5/03/2021

सल्‍तनत काल की प्रशासनिक व्‍यवस्‍था

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सल्‍तनत काल की प्रशासनिक व्‍यवस्‍था

सल्तनत काल का केन्‍द्रीय शासन 

सुल्‍तान 

दिल्‍ली के सुल्‍तान खुद को खलीफा का नायब मानते थे तथा उनकें नाम से खुतबा भी पढ़वाते थे। लेकिन फिर भी वह व्‍यावहारिक रूप से पूर्णतः स्‍वतंत्र, शक्ति सम्‍पन्‍न तथा स्‍वेच्‍छाचारी शासक थे। कानून, न्‍याय, प्रशासन, सेना, आदि से सम्‍बन्धित सभी शक्तियां उसी में निहित थी। सुल्‍तान कमजोर होता था तो उस पर अमीर और उलेमा वर्ग का प्रभाव या नियंत्रण ज्‍यादा होता था। अलाउद्दीन खलजी, मुबारक खलजी तथा मुहम्‍मद तुगलक काफी हद तक प्रशासनिक दृष्टि से उलेमा के प्रभाव से मुक्‍त रहे। 

केन्‍द्रीय शासन से स्‍वेच्‍छाचारी और निरंकुश होते हुए भी सुल्‍तानों को अपनी मदद और सलाह के लिए मंत्री और अधिकारी नियुक्‍त करना पड़ते थे। सल्‍तनत काल में निम्‍नलिखित मन्‍त्री होते थे--

1. नायब 

किशोर शासक के समय नायब सुल्‍तान के नाम पर समस्‍त अधिकारों का प्रयोग कर प्रशासन संचालित करता था। इस पद  पर योग्‍य सेनापति और प्रभावशाली अमीर को मनोनीत किया जाना था। कभी-कभी योग्‍य शक्तिशाली सुल्‍तान भी अपना विश्‍वास व्‍यक्‍त कर ‘नायब‘ पद पर किसी विश्‍वनीय व्‍यक्ति की नियुक्ति कर निश्चित हो, राजधानी से बाहर सक्रिय रहते थे। अलाउद्दीन जैसे सुल्‍तान ने भी नायब पद पर नियुक्ति की थी। 

2. वजीर 

इस पद ने सल्‍तनत काल मे एक संस्‍था के रूप में कार्य किया था। जब नायब का पद नहीं होता था तब सुल्‍तान के बाद वजीर की स्थिति होती थी। अन्‍य मंत्रियों और अधिकारियों पर नियंत्रण, पूरे साम्राज्‍य की स्थिति पर दृष्टि रखना, सुल्‍तान की गैरहाजिरी में राजधानी में प्रबन्‍ध देखना आदि के साथ लगान वसूली एंव कर व्‍यवस्‍था देखना वजीर का मुख्‍य उत्तरदायित्‍व था। वजीर की मदद के लिए नायब वजीर तथा अन्‍य अधिकारी होते थे। राजस्‍व विभाग पूर्णतः वजीर के अधीन होता था।

3. आरिज-ए-मुमालिक 

इसे दीवान-ए-अर्ज के नाम से भी जाना जाता था। आरिज-ए-मुमालिक सल्‍तनत काल में सैनिक व्‍यवस्‍था, सैन्‍य प्रबंध, सेना में भरती और सैन्‍य आपूर्ति का अत्‍यधिक महत्‍व था। आरिज-ए-मुमालिक इन सभी कार्यों के लिए उत्तरदायी होता था। किन्‍तु वह प्रधान सेनापति नहीं होकर उसका सहायक रहता था। यह दीवान-ए-अर्ज नामक विभाग का प्रमुख होता था। 

4. सद्र-उस-सुदूर

इसको दीवाने रसालात के नाम से भी जाना जाता था। यह मंत्री धार्मिक कार्यो के लिये उत्तरदायी होता था तथा राजकीय दान-विभाग का अध्‍यक्ष भी यही होता था। यह विभाग जकात नामक कर से प्राप्‍त होने वाले धन को केवल मुस्लिम जनता पर खर्च करता था। 

5. मजलिस-ए-खलवत 

इन सब मन्त्रियों के अलावा सुल्‍तान को परामर्श देने के लिये परामर्शदाताओं की विशाल संख्‍या होती थी और इसे ही मजलिस-ए-खलवत कहते थे। सुल्‍तान के कुछ व्‍यक्तिगत मंत्री, विश्‍वसनीय पदाधिकारी तथा प्रमुख उलेमा ही इसके सदस्‍य होते थे। 

6. बरीद-ए-मुमालिक   

यह गुप्‍तचर विभाग का अध्‍यक्ष होकर डाक चैकियों की भी व्‍यवस्‍था देखता था। अलाऊद्दीन, बलबन और सिकंदरशाह के समय यह विभाग बहुत सक्रिय एंव महत्‍वपूर्ण बन गया था। अमीर व सेनापति भी इस पद पर नियुक्‍त व्‍यक्ति से खौफ खाते थे। 

7. दीवान-ए-खास

यह शासकीय रिकार्ड विभाग का प्रमुख होता था। इसका विभाग दीवान-ए-इंशा कहलाता था। मीर मुंशी सुल्‍तान की ओर से पत्र व्‍यवहार करता, पत्रों का उत्तर देता और शाही फर्मान जारी करता था।

दरबार की व्‍यवस्‍था 

सल्‍तनत के समय में दरबार तथा राजमहल चमक फीकी ना पड़े इसके लिये काफी धन खर्च किया जाता था। बलबन का दरबार तो एशिया भर में शान-शौकत के लिए प्रसिद्ध था। यह अपने दरबार को फारसी रीति रिवाज से साजता था। इसकी व्‍यवस्‍था हेतु कई कर्मचारी नियुक्‍त रहते थे। इनमें प्रमुख-बारबक, वकील-ए-दर, अमीर हाजिब, अमीर-शिकार, अमीर-मुजलिस तथा सर-जांदार थे। 

वकील-ए-दर का पद बहुत विश्‍वसनीय व्‍यक्ति को दिया जाता था। यह सुल्‍तान के व्‍यक्तिगत सेवको का प्रबंध करता तथा हमेशा सुल्‍तान के सामीप में रहने के कारण उसका विश्‍वस्‍त सलाहकार भी बन जाता था। वह प्रभावशाली बनने पर शासकीय कार्यो में भी हस्‍तक्षेप करता तथा सल्‍तनत की राजनीति को भी प्रभावित करने लगता था। 

बारबक राजदरबार का प्रबंध करता और अमीरो को उनकी मर्यादा के अनुसार बैठक की व्‍यस्‍था करता था। अमीर तथा सुल्‍तान के बीच संपर्क का वह महत्‍वपुर्ण माध्‍यम होता था। यही कारण है कि कभी-कभी उसका महत्‍व वजीर से भी ज्‍यादा हो जाता था। वह दरबार के नियमो के अधीन अमीरों को सुल्‍तान के सामने प्रस्‍तुत करता तथा सुल्‍तान के आखेट स्‍थल एंव यात्रा स्‍थल को निरापद बनाने तथा दावतों, मजलिसों एंव सभाओं की व्‍यवस्‍था देखता था। सर-जांदार सुल्‍तान के व्‍यक्तिगत अंगरक्षकों का प्रमुख होता था। सल्‍तनकालीन इतिहास में सर-जादांरो ने षड्यंत्र कर सुल्‍तानों को कत्‍ल करा दिया या सत्ता में परिवर्तन कराने के उदाहरण भी प्राप्‍त है।

सल्तनत काल का प्रांतीय शासन 

दिल्‍ली सल्‍तनत के प्रारंभिक काल में प्रांत की शासन व्‍यवस्‍था सुचारू रूप से नहीं चल रही थी। सल्‍तनत के आंरभिक काल में सुल्‍तान के अमीर जिस क्षेत्र पर अधिकार करते वहीं के हाकिम बन जाते। कालातंर में सल्‍तनत के मजबूत होने पर यह प्रथा खत्‍म हो गई। अब सुल्‍तान क्षेत्रीय महत्‍व को दृष्टिगत रखकर स्‍वंय क्षेत्र निर्धारित कर प्रांतों में उपयुक्‍त शासक नियुक्‍त करता था। उनका स्‍थानंतार भी किया जाता था। 

दिल्‍ली सल्‍तनत में प्रांत के शासक को वली, नाजिम अथवा नायाब कहा जाता था। भ्रष्‍ट तरीकों से यह अधिकारी प्रजा तथा कृषकों का शोषण कर धनाढ्य हो जाते थे। अलाउद्दीन ने खुद यह स्‍वीकार कर प्रति दो या तीन वर्षो में अन्‍य अमीरों को भी मौका दिया था। नायाब का अर्थ ही स्‍थानापन्‍न अधिकारी होता था। संपन्‍न प्रांतों वजीर, प्रांतीय आरिज और प्रांतीय काजी भी नियुक्‍त किये जाते थे। इनकी कार्यप्रणाली केन्‍द्रीय अधिकारियों की तर्ज पर होती थी। अधिकांश धन प्रांतों से ही प्राप्‍त किया जाता था। 

प्रांत का नायाब अपने क्षेत्र सर्वेसर्वा होता था। कर वसूली, न्‍याय कार्य तथा सेना की व्‍यवस्‍था का उत्तरदायित्‍व इन्‍हीं का होता था। प्रांत‍पति हिन्‍दू राजाओं एवं सामंतों के क्षेत्र पर आक्रमण कर हिन्‍दू जनता को लूटमार कर धन प्राप्‍त करता था। 

इसका अधिकांश भाग सुल्‍तान की सेवा में भेजा जाता था। हाथी, राजवंश की सुन्‍दर स्त्रियां, राजचिन्‍ह आदि सुल्‍तान को भेजना अनिवार्य था। प्रांतीय अधिकारी किसी राजचिन्‍ह अथवा विरूद्ध का उपभोग नहीं कर सकता था। अपने नाम पर खुतबा नहीं पढ़ा सकता था तथा सिक्‍के भी प्रचलित नहीं कर सकता था। ऐसा करने पर राजद्रोह माना जाता तथा शाही सेनाएं प्रांत पर आक्रमण कर प्रांत‍पति को उपयुक्‍त सजा दी जाती थी। नायाब या प्रांतपति के लिए प्रतिवर्ष कर भेजना आवश्‍यक था। वह राजसी ठाठबाट से नहीं रह सकता था, सेना की वृद्धि नही कर सकता था तथा दरबार का अयोजन भी नहीं कर सकता था। ऐसा करना भी राजद्रोह की श्रेणी में आता था। 

सल्तनत काल का स्‍थानीय शासन 

स्‍थानीय शासन की भी विशेष व्‍यवस्‍था की गयी थी। सल्‍तनत के प्रान्‍त शिकों में विभक्‍त थे। शिक का शासक शिकदार कहलाता था। शिक पुनः सरकारों में बंटे हुये थे, सरकार परगनों में और परगनें ग्रामों में बंटें हुये थे। प्रत्‍येक ग्राम का प्रबन्‍ध करने के लियें मकद्धम से सहायता ली जाती थी। पटवारी मालगुजारी सम्‍बन्‍धी पत्र रखता था। परगनें के प्रबन्‍ध के लिये चौधरी होता था। इसके अतिरिक्‍त अन्‍य कर्मचारी भी होते थे जो परगने के शासन में योग देते थे। इनमें से एक फसल का निरीक्षण करके लगान निश्चित करता था, एक लगान वसुल  करता था और एक चपरासी का कार्य करता था। लेखक का कार्य करने वाले कारकुन कहलाते थे जो हिसाब-किताब रखते थे।

यह जानकारी आपके लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी 

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