12/08/2020

लखनऊ समझौता (1916)

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लखनऊ समझौता (1916) 

lucknow samjhauta;लखनऊ समझौता साम्प्रदायिक मुस्लिम लीग के साथ सहयोग की अपेक्षा से किया गया कांग्रेस का एक प्रयास था। मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के साथ मिलकर भारत के प्रशासन के लिये एक योजना तैयार की जिसे दोनों दलों (मुस्लिम लीग और कांग्रेस) ने 1916 मे लखनऊ समझौता (लखनऊ पैक्ट के नाम से स्वीकार कर लिया। इस समझौते को ही लखनऊ समझौते के नाम से जाना जाता है।

प्रिंसीपल बेक, आर्चीबोल्ड और लाॅर्ड डफरिन ने साम्प्रदायिकता का पोषण करते हुए तथा इंग्लैंड से आगा खाँ को बुलाकर मुस्लिम लीग की स्थापना करवाई और कांग्रेस की प्रतिशोधी मांगे रखी। सन् 1912 तक वह पूर्ण रूप से अंग्रेजी मार्गदर्शन मे चलती रही।

मुस्लिम लीग मे परिवर्तन 

अंग्रेजपरस्त आगा खाँ तथा अंग्रेजों का नियंत्रण 1912 तक मुस्लिम लीग पर रहा परन्तु मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, मोहम्मद अली जिन्ना, अजमल खाँ, डाॅ. अन्सारी, डाॅ. किचलू, आसफ अली, फजल हुसैन, डाॅ. सर सैयद मेहमूद के लीग मे शामिल होने से लीग की विचारधार मे भी परिवर्तन हुआ। वास्तव मे ये मुसलमान कांग्रेस के उद्देश्य और कार्यों तथा विचारधार से कुछ-कुछ प्रभावित थे। अतः हिन्दू और मुस्लिम लीग मे परस्पर सहयोग का युग आरंभ हुआ।

कांग्रेस और मुस्लिम लीग मे सहयोग के कारण 

प्रथम विश्व युद्ध इसके लिये विशेष रूप से उत्तरदायी था। भारत मे रहने वाले मुसलमानों की भक्ति भारतीय स्वतंत्रता या भारतीय नेताओं मे नही थी तथा प्रथम विश्व युद्ध मे टर्की पर आक्रमण करने वालो मे इंग्लैंड भी था। अतः भारतीय मुसलमान इंग्लैंड से नाराज हो गये थे, क्योंकि इनकी भक्ति टर्की के मुस्लिम खलीफा मे थी। इंग्लैंड ने टर्की की सुरक्षा के लिये कुछ भी नही किया। कट्टर सुन्नी मुसलमान जो अंग्रेजों मे विश्वास करते थे वह बंगाल विभाजन को 1911 मे रद्द करने से नाराज हो गये थे। इसी समय 1913 मे मोहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग मे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गया तथा उन्होंने लीग के संविधान मे परिवर्तन किया तो आगा खाँ ने त्यागपत्र दे दिया। इस प्रकार कांग्रेस-लीग के अनेक बार अधिवेशन एक ही स्थान पर होने लगे तथा दोनो के नेता भी एक-दूसरे के अधिवेशनो मे जाने लगे।

लखनऊ मे कांग्रेस और लीग के अधिवेशन हुए। गांधी जी और मदन मोहन मालवीय ने लीग के अधिवेशन मे भाग लेकर भाषण भी दिये। इस प्रकार एक सौहार्दपूर्ण वातावरण कांग्रेस और मुस्लिम लीग मे लखनऊ समझौता हुआ।

लखनऊ समझौते के प्रावधान 

1. केन्द्रीय और प्रांतीय विधान सभाओं मे 80% सदस्य निर्वाचित तथा 20% मनोनीत होने चाहिए।

2. केन्द्रीय विधान सभा की सदस्य संख्या 150, मुख्य प्रांतों की विधान सभाओं की सदस्य संख्या कम से कम 125 तथा अन्य प्रान्तों की विधान सभाओं की सदस्य संख्या 50 से 75 तक हो।

3. विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों को जनता द्वारा चुना जाए और मताधिकार को यथासंभव विस्तृत किया जाए।

4. विधान सभाओं मे मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया जाए। विभिन्न विधानसभाओं मे उनकी संख्या इस तरह हो- केन्द्रीय विधान सभा 1/3, पंजाब 50%, संयुक्त प्रांत 30%, बंगाल 40%, बिहार 25%, बम्बई 1/3, मध्य प्रदेश 15% और मद्रास 15%।

5. केन्द्रीय सरकार का शासन गवर्नर जनरल कार्यकारिणी परिषद की सहायता करे, जिसमे आधे सदस्य भारतीय हो।

6. प्रांतों का शासन गवर्नर कार्यकारिणी परिषद की सहायता से करें, जिसमे कम से कम आधे सदस्य भारतीय हों।

7. अल्पसंख्यकों को किसी विधेयक को निषिद्ध करने का अधिकार दिया जाए।

8. भारत मंत्री परिषद को खत्म कर दिया जाए तथा भारत सरकार के साथ उसका वही संबंध रहे, जो औपनिवेशिक सरकारो के साथ हो।

लखनऊ समझौते के परिणाम या महत्व 

लखनऊ समझौते के अनुसार लीग ने कांग्रेस की स्वशासन की मांग को स्वीकार कर लिया और कांग्रेस ने मुसलमानों हेतु पृथक निर्वाचन प्रणाली तथा गुरूभार पद्धति को स्वीकृति दे दी। लखनऊ समझौता बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया, क्योंकि इसके कारण भारत की दो बड़ी राजनीतिक शक्तियों मे गठबंधन हो गया। लेकिन यह मानना होगा कि कुल मिलाकर यह समझौता लीग की विजय का सूचक था, क्योंकि लीग के साथ गठबंधन करने की लालसा मे कांग्रेस ने जिन सिद्धांतों ( प्रजातंत्र, संयुक्त निर्वाचन प्रणाली और धर्म निरपेक्षता ) का बलिदान दिया, वह देश को बहुत ही महंगा पड़ा। वास्तव मे पाकिस्तान की नीवं के तत्व को इस समझौते मे देखा जा सकता है। इकबाल नारायण ने ठीक ही लिखा है-," कांग्रेस ने यह एक ऐसी भूल की, जिसका मूल्य उसे देश के विभाजन के रूप मे चुकाना पड़ा।" 

ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, " लखनऊ समझौता कांग्रेस द्वारा लीग को संतुष्ट करने की नीति का प्रारंभ था।"

वी.पी. सिंह की मान्यता है कि कांग्रेस ने लीग की बातो को मानकर सदा के लिए सांप्रदायिकता के सामने सिर टेक दिया...। 

लखनऊ समझौता एक भारी भूल थी। जिन्ना और लीग ने इसे कांग्रेस की कमजोरी माना तथा इसके बाद मुस्लिम साम्प्रदायिकता और बढ़ गई। सन् 1935 तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग मे बहुत अधिक मतभेद हुए तथा लीग ने कांग्रेस पर अनेक आरोप लगाये और हिंसात्मक कार्यवाही की तथा पाकिस्तान की मांग की।  इस प्रकार से मुसलमानों की सांप्रदायिक प्रवृत्तियां तीव्रतर होती गई जिसका भयानक परिणाम भारत के विभाजन के रूप मे सामने आया।

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