8/01/2021

पाठ्यचर्या की अवधारण

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पाठ्यचर्या की अवधारण 

pathyacharya ki avdharna;पाठ्यचर्या की अवधारणा के संबंध मे दो विचारधाराएँ प्रचलित है। ये विचारधाराएँ है-- प्राचीन या संकुचित अवधारण तथा आधुनिक अवधारण।

पाठ्यचर्या की प्राचीन अवधारणा 

प्राचीन समय मे शिक्षा का उद्देश्य बहुत ही सीमित था। इसलिए छात्रों को संस्कृत, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र आदि जैसे विषयों का केवल मौखिक ज्ञान देना ही पाठ्यचर्या मे शामिल था। इस प्रकार प्राचीन धारणा के अनुसार पाठ्यचर्या केवल पाठ्य-वस्तु का सैद्धांतिक ज्ञान करा देने तक ही सीमित था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राचीन धारणा के अनुसार पाठ्यचर्या को बहुत ही संकुचित अर्थ मे लिया जाता था अर्थात् कुछ तथ्यों का ज्ञान कराना था। यह ज्ञान विभिन्न विषयों द्वारा प्रदान किया जाता था।

पाठ्यचर्या की संकुचित अवधारण को स्वीकार करते हुए कनिंघम महोदय ने कहा है," पाठ्यचर्या कलाकार (अध्यापक) के हाथों में वह यंत्र (साधन) है जिसमे वह अपनी वस्तु (छात्र) को अपनी कला-कक्ष (विद्यालय) मे अपने आदर्शों (उद्देश्यों) के अनुसार बनाता है। 

पाठ्यचर्या की आधुनिक अवधारण

वर्तमान मे हम ऐसे समाज मे है जिसमें एक ओर निरंतर परिवर्तन होते रहते है तो दूसरी ओर ज्ञान का विस्फोट हो रहा है। इसीलिए आज ज्ञान गलत सिद्ध होता जा रहा है और साथ ही यह भी समस्या है कि क्या ज्ञान दिया जाए, कितना ज्ञान जाए और ज्ञान कैसे दिया जाए। इसका अर्थ है कि आज दिए जाने वाले ज्ञान की समस्या है और साथ ही यह भी समस्या है कि अधिगम किस तरह हो! यह जानते हुए कि आज के बालक को इस परिवर्तनशील समाज की आवश्यकताओं से जूझाना है, हमे उस ज्ञान अथवा कौशलों का पुनर्वालोकन करना जरूरी है जो हम बालकों को देना अथवा सिखाना चाहते है। वास्तविकता तो यह है कि हमें शैक्षिक उद्देश्यों की व्यापकता को ध्यान मे रखते हुए पाठ्यचर्या निर्माण पर अधिक ध्यान देना पड़ता है। इसीलिए नई पाठ्यचर्या में बालकों की आवश्यकताओं, रूचियों, प्रवृत्तियों, क्षमताओं एवं व्यावहारिक क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। साथ ही श्रम के महत्व व्यवसाय प्रधान विषय एवं गतिविधियों पर बल दिया जाता है। इस प्रकार आधुनिक पाठ्यचर्या की धारणा के अनुसार बालकों के सर्वांगीण विकास के विभिन्न विषयों तथा अनुभवों का समावेश किया जाता है। 

आधुनिक पाठ्यचर्या की धारणा को स्पष्ट करते हुए हार्न ने कहा है," कि पाठ्यचर्या वह है जिसे बालक को पढ़ाया जाता है। यह सीखने और शान्तिपूर्वक पढ़ने से कुछ अधिक है। इसमें समस्त उद्योग, व्यवसाय, ज्ञानोपार्जन, अभ्यास तथा क्रियाएँ सम्मिलित होती है। इस प्रकार यह बालकों के स्नायुमण्डल के संगठन मे होने वाली गति एवं संवेगात्मक तत्वों को व्यक्त करता है।

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