2/12/2022

न्याय की अवधारणा

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न्याय की अवधारणा 

न्याय की अवधारणा नीतिशास्त्र, राजनीति शास्त्र तथा विधिशास्त्र की एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा रही है।  न्याय क्या हैं? यह प्रश्न सुकरान से लेकर आधुनिक राजनीति सिद्धान्त तक एक ज्वलंत एवं विरजीवी प्रश्न रहा है। जिसका हल सुकरान से लेकर जॉन राल्स तथा उसके बाद अनेक विचारकों ने अपने-अपने विवेक से करने का प्रयास किया है। प्रत्येक युग में न्याय का अर्थ परिवर्तित होता रहा और इसका कोई सार्वभौमिक अन्तर नहीं खोजा जा सका क्योंकि प्रत्येक काल में न्याय की धारणा की व्याख्या तात्कालीन समाज की प्रचलित मान्यताओं के अनुसार की गयी। 

जैसा कि डी.डी रैफल का मत है कि," न्याय द्विमुखी है, जो एक साथ अलग-अलग चेहरे दिखलाता है। वह विधिक भी है और नैतिक भी उसका सम्बन्ध सामाजिक व्यवस्था से हैं और उसका सरोकार जितना व्यक्तिगत अधिकारों से है उतना ही समाज के अधिकारों से भी है। वह रूढ़िवादी है लेकिन साथ ही सुधारवादी भी है। सामान्यत Justice शब्द लेटिन शब्द "Justitia" से बना है जिसका अर्थ जोड़ना, बंधन अथवा ग्रंथि है। 

जैसा कि बाकर ने भी कहा है कि," न्याय का काम विभिन्न राज्य नैतिक मूल्यों को एक दूसरे के साथ जोड़ना है, एक दूसरे में रिप्लाई करना है अर्थात तालमेल बैठाना है।" 

न्याय स्वयं में पूर्ण अवधारणा नहीं है बल्कि यह एक सापेक्ष अवधारणा है। समय तथा परिस्थितियों के बदलते ही इसके अर्थ में भी परिवर्तन आ जाता है किन्तु सामान्यतः न्याय का सम्बन्ध मल्यों, औचित्य एवं सामाजिक आदर्शों से होता है। न्याय की अवधारणा को मुख्यतः दो भागों में बांटा जाता है-- 

(अ) व्यापक अवधारणा के रूप में 

इस रूप में न्याय को सत्य तथा नैतिकता के समरूप माना जाता है। इस रूप न्याय को मानव के सारे आचरणों एवं सम्बन्धों को परखने का आधार माना जाता है समाज में अच्छाई, बुराई, धर्म-अधर्म, सदाचार-दुराचार आदि के नियमों, मूल्यों तथा आचरणों के मापने का पैमाना माना जाता है। यहां न्याय व्यक्ति से सम्बन्धित न होकर सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित होती है। न्याय का यह रूप प्लेटो व अरस्तु के दर्शन में देखने को मिलता है। इन विचारकों ने न्याय को सर्वोच्च सदगुण के रूप में स्थापित किया जैसा कि सिसरो ने कहा है कि, " न्याय समस्त सदगुणों की अभिव्यक्त महिमा है।" 

(ब) संकीर्ण अवधारणा के रूप में 

संकीर्ण अर्थ में न्याय को कानून के साथ जोड़कर देखा जाता है। यहां न्याय को एक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। यह मुख्यतः न्याय का कानूनी रूप है जो न्याय को व्यक्ति के रूप में देखता है। इसके अन्तर्गत माना जाता है कि न्याय का सरोकार निष्पक्ष कानून व्यवस्था न्याय संगत कानून कानून के समक्ष नागरिक समानता इत्यादि से है। जैसा की मेरियम ने लिखा है कि," न्याय उन मान्यताओं और प्रक्रियाओं का योग है जिनके माध्यम से प्रत्येक मनुष्य को वे सभी अधिकार व सुविधाएं जुटाई जाती है जिन्हें समाज उचित मानता है।"

पाश्चात्य चिंतन में न्याय की अवधारणा 

पाश्चात्य चिंतन में न्याय के स्वरूप की व्याख्या करने के लिए मुख्यतः न्यायपराण व्यक्ति अर्थात् सच्चरित्र मनुष्य के गुणों पर विचार किया जाता था। इसमें उन सद्गुणों की की तलाश की जाती थी जो व्यक्ति को न्याय की ओर प्रेरित करते है। प्लेटो ने अपनी सुविख्यात ग्रंथ 'रिपब्लिक' (Republic) में कहा हैं," न्याय मानव आत्मा की उचित अवस्था और मानवीय स्वभाव की प्राकृतिक माँग हैं।" 

न्याय को अति आवश्यक माना हैं। वह न्याय को एक प्रकार से समानता के निकट मानता हैं  अरस्तु ने अपने न्याय संबंधी विचारों की व्याख्या अपने ग्रंथ 'पाॅलटिक्स' में की हैं। उसके अनुसार न्याय का विशाल दृष्टिकोण (नैतिक) तथा संकुचित दृष्टिकोण, दोनों से देखा जा सकता हैं। 

सैबाइन के अनुसार," न्याय एक सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत धर्म है जिससे राज्य और उसके सदस्यों का उच्चतम हित सुरक्षित रहता हैं।" 

न्याय की भारतीय अवधारणा 

भारतीय चिंतन परम्परा में प्राचीनकाल से ही 'न्याय' को महत्व दिया गया हैं। मनु, कौटिल्य, शुक्र, बृहस्पति आदि सभी विचारकों ने राज्य व्यवस्थाओं में न्याय को महत्वपूर्ण माना हैं।

मनु ने मनुष्यों के विवादों की दो श्रेणियाँ बतलाई हैं जिन्हें आज हम दीवानी और फौजदारी की संज्ञा देते हैं। मनु का कहना है कि न्याय करने वाला अधिकारी निष्पक्ष और सत्यप्रिय होना चाहिए। वह कहता हैं," जिस सभा (न्यायालय) में सत्य असत्य से पीड़ित होता है, उसके सदस्य भी पाप से नष्ट हो जाते हैं, मनु के समान कौटिल्य भी उचित न्याय व्यवस्था को राज्य का प्राण मानता हैं। उसका कहना है कि जो राज्य अपनी प्रजा को न्याय नही दे सकता वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। कौटिल्य का मत है कि न्याय का उद्देश्य प्रजा के जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करना हैं। कौटिल्य ने दो प्रकार के न्यायालयों का उल्लेख किया हैं," एक 'धर्मस्थीय' दूसरा 'कण्टक शोधन।' वर्तमान में इन्हें क्रमशः दीवानी और फौजदारी न्यायालय कह सकते है। कौटिल्य के समान लगभग सभी भारतीय ग्रंथों में इस बात पर जोर दिया गया है कि न्याय अधिकारियों को निष्पक्ष होना चाहिए।

यह भी पढ़े; न्याय का अर्थ, परिभाषा, प्रकार

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