जर्मनी का एकीकरण (germany ka ekikaran)
germany ka ekikaran;मेटरनिख आस्ट्रिया छोड़कर भाग गया तब उसके पश्चात प्रशा मे क्रांति हुई परन्तु क्रांतिकारी असफल रहे। जब फ्रेडरिक विलियम प्रशा का राजा बना तो उसे एकीकरण मे अनेक कठिनाइयों का समाना करना पड़ा तब उसने पेरिस मे प्रशा के राजदूत विस्मार्क को बुलाकर अपना प्रधानमंत्री बनाया। इसने राजा का साथ न छोड़ने की कसम खाई और प्रशा के नेतृत्व मे जर्मनी के एकीकरण का दृढ़ निश्चय किया।
विस्मर्क का परिचय और नीति
विस्मार्क का जन्म एक कुलीन घराने मे हुआ था तथा 1851 मे वह जर्मनी डाइट का सदस्य चुना गया। उसने कुछ देशो मे राजदूत के रूप मे भी कार्य तथा 1862 मे वह प्रधानमंत्री बना। विस्मार्क जब प्रधानमंत्री बना तो फ्रेडरिक विलियम का संसद के उदारवादियों से संघर्ष चल रहा था। अतः उसने इस संघर्ष को समाप्त करने का निश्चय किया। उसने प्रशा को यूरोप का सर्वश्रेष्ठ देश और सम्पूर्ण जर्मन राज्यों का उसके नेतृत्व मे एकीकृत का उद्देश्य अपनाया। परन्तु इस कार्य मे जन समर्थन के लिये उसने आंतरिक सुधार करके फ्रेडरिक और स्वयं की लोकप्रियता को बढ़ाने का भी लक्ष्य रखा। यह कार्य विदेशी शक्तियों से संघर्ष और उनको पराजित किये बिना नही हो सकता था अतः उसने युद्ध और विजय अथवा रक्त और लोह की नीति अपनाई।
जर्मनी के एकीकरण मे बाधाएं
जर्मनी का एकीकरण बिस्मार्क के उदय होने के साथ प्रारंभ हुआ तथा उसी के नेतृत्व मे पूर्ण हुआ। इसके पूर्व जर्मनी के एकीकरण मे अनेक बाधाएं थी जिनमे इस कुछ इस प्रकार है--
1. जर्मनी के विभिन्न राज्यों की धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक असमानताएं।
2. पवित्र रोमन साम्राज्य का प्रभाव।
3. आस्ट्रिया का हस्तक्षेप।
4. सैन्य शक्ति की कमजोरी।
5. बौद्धिक चेतना का अभाव।
6. विदेशियों के निहित स्वार्थ।
7. आस्ट्रिया तथा प्रशिया की प्रतिस्पर्धा।
जर्मनी के एकीकरण के सोपान या चरण
1. प्रथम सोपान (डेनमार्क से युद्ध 1864 ई.)
बिस्मार्क द्वारा डेनमार्क से युद्ध करने का प्रमुख कारण था श्लेसविंग और होल्सटीन का मामला। बिस्मार्क बहुत कूटनीतिज्ञ था। उसने इस हेतु आस्ट्रिया को अपने साथ मिला लिया। दोनो की सेवाओं ने मिलकर 1864 मे डेनमार्क पर आक्रमण किया। डेनमार्क की सेनाएं कई स्थानों पर पराजित हुई। इंग्लैंड ने प्रशिया के इस कार्य को अनुचित ठहराया परन्तु डेनमार्क की कोई सहायता नही की। फ्रांस इस पर चुप रहा। इस तरह से बिस्मार्क की कूटनीति सफल रही। डेनमार्क को 30 अक्टूबर 1864 को एक संधि करनी पड़ी जिनके अनुसार डेनमार्क को श्लेसविंग और होल्सटीन पर अपना अधिकार छोड़ना पड़ा।
2. द्वितीय सोपान (आस्ट्रिया से युद्ध 1866)
कारण
आस्ट्रिया से युद्ध का प्रमुख कारण था, आस्ट्रिया को पराजित कर जर्मनी से आस्ट्रिया के प्रभाव को समाप्त करना।
कूटनीति
बिस्मार्क ने कूटनीति का सहारा लेकर क्रीमिया के युद्ध मे रूस का पक्ष लिया। पोलैड के विद्रोहियों के विरुद्ध बिस्मार्क ने रूस का समर्थन किया था इसलिए रूस इस बात के लिए तैयार हो गया कि आस्ट्रिया को वह किसी प्रकार का समर्थन नही देगा। बिस्मार्क ने फ्रांस के सम्राट से भी समझौता कर लिया और इंग्लैंड के साथ इसने मधुर संबंध बनाए रखें।
घटनाएं
बिस्मार्क ने आस्ट्रिया पर यह गंभीर आरोप लगाया कि वह प्रशिया द्वारा शासित श्लेसविंग प्रांत मे विद्रोह भड़काने का प्रयत्न कर रहा है। 1866 मे प्रशा की सेनाएं होल्सटीन मे घुस गई और वहां से आस्ट्रिया की सेनाओं को भगा दिया। बिस्मार्क ने 18 जून 1866 को आस्ट्रिया सहित महासंघ के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। दूसरी तरफ इटली ने आस्ट्रिया के विरूद्ध युद्ध करना शुरू कर दिया।
3 जुलाई 1866 को प्रशिया ने जिनेवा मे आस्ट्रिया को बुरी तरह परास्त किया। इसी बीच आस्ट्रिया के सम्राट ने युद्ध बंद करने की घोषणा कर दी और दोनों मे हेग की संधि हुई।
हेग संधि की शर्तें
1. आस्ट्रिया अपना इटली का वेनेशिया प्रांत पीडमौन्ट सार्डीनिया को दे देगा इससे इटली का एकीकरण पूर्ण हो गया।
2. श्लेसविंग और होल्सटीन पर प्रशा का पूर्ण अधिकार मान लिया गया।
3. फ्रैंकफर्ट हैनोआ को प्रशिया के सम्राज्य मे मिला लिया गया।
4. मेन नदी के उत्तर मे स्थित 20 जर्मन रियासतों का एक उत्तरी जर्मन संघ बनाया गया।
5.क्षतिपूर्ति के रूप मे आस्ट्रिया 4 करोड़ रूपये प्रशा को देगा।
6. इस युद्ध मे प्रशिया को आस्ट्रिया से पचास लाख जनता और 27 हजार वर्ग मील का क्षेत्र प्राप्त हुआ।
3. तृतीय सोपान (प्रशा का फ्रांस से युद्ध 1870)
फ्रांस से युद्ध के कारण
1. फ्रांस जर्मनी के एकीकरण का सदा विरोधी था।
2. बिस्मार्क चाहता था कि फ्रांस, जर्मनी पर आक्रमण करे ताकि कुछ रियासतें (बवेरिया, बैडनवर्ग, हैमसे, बादन आदि) स्वयं प्रशिया मे एकीकृत होने की आवश्यकता महसूस करे।
3. नेपोलियन तृतीय बेल्जियम को प्राप्त करना चाहता था परन्तु बिस्मार्क ने उसे ऐसा नही करने दिया।
4. सैडोवा मे आस्ट्रिया की पराजय से प्रशा शक्तिशाली राष्ट्र हो गया था। फ्रांस इस अपनी हार मानता था।
घटनाएं
फ्रांस और प्रशा का युद्ध तेजी से वास्तव मे 1 अगस्त 1870 से 21 जनवरी 1871 ई. तक चलता रहा और पेरिस के पतन के पश्चात फ्रैंकफर्ट की संधि के अनुसार समाप्त हुआ। इस युद्ध मे फ्रांस को बहुत हानि पहुंची। 8 सितंबर 1870 को सैडोवा के युद्ध मे प्रशिया की सेनाओं को निर्णायक विजय प्राप्त हुई। इस युद्ध मे सम्राट नेपोलियन तृतीय स्वयं सैनिकों के साथ बंदी बनाया गया। प्रसिद्ध दुर्ग मत्ज और 6 हजार फ्रांसीसी अधिकारी तथा 1,73,000 सैनिक बंदी बनाये गये। 2 सितंबर 1870 को प्रशा की सेनाओं ने स्ट्रासबर्ग के दुर्ग पर कब्जा करके 19,000 फ्रांसीसी सैनिकों को बंदी बना लिया था। इसके बाद उसने पेरिस को घेर लिया और इसकी सप्लिई को काट दिया। फलतः पेरिसवासी भूखों मरने लगे। 28 जनवरी 1871 को पेरिस को झुकना पड़ा।
फ्रैंकफर्ट संधि और जर्मनी का पूर्णतः एकीकरण
1871 मे बिस्मार्क ने फ्रैंकफर्ट मे फ्रांस के प्रतिनिधियों को बुलाया और उनके साथ कठोर व्यवहार करते हुये उसे फ्रैंकफर्ट संधि के लिये विवश कर दिया। जिसमे फ्रांस को निम्म शर्ते स्वीकार करनी पड़ी--
1. बिस्मार्क ने 20 करोड़ पौण्ड क्षतिपूर्ति मे वसूल किये।
2. वसूली तीन बर्ष मे करना थी तब तक प्रशा की सेनाओं का फ्रांस के खर्च पर फ्रांस मे रहना तय हुआ।
3. मेट्रस स्ट्रांसबर्ग, अल्सेस-लाॅरेन और टूल्स पर प्रशा का अधिकार मान्य किया गया।
इस संधि के परिणामस्वरूप जर्मनी का एकीकरण पूर्ण हो गया। फ्रांस मे नेपोलियन तृतीय को हटा दिया गया। फ्रांस के अधीन इटली के राज्य विक्टर इमेनुअल को मिल गया तथा फ्रांस मे तृतीय गणतंत्र की स्थापना हुई।
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