सल्तनकाल में सामाजिक दशा
saltnat kaal ki samajik aarthik bharmik dasha;सल्तनत काल में भारतीय समाज दो भागों में विभाजित था- हिन्दू और मुसलमान। यद्यपि दिल्ली में मुस्लिम सत्ता और प्रभुत्व को स्थापित हुए करीब 300 वर्ष हो गये थे फिर भी पूरे भारत में हिन्दूओं की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या बहुत कम थी। इस मुस्लिम जनसंख्या में भी बहुत थोड़ी संख्या विदेशी मुसलमानों की थी और शेष सभी भारतीय मुसलमान लोग थे, जो हिन्दू से मुसलमान बने थे। इन दोनो समुदाय के बीच गहरी खाई थी। इनके रीति-रिवाज, आचार-विचार, वेश-भूषा तथा खान-पान एक दूसरे से भिन्न थे। इनकी सामाजिक स्थिति में भी बडी भिन्नता थी। मुसलमान शासक वर्ग के थे, तो हिन्दू शासित वर्ग के। मुसलमानों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे परन्तु हिन्दू सामान्य अधिकारों से भी वंचित थे। राज्य में अधिकांश उच्च पद मुसलमानों के लिए सुरक्षित थे हिन्दू केवल निम्न पदों पर ही नियुक्त किये जाते थे। विशेषकर लगान वसूल करने का कार्य उन्हीं को सौंपा जाता था। सेना में भर्ती होने का एकाधिकार मुसलमानों को प्राप्त था, हिन्दू इससे वंचित थे। उन्हें जजिया कर देना पड़ता था जो बड़ा अपमानजनक था। साथ ही उन्हें अन्य प्रकार के कर भी देने पड़ते थे। इस प्रकार वे आर्थिक विपन्नता से ग्रस्त थे। उन्हें कई प्रकार से अपमानित भी किया जाता था। मुसलमान अपने धर्म पालन तथा प्रचार करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र थे। वही हिन्दूओं को धार्मिक स्वतंत्रता नहीं थी। वे प्रायः बलात् मुसलमान बना लिये जाते थे। इस्लाम का जरा भी विरोध करने पर उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता था।
सामाजिक जीवन
सल्तनतकाल की सामाजिक दशा का अध्ययन दो शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है। एक तो हिन्दूओं की सामाजिक दशा तथा दूसरे मुसलमानों की दशा। इस काल में भारतीय समाज दो भागो में विभक्त था। एक हिन्दू समाज तथा दूसरा मुस्लिम समाज। मुस्लिम शासक थे और हिन्दू शासित थे। इन दोनों समाजों की स्थितियों में बड़ा अंतर था।
हिन्दू समाज
मध्य युग में देश की अधिकांश जनता हिन्दू थी। तकरीबन 95 प्रतिशत हिन्दू यहां निवास करते थे। यद्यपि वे विदेशियों द्वारा पराजित थे परन्तु देश की अधिकांश भूमि पर उनका ही अधिकार था। हिन्दूओं का ही प्रमुख व्यापार तथा व्यवसायों पर नियन्त्रण था। साहुकारी तथा लेन-देन के व्यवसाय पर तो उनका पूर्ण एकाधिकार था। ऐतिहासिक ग्रन्थों में ऐसे मुल्तानी व्यापारियो का भी उल्लेख किया जाता है। जो तुर्क अमीरों तथा सामन्तों तक को रुपया उधार देते थे। शासन के राजस्व विभाग भी हिन्दूओं के हाथ में थे। अन्य व्यवसायों के अतिरिक्त हिन्दूओं का एक विशाल वर्ग कृषि द्वारा जीवनयाप करता था। हिन्दू ब्राह्मण मुख्य रूप से अध्यापन का काम करते थे। खुत, चोधरी तथा मुकद्दम प्रायः हिन्दू ही हुआ करते थे।
मुस्लिम समाज
मुसलमान लोग शासक वर्ग के थे। उनको राज्य की ओर से विशेष सुविधाऐं प्राप्त थी। राज्य के वे प्रिय बच्चे थे। उनके लिए राज्य के समस्त दरवाजे खुले हुए थे। प्रारंभ में उनका जीवन परिश्रमी एंव संयमी रहा। हिन्दूओं से उन्होनें करों द्वारा धन वसूल किया। इस अपरिमित धन ने उनको भोग-विलास एंव वैभवपूर्ण जीवन व्यतीत करने के योग्य बना दिया। इसी के प्रभाव ने उनके धार्मिक जीवन में भी दिखावे का स्थान ग्रहण कर लिया। वास्तविकता का धीरे-धीरे लोप हो गया। उनमें विभिन्न प्रकार के अंधविश्वास घर कर गए थे। स्त्रियों को कुछ आदर प्राप्त था लेकिन मुस्लिम समाज में बहुविवाह, तलाक, रखैल रखने आदि की प्रथाएं प्रचलित थीं। समाज में साधुओं और फकीरों को मान सम्मान प्रदान किया जाता था। जाति व्यवस्था नही थी। मुल्लाओं और उल्माओं का बड़ा प्रभाव था। वे राजनीति में सक्रिय भाग लेते थे। इस्लाम ने भी हिन्दू समाज को प्रभावित किया। वे राजनीति में सक्रिय भाग लेते थे। इस्लाम ने भी हिन्दू समाज को प्रभावित किया। वे प्रभाव अधेालिखित है--
(1) शिशु हत्या की प्रथा विस्तृत रूप में प्रसारित हो गई।
(2) हिन्दू समाज में पर्दाप्रथा का प्रचलन हो गया। नारियो की स्थिति गृह-क्षेत्र तक सीमित हो गई।
(3) बाल विवाह की प्रथा का प्रचलन, क्योकि मुसलमान हिन्दूओं की कन्याओं को जबरदस्ती अपहरण करते थे।
(4) हिन्दू समाज में कन्या का जन्म अशुभ माना जाने लगा।
(5) दास-प्रथा का प्रचलन हो गया।
(6) मुसलमान सुल्तानों के राजदरबार के शिष्टचारों का अनुकरण हिन्दू नरेशों एंव सामंतो द्वारा किया गया।
(7) उनकी वेशभूषा का भी हिन्दू समाज में प्रचलन हुआ।
(8) शराब पीना, जुआ खेलना आदि दुर्गुण समाज के सामान्य रूप से फैल गए।
(9) मुसलमानों द्वारा हिन्दूओं को अपने धर्म में परिवर्तित करने के उत्साह ने जाति-व्यवस्था के नियमो में कठोरता उत्पन्न की।
सल्तनत काल मे धार्मिक जीवन
सल्तनत काल के समय में महत्वपुर्ण धार्मिक आंदोलन हुए। भक्ति अथवा भगवान के प्रति व्यक्तिगत भजन-पूजन की भावना का सिद्धांत जोर पकड़ने लगा। ये बातें भगवत गीता द्वारा सीखी गई थीं। इस विचारधारा के मानने वालो का विश्वास था कि मुक्ति प्रत्येक वस्तु की व्यक्तिगत पहुंच के भीतर की वस्तु है, उसकी चाहे जो जाति हो, चाहे जो उसकी पूजा और उसके उत्सवों के स्वतंत्र साधन हों। इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दू समाज भी इस्लाम से प्रभावित हुई। सूफियों में जो पर्शियन धर्मो की एक जाति थी, बहुत से कवि हुए। उनके जो विश्वास थे, वे हिन्दूओं में सामान्य रूप से प्रचलित हो गए। इस काल में जो धार्मिक आंदोलन हुए उनके प्रमुख व्यक्ति थे- रामानुज, रामानंद, कबीर, गुरूनानक, तुलसीदास, चैतन्य, तुकाराम एंव सुफी संत।
इस काल में उपरोक्त धर्मोपदोश के अलावा माधव तथा वल्लभचार्य दक्षिण में हुए जिन्होने वैष्णव मत का प्रसार किया। माधव विष्णु के उपासक थे तथा वल्लभचार्य ने कृष्ण-भक्ति का उपदेश दिया। दक्षिण में दादू नाम के एक संत हुए, जिन्होने भक्ति संप्रदाय को प्रसारित किया। रैदास नाम के संत काशी में हुए। वे चमार का व्यवसाय करते थे। उन्होनें भक्ति-मार्ग को प्रसारित किया। वैष्णव संतों में मीरवाई का उच्च स्थान था, उन्होनें भक्ति मार्ग को प्रसारित किया। वैष्णव संतों में मीरावाई का उच्च स्थान है, उन्होनें हरि को आराध्य बनाया।
सल्तनत काल मे आर्थिक जीवन
मुस्लिमों के आक्रमण से पहले भारत धन संपदा से फलीफूत था। भारत की इसी समृद्धि के कारण ही उन्होनें भारत पर आक्रमण किया। गजनी तथा गौरी ने भारत के धन को बुरी तरह लुटा। जब यहां उन्होनें अपना राज्य स्थापित कर लिया तब पहले तो उन्होनें आर्थिक दशा की ओर ध्यान नहीं दिया। सबसे पहले बलबन के शासनकाल में शांति मिल पाई और उसने आर्थिक दशा को सुधारने के लिए प्रयत्न किए। अधिकांश जनता हिन्दू थी, उस पर अत्यधिक कर थे। सामान्य जनता का आर्थिक स्तर निम्न था। खिलजी ने सैन्य प्रबंध, बाजारों एंव मूल्यों का नियंत्रण करके वस्तुओं के मूल्य को कम कर दिया था। इसके पश्चात् गयासूद्दीन तुगलक ने आर्थिक दशा को सुधारने के लिए प्रयत्न किए, परंतु उसका शासनकाल बहुत अल्प रहा। इसके बाद उसके पुत्र मुहम्म्द तुगलक की योजनाओ के कारण लोगों को बहुत कष्ट उठाने पड़े। इसके पश्चात् फीरोज ने खेती की उन्नति हेतु कुछ कार्य किए। इसके बाद आर्थिक दशा गिरती चली गई। मुसलमानों के आक्रमणों के कारण भारत के व्यापार, उद्योग आदि को बड़ा धक्का लगा। इस संक्रातिं काल में भी भारत का दूसरे देशों से व्यापार चलता रहा। अंत में कहा जा सकता है कि साधारण जनता का आर्थिक स्तर निम्न था।
कृषि
भारत प्राचीन काल से ही कृषि-प्रधान देश रहा है। यहां के लोगो का मुख्य पेशा उन दिनों भी कृषि ही थी। जमीन उर्वरा थी। अतः कृषि-उत्पादनों का देश में बाहुल्य था। इब्नबतुता ने भारत के उत्तरी प्रान्तों में अपरिमित प्राकृतिक सम्पदा होने की बात कही है। जमीन इतनी उपजाऊ थी कि उनमें प्रतिवर्ष दो या उनसे भी ज्यादा फसलें उपजाई जाती थी। एक मौसम में सात प्रकार की फसलें होती थी। उसने सिरसा में अति उत्तम प्रकार के चावल, कन्नौज में चीनी, गेहूं और पान धार में तथा उन्नत किस्म का गेंहू ग्वालियर में काफी मात्रा में उपजायें जाने का उल्लेख किया है। कड़ा तथा इलाहाबाद के क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में चावल, जोधपुर, ग्वालियर, धौलपुर आदि में फलों के अनेक बगीचें थे। विदेशी यात्रियों ने बंगाल तथा गुजरात की सम्पन्नता का विशेष उल्लेख किया है। पुर्तगाली यात्री बारबोसा के अनुसार बंगाल में कपास, ईख, अदरख, मिर्च, फल आदि काफी मात्रा में उपजायें जाते थे। इब्नब्तुता के बाद आने वाले चीनी यात्री ने भी बंगाल की सम्पन्नता का वर्णन किया है।
खाद्यान्नों की भरपुरता के कारण सामान्यतः वस्तुओं का मूल्य सल्तनत काल में काफी समय ही था। अलाउद्दीन खिलजी के शासन-काल में मूल्य नियंत्रण और बाजार के कठोर नियमों के कारण खाद्यान्नों के भाव और सस्ते हो गये थे। इब्नबतुता के अनुसार बंगाल में खाद्यान्ना सबसे अधिक सस्ता था। फिरोज शाह और इब्राहिम लोदी के शासन-काल में वस्तुओं के मूल्य अपेक्षाकृत कम थे। दक्षिण भारत में भी वस्तु सस्ती दरों पर प्राप्त हो जाती थी।
उद्योग धंधे
सल्तनत काल में उद्योग-धंधों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। गांवो तथा नगरों में कारीगर एंव शिल्पी अपने पुरानें पेशों में लगे रहे जो गृह-उद्योग की श्रेणी के थे। अधिकांश उद्योग स्थानीय रूप में थे जो वंश पंरपरागत ढंग से चलायें जाते थे। कई शाही कारखानें भी थे जो फारसी ढंग में दिल्ली के सुल्तानों द्वारा स्थापित किये गये थे। इन कारखानो में शाही तथा दरबारी आवश्यकताओं की वस्तुएं बनती थी।
वस्त्र, रंगाई और छपाई तथा अन्य उद्योग
वस्त्र उद्योग का विस्तार संपूर्ण देश में था, फिर भी इसके प्रमुख केन्द्र थे-- बंगाल, गुजरात, बनारस, उड़ीसा तथा मालवा। खंभात, सूरत, पटना, बुरहानपुर, दिल्ली, आगरा, लाहौर, मुलतान, थट्टा आदि शहरों में विशेष तरह के कपड़े तैयार किये जाते थे। वस्त्रोद्योग के अंतर्गत सूती, रेशमी तथा ऊनी-तीनों तरह के वस्त्र बुने जाते थे। कपास की उपज भारत में बहुत होती थी। ऊन भी भेड़ो इत्यादि के द्वारा पहाड़ी प्रदेशो तथा राजस्थान आदि स्थानों से उपलब्ध हो जाता था, पर ऊन की श्रेष्ठ किस्में बाहर से आयात की जाती थी। रेशम का काम बंगाल में होता था, लेकिन अधिकांश रेशम बाहर से मंगाया जाता था। तसर के वस्त्र उड़ीसा में बनाये जाते थे। रंगाई तथा छपाई का काम भी बड़े पैमानें पर होता था। दिल्ली, बैना, गुजरात, तथा गोलकुंडा में रंगाई एंव छपाई की जाती थी। इसके अन्य महत्वपुर्ण केन्द्र थे-- आगरा, अहमदाबाद, लखनऊख, फर्रुखाबाद एंव मछलीपट्टम। इसके अतिरिक्त बड़े-बडे़ शहरों में कशीदा, सोने एंव धागे का काम होता था।
चमड़ा उघोग
खंभात, दिल्ली, असम आदि चमड़ा उद्योग के मुख्य केन्द्र थे। चमेड़े की प्रमुख वस्तुएं ये थी-घोड़े की काठी, लगाम, तलवार की खोल, जूते, मशक, चटाई तथा चप्पल।
चीनी उद्योग
इस काल में खांड की प्रसिद्धि ज्यादा हुई। चीनी विदेशी को निर्यात होती थी। उत्तम तरह की चीनी लाहौर, दिल्ली, बयाना, कल्पी, पटना, बरार एंव आगरा में बनाई जाती थी।
कागज उद्योग
सल्तनतकाल की प्राप्त पांडुलिपियों एंव अन्य ऐतिहासिक ग्रंथों से स्पष्ट होता है कि भारत में इस समय कागज उद्योग का विकास हुआ था। इसके मुख्य केन्द्र थे-- पटना, गया, राजगीर, अबध, लाहौर, आगरा, अहमदाबाद, शाहजादापुर एंव सियालकोट। कागज को कई किस्में थीं। ऐसा प्रतीत होता है कि कागज का उत्पादन उसकी मांग के अनुसार न होने के कारण जनता तथा सरकारी पदाभिकारी को किफायत से कागज खर्च करना पड़ता था।
धातु उद्योग
इस काल में धातु के विभिन्न उद्योग स्थापित किये गये थे। लोहे की सर्वोत्तम तलवारें बनारस, सौराष्ट्र, कालिंजर, लाहौर, सियालकोट, मुलतान, गुजरात तथा गोलकुंडा में बनती थीं। लोहे, कृषि-औजार भी बड़े पैमाने पर बनते थे। धारियां बरछे आदि के निर्माण में लोहे का उपयोग होता था। सोना, चांदी तथा कांसा का काम करने वाले कारीगर एंव सुनार लगभग सभी जगह पाये जाते थे। दिल्ली तथा लखनऊ विशेषकर तांबे के सामानों के लिए प्रसिद्ध थे।
व्यापार तथा वाणिज्य
आन्तरिक व्यापार
सल्तनत काल में व्यापार अपने चरमोत्कर्ष पर था। देश के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र पर महाजन तथा थोक व्यापारी होते थे जो विभिन्न वस्तुओं के व्यापार के लियें व्यापारियों को रुपया उधार देते थे। एक स्थान से दूसरे स्थान पर रुपया हुण्डियों के माध्यम से लिया दिया जाता था। आन्तरिक व्यापार के विषय में डॉ.यूसुफ हुसैन ने लिखा है, ‘‘प्रत्येक प्रान्त दूसरे की आवश्यकताओं को पूरा करता था। उदाहरणार्थ गुजरात, आगरा को निकट पूर्व देशों या यूरोप से आयी हुई वस्तुयें भेजता था जिनमें अधिकतर अमूल्य चावल, खांड़, सूती और रेशमी कपड़े भेजता था। बंगाल से आगरा को गंगा और यमुना के मार्ग द्वारा और मालाबार को समुद्र मार्ग द्वारा खांड़ भेजी जाती थी।‘‘
विदेशी व्यापार
इस काल में भारत को विदेशी व्यापार समुन्नत था। इस समय भारत का विदेशी व्यापार जल तथा थल मार्गो से होता था। वस्तुएं निर्यात भी होती थीं तथा आयात थी। व्यापार के लिए किसी न किसी रूप में बैंक व्यवस्था कायम थी। साहूकारों का महत्वपूर्ण स्थान था। वे मुद्रा की जांच तथा विनिमय का काम करते थे। वे हुंडियां तथा विनिमय पत्र जारी करते थे। वे ऋण देते थे तथा बीमा आदि का कार्य करते थे। विनिमय के साधन सिक्के थेय कौडि़यों का भी प्रचलन था।
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सल्तनत काल महि laon ki dasa ke kitne karya हैं
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