व्याकरण शिक्षण की विधियां अथवा प्रणालियां
व्याकरण शिक्षण के लिए निम्न विधियों या प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है--
1. निगमन विधि
निगमन विधि को नियम उदाहरण विधि भी कहते हैं। इसमें छात्रों को पहले नियम समझा दिए जाते हैं इसके बाद उदाहरण से उस विषय का प्रयोग करके दिखाया जाता है। इसमें नियम को पूर्ण रूप से प्रस्तुत कर के उदाहरण को अपूर्ण रूप में रखकर छात्रों से पूर्ति कराते हैं या फिर उदाहरण से स्पष्ट करते हैं। क्योंकि नियम और सिद्धांत अमूर्त होते हैं। छात्र स्थूल को अधिक समझते हैं एवं रुचि लेते हैं। इसलिए प्राथमिक कक्षाओं में इसका प्रयोग व्यवहारिक नहीं है।
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2. आगमन विधि
आगमन एवं निगमन शिक्षा की विधियां अधिक प्राचीन है। आज भी इनका प्रयोग शिक्षा में किया जाता है। आगमन विधि मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। यह एक मनोवैज्ञानिक एवं शिक्षा की स्वभाविक विधि है। क्योंकि छात्रों का ज्ञान वस्तुओं के निरीक्षण पर निर्भर होता है। जिन वस्तुओं को वह देखता है। उनके संबंध में वह प्रश्न करता है। अतः मातृभाषा के शिक्षण में इसका विशेष महत्व है इस विधि में सीखने को विशेष महत्व दिया जाता है। इस विधि से छात्रों की सृजनात्मक की योग्यता का विकास होता है।
3. भाषा-संसर्ग विधि
भाषा संसर्ग विधि के समर्थकों के अनुसार व्याकरण की शिक्षा अलग से देने का कोई औचित्य नहीं है। छात्रों को विभिन्न लेखकों की रचनाएं पढ़ने को दी जानी चाहिए। जिससे उनका भाषा पर अधिकार हो जाए व्याकरण शिक्षण का भी यही उद्देश्य होता है कि छात्र भाषा पर अधिकार प्राप्त कर ले। इसलिए अलग से व्याकरण शिक्षण की कोई आवश्यकता नहीं होती है। इस प्रकार मातृ भाषा शिक्षण के लिए यह विधि सबसे अच्छी है।
4. पाठ्य-पुस्तक विधि
इस प्रणाली का अर्थ है कि व्याकरण की पुस्तकों के द्वारा ही छात्रों को व्याकरण का ज्ञान दिया जाए। इन पुस्तकों के प्रारंभ में किसी नियम की परिभाषा दी हुई होती है। उसके बाद उस नियम को उदाहरण के द्वारा समझाया जाता है तथा अंत में पुनरावृति के लिए या घर से हल करके लाने के लिए कुछ प्रश्न दिए होते हैं।
पाठ्य पुस्तक प्रणाली प्राथमिक या माध्यमिक कक्षाओं के लिए प्रायः उचित नहीं है क्योंकि यदि छात्रों को पहले से ही नियम ज्ञात हो जाता है तो वे फिर उदाहरण पढ़ने एवं व्याकरण सीखने में अधिक रूचि नहीं लेते हैं। परंतु उच्च कक्षाओं में व्याकरण सीखने के लिए व्याकरण की पाठ्य पुस्तकों का होना अत्यंत जरूरी है। क्योंकि व्याकरण के बहुत से नियम केवल प्रयोगों या सहयोग विधि से नहीं सिखाई जा सकते हैं। इसलिए उच्च कक्षाओं में पाठ्य पुस्तकों का प्रयोग बहुत आवश्यक है।
5. सहयोग विधि
यह विधि भाषा संसर्ग विधि से मिलती जुलती है। इस प्रणाली के मानने वाले भी व्याकरण को स्वतंत्र रूप से पढ़ने के पक्ष में नहीं है। क्योंकि उनके अनुसार छात्रों की रचना की शिक्षा प्रदान करते समय ही व्याकरण के नियम बता देना चाहिए। जिससे कि वे केवल व्यवहारिक व्याकरण की शिक्षा प्रदान कर सकते हैं, परंतु नियमित व्याकरण की शिक्षा प्रदान नहीं कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त सहयोग विधि से पढ़ने में कोई तार्किक क्रम भी नहीं रहेगा। इसके साथ ही यदि हम रचना या गद्य के पाठों से व्याकरण को समन्वित करके पढ़ायें तो मूल पाठ की उपेक्षा हो सकती है।
6. सूत्र विधि
सूत्र विधि का प्रचलन विशेष रूप से संस्कृत भाषा मे होता था। इस प्रणाली मे व्याकरण के विभिन्न नियम सूत्रों में परिवर्तित कर लिये जाते है। छात्रों को फिर ये नियम रटा दिये जाते है। यह प्रणाली बहुत दोषपूर्ण है, क्योंकि बालक बिना सोचे-समझे सूत्रों को रट लेते है। आजकल इस प्रणाली को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है।
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