9/01/2021

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 की आवश्यकता/महत्व, समस्याएं

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राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 की आवश्यकता एवं महत्व

rashtriya pathyakram sanrachna 2005 ki aavyashkta;राष्ट्रीय पाठ्यक्रम 2005 की संरचना की आवश्यकता या महत्व को निर्धारित करने वाले तथ्यों पर विचार करने से पहले यह जानना बहुत आवश्यक है कि पाठ्यक्रम एक ऐसी संरचना है, जो पूर्णतः विकासशील अवस्था में रहती है। समाज एवं मानवीय आकांक्षाओं में परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रभाव पाठ्यक्रम पर पड़ता है। समय एवं समाज की मांग ही पाठ्यक्रम मे परिवर्तन की माँग को प्रस्तुत करती है। अतः पाठ्यक्रम मे विकास करने की दृष्टि से पाठ्यक्रम परिवर्तन की अवधारणा को बल मिलता है। 

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राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 की आवश्यकता या महत्व को स्पष्ट करने वाले प्रमुख बिन्दुओं का वर्णन निम्नलिखित है-- 

1. बालक की सन्तुष्टि के लिए 

विद्यार्थी की जरूरतें एवं रूचि को ध्यान मे रखते हुए पाठ्यक्रम को बनाना चाहिए। छात्र की रूचियों एवं इच्छाएं भी समय एवं परिस्थिति के अनुसार बदलती रहती है। इन बदलावों के परिणामस्वरूप नवीन पाठ्यक्रम की आवश्यकता महसूस की जाती है। इस क्रम में यह महसूस किया गया कि विद्यार्थी की आवश्यकता एवं रूचि को ध्यान मे रखकर एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम तैयार किया जाये। इसके लिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम सन् 2005 की रचना की गयी।

2. अध्यापकों की सन्तुष्टि के लिए 

अध्यापकों की सन्तुष्टि के लिये यह आवश्यकता महसूस की जाती है कि पाठ्यक्रम निर्माण दे दौरान उनकी मदद ली जाये एवं उनके समक्ष पाठ्यक्रम क्रियान्वयन के दौरान आने वाली कठिनाइयों को ध्यान में रखा जाये। यदि इन सभी बातों को ध्यान मे रखकर पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है तो अध्यापक को उस पाठ्यक्रम से पूर्ण सन्तुष्टि प्राप्त होती है। सन् 2005 के राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में अध्यापक की पूर्ण सहभागिता प्राप्त की गयी थी। इससे पहले अध्यापकों की सन्तुष्टि के लिये नवीन राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की आवश्यकता महसूस की गयी, जो कि राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 के द्वारा पूरी हुई। 

2. शिक्षण विधियों के विकास के लिये 

पाठ्यक्रम का निर्धारण शिक्षण विधियों, शिक्षण सहायक सामग्री के प्रयोग एवं शिक्षण मे प्रयुक्त संसाधनों को ध्यान मे रखकर किया जाता है। भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षण विधियों का उपयोग पाठ्यक्रम के द्वारा ही होता है। इस प्रयोग मे आने वाली समस्याओं को दूर करके इन विधियों मे आवश्यक सुधार किये जाते है। इस प्रकार शिक्षण विधियों का पूर्ण विकास होता है। अतः शिक्षण विधियों मे सुधार एवं विकास के लिये राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की आवश्यकता की जाती है। 

3. अभिभावक संतुष्टि के लिये 

अभिभावक उस पाठ्यक्रम से सन्तोष एवं सुख का अनुभव करता है, जो उसके बालक के सर्वांगीण विकास उसकी आकांक्षा के अनुसार होता है, जिस पाठ्यक्रम निर्माण में अभिभावकों के विचार एवं आकांक्षा स्तर पर ध्यान दिया जाता है, वह पाठ्यक्रम अभिभावकों को सन्तुष्ट करता है। सन् 2000 के बाद एक ऐसे पाठ्यक्रम की आवश्यकता महसूस की जा रही थी, जो कि अभिभावकों को पूर्ण सन्तुष्टि प्रदान करे। इस प्रकार के पाठ्यक्रम की आवश्यकता को सन्  2005 मे राष्ट्रीय पाठ्यक्रम द्वारा पूरा किया गया। 

4. नवीन तथ्यों के समावेश के लिये 

पाठ्यक्रम शोधकार्यों के निष्कर्षों के द्वारा अनेक नवीन तथ्यों का समावेश करना जरूरी हो जाता है क्योंकि इन तथ्यों की कमी से पाठ्यक्रम के माध्यम से शिक्षण के लक्ष्यों को प्राप्त नही किया जा सकता है। जैसे शोध से यह ज्ञात हुआ कि पाठ्यक्रम के प्राथमिक स्तर की कक्षाओं में खेल विधि का समावेश होना चाहिए। इस कार्य के लिए पाठ्यक्रम मे परिवर्तन आवश्यक है। अन्यथा विद्यार्थियों के विकास की तीव्रता में बाधा आयेगी। अतः नवीन बातों के समावेश के लिए पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 की आवश्यकता थी। 

5. कक्षा-कक्ष शिक्षण के लिये 

कक्षा-कक्ष शिक्षण मे पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण स्थान होता है। पाठ्यक्रम के प्रभाव का मूल्यांकन कक्षा-कक्ष शिक्षण के दौरान ही होता है। पाठ्यक्रम विद्यार्थी के अनुसार अर्थात मानसिक स्तर के अनुसार होगा तो वह प्रभावी एवं सफल माना जायेगा। इसके विपरीत स्थिति मे पाठ्यक्रम मे सुधार या परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की जाती है। कक्षा-कक्ष शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम सन् 2005 को प्रस्तुत किया गया। 

6. शोध परिणामों के प्रयोग हेतु 

शोध परिणामों के व्यावहारिक प्रयोग को संभव बनाने हेतु एक समन्वित एवं संगठित पाठ्यक्रम की आवश्यकता महसूस की जा रही थी क्योंकि 2000 के बाद शैक्षिक क्षेत्र में अनेक शोध कार्य हेतु उनका व्यावहारिक उपयोग पाठ्यक्रम में बदलाव के द्वारा ही संभव था। इस आवश्यकता की पूर्ति राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना द्वारा नवीन शोध कार्यों को समाहित करते हुए की गयी।

7. पाठ्यक्रम विकास के लिये 

पाठ्यक्रम के विकास की दृष्टि से राष्ट्रीय कार्यक्रम सन् 2005 की संरचना आवश्यक थी क्योंकि इससे पाँच साल पहले राष्ट्रीय कार्यक्रम 2000 की संरचना आवश्यक थी क्योंकि इससे पाँच साल पहले राष्ट्रीय कार्यक्रम 2000 की संरचना हुई थी। इन पाँच सालों की अवधि में पाठ्यक्रम मे विकास की अनेक सम्भावनायें थीं। इसलिए पाठ्यक्रम विकास एवं निर्माण के लिये तत्कालीन एन. सी. ई. आर. टी. के अध्यक्ष द्वारा प्रयास किया गया और राष्ट्रीय पाठ्यक्रम सन् 2005 की संरचना हुई। 

8. भाषा समस्या के निदान हेतु 

भारतीय शिक्षा में भाषा समस्या का स्वरूप प्राचीन समय से रहा है तथा इसके निदान हेतु अनेक विभिन्न आयोगों एवं समितियों ने अपने मत प्रस्तुत किये। इसके द्वारा भाषा समस्या के निदान हेतु अनेक मत प्रस्तुत किये गये, जिसमें भारतीय शिक्षा आयोग 1964-66 का त्रिभाषा सूत्र प्रमुख था। इसी प्रकार भाषा समस्या के निदान हेतु एक नये राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना महसूस की गयी, जिसे एक संरचना ने पूरा कर दिया।

9. भारतीय समाज में विविधता 

भारत मे विभिन्न प्रकार के क्षेत्र, अनेक भाषाएं, अनेक धर्म, भिन्न आर्थिक स्थितियाँ एवं सामाजिक स्तर देखने को मिलता है जो हमारे समाज की समता के ऊपर प्रश्न उठाती है। ऐसे में शिक्षा के द्वारा ही इन सभी प्रश्नों को हल किया जा सकता है इसलिए शिक्षा मे उचित पाठ्यक्रम की आवश्यकता है। 

10. परिवर्तन के लिए आवश्यक 

पाठ्यक्रम मे परिवर्तन आवश्यक है। विभिन्न समूहों ने भी विचार-विमर्श के दौरान शिक्षा की सापेक्षता के विषय मे ध्यान केंद्रित किया है। बालकों के माता-पिता, समाज, शिक्षकों तथा स्वयं बालकों को यह एहसास होने लगा कि शिक्षा की व्यवस्था सापेक्षित नही है। अतः इसमें परिवर्तन की आवश्यकता है।

11. संवैधानिक बाध्यता 

भारत मे समता एवं समानता पर आधारित लोकतंत्रीय व्यवस्था है। यह राजनैतिक दृष्टिकोण से सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक व्यवस्था पर अधिक कार्यभार डाल देता है एवं आज के समय मे जब शिक्षा रीढ़ की हड्डी की भूमिका निभा रही है तो शिक्षा में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या ढाँचा एक आवश्यक कदम है।  

12. शिक्षा का आधुनिकीकरण 

वर्तमान आधुनिकीकरण के युग मे शिक्षा के आधुनिकीकरण की भी नितान्त आवश्यकता है एवं इसके लिए शिक्षा की पाठ्यचर्या का ढाँचा अनुकूल होना जरूरी है। 

उपरोक्त विवरण से यह ज्ञात होता है कि राष्ट्रीय पाठ्यक्रम सन् 2005 की आवश्यकता सम्पूर्ण शैक्षिक प्रणाली के विकास के लिए महसूस की जा रही थी। इसके द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व सुधार हुआ है। इस संदर्भ में प्रो. एस. के. दुबे लिखते है कि," राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 भारतीय परिस्थितियों में विद्यार्थियों, अध्यापकों एवं अभिभावकों की आकांक्षाओं की पूर्ति करने वाली महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जो राष्ट्र, समाज एवं शैक्षिक व्यवस्था के विकास को समन्वित रूप प्रदान करते हुए मानवीय एवं नैतिक मूल्यों का विकास करती है।"

इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि आज की परिस्थितियों में राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिये महत्वपूर्ण एवं उपयोगी उपलब्धि है।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा 2005 के मुख्य बिन्दु 

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या शिक्षा को बोझ से मुक्त करने एवं बालकों के सृजनात्मक विकास पर ध्यान केंद्रित करती है। इस पाठ्यचर्या में शिक्षा को पुस्तकीय ज्ञान से बाहर निकालकर समाज व समुदाय के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया है साथ ही साथ इस प्रकार की पाठ्यचर्या का विकास करने का प्रयास किया गया है जिससे बालकों की सृजनात्मकता, मौलिक चिन्तन का विकास हो सके एवं ज्ञान का प्रसार हो सके। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या में पाठ्यचर्या के कुछ मुख्य बिन्दुओं पर विशेष ध्यान केंद्रित किया गया जिनका विवरण इस प्रकार है-- 

1. व्यवस्थागत सुधार एवं परिक्षा प्रणाली। 

2. बालकों का विकास एवं सीखना। 

3. विविध विषयों के विषय में विचार, भाषा, सामाजिक विज्ञान, गणित, कला शिक्षण, विज्ञान, स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा इत्यादि। 

4. पाठ्यचर्या का क्षेत्र एवं मूल्यांकन। 

5. गुणवत्ता सुधार एवं परिक्षा प्रणाली। 

6. पाठ्यचर्या नवीनीकरण के लिए शिक्षक शिक्षा। 

7. परीक्षा सुधार।

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 की समस्याएं अथवा चुनौतियाँ 

rashtriya pathyakram sanrachna 2005 ki samasya;राष्ट्रीय पाठ्यक्रम सन् 2005 के निर्माण मे तथा इसके सफलतम क्रियान्वयन मे अनेक प्रकार की रूकावटें आयी है जिनका समाधान करना आवश्यक व अनिवार्य है क्योंकि प्रत्येक योजना के क्रियान्वयन से पूर्व उसके मार्ग को बाधा रहित बना देना चाहिए। इसी प्रकार पाठ्यक्रम के निर्माण करने तथा उसके क्रियान्वयन को पूर्णरूप से समस्या रहित होना चाहिए, जिससे उसको क्रियान्वित करने वालों के सामने किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न न हो। राष्ट्रीय पाठ्यक्रम सन् 2005 की संरचना एवं क्रियान्वयन संबंधी प्रमुख समस्यायें निम्नलिखित है-- 

1. परम्पराओं की समस्या 

समाज एवं देश की सांस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराएं पाठ्यक्रम बनाने मे प्रमुख समस्या उत्पन्न करती है। यौन शिक्षा की आवश्यकता वर्तमान के समय मे उत्तम स्वास्थ्य तथा एड्स जैसी घातक बीमारी से बचाव की दृष्टि से है, परन्तु भारतीय परम्पराओं के कारण यौन शिक्षा को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 में प्रभावी रूप में प्रस्तुत नही किया जा सका। अतः कहा जा सकता है कि सामाजिक परम्पराएं एवं रूढ़िवादिता पाठ्यक्रम निर्माण की प्रमुख समस्यायें हैं। 

2. राजनीति संबंधी समस्यायें 

लोकतंत्र में सरकारों के परिवर्तन का क्रम चलता रहता है। सरकार में पदासीन व्यक्तियों की मनोदशा का पाठ्यक्रम को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहता है। अभी कुछ समय पहले पाठ्यक्रम मे यौन शिक्षा के अध्ययन को शामिल किया गया है, जिसका भारतीय जनता पार्टी एवं अन्य संगठनों ने कड़ा विरोध किया। इसके फलस्वरूप यह अध्याय पाठ्यक्रम से अलग करना पड़ा। इससे यह ज्ञात होता है कि राष्ट्रीय पाठ्यक्रम का स्वरूप निर्मित करने में भी अनेक राजनैतिक संगठनों एवं धार्मिक संगठनों की प्रतिक्रिया का खास ख्याल रखना होता है।

3. क्रियान्वयन एवं निर्णय की समस्या 

पाठ्यक्रम मे विषय-वस्तु तथा तथ्यों को स्थान देने के लिये एक कमेटी कच निर्णय लेना पड़ता है। इस निर्णय की प्रक्रिया मे विचार एवं मतों की भिन्नता के कारण अनावश्यक देरी होती है। पाठ्यक्रम मे दिये सुझावों के क्रियान्वयन की बाधा भी प्रमुख बाधा है। यदि पाठ्यक्रम का क्रियान्वयन उचित रूप मे नही होता है तो निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति भी संभव नही होती है। 

अतः पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन एवं निर्णय की बाधा राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 की प्रमुख बाधा रही है। 

4. धन संबंधी बाधा 

धन से संबंधित दिक्कतों के कारण पाठ्यक्रम का स्वरूप पूरी तरह से विकसित नही हो पाता है। राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की संरचना करते समय धन की सीमितता को ध्यान मे रखना पड़ता है। इसके फलस्वरूप पाठ्यक्रम में उन विषयों का समावेश नही हो पाता है जिनकी आवश्यकता महसूस की जाती है, जैसे आज कम्प्यूटर की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक शिक्षा प्राथमिक स्तर से ही दी जानी चाहिए। इसके लिए स्कूलों मे कम्प्यूटर की व्यवस्था होनी चाहिए। धन की कमी के कारण यह संभव नही हो पाता है। इसलिए धन के अभाव के कारण राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 में अनेक खर्च प्रधान किन्तु आवश्यक बिन्दुओं को हटाना पड़ता है। अतः इस पाठ्यक्रम के सामने धन संबंधी बाधाएं प्रमुख हैं।

5. भाषा की समस्या 

हमारे भारत मे कई अनेक प्रकार की भाषाएं बोली जाती है। भारत मे कुछ ही दूरी पर ही भाषा बदल जाती है। भारत में बोली जाने वाली कई भाषाओं ने विवाद की स्थिति बना दी है। प्रत्येक राज्य अपनी भाषा की उपेक्षा का दोष लगाना प्रारंभ कर देता है कि उसकी भाषा को पाठ्यक्रम मे उचित स्थान नही दिया गया है। यह परेशानी राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 के समय भी पैदा हुई कि अध्यापन का माध्यम कौनसी भाषा हो? किस भाषा को पाठ्यक्रम में प्रमुख स्थान दिया जाये? यह भाषा संबंधी समस्यायें इस पाठ्यक्रम के निर्माण में उपस्थित हुई है। 

6. समाज की आकांक्षा 

समाज में व्याप्त विचारधारा भी इस पाठ्यक्रम की प्रमुख समस्या रही है। सभी माता-पिता अपने बच्चे को इंजीनियर, डाॅक्टर, आई. ए. एस. आई. पी. एस. एवं अन्य उच्च पदों के उम्मीदवार के रूप मे देखते है। वह यह आशा करता है कि शिक्षा द्वारा उसके बच्चे को उपरोक्त पदों की प्राप्ति होनी चाहिए तब तो शिक्षा समर्थ है अन्यथा उसके लिए निरर्थक सिद्ध होगी। यह विचारधारा किसी एक ही नही बल्कि सम्पूर्ण समाज की है जो कि राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 की प्रमुख समस्या है। 

7. संसाधनों का अभाव 

पाठ्यक्रम बनाने से पहले उपलब्ध संसाधनों पर विचार करना जरूरी होता है। क्योंकि इसी के आधार पर ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। भारत एक विशाल देश है इसलिए संसाधनों की कमी होना स्वाभाविक है। राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 मे भी संसाधनों की कमी का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। संसाधनों की कमी से महत्वपूर्ण विषयों पर विचार-विमर्श नही होता है। इसलिए संसाधनों का अभाव पाठ्यक्रम संरचना की प्रमुख समस्या है। 

8. धर्म संबंधी समस्याएं 

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 मे धर्म निरपेक्ष शिक्षा की व्यवस्था करके धर्म संबंधी बाधाओं का समाधान तो कर दिया लेकिन इसका अन्य रूप जो कि पाठ्यक्रम संबंधी बाधायें बना हुआ है, उभर कर सामने आया है। पाठ्यक्रम मे कई धार्मिक एवं महान व्यक्तियों के चरित्र को अनुचित रूप में प्रस्तुत करने की समस्या समय पर दृष्टिगोचर होती है। इससे पाठ्यक्रम विवाद का विषय बन जाता है। अतः पाठ्यक्रम की संरचना में धर्म संबंधी कठिनाइयाँ वर्तमान समय मे भी बनी हुई हैं।

9. अध्यापक संबंधी समस्यायें 

पाठ्यक्रम मे दिये अनेक बिन्दुओं पर अध्यापक की संख्या संबंध बाधा उत्पन्न हो जाती है जैसे विद्यार्थी को शुरूआती दो वर्षों मे मातृभाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए, यह सुझाव राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 का है, परन्तु अध्यापकों की उपलब्धता जो कि भिन्न-भिन्न भाषाओं का ज्ञान रखते हों, संभव नही है क्योंकि एक स्कूल में भोजपूरी हिन्दी एवं उर्दू मातृभाषा के विद्यार्थी पाये जा सकते हैं। द्वितीय स्तर पर स्कूलों की संख्या तो अधिक है परन्तु अध्यापकों की संख्या न के बराबर है। पाठ्यक्रम का निर्माण उचित अध्यापक संख्या के आधार पर किया जाता है जबकि अध्यापक कम संख्या में होते हैं जिससे पाठ्यक्रम का क्रियान्वयन उचित प्रकार से नही होता है। अतः अध्यापक संबंधी बाधाएं राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 की प्रमुख बाधाएं रही हैं। 

10. विचारों की समस्या 

एक ही तथ्य के संदर्भ में व्यक्तियों के विचारों में विविधता पायी जाती है जिससे किसी एक हल पर पहुंचना कठिन हो जाता है, जैसे आदर्शवादिता को विषय-वस्तु मे स्थान देने पर एक पक्ष यह तर्क देता है कि आदर्शों की कमी में भारतीय शिक्षा अपने मूल उद्देश्य से पृथक हो जायेगी। अन्य पक्ष इसके विरोध में कहता है कि आदर्शों से पेट नही भरता है। पेट भरने के लिये प्रायोगिकता को प्रमुख स्थान देना चाहिए। इस प्रकार विचार विविधता राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 के लिये प्रमुख समस्या के रूप में रही जिससे कि पाठ्यक्रम का स्वरूप और अधिक उपयुक्त नही हो सका। 

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 के सामने अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। जिन्होंने पाठ्यक्रम पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डाला हैं। यह बाधा परिस्थितिजन्य एवं सामाजिक तथा स्थानीय प्रभावों से जुड़ी होती हैं। भारतीय समाज में इन समस्याओं का प्रभाव प्रमुख रूप से देखा जाता हैं।

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना संबंधी समस्याओं का निदान या समाधान 

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की संरचना का क्रम सन् 1988 से अनवरत रूप से चालू है जिसमें राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना संबंधी समस्याओं को निम्नलिखित रूप में समाप्त किया जा सकता हैं-- 

1. सरकार को शिक्षा जगत् में अधिक मात्रा में धन उपलब्ध कराना चाहिए क्योंकि शिक्षा ही राष्ट्र एवं समाज के उत्थान का साधन मात्र हैं। 

2. शिक्षा को राजनैतिक दोषों से दूर रखने के लिये राजनीतिज्ञों में जागरूकता पैदा करनी चाहिए जिससे वे शिक्षा के विकास पर ही ध्यान दें। 

3. भारतीय समाज में विकसित दृष्टिकोण को शामिल करते हुए आधुनिक विचारधाराओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए। 

4. समाज के लोगों में कार्य के प्रति निष्ठा की भावना पैदा की जानी चाहिए। किसी भी पद एवं गौरव की इच्छा को सामान्य रूप में प्रदर्शित करने की योग्यता विकसित करनी चाहिए। 

5. पाठ्यक्रम निर्माताओं को उपलब्ध संसाधनों में ही श्रेष्ठतम पाठ्यक्रम का स्वरूप निर्मित करना चाहिए। इसके लिए पाठ्यक्रम निर्माण कमेटी में योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों को लिया जाना चाहिए। 

6. अध्यापकों में आत्मविश्वास की भावना का विकास करते हुए कर्तव्य पालन के दृष्टिकोण को विकसित करना चाहिए। 

7. भाषा से जुड़ी समस्याओं के निदान हेतु कोई एक सूत्रीय व्यवस्था निरूपित की जानी चाहिए जिसमें किसी को भी कोई भी दिक्कत न हो। 

8. धार्मिक संकीर्णता से ऊपर उठकर मानव कल्याण एवं मानव विकास की भावना का समावेश जन सामान्य में करना चाहिए। 

उपरोक्त समस्याओं के समाधान से राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना को नवीन आधार प्राप्त होगा तथा पाठ्यक्रम निर्माण मे किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नही होगी। पाठ्यक्रम निर्माण का कार्य महत्वपूर्ण कार्य होता है। यह कार्य बाधा रहित एवं स्वस्थ वातावरण में सम्पन्न होना चाहिए।

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