‍ण भक्ति की शाखा में सूरदास, मीराबाई और चेतन्‍य महाप्रभु के नाम आग्रणी रूप से लिया जाता है। सूरदास का जन्‍म 1478 ई. में तथा स्‍वर्गवास 1583 ई. में माना जाता है। कृष्‍ण की बाल लीलों को अपने काव्‍य में बहुत ही सुन्‍दरता के साथ पेश किया गया है। उन्‍होने सांसारिक परिवेश में कृष्‍ण को ईश्‍वर के रूप में स्‍थापित किया है। सूरदास ने तर्क से अधिक विनय एंव समर्पण की भावना को महत्‍व दिया है। उन्‍होने कृष्‍ण के प्रति गोपियों के प्रेम को मानव के परमात्‍मा के प्रति आकर्षण के प्रतीक स्‍वरूप अभिव्‍यक्‍त किया है। सूरदास की भक्ति रचनाओं ने लाखों भारतीयों को भक्ति मार्ग के लिए प्रेरित किया है। 

मीराबाई

मीराबाई के भक्ति गीत आज भी लाखों लोगों के मन को प्रफुल्लित करता है। मीराबाई का जन्‍म 1498 ई. में तथा देहांत 1546 ई. हुआ था। उनकी भक्ति रचनांए राजस्‍थानी एंव ब्रजभाषा में है। मीरा में अपने उपास्‍यदेव कृष्‍ण को प्रेमी, सखा और पति मानकर चित्रित किया है। 

चैतन्‍य महाप्रभु 

चैतन्‍य महाप्रभु का जन्‍म बंगाल में नदिया के ब्राह्मण कुल में 1485 ई. में हुआ था। वे चैवीस वर्ष की आयु में संसार से मुख मोड़़कर ईश्‍वर की भक्ति में लीन हो गए। वे कृष्‍ण के परम भक्‍त थे। व मोक्ष प्राप्ति का आधार कृष्‍ण भक्ति को ही माना है। इन्‍होंने ऊंच-नीच व जाति भेद का प्रबल विरोध किया। ब्राह्मण होकर भी उन्होंने शुद्रों एंव अछुतों को गले लगाया व हरिदास नामक अछुत उनका परम शिष्‍य था। मुसलमान भी उनसे प्रभावित थे। 

रैदास 

रामानन्‍द के 12 वें प्रमुख शिष्‍य रैदास थे। जाति से हरिजन होकर भी इन्‍हेांने जाति भेद, तीर्थ यात्रा एंव व्रत का विरोध किया व हिन्‍दू एंव मुसलमानों में कोई अन्‍तर नहीं माना। इन्‍होंने निर्गुण भक्ति का समर्थन कर ईश्‍वर के प्रति आत्‍म समर्पण का उपदेश दिया।

यह जानकारी आपके लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी 

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