8/03/2021

पाठ्यक्रम अस्तित्व के मुद्दे/दोष, समस्याएं

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पाठ्यक्रम अस्तित्व के प्रमुख मुद्दे अथवा दोष 

वर्तमान पाठ्यक्रम के प्रमुख दोष अथवा मुद्दे निम्न प्रकार है--  

1. संकुचित आधार

हमारे देश मे वर्तमान पाठ्यक्रम के आधार शुरू से ही संकुचित रहा है। भारत एक विकासशील राष्ट्र भारत का पाठ्यक्रम जिस स्वास्थ्य राष्ट्रीय संस्कृति पर आधारित होना चाहिए उस पर वर्तमान मे पाठ्यक्रम आधारित रही हो सका है। जब हम अपने पाठ्यक्रम की और दृष्टि डालते है तो हमे उसकी रूप-रेखा ऐसी मालूम पड़ती है जैसे मानो की कोई टेड़ा-मेढ़ा, ऊँच-नीचा और कमजोर सा मार्ग अंधकार मे जाकर कही खो गया हो। जबकि पाठ्यक्रम का स्वरूप उस विस्तृत मार्ग की तरह होना चाहिए जो स्वास्थ्य सामाजिक वातावरण मे जाकर विलीन हुआ है। पाठ्यक्रम का संबंध सीधे समाज से होता है इसलिए उस पर चलने वाले छात्रों का भविष्य अंधकारमय नही नही होता। सिलेबस एक कमजो मार्ग की तरह होता है जिसमें कुछ गिनी-चुनी किताबें ही सन्निहित होती है जिस पर चलने वाले छात्रो का भविष्य पूरी तरह से अंधकारमय होता है। पहले एक परीक्षा का कमजोर प्रकाश दिखायी भी देता था, किन्तु उसको पार करने पर भीषण अंधकार सामने आ जाता है। हमारा पाठ्यक्रम संकुचित होने के कारण उसे 'सिलेबस' ही कहा जा सकता है। आछ भी हमारे देश के विद्यर्थियों का भविष्य अंधकारमय ही है। 

2. सैद्धांतिक 

जीवन मे काम मे आने वाले जिन अनुभवों एवं कुशलता को हम स्वयं कार्य करके अपने आप प्राप्त कर सकते है उन्हे भी वर्तमान पाठ्यक्रम हमे पुस्तकों से रटवाने के लिए बाध्य करता है। हम पुस्तके पढ़कर किसी वस्तु के बारे मे जान तो जाते है लेकिन उस जानकारी को व्यावहारिक रूप देने की क्षमता न होने के कारण ही समाज हमे बेकार कहता है। पाठ्यक्रम का कार्य केवल किसी विषय का ज्ञान प्राप्त कराना ही नही बल्कि उस ज्ञान को व्यवहार रूप में परिणत करने का अनुभव प्रदान करना भी है। 

3. पुस्तकीय स्वभाव 

हमारे यहां पर पाठ्यक्रम और सिलेबस में कोई अंतर नहीं समझा जाता है। जब भी हम पाठ्यक्रम के विषय में विचार करते हैं, तो हमारी आंखों के सामने एक-एक कर पुस्तकों का चित्र आने लगता है। बालकों की शक्तियां अपने विकास के लिए स्वतंत्र और सक्रिय वातावरण चाहती हैं। यह सक्रिय वातावरण पाठ्यक्रम में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। लेकिन हमारा पाठ्यक्रम अभी भी दिन प्रतिदिन पुस्तकों के बोझ से दबा जा रहा है।

4. जीवन के साथ संबंध नही 

पाठ्यक्रम में उन समस्याओं क्रिया एवं अनुभवों के लिए स्थान होना चाहिए जिनका बालक के भविष्य के जीवन से संबंध होता है। एक प्रकार से पाठ्यक्रम एक ऐसा वातावरण होना चाहिए जो बालक के भविष्य के सामाजिक जीवन के बिल्कुल अनुरूप हो। किंतु दुर्भाग्य की बात तो यह है कि हमारा पाठ्यक्रम सामाजिक जीवन से कुछ भी संबंध नहीं रखता। इसलिए पढ़े-लिखे लोग विद्यालय से निकलने के बाद समाज में आने से घबराते हैं।

5. अनुपयोगी 

केवल किताबी ज्ञान प्राप्त कराने वाला पाठ्यक्रम जीवन उपयोगी नहीं हो सकता है। यह पाठ्यक्रम विद्यार्थियों को रखने के लिए मजबूर करता है। क्योंकि जीवन उपयोगी शिक्षा तो कार्य करने एवं अनुभव के द्वारा ही प्राप्त होती है। शिक्षा जीवन उपयोगी तो होती अवश्य है पर हमारा पाठ्यक्रम उसे जीवन उपयोगी नहीं बना पा रहा है। क्योंकी पाठ्यक्रम में जीवन उपयोगी शिक्षा प्रदान करने वाले साधनों एवं क्रियाओं का पूर्ण रूप से अभाव है।

6. शिक्षकों का असहयोग 

हमारे यहां पाठ्यक्रम निर्माण में शिक्षकों से कोई सहयोग नहीं लिया जाता है। शिक्षक ही एक ऐसा व्यक्ति होता है जिसके पास विद्यालय के जीवन और सामाजिक जीवन दोनों का ही काफी बेहतर अनुभव होता है। पाठ्यक्रम बनाने वाला दूसरा होता है और उसे क्रियान्वित करने वाला दूसरा फिर पाठ्यक्रम की असफलता निश्चित है। क्योंकि प्रत्येक समाज की अपनी स्थानीय समस्याओं और आवश्यकताएं होती है। इसलिए पाठ्यक्रम को उन समस्याओं और आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने की स्वतंत्रता विद्यालय के शिक्षकों को भी होनी चाहिए।

7. छात्रों की विभिन्न आवश्यकताओं एवं प्रवृत्तयों के अनुकूल नही 

प्रत्येक अवस्था के बालकों की अपनी निजी प्रवृतियां और आवश्यकता होती है। बालक संपूर्ण कार्य इन आवश्यकताओं से प्रेरित होकर करता है। पाठ्यक्रम में अनावश्यक आवश्यकताओं के अनुकूल विषयों एवं क्रियाओं के रहने पर ही छात्र उसमें रुचि लेता है।

8. सह-संबंध का अभाव 

वर्तमान में हमारा पाठ्यक्रम इस ढंग से है कि उससे केवल कुछ गिने-चुने विषयों का परस्पर असंबद्ध ज्ञान ही प्राप्त होता है। जो वर्तमान मनोवैज्ञानिक विचारों से बिलकुल ही विपरीत है। बेसिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में सहसंबंध के सिद्धांत को सैद्धांतिक रूप से स्थान दिया गया है। परंतु विद्यालयों में उसी पुराने ढेरे पर अलग-अलग विषयों की अलग-अलग शिक्षा दी जा रही है। विषयों के इस प्रकार असम्बद्ध होने से विद्यालय के वातावरण में जो दुरूहता और नीरसता आती है, उसके भीषण परिणाम से ही अनुशासनहीनता और अपराध दोनों को बढ़ावा देते हैं। वर्तमान पाठ्यक्रम की कोई उपयुक्त मनोवैज्ञानिक विधि ना होने के कारण हमारा पाठ्यक्रम एक इकाई का रूप में नहीं पा सका है।

9. वैयक्तिक विभिन्नता की उपेक्षा 

हमारे देश में बहुधंधी विद्यालयों के ना होने से छात्रों को अपनी रूचि और योग्यता के अनुसार विकास करने का ऑप्शन नहीं मिल पाता। बहुधंधी विद्यालयों का ही पाठ्यक्रम इतना विस्तृत होता है कि एक स्थान पर रहते हुए भी विभिन्न योग्यता वाले छात्र अपनी रूचि के अनुसार विषयों का चुनाव कर पाते हैं। अधिकांश विद्यालयों में साधनहीनता के कारण ऐच्छिक विषयों की संख्या इतनी कम रखी जाती है कि ना चाहते हुए भी छात्रों को उन विषयों को लेना पड़ता है। साधनहीन विद्यालयो के पाठ्यक्रम सामान्य बुद्धि वाले छात्रों के लिये तो कुछ उपयुक्त होते भी है पर प्रतिभाशाली और सामान्य से नीचे वाले छात्रों के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं होते अनुपयुक्त और अरुचिकर पाठ्यक्रम छात्रों की जन्मजात शक्तियों का पर्याप्त और उचित दिशा में विकास नहीं कर पाता।

10. पाठ्यक्रम का परीक्षा-केन्द्रित होना 

हमारी वर्तमान शिक्षा ही परीक्षा पर टिकी हुई है। क्योंकि परीक्षा शिक्षा के लिए साधन के रूप में प्रयुक्त होती है लेकिन हमारे देश में वह शिक्षा का लक्ष्य बन गई है। शिक्षक बालक को शिक्षा इसलिए देता है कि वह अच्छी तरह परीक्षा उत्तीर्ण कर ले और छात्र भी परीक्षा के लक्ष्य को सामने रखकर ही अध्ययन करता है। हमारी परीक्षा प्रणाली भी इतनी दूषित है कि उसके लिए पूरे पाठ्यक्रम की तैयारी भी नहीं करनी पड़ती शिक्षक किसी विषय अध्यायों या इकाइयों को अक्रमबद्ध रूप से पढ़ाता है जो परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी होते हैं और छात्र भी उन्हीं  अध्यायों से ही तैयार करते हैं। इस प्रकार पाठ्यक्रम परीक्षा के नियंत्रण में आ गया है।

11. निष्क्रियता 

किताबी शिक्षा पर बल देने वाला पाठ्यक्रम निष्क्रिय होता ही है। हमारे पाठ्यक्रम में उन सृजनात्मक एवं रचनात्मक क्रियाओं के लिए कोई स्थान नहीं है जिन से बालकों की निजी योग्यताओं के विकास एवं प्रदर्शन का अवसर मिलता है। कारण इन क्रियाओं तथा इससे विकसित होने वाले गुणों का परीक्षण की कॉपियों से कोई संबंध नहीं होता।

12. अनावश्यक विषयों का भार 

हमारा पाठ्यक्रम विद्यार्थियों के लिए एक भार-सा बन गया है। उसमे उनके विषय ऐसे है जो भविष्य के लिये उतने उपयोगी नही जान पड़ते जितने परिश्रम से उन्हे रटना पड़ता है।

13. आर्थिक और व्यावसायिक क्षमता का अभाव 

हमारा पाठ्यक्रम ऐसे स्थान पर जाकर मिलता है जहाँ पूरा अंधकार होता है। जब तक विद्यार्थी पढ़ते हैं तब तक तो परीक्षा का लक्ष्य प्रेरणा का स्त्रोत बना रहता है पर परीक्षा समाप्त होने पर एकाएक विद्यार्थियों के सामने अंधेरा सा छा जाता है। वर्तमान पाठ्यक्रम बच्चों के भविष्य के व्यवसाय एवं आर्थिक क्षमता की ओर विशेष ध्यान नहीं देता है। उसका लक्ष्य बच्चों को परीक्षा में पास करना होता है। विद्यर्थी निरूद्देश्य एक कक्षा से दूसरी कक्षा में प्रवेश लेते जाते हैं क्योंकि इसके अतिरिक्त उनके पास अन्य कोई विकल्प ही नहीं होता।

14. कठोरता 

हमारा पाठ्यक्रम इतना लोचदार नही है कि समय-समय पर उसमें आसानी से संशोधन किया जा सके।

15. परम्पानुगामी 

परंपरा के प्रति आशक्ति तो हमारी संस्कृति की विशेषता है हम कितने ही ऐसे काम करते हैं जिनकी कोई उपयोगिता हमें मालूम ही नहीं रहती। केवल इसलिए करते हैं कि हमेशा से लोग करते आए हैं। हम परिवर्तन या नवीनता की हमेशा से ही उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। यही कारण है कि हमें दुनिया के पीछे-पीछे चलना पड़ रहा है।

16. विश्वविद्यालयों का दबाव 

हमारा माध्यमिक विद्यालयों का पाठ्यक्रम एक प्रकार से अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखता। माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करते समय उन छात्रों के सामने प्रकाश देता है जिन्हें विश्वविद्यालय में जाकर स्नातकीय शिक्षा प्राप्त करना है किंतु उन विद्यार्थियों के सामने अंधेरा रहता है, जिनकी आर्थिक क्षमता विश्वविद्यालयों में जाने से उन्हें रोकती है।

पाठ्यक्रम अस्तित्व की समस्याएं 

यदि पाठ्यक्रम की दृष्टि से देखा जाए तो विद्यालयी पाठ्यक्रम का स्कूली शिक्षा शिक्षा में विशेष महत्व होता है।  भारत मे स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम की काफी आलोचना की जाती है। पिछले कुछ वर्षों मे मध्यान्तर भोजन योजनाएं बनायी गयी थी। वे बड़ी स्कूली कमियों को दूर करने हेतु बनायी गयी थी लेकिन आधुनिक समय मे केन्द्रित एवं राज्य सरकारें पाठ्यक्रम के पुनर्रीक्षण और माध्यमिक शिक्षा के संपूर्ण पैटर्न को एक स्वरूप प्रदान करने का प्रयास कर रही है लेकिन इस क्षेत्र मे बहुत  कम प्रगति दिखलाई दे रही है। परम्परागत गलत प्रत्ययों ने एवं आचरण स्कूली अभ्यास ने बहुत-सी समस्याएं खड़ी कर दी है।

पाठ्यक्रम अस्तित्व कि मुख्य समस्याएं निम्नलिखित है--

1. शिक्षा को पुनर्परिचित कराने की आवश्यकता 

ज्यादातर शिक्षक प्रधानाध्यापक एवं शैक्षिक प्रशासक पाठ्यक्रम का मतलब विविध परंपरागत शैक्षिक विषयों के संकलन से अधिक नहीं समझते हैं। पाठ्यक्रम की अवधारणा पूरी तरह विभिन्न आयु वर्ग के छात्रों के शैक्षिक अनुभवों पर आधारित है। यह पाठ्यवस्तु के अभ्यास से प्रभावित नहीं है। राज्यों का नया पाठ्यक्रम विषय आधारित ना होकर बाल आधारित हो गया है तथा यह पाठ्य पुस्तक एवं भूत कालीन सैद्धांतिक परंपराओं से ज्यादा प्रभावित है। इसमें जो भी परिवर्तन आए हैं वे विस्तृत रूप में आए हैं। विद्यार्थियों को पर्याप्त रूप से बौद्धिक सामाजिक एवं प्रयोगात्मक अनुभव प्रदान करने का प्रयत्न किया जा रहा है। परंपरागत शिक्षकों के कारण नई योजना इतनी प्रभावशाली रूप से कार्य नहीं कर सकती है। इस कारण इसमें शीघ्र सुधार लाने की संभावनाएं कम हो जाती है। यह एक बहुत बड़ी समस्या है। क्योंकि शिक्षक उतनी शीघ्रता से नई तकनीकों को नहीं अपना पा रहे। 

इस समस्या के समाधान के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं--

1. शिक्षकों को गत्यात्मक प्रोग्राम हेतु अस्थायी रूप से व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

2. सेवारत प्रशिक्षण तथा पुनर्परिचित हेतु हजारों शिक्षकों, प्रधान अध्यापकों एवं प्रशासकों को प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए।

इस प्रकार के व्यावसायिक प्रशिक्षण के द्वारा शिक्षकों मे तकनीकी ज्ञान का समायोजन किया जा सकता है तथा शिक्षकों की क्षमताओं एवं योग्यताओं का विकास किया जा सकता है।

2. विश्वविद्यालय की प्रभुत्वता 

पाठ्यक्रम के सिद्धांत एवं अधिक किताबी होने का एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि यह ज्यादातर विश्वविद्यालय की आवश्यकताओं एवं प्रवेश प्रक्रिया को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाता है। स्कूली छात्र बहुत बड़ी संख्या में स्कूली शिक्षा खत्म करके विश्वविद्यालय में प्रवेश लेते हैं। पाठ्यवस्तु कमेटी ज्यादातर कॉलेज के उन शिक्षकों के प्रभुत्व में कार्य करती है जिनकी पहुंच ऊंची होती है एवं इस तरह पाठ्यवस्तु विश्वविद्यालय स्तर पर निर्धारित किया जाता है एवं हर बार परिवर्तित एवं संशोधित पाठ्यवस्तु विश्वविद्यालय के प्रभाव से ही निर्धारित होता है। विश्वविद्यालय में प्रवेश लेते समय छात्र पाठ्यवस्तु की शिकायत कर सकें इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। पाठ्यवस्तु के निर्धारण में स्कूली शिक्षक एवं अभिभावकों और छात्रों की कोई भूमिका नहीं होती है। यह एक बहुत जटिल मुद्दा एवं समस्या है। शिक्षक पाठ्यक्रम को पड़ता है पर उसका पाठ्यक्रम निर्धारित करने मे उसका कोई महत्व नहीं होता है। इस समस्या के समाधान हेतु छात्रों एवं शिक्षकों तथा अभिभावकों का पाठ्यक्रम निर्धारण में महत्व होना चाहिए।

3. वैज्ञानिकता के निकट आने की आवश्यकता 

पाठ्यवस्तु निर्माण हेतु कुछ वैज्ञानिक पहुंच का भी ध्यान रखना चाहिए। पाठ्यक्रम निर्माण करते समय समस्याओं पर पूर्णरूपेण विचार करना चाहिए तभी हम उन्हें सफलतापूर्वक संभाल सकेंगे। पुराने विषयों के साथ कुछ नए वैज्ञानिक विषयों को भी जोड़ना चाहिए। देश में पाठ्यक्रम अनुसंधानओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पाठ्यक्रमों में वैज्ञानिकता पहुंच की बहुत आवश्यकता है। समस्या पर सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करके यह कहा जा सकता है कि पाठ्यक्रम में समय-समय पर आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तन करना चाहिए। विषय की अंतर्वस्तु का मूल्यांकन करना चाहिए। पाठ्यक्रम के सभी प्रकारों के महत्व के अनुसार उसका रूपांतरण करना छात्र का मूल्यांकन उसके विस्तृत सामाजिक तथा मानवीय विकास के संदर्भ में करना चाहिए। पाठ्यक्रम निर्माण में छात्रों की योग्यताओं रुचियां एवं क्षमताओं और विशेष रुप से उसकी समायोजन क्षमताओं का ध्यान रखना जरूरी है। यह आवश्यक है कि प्रस्तावित पाठ्यक्रम अंतर्वस्तु न्यूनतम से अधिकतम एवं सरल से कठिन के पैटर्न पर आधारित है। जिसे औसत एवं औसत से ऊपर के छात्र हल कर सके ऐसा होना चाहिए तथा पाठ्यक्रम में कोई भी संशोधन विभिन्न क्षमताओं के छात्रों पर ज्यादा भार न डालें।

4. पाठ्यक्रम निर्माण मे शिक्षकों का संघ 

सामान्य तौर पर यह कहा जाता है कि एक पाठ्यक्रम जो एक राज्य के विद्यालय के लिए बनाया जा रहा है वह सभी राज्यों के अनुसार स्वीकृत किया गया है। पाठ्यवस्तु के चयन अथवा इसके पैटर्न मे परिवर्तित कोई स्वतंत्रता नहीं होती है। कल्पनाशील शिक्षक प्रस्तावित पाठ्यक्रम को स्वीकार करते हैं। जो स्थानीय परिस्थितियों तथा व्यक्तिगत संस्थाओं के आधार पर निर्मित होता है।  ज्यादातर शिक्षक सुनिश्चित पाठ्यक्रम आधारित पर्यटन को प्राथमिकता देते हैं जिसमें कम से कम खतरा हो एवं सुस्पष्ट निर्देशन हो शिक्षक एवं प्रशासक पाठ्यक्रम नियोजन में संतोषजनक ढंग से सहभागिता नहीं करते हैं। कई बार सही तरीके से पाठ्यक्रम को समझा भी नहीं जाता है। अगर वे पाठ्यक्रम निर्माण के समय एकजुट होकर सही तरह से सहभागिता करें तो पाठ्यक्रम संबंधित कई समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि अनुभवी शिक्षक ही छात्रों की वास्तविक कठिनाइयों को समझते हैं एवं अगर वह पाठ्यक्रम निर्माण के समय पाठ्यक्रम निर्माताओं के संज्ञान में समस्याओं को ले आए तो यह समस्याएं छात्रों को भविष्य में प्रभावित नहीं कर पाएंगी

5. विषयों के एकीकृत हेतु जरूरत 

पाठ्यक्रम की पुनर्व्यवस्था विविध विषयों एवं उनकी विभिन्न इकाइयों एवं विस्तृत अध्ययन सामग्री के कारण एवं विभिन्न विषयों की तुलना के कारण बहुत जरूरी हो जाती है। पाठ्यक्रम के विभिन्न विषय अधिकांश पृथक रूप से प्रस्तुत किए जाते हैं एवं प्रत्येक इकाई की अध्ययन सामग्री मानवीय ज्ञान तथा रूचि पर आधारित होती है। लेकिन जब हम कुछ विषयों का एकीकरण करने हेतु समूह बनाते हैं जैसे सामाजिक विज्ञान एक ऐसा विषय है जिससे सभी परिचित हैं तथा इसकी पहुंच परंपरागत रूप से प्रत्येक व्यक्ति तक है। इसलिए सामाजिक विज्ञान विषय में इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र तथा अर्थशास्त्र विषयों को एकीकृत करके एक समूह बनाया जाता है। इसी तरह सामान्य विज्ञान में शिक्षकों एवं विशेषज्ञों के विकास हेतु विज्ञान की एक अथवा दो शाखाएं हैं (भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान आदि) इसमें छात्र विभिन्न विज्ञानों में अन्तर्सम्बन्ध नही स्थापित कर सकते है। इसी कारण वे एकीकृत विषयों को चुनते हैं। कई बार शिक्षकों एवं छात्रों पर इसी कारण कार्यभार बढ़ जाता है। बहुत से विषय होने के कारण कई बार छात्रों के सामने हाईस्कूल स्तर पर कुछ भाषाओं को सीखने की समस्या भी पैदा हो जाती है। इसलिए विषयों के एकीकरण की समस्या भी एक महत्व समस्या है।

6. पाठ्यवस्तु के अतिभार की समस्या 

छात्र के सामने पाठ्यवस्तु के अधिभार की समस्या भी एक महत्वपूर्ण समस्या है। किताबी ज्ञान पर इसी कारण ज्यादा दबाव डाला जाता है हर विषय में बहुत से तथ्त तथा उनकी विस्तृतता से पाठ्यवस्तु बोझिल बन जाती है। इसका ज्यादातर छात्र हेतु अधिक महत्व नहीं होता है। जिन विशेषज्ञों को पाठ्यक्रम का पुनर्रीक्षण करने के लिए नियुक्त किया जाए उन्हें जहां तक संभव हो छात्रों की रुचि के अनुकूल विषय सामग्री का चुनाव करना चाहिए तथा उसी विषय सामग्री को चुनना चाहिए जिसके विषय में ज्यादा माँग हो। विशेष सामग्री अधिगमकर्ता रूचियों आवश्यकताओं तथा तार्किक विकास को ध्यान में रखकर चुनी जानी चाहिए। पाठ्यक्रम एवं शिक्षक दोनों पर कोई दबाव नहीं होना चाहिए। शिक्षक को यह अनुभव होना चाहिए कि सबसे महत्वपूर्ण बालक है तथा उसके विकास के लिए हमें उसे शिक्षित करना है। किस तरह उसकी स्मृतियों पर भार डालें बगैर उसे महत्वपूर्ण जानकारी दी जा सकती है एवं किस तरह विभिन्न विषयों के आंकड़ों एवं महत्वपूर्ण तत्वों का ज्ञान छात्रों को प्रदान किया जाए जिससे उसका सर्वांगीण विकास हो सके तथा अधिगमकर्त्ता उस विषय में पारंगत बन सके। 

7. विभिन्नीकृत पठ्यचर्या में कठिनाइयाँ 

तात्कालिक बरसों में पाठ्यक्रमों में बहुत से विभिन्नीकृत कोर्स प्रदान किये है। यह कोर्स छात्रों की रुचियों, अभिरुचिओं तथा योग्यताओं के आधार पर लाए गए हैं। जिनका उपयोग छात्र अपनी-अपनी योग्यता एवं रूचियों तथा अभिवृत्तियों के अनुसार कर सकते हैं। इनमे काॅमर्स मे, फाइन आर्ट तथा गृह विज्ञान में, कृषि विज्ञान एवं प्रौद्योगिक मे प्रयोगात्मक कोर्स शामिल है। लेकिन यह कोर्स पूर्ण रूप से उपयोगी सिद्ध नहीं हो पा रहे हैं। क्योंकि इनकी उपयोगिता में कुछ समस्याएं आ रही है। जैसे उपकरणों की कमी, प्रतीक्षित नियोक्ताओं की कमी, निर्देशन सामग्री का अभाव आदि। कुछ ऐसे बहुउद्देशीय विद्यालयों की जरूरत है जहां पर कृषि एवं तकनीकी प्रशिक्षित नियोक्ता हो तथा प्रशिक्षित शिक्षक छात्रों को उचित रूप से प्रशिक्षित कर सकें। हालांकि बहुत से कोर्स पेश किए गए हैं जिनमें अच्छे प्रशिक्षित शिक्षक भी उपलब्ध है। उचित शैक्षिक एवं व्यवसायिक निर्देशन के अभाव में यह विद्यालय पूर्णता प्रभावहीन सिद्ध होते हैं। विभिन्नीकृत पाठ्यक्रमों के अनुसार विद्यालय की पुनर्व्यवस्था होना जरूरी है। जिससे विभिन्न समस्याओं का समाधान हो सके लेकिन इस समस्या का समाधान करना अत्यंत सरल नहीं है।

8. पाठ्य-पुस्तकों की समस्या 

पाठ्य पुस्तकें तथा संस्थान द्वारा प्रदत्त शिक्षण सामग्री छात्रों के सामने एक बहुत महत्वपूर्ण तथा गंभीर समस्या होती है। यह समस्या पाठ्यक्रम सुधार की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। पाठ्यपुस्तकें अक्सर अन्तर्वस्तु तथा प्रस्तुतीकरण के संतोषजनक स्तर की नहीं होती है। बे

वे संस्थान द्वारा प्रदत्त शिक्षण सामग्री तथा शिक्षकों को निर्देशन प्रदान करने में पूरी तरह से सक्षम नहीं होती है। समस्या उस समय ज्यादा पैदा हो जाती है जब निर्देश का माध्यम प्रांतीय भाषाएं हो। प्रकाशक अगर पुस्तकों से ज्यादा लाभ प्राप्त नहीं कर पाते हैं तो वह अच्छी पुस्तकें जो बड़े पैमाने पर नहीं बिकती हैं उनको छापते ही नही। इस तरह अच्छी पुस्तकों का निर्माण नही हो पाता है।

पाठ्य-पुस्तकों की समस्याओं का समाधान करने हेतु विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण होना जरूरी है। विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण होने से पाठ्य-पुस्तकों के अधिभार की समस्या का समाधान संभव है। सरकार इस क्षेत्र में प्रयत्न कर रही है एवं विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी एकीकरण लाने का प्रयत्न कर रही है। राष्ट्रीयकरण से विभिन्न राज्यों के पाठ्यक्रम में एकरूपता आ जाएगी संक्षिप्त में निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि हम उच्च गुणवत्ता युक्त पुस्तकों का निर्माण करने में सक्षम नहीं है। तथा हमारे पास योग्य लेखकों का अभाव भी है एवं उचित कीमतों का अभाव भी है जिससे पाठ्य पुस्तकों की समस्या आज खड़ी हुई है।

9. पाठ्यक्रम तथा परीक्षा 

पाठ्यक्रम की समस्या परीक्षा एवं मूल्यांकन से घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती है। शैक्षिक व्यवस्था में पाठ्यक्रम के उद्देश्यों, शिक्षण की विधियाँ पाठ्यक्रम के विषय तथा उन उद्देश्यों का मूल्यांकन एकल शैक्षिक प्रक्रिया का रूप माना जाता है। हमारे देश मे परीक्षा पाठ्यक्रम के अतिरिक्त प्रश्नों पर आधारित होती है अर्थात् परीक्षा में अधिकतर पाठ्यक्रम से बाहर भी प्रश्न पूछ लिये जाते है। यह एक छात्र तथा शिक्षक के लिए बहुत बड़ी समस्या होती है कि वह पाठ्यक्रम के बाहर से पूछे गये प्रश्नों को किस तरह पढ़े एवं तैयार करे। यह व्यवस्था एक तरह से पाठ्यक्रम को व्यर्थ सिद्ध कर देती है तथा इसमें बड़े पैमाने पर सुधार की जरूरत है। इससे परीक्षा व्यवस्था भी प्रभावित होती है एवं पाठ्यक्रम के उद्देश्यों में भी परिवर्तन आ जाता है। परीक्षा अगर पाठ्यक्रम से बाहर के प्रश्नों पर आधारित हो जाए तो पाठ्यक्रम की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिससे माध्यमिक परीक्षा, उच्च परीक्षा एवं उच्चतर स्तर तक के छात्र प्रभावित होते है। सभी स्तरों पर पाठ्यक्रम से ज्यादा प्रश्न पूछे जाते हैं। इसलिए यह समस्या सभी स्तर के छात्रों के सामने आती है।

9. पाठ्यक्रम तथा परीक्षा 

पाठ्यक्रम की समस्या परीक्षा एवं मूल्यांकन से घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती है। शैक्षिक व्यवस्था में पाठ्यक्रम के उद्देश्यों, शिक्षण की विधियाँ पाठ्यक्रम के विषय तथा उन उद्देश्यों का मूल्यांकन एकल शैक्षिक प्रक्रिया का रूप माना जाता है। हमारे देश मे परीक्षा पाठ्यक्रम के अतिरिक्त प्रश्नों पर आधारित होती है अर्थात् परीक्षा में अधिकतर पाठ्यक्रम से बाहर भी प्रश्न पूछ लिये जाते है। यह एक छात्र तथा शिक्षक के लिए बहुत बड़ी समस्या होती है कि वह पाठ्यक्रम के बाहर से पूछे गये प्रश्नों को किस तरह पढ़े एवं तैयार करे। यह व्यवस्था एक तरह से पाठ्यक्रम को व्यर्थ सिद्ध कर देती है तथा इसमें बड़े पैमाने पर सुधार की जरूरत है। इससे परीक्षा व्यवस्था भी प्रभावित होती है एवं पाठ्यक्रम के उद्देश्यों में भी परिवर्तन आ जाता है। परीक्षा अगर पाठ्यक्रम से बाहर के प्रश्नों पर आधारित हो जाए तो पाठ्यक्रम की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिससे माध्यमिक परीक्षा, उच्च परीक्षा एवं उच्चतर स्तर तक के छात्र प्रभावित होते है। सभी स्तरों पर पाठ्यक्रम से ज्यादा प्रश्न पूछे जाते हैं। इसलिए यह समस्या सभी स्तर के छात्रों के सामने आती है।

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