8/12/2021

शिक्षा के कार्य

By:   Last Updated: in: ,

शिक्षा के कार्य 

Shiksha karya;मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। शिक्षा के प्रत्येक पहलू का विकास कर, उसका चारित्रिक निर्माण करती है अर्थात् मनुष्य को मानवता का पाठ पढ़ती है। 

शिक्षा के निम्नलिखित कार्य है-- 

1. शिक्षा के व्यक्ति के प्रति कार्य 

शिक्षा के व्यक्ति के प्रति निम्नलिखित कार्य है-- 

(अ) आवश्यकताओं की पूर्ति 

भोजन, कपड़ा और मकान मानव की मूलभूत आवश्यकताएं है। एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव को अन्य व्यक्तियों से संबंध स्थापित करने की आवश्यक पड़ती है। उसे कार्य करने की आवश्यकता होती है, उसे अपने पैरों पर खड़ा होने की आवश्यकता पड़ती है, उसे आत्मनिर्भर बनने की आवश्यकता होती है, उसे संघर्ष करने की आवश्यकता होती है ताकि वह अपनी उन्नति कर सके। उसे अवसर की आवश्यकता होती है, ताकि वह अपनी विशेष योग्याता को विकसित कर सके। 

यह भी पढ़े; शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, प्रकृति, स्वरूप

यह भी पढ़े; शिक्षा का क्षेत्र, महत्व, आवश्यकता

यह भी पढ़े; शिक्षा की विशेषताएं

इन सभी आवश्यकताओं को पूरा करना शिक्षा का एक महत्वपूर्ण कार्य है। शिक्षा से ही वह अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। 

(ब) आत्मनिर्भरता की प्राप्ति 

आत्मनिर्भर व्यक्ति किसी के ऊपर भार नही होता। आत्मनिर्भर व्यक्ति अपने भार स्वयं अपने ऊपर लेता है। इसमें केवल न कि उसका बल्कि समाज व राष्ट्र का भी हित होता है। आत्मनिर्भर व्यक्ति अपने कार्यों को सफलतापूर्वक कर सकता है, वह अपनी उन्नति स्वयं कर सकता है। साथ-साथ वह समाज की उन्नति मे भी अपना योगदान देता है। 

आज हमारे भारत को आत्मनिर्भर लोगों की जरूरत है, न कि निकम्मे लोगों की जो दूसरों का साहरा ढूँढ़ते है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था," केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नही चलेगा। हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे कि व्यक्ति अपने स्वयं के पैरों पर खड़ा हो सकता है।" 

(स) भौतिक सम्पन्नता 

शिक्षा का एक मुख्य कार्य व्यक्तियों को भौतिक सम्पन्नता प्राप्त करने मे मदद करना भी है। आज के भौतिकवादी युग मे यदि शिक्षा यह कार्य नही करती है, तो उसे व्यर्थ समझा जाता है। सभी के माता-पिता यह चाहते है कि उनके बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के बाद जीवन में उच्च स्थान प्राप्त करें और ठाट-बाट के साथ रहें।

(द) व्यक्तित्व का विकास 

शिक्षा का कार्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है। शिक्षा के इस कार्य पर प्रायः सभी शिक्षाविदों द्वारा बल दिया गया है। 

फ्रैडरिक ट्रेसी के अनुसार," संपूर्ण शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व के आदर्श की पूर्ण प्राप्ति है। यह आदर्श सन्तुलित एवं समग्र व्यक्तित्व है।"

2. शिक्षा के परिवार संबंधी कार्य 

शिक्षा के परिवार संबंधी कार्य निम्नलिखित है--

(अ) व्यक्तियों के संपूर्ण व्यक्तित्व का उचित विकास 

शिक्षा के माध्यम से मनुष्य का शारिरिक, मानसिक, धार्मिक, नैतिक, आध्यात्मिक तथा संवेगात्मक विकास होता है।

(ब) भावी जीवन के लिये तैयारी 

शिक्षा मनुष्य का सर्वांगीण विकास करके उसे प्रत्येक क्षेत्र मे सक्षम बनाती है। शिक्षा से मनुष्य का व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक एवं पारिवारिक जीवन सुखमय तथा आनन्दमय व्यतीत होता है।

(स) मानवीय गुणों का विकास 

शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को घृणा, द्वेष, क्रोध एवं लालच से छुटकार मिल सकता है, शिक्षा से मनुष्य में सद्भावना, प्रेम, सहकारिता, दया, भावनाओं आदि का विकास होता है। 

(द) नैतिक उत्थान 

शिक्षा के माध्यम से चरित्र को उच्च स्थान प्रदान किया जा सकता है। शिक्षित व्यक्ति अच्छे-बूरे कार्यों  मे आसानी से भेद कर लेता है, इससे वह बुरी प्रवृत्तियों से बचने के साथ ही साथ दूसरों को भी ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है।

(ई) अन्तर्निहित शक्तियों का विकास 

शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों का समुचित विकास करती है जिससे मनुष्य कल्पना, तर्क, जिज्ञासा द्वारा नवीन योगदान प्रदान कर सके। शिक्षा द्वारा व्यक्ति की आन्तरिक शक्ति का पूरा लाभ उठाया जा सकता है। 

4. शिक्षा के समाज के प्रति कार्य 

समाज के प्रति शिक्षा के निम्नलिखित कार्य है-- 

(अ) सामाजिक विरासत का संरक्षण 

शिक्षा संस्कृति और सभ्यता का संरक्षण करती है। सभी समाजों के अपने-अपने रीति-रिवाज, परम्परायें, नैतिकता, विश्वास, धर्म, आदर्श, मान्यतायें आदि होते है जिनको उसने समाज के अति प्राचीन समय से लेकर आज तक अर्जित किया है। यदि शिक्षा इस सामाजिक विरासत को आने वाली पीढ़ियों को हस्तांतरित न करें, तो समाज का स्थायी रहना असंभव हो जायेगा।

सभी समाजों को अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व महसूस होता है। इसीलिए वह उनको किसी प्रकार से नष्ट नही होने देता है। यह कार्य शिक्षा द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। अतः हम कह सकते है कि शिक्षा सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करके समाज के अस्तित्व को बनाये रखती है। 

(ब) सामाजिक नियंत्रण 

शिक्षा सामाजिक नियंत्रण का कार्य भी करती है। शिक्षा, समाज के विभिन्न दोषों, कुरीतियों और कुप्रथाओं के विरूद्ध जनमत का निर्माण करके उनको फैलने से रोकती है और उनका अन्त भी करती है। इस प्रकार शिक्षा सामाजिक नियंत्रण के लिए एक महत्वपूर्ण शस्त्र का काम करती है। इस प्रकार से हम यह कह सकते कि शिक्षा सामाजिक अव्यवस्था को दूर करके उपयुक्त सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करती है।

(स) सामाजिक भावना का समावेश 

व्यक्ति तथा समाज का एक-दूसरे से अटूट संबंध है। व्यक्ति अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक समाज मे रहता है। समाज मे रहकर ही वह उन्नति कर सकता है, यश प्राप्त कर सकता है और दूसरों की भलाई कर सकता है। 

वह यह सब तभी कर सकता है जब उसमें प्रेम, दया, परोपकार, सहानुभूति आदि सामाजिक गुण हों। इन गुणों का विकास शिक्षा द्वारा ही किया जा सकता है।

(द) बालक का समाजीकरण 

शिक्षा बालक के समाजीकरण का एक महत्वपूर्ण कार्य करती है। विद्यालय बालक को मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास के लिए प्रेरणा देता है। विद्यालय में ही उसे सामाजिक और सांस्कृतिक आदर्शों एवं मान्यताओं की शिक्षा प्राप्त होती है। ये दोनों बातें उसके संस्कृतिकरण मे योगदान देती है।

'संस्कृतिकरण' का ही दूसरा नाम 'समाजीकरण' है। इसकी गति उस वक्त तीव्र हो जाती है जब बालक, विद्यालय में दूसरे बालकों के संपर्क में आता है। इस पकार, शिक्षा विद्यालय के माध्यम से बालक को समूह के संपर्क में लाकर उसका समाजीकरण करती है। 

5. शिक्षा के सांस्कृतिक कार्य 

शिक्षा के निम्नलिखित सांस्कृतिक कार्य है-- 

(अ) सामाजिक नियमों का ज्ञान 

शिक्षा के द्वारा सामाजिक नियमों का ज्ञान कराया जाता है, जो कि सामाजिक परम्पराओं तथा विचारों से संबंधित होते है। ये नियम तथा विचार संस्कृति के तत्व होते है। संस्कृति के तत्वों का ज्ञान कराने से शिक्षा अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक नियमों के साथ-साथ सांस्कृतिक तत्वों का ज्ञान भी कराती है। इस सामाजिक नियमों का ज्ञान शिक्षा का मुख्य सांस्कृतिक कार्य है। 

(ब) प्राचीन साहित्य का ज्ञान 

प्राचीन साहित्य मे हमारी संस्कृति के प्रमुख तत्व निहित होते है। मुख्य सामाजिक तथा शैक्षिक विचार प्राचीन साहित्य मे ही समाहित होते है। इनका ज्ञान हमको शिक्षा के द्वारा मिलता है। इसमें हमें अपनी संस्कृति के ज्ञान के साथ संस्कृति-निर्माण का भी अवसर प्राप्त होता है। जैसे किसी अन्य देश के साहित्य के अच्छे नियम अथवा विचार को अपनी संस्कृति में धारण करना।

(स) कुरीतियों के निवारण में मददगार 

संस्कृति तथा समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों और कुरीतियों का निवारण शिक्षा के द्वारा होता है। इससे हमारी संस्कृति का परिमार्जन होता है। उदाहरण के लिए दहेज हमारी संस्कृति का अंग है क्योंकि भगवान राम के विवाह मे भी दहेज का वर्णन मिलता है। वर्तमान परिस्थिति में यह हमारी संस्कृति हेतु अभिशाप बन चुका है। इसीलिए शिक्षा के द्वारा दहेज प्रथा का वर्तमान समय में उन्मूलन किया जा चुका है। दहेज लेने या देने को अपराध की संज्ञा मे आता है।

(द) सांस्कृतिक ज्ञान का विकास 

शिक्षा के द्वारा हमको सांस्कृतिक व्यवस्था का संपूर्ण ज्ञान होता है। वैदिक संस्कृति का ज्ञान आज भी शिक्षा के माध्यम से हमको प्राप्त है। जबकि वैदिक संस्कृति के काल को सैकड़ों वर्ष हो गये है। अतः शिक्षा के द्वारा हमें सांस्कृतिक विकास का ज्ञान होता है, जिसका उपयोग हम वर्तमान समय मे भी करते है। हमारी विवाह पद्धति आज भी भगवान राम तथा जगदीश्वर शंकर जी से मिलती है। आज भी विवाह के समय शिव-पार्वती के परिणय संस्कार का वर्णन करते हुए विवाह प्रणाली को सम्पन्न किया जाता है। यह हमारे सांस्कृतिक ज्ञान के विकास का ही परिणाम है।

(ई) नैतिक गुणों का विकास 

शिक्षा के द्वारा संस्कृति मे नैतिक गुणों का विकास होता है। अगर शिक्षा का सहयोग संस्कृति को नही मिलता है तो मानव नैतिक गुणों को धारण करने मे असमर्थ रहता है क्योंकि शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति को बताया जाता है कि महान् व्यक्तियों ने नैतिकता के सहारे ही समाज में सम्मान प्राप्त किया है। इसके आधार पर ही समाज ने नैतिक गुणों को स्वीकार किया है। 

(फ) मानवीय गुणों का विकास

शिक्षा के द्वारा मानवीय गुणों तथा अमानवीयता के बीच तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। मानवता पर आधारित समाज के अच्छे परिणामों को बताया गया है तथा दानवता पर आधारित समाज के दुष्परिणामों को। इसके आधार पर समाज मानवता के अच्छे परिणामों से आकर्षित होकर मानवीय गुणों को अपनाता है। इसलिए संस्कृति में मानवीय गुणों का विकास शिक्षा की ही देन है।

6. राष्ट्रीय जीवन मे शिक्षा के कार्य

राष्ट्रीय जीवन मे शिक्षा के निम्नलिखित कार्य है-- 

(अ) राष्ट्रीय एकता 

शिक्षा को राष्ट्रीय एकता का आधार कहा जाता है। लेकिन प्रश्न यह है कि 'शिक्षा राष्ट्रीय एकता के कार्य को किस प्रकार कर सकती है? यदि हम अपने देश की वर्तमान स्थिति पर ध्यान दें तो हम दुःख से सराबोर हो जाते है। आज हम प्रान्तीयता, साम्प्रदायिकता, जातीयता और क्षेत्रीयता मे विश्वास करते है। हम भाषा के प्रश्न पर लड़ते है। 

इन सब बातों ने हमारे दृष्टिकोण को संकीर्ण बना दिया है और हमे प्रभावित करके हममे शत्रुता की भावना उत्पन्न कर दी है। यदि हम इन बुराइयों को मुक्त करना चाहते है, तो हमें शिक्षा का सहारा लेना पड़ेगा। शिक्षा ही हमें दोषमुक्त करके एकता के सूत्र में बांध सकती है। 

(ब) अच्छे नागरिकों का निर्माण 

किसी भी राष्ट्र मे अच्छे नागरिकों निर्माण शिक्षा के द्वारा ही हो सकता है। किसी राष्ट्र की उन्नति के लिए जरूरी है कि उस राष्ट्र के नागरिक योग्य, चरित्रवान तथा राष्ट्रीय प्रेम से परिपूर्ण हो। अतः शिक्षा बालक को इस योग्य बनाती है कि वह अपने कर्तव्यों व अधिकारों का पालन कर सके। 

(स) राष्ट्रीय अनुशासन 

शिक्षा द्वारा राष्ट्रीय अनुशासन के कार्य पर बल दिया गया है। हमने अपनी स्वतंत्रता कुछ ही वर्षों पहले प्राप्त की है। उसे बनाये रखने के लिए बहुत परिश्रम और सतर्कता की आवश्यकता है, परन्तु केवल इन्हीं से काम नही चलेगा। हममें से प्रत्येक में संगठन, कुशलता और बलिदान के गुण होने चाहिए।

इन गुणों की सहायता से ही हम राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता को बनाये रख सकते है। इन गुणों के विकास का आधार-- राष्ट्रीय अनुशासन। अतः शिक्षा को राष्ट्रीय अनुशासन के कार्य की अवहेलना नही करनी चाहिए। 

(द) विशेषज्ञों का निर्माण 

प्रत्येक राष्ट्र की उन्नति के लिए यह जरूरी है कि उस राष्ट्र के नागरिकों मे विशेषज्ञों वाले गुणों का विकास हो जिससे देश की उन्नति के समान अवसर प्राप्त हो सके। व्यक्तियों की जन्मजात विशिष्टताओं को पहचान कर उनके विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण शिक्षा द्वारा ही संभव है। अतः विशेषज्ञों का निर्माण करना भी शिक्षा का एक आवश्यक कार्य है। 

(ई) नागरिक व सामाजिक कर्तव्यों की भावना का समावेश 

नागरिक और सामाजिक कर्तव्य लोकतंत्र की आधारशिला है। इनके अभाव मे भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राज्य की सफलता के बारे मे सोचना केवल स्वप्न देखना है। 

अतः शिक्षा का कार्य है कि वह लोगों को इस प्रकार प्रशिक्षित करे कि वे नागरिक के रूप मे अपने देश के प्रति और व्यक्ति के रूप मे समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को समझें और करे।

(फ) विज्ञान एवं तकनीकी चेतना का विकास 

इस आधुनिकता के दौर मे प्रत्येक राष्ट्र की उन्नति के लिए वैज्ञानिक व तकनीकी साधनों का विकास होना जरूरी है। अतः शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए जो बालकों मे विज्ञान के प्रति रूचि उत्पन्न कर सके जिससे आगे चलकर छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हो सके। विद्यालयों मे आयोजित होने वाली पाठ्यसहगामी क्रियाओं (जैसे-- विज्ञान मेला, प्रदर्शनी) के माध्यम से छात्रों मे वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न होता है और वे देश उन्नति व विकास मे अपने योगदान को समझ सके।

संबंधित पोस्ट 

2 टिप्‍पणियां:
Write comment

आपके के सुझाव, सवाल, और शिकायत पर अमल करने के लिए हम आपके लिए हमेशा तत्पर है। कृपया नीचे comment कर हमें बिना किसी संकोच के अपने विचार बताए हम शीघ्र ही जबाव देंगे।