8/11/2021

शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, प्रकृति, स्वरूप

By:   Last Updated: in: ,

शिक्षा का अर्थ (shiksha kya hai)

shiksha ka arth paribhasha prakriti svarup;शिक्षा का तात्पर्य जीवन में चलने वाली ऐसी प्रक्रिया-प्रयोग से है जो मनुष्य को अनुभव द्वारा प्राप्त होते है एवं उसके पथ-प्रदर्शक बनते है। यह प्रक्रिया सीखने के रूप मे बचपन से चलती है एवं जीवनपर्यन्त चलती रहती है। जिसके कारण मनुष्य के अनुभव भण्डार में लगातार वृद्धि होती रहती है। 

शिक्षा शब्द संस्कृत के 'शिक्ष्' धातु से बना है, जिसका अर्थ 'सीखना' अथवा 'सिखाना' होता है। शिक्षा का अर्थ आन्तरिक शक्तियों अथवा गुणों का विकास करना है।

शिक्षा का शाब्दिक अर्थ 

शिक्षा का अंग्रजी पर्यायवाची शब्द 'Education' है। 'Education' शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के 'Educatum' शब्द से मानी जाती है। 'Educatum' शब्द दो शब्दों-- 'e' तथा 'duco' से मिलकर बना है। 'e' का अर्थ-- 'out of' और 'duco' का अर्थ है-- 'to lead forth' or 'to extract out'। अतः इस प्रकार से Education' का शाब्दिक अर्थ है-- आन्तरिक को बाहर लाना। 

प्राचीन भारत में शिक्षा का अर्थ 

प्राचीन भारत में शिक्षा को विद्या के नाम से जाना जाता था। विद्या शब्द की व्यत्पत्ति 'विद्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है 'जानना'। इस तरह विद्या शब्द का अर्थ ज्ञान से है। हमारे प्राचीन ग्रंथों मे ज्ञान को मानव का तृतीय नेत्र कहा गया है जो अज्ञान दूर कर सत्य के दर्शन कराने में मददगार होता है। विद्या हमें विनम्र बनना सिखाती है 'विद्या ददाति विनयम्'। विद्या हमें जीवन से मुक्त कराती है। 'सा विद्या या विमुक्तये'।

शिक्षा का संकुचित अर्थ 

संकुचित अर्थ में शिक्षा बालक को योजनाबद्ध कार्यक्रम के अंतर्गत प्रदान किये जाने वाली एक ऐसी योजना है जिसमें निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के प्रयत्न किये जाते है। विद्यालय में प्रदान की जाने वाली शिक्षा इसी श्रेणी की होती है। इसमें निश्चित उद्देश्यों वाला प्रत्येक कक्षा अथवा स्तर का एक निर्धारित पाठ्यक्रम होता है जिसे एक निश्चित अध्ययनकाल में शिक्षकों द्वारा पूर्ण कराया जाता है। वास्तव में संकुचित अर्थ मे शिक्षा एक प्रकार से पुस्तकीय शिक्षा तक सीमित है। 

शिक्षा का व्यापक अर्थ 

शिक्षा के व्यापक अर्थ को प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री टी. रेमण्ड ने इस प्रकार स्पष्ट किया है," शिक्षा विकास का वह क्रम है जो बाल्यावस्था से परिपक्वावस्था तक निरन्तर चलता रहता है एवं शिक्षा में मनुष्य अपने आपको आवश्यकतानुसार धीर-धीर भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना लेता है।"

डम्बिल के शब्दों मे," शिक्षा के व्यापक अर्थ के अंतर्गत वे सभी प्रभाव सम्मिलित होते है, जो मानव को बाल्यावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त तक प्रभावित करते है।" 

मैकेन्जी के शब्दों में," व्यापक अर्थ में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जो जीवन-पर्यन्त चलती रहती है तथा जीवन के प्रत्येक अनुभव से शिक्षा में वृद्धि होती है।" 

शिक्षा का वास्तविक अर्थ 

शिक्षा के शब्दिक, संकुचित एवं व्यापक अर्थ को स्पष्ट करने से शिक्षा की वास्तविक अवधारण स्पष्ट नही होती है। अब हमारे समक्ष प्रश्न यह उठता है कि हमें शिक्षा का कौन-सा रूप अपनाना चाहिए? शिक्षा का शाब्दिक अर्थ स्वीकार नही किया जा सकता क्योंकि यह जरूरी नही कि शब्दिक अर्थ वास्तविक अर्थ ही हो। इसलिए शिक्षा के सही अर्थ के लिए आवश्यक है कि हम सभी प्रकार के अर्थों को सम्मिलित रूप से लेकर चलें। 

शिक्षा के वास्तविक अर्थ को समन्वित रूप से इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है," शिक्षा एक ऐसी सामाजिक एवं गतिशील प्रक्रिया है जो व्यक्ति के जन्मजात गुणों को विकसित करके उसके व्यक्तित्व को निखारती है एवं सामाजिक वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने के योग्य बनाती है। यह सामाजिक एवं गतिशील प्रक्रिया व्यक्ति को उसके कर्तव्यों का ज्ञान कराते हुये उसके विचार एवं व्यवहार में समाज के लिए कल्याणकारी परिवर्तन लाती है। 

शिक्षा की परिभाषा (shiksha ki paribhasha)

भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों द्वारा दी गई शिक्षा की परिभाषाएं निम्न है-- 

बौद्ध दर्शन के अनुसार," शिक्षा वह है जो निर्वाण दिलाए।" 

जैन दर्शन के अनुसार," शिक्षा वह है जो मोक्ष की प्राप्ति कराए।"

महात्मा गाँधी के अनुसार," शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक एवं मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा में निहित सर्वोत्तम शक्तियों के उद्घाटन से है।" 

अरविंद के अनुसार," शिक्षा का अभिप्राय व्यक्ति की आंतरिक शक्तियों का विकास है।" 

स्वामी विवेकानंद के अनुसार," मनुष्य में निहित परिपूर्णता का उद्घाटन करना ही, शिक्षा है। मनुष्य के भीतर ही ज्ञान है, बाहर से कोई ज्ञान नही दिया जा सकता।" 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार," शिक्षा का आश्य मस्तिष्क को इस योग्य बनाना है कि वह चिरंतन सत्य को पहचान सके, इसके साथ एकरूप हो सके तथा उसे अभिव्यक्त कर सके।" 

कौटिल्य के अनुसार," शिक्षा का अर्थ है, देश के लिए प्रशिक्षण तथा राष्ट्र के लिए प्रेम।" 

शंकाराचार्य के अनुसार," शिक्षा आत्मानुभूति के लिए है।" 

उपनिष," शिक्षा वह है जिसका प्रमुख साध्य मुक्ति है।" 

डाॅ. भीवराव अम्बेडकर के अनुसार," शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है।" 

डॉ लवी गौतम प्रदेश संयोजक उत्तर प्रदेश के अनुसार," शिक्षा व्यक्ति की उन सभी भीतरी शक्तियों का विकास है जिससे वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रखकर अपने उत्तरदायित्त्वों का निर्वाह कर सके।" 

अरस्तु के अनुसार," शिक्षा स्वस्थ्य शरीर मस्तिष्क का निर्माण है।" 

पेस्टालाॅजी के अनुसार," शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों का स्वाभाविक, सामंजस्यपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है।" 

स्पेन्सर के अनुसार," शिक्षा पूर्ण जीवन है।" 

काण्ड के अनुसार," शिक्षा, व्यक्ति की उस सब पूर्णता का विकास है, जिसकी उसमें क्षमता है।" 

फ्रावेल के अनुसार," शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो बालक के आंतरिक गुणों का विकास करती है।" 

रूसो के अनुसार," प्रत्येक बालक की प्राकृतिक शक्तियों, क्षमताओं तथा योग्यताओं के स्वतः एवं स्वाभाविक विकास का नाम शिक्षा है। 

जाॅन ड्यूवी के अनुसार," शिक्षा अनुभवों के सतत् पुनर्निर्माण द्वारा जीवन की प्रक्रिया है। वह व्यक्ति में उन समस्त क्षमताओं का विकास है, जो उसको अपने वातावरण को नियन्त्रित करने एवं अपनी सम्भावनाओं को पूर्ण करने योग्य बनाती है।" 

प्लेटो के अनुसार," शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विकास की प्रक्रिया ही शिक्षि है।" 

शिक्षा की उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन के बाद यह स्पष्ट है कि शिक्षा एक सविचार प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति की आन्तरिक शक्तियों का विकास किया जाता है। शिक्षा अपने विस्तृत अर्थ मे बहुत व्यापक है और विद्यालय अनुभवों तक सीमित नही है परन्तु संकुचित अर्थ मे शिक्षा सुनियोजित एवं व्यवस्थित प्रक्रिया है। 

शिक्षा के समानार्थी शब्द 

शिक्षा के विभिन्न समानार्थी शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-- 

1. शिक्षण (Teaching) 

यह शिक्षक, छात्र तथा विषय-वस्तु के बीच संबंध स्थापित करता है। यह शैक्षणिक प्रक्रिया (Educative Process) का संकेत देता है। 

2. निर्देश (Instruction) 

निर्देश सूचना, ज्ञान या कौशल प्रदान करता है।

3. ट्यूशन (Tuition

इसमें निर्देश के लिए पारिश्रमिक प्रदान किया जाता है।

4. प्रशिक्षण (Training) 

यह व्यावहारिक शिक्षा (Practical Education) है। इसमें कौशल, धैर्य या सुविधा (Facility) को प्राप्त करने के लिये अभ्यास किया जाता है अर्थात इसमें कार्य करना सीखा (Learning to do) जाता है।

5. अनुशासन (Discipline) 

इसमें प्रभावी कार्य या सत्य आचरण के लिये क्रमबद्ध प्रशिक्षण प्राप्त किया जाता है।

6. सिद्धांत बोधन (Indoctrination) 

इसमें सिखाने या पढ़ाने पर बल दिया जाता है। इसमें किसी सिद्धांत या विचारधारा या मत का बोध कराया जाता है। 

7. पालन-पोषण (Breeding) 

इसमें जीवन के शिष्टाचारों के प्रशिक्षण पर बल दिया जाता है। 

8. संस्कृति (Culture) 

इसमें शिक्षा द्वारा प्रेरित विचार तथा अनुभव करने की शैली के विकास पर बल दिया जाता है। इस प्रकार इसमें प्रक्रिया तथा अर्जन पर बल दिया जाता है।

शिक्षा की प्रकृति (shiksha prakriti)

शिक्षा की प्रकृति या स्वरूप क्या है? शिक्षा विज्ञान है या कला? शिक्षा से संबंधित इन समस्याओं पर बहुत से वाद-विवाद चला आ रहा है। इसके वास्तविक स्वरूप को देखना ही यहाँ हमारा ध्यये है। शिक्षा की प्रकृति को निर्धारित करने से पहले हमें विज्ञान और कला क्या है? यह जान लेना चाहिए। 

विज्ञान क्या है? 

विज्ञान ज्ञान की एक विशिष्ट शाखा है। विज्ञान वह व्यवस्थित ज्ञान या विद्या है जो विचार, अवलोकन, अध्ययन और प्रयोग से मिलती है, जो किसी अध्ययन के विषय की प्रकृति या सिद्धान्तों को जानने के लिये किये जाते हैं। 

कार्ल पीयरसन (Karl pearson) के अनुसार सभी विज्ञानों की एकता उनमे विधिशास्त्र मे निहित होती है न की विषय-वस्तु मे। विज्ञान की मुख्य विशेषताएं है-- तथ्यात्मक (Factuality), सार्वभौमिक (University), उसके नियमों की प्रामाणिकता, कार्य-कारण संबंधों की खोज तथा नियमों पर आधारित भविष्यवाणी करना इत्यादि। विज्ञान सत्यों की एक व्यवस्था है जिसमें सत्य की सत्य के लिये एक विशिष्ट भाषा तथा पदावली में खोज की जाती है। विज्ञान को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-- 

1. सैद्धांतिक (Theoretical) तथा 

2. व्यावसारिक (Applied)।

सैद्धांतिक विज्ञानों में सत्य के लिये सत्य की खोज की जाती है। इनमें उनके व्यावहारिक रूप की ओर ध्यान नही दिया जाता है। व्यावहारिक विज्ञानों में मानव जीवन के वैज्ञानिक सिद्धांतों की व्यावहारिकता पर बल दिया जाता है। 

कला क्या है? 

कला (Art) शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को छूकर रह जाती हैं। कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है, यद्यपि इसकी हजारों परिभाषाएँ की गयी हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। 

कला ज्ञान मे नही बल्की कौशल मे होती है। कला की कसौटी कलाकर का कौशल होता है। यह व्यक्ति को श्रेष्ठ बनाती है। कला का लक्ष्य करना है न कि जानना। कला में ज्ञान के साथ कौशल तथा अभ्यास शामिल है। अभ्यास तथा पुनरावृत्ति के बिना कला को प्राप्त नहि किया जा सकता है। 

शिक्षा की प्रकृति 

उपरोक्त विवेचन करने के बाद हम यह कह सकते है कि शिक्षा को न विज्ञान की श्रेणी मे रखा जा सकता है और न ही कला की श्रेणी मे रखा जा सकता है। क्योंकि शिक्षा विज्ञान और कला दोनों ही है। इसके लिये उपयुक्त शब्दावली 'शिक्षा की कला' (Art of Education) तथा शिक्षा विज्ञान (Science of Education) प्रयुक्त कर सकते है। शिक्षा विज्ञान (Education Science) न तो पूर्णतः सैद्धांतिक है और न ही व्यावहारिक। इसमें सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक दोनों पक्ष देखने को मिलते है। वस्तुतः यह व्यावहारिक पहलू अधिक रखता है। अतः विज्ञान की श्रेणी में इसका स्थान सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक (Applied) विज्ञान दोनों के रूप में है। 

वैज्ञानिक प्रवृत्ति ने शिक्षा की प्रकृति में बदलाव प्रस्तुत किया है। इस बदलाव के फलस्वरूप शिक्षा को एक विज्ञान के रूप में देखा जाने लगा है। परन्तु इस विज्ञान का स्वरूप सामाजिक है। इस कारण शिक्षा को एक सामाजिक विज्ञान के रूप में देखा जाता है। सामाजिक विज्ञान के रूप में यह नवीन व्याख्या प्रस्तुत करती है और शैक्षिक प्रक्रिया की संपूर्ण संरचना में बदलाव ला रही है। इस दृष्टि से शिक्षा गत्यात्मक तथा प्रगतिशील हो रही है। साथ ही शिक्षा विज्ञान नियामक (Normative) या प्रामाणिक भी है। इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप शिक्षा के विषय-क्षेत्र में शैक्षिक मूल्यांकन, शैक्षिक अनुसंधान, शैक्षिक तकनीकी आदि को स्थान मिला।

शिक्षा विज्ञान में जीवशास्त्र जैसे भौतिक विज्ञानों के साथ-साथ मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र जैसे सामाजिक विज्ञानों को स्थान प्राप्त है। साथ ही नीतिशास्त्र तथा तर्कशास्त्र जैसे विज्ञानों की विषय-वस्तु को स्थान प्राप्त है। इसमें शिक्षण प्रक्रिया का अभ्यास भी शामिल है। अभ्यास के माध्यम से शिक्षण रूपी कौशल को प्राप्त किया जा सकता है। अतः हम कह सकते है कि शिक्षा विज्ञान एवं कला दोनों है।

शिक्षा का स्वरूप 

शिक्षा का स्वरूप बहुत व्यापक है। यह मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, वैज्ञानिक तथा दार्शनिक आधारों पर विकसित होता है। शिक्षा समाज की उन्नति तथा विकास के लिए है। युगीन दार्शनिक परंपरायें शिक्षा पर पर्याप्त प्रभाव डालती है, परिणामस्वरूप इस आधार पर भी शिक्षा का स्वरूप निर्धारित होता है। शिक्षा के विभिन्न स्वरूप या रूप निम्नलिखित है-- 

1. प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष शिक्षा 

प्रत्यक्ष शिक्षा में अध्यापक एवं छात्र का निकट का संपर्क होता है, आमने-सामने प्रश्नोत्तर किये जा सकते है। समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। छात्र पर शिक्षक के व्यक्तित्व का भी प्रभाव पड़ता है। शिष्य, शिक्षक को आदर्श मानकर उसे प्राप्त करने की कोशिश करता है एवं इस तरह नियमित शिक्षा प्राप्त करता है। शिक्षक भी छात्र को स्तर, रूचि, अनुभवों के आधार पर शिक्षा प्रदान करता है। प्रत्यक्ष शिक्षा का प्रबंध विद्यालयों, धार्मिक संप्रदायों तथा समितियों के द्वारा निश्चित स्थान पर एवं निश्चित समय पर किया जा सकता है।

अप्रत्यक्ष शिक्षा से अभिप्राय वह शिक्षा है जो विद्यालय में उससे बाहर भी अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त की जा सकती है। इस शिक्षा मे व्यावहारिकता अधिक होती है एवं बालक पर अध्यापक के व्यक्तित्व का अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है। इस तरह अध्यापक का बोलचाल का ढंग, कपड़े पहनने के तरीके, समय पर आने की आदत, निरंतर अध्ययन करने की आदत, सहयोग पूर्ण विद्यालयीन श्रेणी, सत्य और निष्पक्ष व्यवहार तथा कमजोर विद्यार्थियों के प्रति उदार एवं उनकी प्रगति के विभिन्न उपायों को अपनाना आदि ऐसी क्रियायें हैं जो बालक को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। वह समझता है कि इस अध्यापक का भी सभी सम्मान करते है, सभी व्यक्ति उनकी बात मानते है तो वह भी समाज में अपने प्रति आदर, सम्मान, प्रेम प्रकट करने के लिए उसके गुणों को अपनाता है तथा वास्तव मे उन आदतों का निर्माण कर लेता है। 

2. नियमित तथा अनियमित शिक्षा 

नियमित शिक्षा को औपचारिक शिक्षा भी कहा जाता है। यह शिक्षा किसी निर्धारित समय, नियम एवं समझ से आरंभ की जाती है। इसके बारे में बालक को पहले से ही शिक्षा योजना के बारें मे ज्ञान होता है कि बालक को क्या शिक्षा दी जा रही है? इस शिक्षा के लिए पहले योजना बना ली जाती है और शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित कर लिये जाते है। उद्देश्यों के अनुकूल शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। इस तरह के पाठ्यक्रम की शिक्षा के लिए शिक्षक एवं शिक्षण स्थल की आवश्यकता होती है एवं शिक्षा के लिए शिक्षण की विधियों का निर्धारण किया जाता है।

नियमित शिक्षा सिर्फ विद्यालय की सीमा में ही दी जा सकती है। इसके अतिरिक्त चर्च, मदरसा, पुस्तकालय, पुस्तकों, चित्रों आदि के द्वारा भी शिक्षा प्रदान की जा सकती है। इस प्रकार की सभी संस्थाओं का निर्माण समाज करता है। दर्शनों के साथ-साथ शिक्षा के स्वरूपों में भी परिवर्तन होता रहा है। 

अनियमित शिक्षा अनौपचारिक शिक्षा भी कहलाती है। अनियमित शिक्षा वह शिक्षा है, जिसमें किसी निश्चित समय, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, विद्यालय, अनुशासन, वातावरण की जरूरत नही है। भारतीय विचारधारा के अनुसार तो शिक्षा माँ के गर्भ से ही आरंभ हो जाती है तथा बालक की मृत्यु तक चलती रहती है। जैसे कि कई उदाहरण मिलते है कि चक्रव्यूह का तोड़ना अभिमन्यु ने अपनी माँ के गर्भ मे ही सीख लिया था। व्यावहारिक रूप में हम देखते है कि बालक आरंभ में अपनी माँ से; उसके उपरांत पिता, भाई, बहिन, परिवार, पड़ौस, समाज, देश, शिक्षकों, वातावरण से कई बातें सीखता है।

अनियमित एवं नियमित शिक्षा के संबंध को देखा जाये तो दोनों एक-दूसरे के विरोधी नही वरन् सहयोगी है। अनौपचारिक शिक्षा ही औपचारिक शिक्षा को सफल बना सकती है जो बगैर किसी महत्वपूर्ण नियोजन के लगातार चलती रहती है। इसके मुख्य साधन परिवार, समाज, राज्य, देश, खेल-कूद, संगीत, समाचार-पत्र, किताबें, नाटक, चलचित्र, मानव समूह आदि है। जो किसी भी समय किसी भी तरह से बालक पर प्रभाव डालते है एवं बालक की रूचि को एक निश्चित दिशा प्रदान करते हैं।

3. वैयक्तिक तथा सामूहिक शिक्षा 

वैयक्तिक शिक्षा किसी व्यक्ति विशेष को दी जाती है, जिसमें शिक्षा का आधार बिन्दु वह व्यक्ति ही होता है। सिर्फ उसी बालक की रूचियों एवं आंतरिक शक्तियों का पता लगाकर उसे और ज्यादा विकसित किया जाता है एवं उसकी रूचियों और शक्तियों के आधार पर वह शिक्षा प्रदान की जाती है जो सिर्फ उसके अनुकूल है शिक्षण-विधियों, पाठ्यक्रम आदि को महत्व दिया जाता है। इसको बाल केन्द्रित शिक्षा कहा जाता है। मनोवैज्ञानिकों का यही विचार है कि शिक्षा व्यक्ति विशेष का पूर्ण विकास करने वाली होनी चाहिए जो उसे भावी जीवन हेतु समर्थ बना सके। इस की शिक्षा में शिक्षक को इतना महत्व नही दिया जाता जितना कि व्यक्ति विशेष को। क्योंकि शिक्षक शिक्षा के उन्हीं साधनों को अपनाता है, जो उस व्यक्ति विशेष के लिए उचित है। दूसरी तरह से कहा जा सकता है कि शिक्षा व्यक्ति का स्वभाविक, सर्वांगीण, अधिकतम विकास करती है, जिसमें आधुनिकतम साधनों को अपनाया जाता है। 

सामूहिक शिक्षा का संबंध किसी व्यक्ति विशेष से न होकर एक व्यक्ति समूह से होता है। जिनकी एक अथवा ज्यादा सामान्य समस्याओं को लेकर शिक्षा दी जाती है अर्थात् कह सकते है कि किसी ऐसे समूह को दी जाने वाली शिक्षा, जो उनकी कुछ सामान्य प्रगति के लिए दी जाती है, सामूहिक शिक्षा होती है। यह एक कक्षा के रूप में होती है। इसके अंतर्गत अलग-अलग व्यक्तियों की व्यक्तिगत रूचियों, प्रवृत्तियों, योग्यताओं तथा विभिन्नताओं की तरफ ज्यादा ध्यान नही दिया जाता है। यह शिक्षा विद्यालय शिक्षा के रूप मे दी जा सकती है, जिनमे कक्षाओं का प्रचलन है। यहाँ पाठ्यक्रम से संबंधित सभी ज्ञान शिक्षक द्वारा प्रदान किया जाता है।

सामूहिक शिक्षा की सर्वाधिक क्रियाशीलता व्यक्तिगत शिक्षा पर भी निर्भर करती है क्योंकि जो छात्र किसी विषय विशेष में कमजोर रहता है या अन्य कोई समस्या है तो अन्य विद्यार्थियों के स्तर तक लाने के लिए व्यक्तिगत शिक्षा दी जानी जरूरी है। इस तरह कहा जा सकता है कि शिक्षा की दोनों प्रणालियों को अपनाया जाना चाहिए।

4. सामान्य तथा विशिष्ट शिक्षा 

आधुनिक भारतीय शिक्षा का स्वरूप जो माध्यमिक स्कूलों तक अपनाया जा रहा है, "सामान्य शिक्षा का ही एक रूप है।" इस शिक्षा का कोई विशेष उद्देश्य नही होता, सिर्फ विद्यार्थियों को स्वयं, समाज, राष्ट्र आदि के विषय में सामान्य जानकारी प्रदान करती है जिससे बालक अपने को वातावरण में समायोजित करने में सफलता महसूस करता है तथा सामान्य जीवन व्यतीत कर सकता है। इसके अंतर्गत शिक्षा के सभी पहलुओं का सामान्य ज्ञान कराया जाता है। इस तरह सामान्य शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में निहित गुणों, शक्तियों को जागृत करना तथा उसकी रूचियों को तीव्र बनाना होता है। इस तरह यह शिक्षा व्यक्ति हेतु बहुत जरूरी है, बिना इसके व्यक्ति अपने जीवन में आगे उन्नति नही कर सकता है।

विशिष्ट शिक्षा में कुछ विशिष्ट उद्देश्य निर्धारित होते है तथा उस शिक्षा द्वारा बालक के जीवन को एक निश्चित मोड़ दिया जाता है। सिर्फ इसी के आधार पर बालक अपने जीवन का लक्ष्य चुनता है एवं उस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। बालक में जिस तरह की रूचियाँ तथा क्षमतायें है उसे उसी तरह की शिक्षा प्रदान की जाती है। जैसे-- वह अध्यापक बनना चाहता है, तो उसकी रूचि के साथ-साथ उसमें उच्च शिक्षा प्राप्त करने, अपने विचार व्यक्त करने की क्षमता भी है या नही तभी वह सफल अध्यापक बन सकता है। उसकी रूचि तो है लेकिन क्षमतायें नही, तो वह अपने जीवन में मनोवांछित उन्नति नही कर सकता है। इसी तरह वकील, डाॅक्टर, क्लर्क, उद्यमी, प्रबंधक, प्रशासक इत्यादि विशिष्ट क्षेत्रों से किसी एक को चुनकर उसमें शिक्षा प्राप्त कर सकता है।

" सामान्य एवं विशिष्ट शिक्षा के संबंध पर ध्यान दिया जाये, तो वे एक-दूसरे से भिन्न अवश्य प्रतीत होती है, लेकिन एक-दूसरे के बिना अपूर्ण ही रह जायेंगी" इस तरह से वे परस्पर पूरक है। सामान्य शिक्षा, विशिष्ट शिक्षा का आधार है। क्योंकि जब तक सामान्य शिक्षा द्वारा बालक की सामान्य प्रगति नही की जायेगी तो उसकी रूचियों एवं शक्तियों का पता नही लग पायेगा तथा विशिष्ट शिक्षा की प्रक्रिया शुरू नही की जा सकेगी। इस तरह बगैर विशिष्ट शिक्षा के व्यक्ति के जीवन का कोई लक्ष्य, जीवन का ढंग निश्चित नही हो पाता। अतः सिर्फ विशिष्ट शिक्षा ही जीवन को पूर्ण नही बना सकती है एवं न ही सामान्य शिक्षा व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य निर्धारित कर सकती है।

यह भी पढ़े; शिक्षा का क्षेत्र, महत्व, आवश्यकता

यह भी पढ़े; शिक्षा के कार्य 

यह भी पढ़े; शिक्षा की विशेषताएं

शिक्षा और रोज़गार 

हमें ऐसा देखने को मिलता हैं कि जब गरीब लोग अपनी बेटियों को स्कूल भेजते हैं तो वे बेहतर रोज़गार की उम्मीद से ऐसा नहीं करते। हालांकि इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि बच्चों को स्कूल भेजने के फायदे लोगों को अब समझ आने लगे हैं परन्तु यह भी मालूम होना चाहिए कि अलग-अलग लोगों के लिए शिक्षा का मतलब अलग-अलग है। जब एक बटाईदार किसान अपनी बेटी को गांव के स्कूल में भेजने का फैसला करता है तो वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि गाँव के और लोगों की बेटियाँ भी स्कूल जा रही हैं। इसके अलावा हमारे समाज में औरतों पर अत्याचार भी बहुत होते हैं। इसलिए यह सोचा जाता है कि पढ़ने-लिखने पर उनकी बेटी शादी के बाद माँ-बाप को अपनी हालत बताने के लिए पत्र तो लिख सकेगी। इससे अपनी बेटियों के भविष्य के बारे में चिन्तित अनेक परिवारों के मन में सुरक्षा का भाव पैदा होता है परन्तु शिक्षा के संबंध में योजना बनाने वालों के लिए अधिक महत्व की बात यह है कि हमारे समाज में जहाँ बाल अनुरक्षण की सुव्यवस्थित सुविधाएँ बहुत कम है वहाँ भी दिन में कुछ घंटों के लिए स्कूल बच्चों की देखभाल का केंद्र बन सकता है। इसलिए अब यह विचार बन रहा है कि स्कूलों को ऐसा रूप दिया जाए कि बड़ी उम्र के बच्चों का भी वहाँ मन लगे। इसके लिए जिन उपायों पर विचार किया जा रहा है, उनमें दोपहर को भोजन देना, प्राथमिक स्कूलों में बालवाड़ी की व्यवस्था और शिक्षा की प्रक्रिया में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का सहयोग लेना शामिल है।

कोशिश यह भी की जाती है जिन वर्गों ने अभी तक अपने बच्चे स्कूल में भेजने के बारे में कोई उत्साह नहीं दिखाया, वे भी बच्चों को स्कूल भेजने लगे। परन्तु यह काम आसान नहीं है। समस्याएँ तब और बढ़ जाती है जब इस तरह के प्रयास उन व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा किये जाते है, जो अलग-अलग परिस्थितियों में पले बच्चों में समरसता लाना जरूरी नहीं मानते। 

उच्च शिक्षा के क्षेत्र का तेजी से विकास हो रहा ह , जबकि उच्च शिक्षा समाज के छोटे से भाग को ही उपलब्ध हो पाती है। साथ ही इस पर लगभग उतना ही धन खर्च हो रहा है जितना देश की बहुत ज्यादा आबादी तक पहुँचने वाली प्राथमिक शिक्षा पर किया जाता है। अधिकतर देशों में बहुसंख्यक लोगों की आवश्यकता बनाम अल्पसंख्यक लोगों की माँग को यह समस्या किसी न किसी रूप में विद्यमान है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अच्छे स्तर की उच्च वर्ग की शिक्षा और जन शिक्षा को साथ-साथ चलाना होगा परन्तु प्रश्न यह है कि क्या प्राथमिक शिक्षा को अधिक उपयोगी और लोकप्रिय बनाने की नीतियों की तरफ कोई ध्यान दिया जा रहा है? यह ठीक है कि ऐसा कोई अकेला बड़ा संकट नहीं है जो समूची भारतीय शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करता हो, परन्तु शिक्षा के सभी क्षेत्रों में अनेक समस्याएँ है। कुछ लोगों को विशेषाधिकार मिल जाने की समस्या से उपजे विवादों का महत्व सबसे अधिक है। जीवित रहने के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण साधनों को पा सकने के मामले में जो असमानता मौजूद है, उससे स्कूलों में दाखिले बढ़ाने के तरीकों के बारे में शहरी बहसे एकदम निरर्थक और बेतुकी हो जाती हैं।

शिक्षा और अध्यापक 

न्यूयार्क के हारलेम नामक अश्वेत क्षेत्र में यह पाया गया कि अध्यापकगण एक यथाक्रम तरीके से श्वेत मूल्य, सभ्यता और भाषा विद्यार्थियों पर लाद रहे थे। यदि बच्चे बुनियादी रूप से इस अपरिचित जीवन शैली के अनुसार अपने आप को नहीं ढाल पाए तो उन्हें असफल समझा गया। वे अध्यापक जो इस संस्कृति को ऊपर से थोपने के लिए उत्तरदायी थे, अपनी भूमिका की महत्ता में पूरी तरह से कायम थे। उपर्युक्त विश्लेषण से शिक्षण संबंधी दो भिन्न शैलियों पर प्रकाश पड़ता है। पहली शैली श्रमिक वर्ग के बच्चे की जानबूझकर उपेक्षा से संबंधित है और दूसरी स्कूल द्वारा किये गये सुधार से संबंधित है जिसके अंतर्गत उप संस्कृति को समाप्त करके भिन्न भिन्न पृष्ठभूमियों से आने वाले शिष्यों पर दूसरी प्रकार की संस्कृति लादने का प्रयास किया जाता है। छठे दशक में अमरीकी शैक्षिक सुधारों के आलोचकों ने यह पाया कि दूसरे प्रकार की संस्कृति लादने का प्रयास देश के अनेक विद्यालयों में किया जा रहा था। परन्तु दूसरी ओर भारत में जहाँ 14 वर्ष तक की आयु से अधिकांश बच्चे सुविधावंचित घरानों से आते हैं और उनमें और उनके अध्यापकों में या औपचारिक स्कूल पाठ्यक्रम में बहुत कम समानता होती है किंतु समस्या मुख्यतः उपेक्षा की है। इस उपेक्षा में यह विश्वास निहित है कि मध्यम वर्ग के विद्यालय का पाठ्यक्रम और जिस प्रकार की संस्कृति का यह प्रतिपादन करती है वह, निर्धन बच्चे की संस्कृति से बेहतर है। अतः यदि बच्चा नहीं समझता तो उसमें दोष उसी का है न कि अध्यापक के तरीके का और न ही पाठ्यक्रम का अवधारणा यह है कि यदि बच्चा विद्यालय में पढ़ाए जाने वाली मध्यम वर्ग को जीवन शैली को स्वीकार करेगा तो उसके लिए सामाजिक और व्यावसायिक गतिशीलता की संभावनाएँ संभवतः काफी अधिक होंगी। सीखने की प्रारंभिक प्रक्रिया बच्चे की होनी चाहिए। दूसरी ओर, अमरीका में अध्यापकों को प्रशिक्षण दिया जाता है कि कैसे बच्चों को विदेशी बोली सिखाएँ। सांस्कृतिक और प्रजातीय मतभेदों की ओर जिससे बच्चे की परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने की प्रक्रिया पर असर पड़ता है, बहुत कम ध्यान दिया जाता है।

यह भी पढ़े; शिक्षा का क्षेत्र, महत्व, आवश्यकता

यह भी पढ़े; शिक्षा के कार्य 

यह भी पढ़े; शिक्षा की विशेषताएं

संबंधित पोस्ट 

कोई टिप्पणी नहीं:
Write comment

आपके के सुझाव, सवाल, और शिकायत पर अमल करने के लिए हम आपके लिए हमेशा तत्पर है। कृपया नीचे comment कर हमें बिना किसी संकोच के अपने विचार बताए हम शीघ्र ही जबाव देंगे।