3/10/2022

विवाह का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य

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विवाह का अर्थ (vivah kise kahte hai)

vivah arth paribhasha uddeshya;मोटे तौर पर विवाह का अर्थ दो विषम लिंगी व्यक्तियों मे यौन सम्बन्ध स्थापित करने की समाज की स्वीकृति विधि है।

हालांकि विवाह का आधार मानव की जन्मजात जैविक यौन भावना की संन्तुष्टि है किन्तु विवाह वस्तुतः इस भावना की सन्तुष्टि की समाज द्वारा स्वीकृत रीति है। इस दृष्टि से विवाह एक सामाजिक घटना है, न कि जैविक। वास्तव मे विवाह एक सार्वभौमिक सामाजिक संस्था है। सार्वभौमिक इसलिए क्योंकि विश्व के सभी समाजो मे विवाह दिखाई देता है, भले ही इसका स्वरूप एक समाज से दूसरे समाज मे कुछ या काफी भिन्न हो।

विवाह की परिभाषा (vivah ki paribhasha)

विभिन्न विद्वानों द्वारा विवाह की परिभाषाएं इस प्रकार है--

गिलिन तथा गिलन के अनुसार " विवाह एक प्रजनन मूलक परिवार की स्थापना की समाज द्वारा स्वीकृत विधि है।" 

हैवलाक एलिस के अनुसार " विवाह दो व्यक्तियों, जो यौन सम्बन्ध और सामाजिक सहानुभूति के बंधन से एक दूसरे के साथ सम्बद्ध हो और जिसे यदि सम्भव हुआ तो अनिश्चितकाल तक बनाये रखना उनकी इच्छा पर है, के बीच परस्पर सम्बन्धों को कहते है। 

वेस्टरमार्क के अनुसार " विवाह एक या अधिक पुरूषो तथा एक या अधिक स्त्रियों के बीच वह सम्बन्ध है जो प्रथा या कानून द्वारा मान्य होता है और जो संघ मे आने वाले दोनो पक्षों और इससे उत्पन्न होने वाले बच्चों- इन दोनो ही स्थितियों मे कुछ अधिकार और कर्तव्यो को समावेशित करता है। 

लावी के शब्दों मे " विवाह उन स्पष्ट रूप से स्वीकृत संगठनो को व्यक्त करता है, जो इन्द्रीय संबंधी संतोष के बाद स्थिर रहता है तथा पारिवारिक जीवन का आधार बनता है। 

हाबेल के अनुसार " विवाह सामाजिक आदर्श नियमो का जाल है जो विवाहित दंपत्ति के पारस्परिक संबंधों उनके रक्त संबंधियो बच्चों एवं समाज के प्रति उनके संबंधो को नियंत्रित तथा परिभाषित करता है।" 

मजूमदार और मदान " विवाह एक सामाजिक बंधन या धार्मिक संस्कार के रूप मे स्पष्ट होने वाली वह संस्था है, जो दो विषम लिंग के व्यक्तियों को यौन संबंध स्थापित करने एवं उन्हें एक दूसरे से सामाजिक, आर्थिक संबंध स्थापित करने का अधिकार प्रदान करती है।" 

जेम्स के अनुसार " विवाह मानव समाज मे सार्वभौमिक रूप से पायी जाने वाली संस्था है,जो यौन संबंध, गृह संबंध, प्रेम एवं मानव स्तर पर व्यक्ति के जैवकीय, मनोवैज्ञानिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा करती है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि विवाह समाज द्वारा स्वीकृत एक सामाजिक संस्था है। यह दो विषमलिंगी व्यक्तियों को यौन संबंध स्थापित करने का अधिकार प्रदान करती है। विवाह संबंध बहुत ही व्यापक होते हैं। इनमें एक-दूसरे के प्रति भावात्मक लगाव, प्रतिबद्धता, सेवा भाव, सहायता व एक-दूसरे को निरंतर सहारा देना सम्मिलित है। विवाह के पश्चात् उत्पन्न संतान को ही वैध माना जाता है।

विवाह के उद्देश्य (vivah ke uddeshya)

विवाह एक सामाजिक संस्था है। संस्था का विकास और अस्तित्व कतिपय सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति से सम्बन्धित होता है। यह आवश्यक नही है कि उद्देश्य सदा समान ही रहे। देश और काल के अनुसार विवाह के उद्देश्यों मे थोड़ा बहुत हेरफेर होता रहता है। उद्देश्यों मे साधारणतया उतना अंतर नही होता जितना कि उनके अधिमान्यता के क्रम मे होता है। विवाह के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार है--

1. यौन इच्छा की स्थायी पूर्ति करना।

2. सन्तानोत्पत्ति और उत्पन्न संतान का पालन पोषण करना और अपने वंश को आगे बढ़ाना।

3. आर्थिक हितो की पूर्ति मे भागीदारी।

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विवाह प्रथा में परिवर्तन 

औद्योगीकरण और नगरीकरण के परिणामस्वरूप ऐसे परिवर्तन हुए हैं जिनका पूरे विश्व में विवाह संस्था पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। यद्यपि विभिन्न समाजों तथा प्रत्येक समाज के अंतर्गत विभिन्न समूहों ने औद्योगीकरण और नगरीकरण के प्रति भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रतिक्रिया व्यक्त की है किन्तु विवाह को प्रभावित करने वाली कुछ सामान्य प्रवृत्तियाँ स्पष्ट परिलक्षित होती हैं।

विवाह के रूपों में परिवर्तन 

बहु-विवाह की परंपरा वाले समाज भी एकल विवाह प्रथा अपना रहे हैं। स्त्री की स्थिति में सामान्य सुधार और पुरुष के प्रभुत्व के पंजों से धीरे-धीरे उसकी मुक्ति के परिणामस्वरूप उन समाजों में भी जिनमें बहु-विवाह प्रथा प्रचलित है, बहु-पत्नी विवाह या एक से अधिक पत्नियां रखने की घटनाओं में कमी आई है। भारत में हिन्दू विवाह अधिनियम में बहुपत्नी और बहुपति विवाहों दोनों पर रोक लगा दी है। पाकिस्तान जैसे मुस्लिम देश में भी एक ऐसा कानून लागू किया गया था जिसमें काज़ी के लिए यह अनिवार्य था कि वह बहु-विवाह तभी कराए जब पहली पत्नी ने अपनी लिखित सहमति दे दी हो। एकल विवाह की प्रवृत्ति को रोमानी और प्रेम विवाह के आदर्श से बढ़ावा मिला है, जिसमें एक व्यक्ति विशेष को आदर्श साथी समझा जाता है। 

तथापि यह मानना शायद गलत हो कि एक विवाह की यह प्रवृत्ति अटूट एकल विवाह की है। आधुनिक समाज की परिस्थितियों ने विवाह को अस्थिर बना दिया है और विवाह बंधन को तोड़ा जा सकता है और आज व्यक्ति खुशी पाने के लिए एक से अधिक विवाह करने का खतरा मोल लेने को तैयार है। माता-पिता और मित्रगण की भी इसमें सहानुभूति होती है, अतः नये युग में अनेक समाज अटूट एकल विवाह को बनाए रखने की अपेक्षा क्रमिक एकल विवाह (Serial Monogamy) की प्रवृत्ति अपना रहे हैं। इसमें एक विवाह के टूटने के बाद दूसरा विवाह संभव होता है। 

जीवन साथी के चयन में परिवर्तन

भारत जैसे परम्परागत देशों में जहां जीवन साथी के चुनाव का अधिकार पूर्ण रूप से माता-पिता और अग्रजों का ही होता है वहां भी परिवर्तन के लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं। युवक और युवतियों की राय को भी जीवन साथी के चुनाव में काफी अधिक महत्व दिया जाने लगा है। ऐसी स्थिति से, जिसमें उनसे इस विषय में कोई राद नहीं ली जाती थी कि उनका किससे विवाह होने वाला है; अब यह स्थिति आ गई है जिसमें लड़की लड़के से राय ली जाती है और उनकी सहमति प्राप्त की जाती है। शहरी मध्यम वर्ग के परिवारों में पुत्र और पुत्रियों को यह अधिकार भी प्राप्त है कि वे दूसरों द्वारा लाए गए विवाह प्रस्तावों से इंकार कर दें। अधिक उन्नत और जागरूक शहरी परिवारों में माता-पिता अपने बच्चों को संभावित साथी से परिचित होने के अवसर भी देने लगे हैं। 

भारत के शहरी वर्गों समाचार पत्रों में विज्ञापन द्वारा जीवन साथी के चयन की प्रथा काफी अधिक लोकप्रिय हो गई है और इस दिशा में नवीनतम परिवर्तन यह हुआ है कि परस्पर अनुकूल साथियों को मिलाने का काम कम्प्यूटरों से लिया जाने लगा है।

विवाह की आयु में परिवर्तन 

भारत में पिछली कुछ सदियों से बाल विवाह की प्रथा प्रचलित थी और इसे प्राथमिकता और प्रोत्साहन दिया जाता था। बाद में समाज सुधारकों ने इस प्रथा को समाप्त करने के लिए अनेक प्रयास किए। तद्नुसार बालं विवाह अवरोध अधिनियम जो शारदा एक्ट के नाम से लोकप्रिय है, 1929 में पारित किया गया। इस कानून के तथा आधुनिक औद्योगीकरण तथा शहरीकरण के प्रभाव के बावजूद, विशेष रूप से ग्रामीण लोगों में कम आयु पर विवाह किए जाते रहे। शहरी क्षेत्रों में भी लड़की का शीघ्रताशीघ्र विवाह करने का अत्यधिक प्रचलन था।

किंतु स्कूलों और काॅलेजों में लड़कियों की बढ़ती हुई संख्या और नौकरी करने की उनकी इच्छा के साथ-साथ अधिकांश लड़कों की जीवन में देर से व्यवस्थित होने की समस्या के कारण विवाह की आयु बढ़ी है। सरकार ने अपनी जनसंख्या नीति के एक मुद्दे के रूप में अब विवाह की कम से कम आयु लड़कियों के लिए 18 वर्ष और लड़कों के लिए 21 वर्ष निर्धारित की है। सामान्यतः नगरों में विवाह अब इस निर्धारित आयु से काफी अधिक आयु में किए जा रहे हैं।

विवाह के रीति-रिवाजों में परिवर्तन 

भारत में सामाजिक परिवर्तन ने अजीबोगरीब स्थिति पैदा कर दी है। औद्योगिकी और विज्ञान के अत्यधिक प्रभाव के कारण यह आशा की जाती थी कि एक धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होगा और परिणामस्वरूप गैर-जरूरी रीति -रिवाज़ों को छोड़ दिया जाएगा। सभी समाजों में धर्म और समाज सुधारकों ने हमेशा इस बात का आग्रह किया है कि निरर्थक रीति-रिवाज़ों पर व्यर्थ खर्च न किया जाए किन्तु यह देखने में आया है कि जागरूक व्यक्तियों की आशा के विपरीत जहां तक रीति-रिवाजों का संबंध है भारत में विवाह आदि और अधिक पारम्परिक हो गए हैं। आजकल बहुत से ऐसे रीति-रिवाज़ फिर से शुरू हो गए हैं जो स्वतंत्रता के बाद समाप्त हो गए प्रतीत होते थे। किसी सीमा तक यह रीति - रिवाज़ धनी परिवारों ने ही शुरू किए हैं। समाज में बहुत से व्यक्तियों के पास इतना धन होता है कि वे शादी-विवाह के मौके पर बहुत फिजूल करते हैं और जो लोग इतने थनी नहीं हैं ये भी उनकी नकल करने की कोशिश करते हैं। 

विवाह के लक्ष्यों में परिवर्तन और वैवाहिक स्थिरता 

पहले यह समझा जाता था कि परंपरागत समाजों में विवाह का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य पुनर्जनन है। सभी समाजों में कई बच्चे होने से माता-पिता को उच्च स्थान मिलता था और हिंदुओं में विशेष रूप से पुत्रों की कामना की जाती थी। इस प्रकार से बड़ा परिवार रखना विवाह का एक मुख्य लक्ष्य होता था और वर-वधू को शुभकामनाओं के साथ बहुत से बच्चे होने का आशीर्वाद दिया जाता था किंतु आजकल के जीवन की परिस्थितियां कुछ ऐसी है कि बड़ा परिवार एक बोझ बन चुका है। वस्तुतः तीन या चार बच्चों वाले परिवार को भी अब पसन्द नहीं किया जाता है। 

तृतीय विश्व के अनेक देश बढ़ती जनसंख्या की समस्या से घिरे हुए हैं इसलिए वे छोटे परिवार के प्रतिमान को प्रोत्साहन देने के लिए वचनबद्ध हैं। परिवार के आकार को सीमित रखना ही इनमें से अनेक देशों की घोषित सरकारी नीति है। भारत ऐसा पहला देश था जिसने सरकारी परिवार नियोजन कार्यक्रम को अपनाया उन एशियाई और अफ्रीकी देशों में जहां लोकतांत्रिक सरकारें हैं शिक्षा द्वारा सशक्त प्रचार करके नागरिकों को सीमित पुनर्जनन के लाभों को समझने और स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। चीन ने भी जनसंख्या नियंत्रण का कठोर कार्यक्रम अपनाया है जिसके  अन्तर्गत पुनर्जनन सीमित न रखने वाले युगलों के लिए हतोत्साही कार्यक्रम और दंड लागू किए गए हैं। 

ये सभी प्रयास धीरे-धीरे भारत के लोगों और अन्य देशों के सांस्कृतिक मूल्यों को प्रभावित कर रहे हैं। इस वास्तविकता को समझा जा रहा है कि अधिक बच्चों की अपेक्षा, जिन्हें अच्छी तरह से खिलाया, पहनाया नहीं जा सकता था जिनकी देखभाल अच्छी तरह से नहीं की जा सकती दो स्वस्थ बच्चे होना बेहतर है जिनकी देखभाल अच्छी तरह से की जा सकती है।

जैसे-जैसे पुनर्जनन और उसके साथ माता - पिता की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण होती जा रही है, पति-पत्नी के बीच साहचर्यता और बच्चों के लिए भावनात्मक सहारा देना विवाह के अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य बनते जा रहे हैं। वस्तुतः युवा लोग आज खुशी और आत्म-संतोष के लिए विवाह कर रहे हैं। वैवाहिक अस्थिरता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों में भविष्य में कोई सुधार होने की बजाय उनके और अधिक खराब होने की संभावना है। विवाह से संबंधित हमारे दृष्टिकोण, मूल्यों और आदशों में भी परिवर्तन हो रहा है। ऐसी स्थिति में विवाह का भविष्य क्या है? सामाजिक जीवन के संबंध में कुछ पूर्वानुमान लगाना कठिन और जोखिमपूर्ण है किंतु इस बात की कोई संभावना नजर नहीं आती कि व्यक्ति और सामाजिक जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में विवाह को कभी छोड़ा या त्याग दिया जाएगा। यदि पाश्चात्य देशों के अनुभव से कुछ सीखा जा सकता है तो कहना होगा कि यहां तलाक की बढ़ती हुई संख्या के बावजूद लोग विवाह करने से पीछे नहीं रहते हैं और व्यक्ति की विवाह से खुशी की तलाश जारी है।

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