12/08/2020

भारतीय परिषद अधिनियम 1909

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भारतीय परिषद अधिनियम 1909 (मार्ले मिंटो सुधार अधिनियम सन् 1909)

bhartiya parishad adhiniyam 1909;अंग्रेज शासक आतंकवाद के विरोधी उदारवादियों तथा मुसलमानों को प्रसन्न करना चाहते थे। यही प्रमुख कारण है कि सन् 1909 के मिण्टो-मार्ले सुधार अधिनियम को पारित किया गया था। सन् 1909 के अधिनियम को पारित करने के अन्य अन्य कारण भी थे।

1909 का एक्ट (अधिनियम) राजनीतिज्ञों के अनुसार एक सीमा-चिन् था जो अपने से पूर्व बने अधिनियमो से अधिक प्रगतिशील था परन्तु कुछ विचारक इसे एक प्रतिक्रियावादी और तत्कालीन परिस्थितियों मे चालाकी भरा कदम बताते है। 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम तत्कालीन वायसराय लार्ड मिण्टो ने भारत मंत्री लार्ड मार्ल की सहायता से बनवाया, जिसकी पृष्ठभूमि मे अलीगढ़ महाविद्यालय का प्राचार्य आर्चीबोल्ड और उनका अंध अनुयायी आगा खाँ था, जो पूरी तरह से ब्रिटिश सरकार का कृपा पात्र था और इंग्लैंड मे विलासी जीवन व्यतीत करता था।

सन् 1909 के भारत सरकार अधिनियम के पारति होने के कारण 

1909 के अधिनियम के कारण इस प्रकार है--

1. भारतीयों की दयनीय स्थिति 

सन् 1896 से 1900 के मध्य भारत ने प्लेग तथा अकाल की प्राकृतिक विभीषिकाओं तथा आपदाओं का सामना किया था। विश्व स्तर पर ब्रिटिश सरकार की कटू आलोचना तथा कांग्रेस द्वारा सुधार की मांगो को दृष्टिगत रखकर 1909 का भारत सरकार अधिनियम ब्रिटिश संसद मे पारित हुआ था।

2. उग्रवादी धारा का आतंकवाद मे परिवर्तन 

उग्रवादी नेता आतंकवाद मे विश्वास नही रखते थे। किन्तु लाला लाजपतराय और लोकमान्य को बंदी बनाए जाने से कुछ उग्रवादी युवकों ने हिंसा तथा आतंक का रास्ता अपना लिया था। ब्रिटिश शासन इस स्थिति से चिंतित हो गया और मिंटो मार्ले सुधारों द्वारा स्थिति पर नियंत्रण करना चाहता था।

3. लार्ड मार्ले का भारत सचिव बनना 

लार्ड मार्ल को इंग्लैंड की उदार दल की सरकार मे भारत सचिव बनाया गया था। लार्ड मार्ल एक सुधारवादी व्यक्ति था, अतः उसने वायसराय को भारत मे सुधार हेतु सुझाव दिया था।

4. सन् 1892 के अधिनियम से असंतोष 

सन् 1892 के अधिनियम मे अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली, प्रांतों मे केन्द्र का हस्तक्षेप तथा भारतीयों को प्रतिनिधित्व नही देने के कारण असंतुष्ट भारतीयों ने आंदोलन प्रारंभ कर दिए थे। अतः ब्रिटिश शासन ने सन् 1909 का अधिनियम पारित किया था।

5. लाॅर्ड कर्जन की नीतियां 

लार्ड कर्जन ने सन् 1898 से 1905 के मध्य कई ऐसे कार्य किए थे जिससे भारतीयों मे तीव्र असंतोष व्याप्त हो गया था। भारतीयों को संतुष्ट करने के लिए मिण्टों-मार्ले सुधार (1909 अधिनियम) पारित किया गया।

भारत सरकार अधिनियम 1909 की धाराएं या प्रावधान

1. विधान परिषदों के आकार मे वृद्धि 

1909 के अधिनियम के अनुसार गवर्नर जनरल के विधानमंडल के अतिरिक्त गवर्नर के विधान परिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या मे वृद्धि कर दी गयी। उदाहरणार्थ केन्द्रीय विधानमण्डल मे अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 16 से 60 कर दी गयी तथा मद्रास, बंगाल, बम्बई के सदस्यों की संख्या 20 से बढ़ाकर 50 कर दी गयी। उत्तरप्रदेश की 15 से 60 कर दी गयी और पंजाब, असम एवं बर्मा के विधान परिषदों के लिये 30 सदस्यों का प्रावधान रखा गया। पदेन सदस्य इनके अतिरिक्त थे।

2. केन्द्रीय विधानमण्डल मे सरकारी बहुमत

प्रत्येक विधानमण्डल मे तीन प्रकार के सदस्य थे। नामांकित सरकारी सदस्य, नामांकित गैर सरकारी सदस्य और निर्वाचित सदस्य। केन्द्रीय विधान मण्डल मे चार प्रकार के सदस्य थे। उरोक्त तीन प्रकार के सदस्यों के अतिरिक्त पदेन सदस्य भी थे। केन्द्रीय विधान मण्डल मे सरकारी बहुमत रखा गया। सदस्यों की अवधि तीन वर्ष थी।

3. सर्वोच्च व्यवस्थापिका सभा मे निर्वाचित सदस्य 

1909 के अधिनियम के अनुसार विभिन्न वर्गों के आधार पर निर्वाचित सदस्य रखे गये। केन्द्रीय विधानमण्डल मे निर्वाचित सदस्यों मे 5 मुसलमानों द्वारा, 6 जमींदारों द्वारा, 1 मुसलमान जमींदारों द्वारा, एक- एक बंगाल तथा बम्बई की वाण्ज्यि मण्डल द्वारा तथा 13 नौ प्रान्तीय परषदो मे गैर निर्वाचित सदस्यो द्वारा स्थान दिये गये थे।

4. प्रान्तीय विधान मण्डलो मे गैर सरकारी बहुमत 

1909 के भारतीय परिषद अधिनियम के द्वारा प्रांतों मे गैर सरकारी बहुमत रखने का बड़ा भारी कदम उठाया गया था, परन्तु इसका यह आश्य कदापि नही था कि वहाँ पर चुने हुए सदस्यों का बहुमत कर दिया गया था। बहुमत तो मनोनीत तथा गैर सरकारी सदस्यों को मिलाकर अधिक था। निर्वाचित सदस्य भी स्थानीय संस्थाओं अथवा विशेष वर्गों के प्रतिनिधि होते थे, अतः वे सरकार का विरोध करने की बजाय उनका पक्ष लेते थे। सरकार को नामांकित गैर सरकारी सदस्यो की वफादारी पर पूर्ण विश्वास था तथा बंगाल को छोड़कर हर प्रान्त मे सरकारी तथा नामांकित गैर सरकारी सदस्यो का बहुमत था। अतः प्रान्तीय क्षेत्र मे भी सरकार को अपनी नीति मनवाने मे कोई असुविधा नही होती थी।

5. साम्प्रदायिक एवं पृथक चुनाव प्रणाली 

ब्रिटिश सरकार ने सामान्य निर्वाचन एवं क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को भारत के लिये अनुपयुक्त मानकर पृथक निर्वाचन पद्धति तथा साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति अपनायी। विभिन्न वर्गों, हितों और जातियों के आधार पर निर्वाचिन की व्यवस्था की गयी। मुसलमानों, जमींदारों, डिस्ट्रिक्ट बोर्डों, व्यापारियों, नगरपालिकाओं आदि को पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया। इस प्रकार साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व तथा पृथक प्रतिनिधित्व को 1909 के अधिनियम मे मान्यता दी गयी, जो भविष्य मे भारत के लिए बड़ी घातक सिद्ध हुई।

6. विधानमण्डल के सदस्यों के अधिकारों मे वृद्धि 

विधानमंडल के सदस्यों की शक्ति मे वृद्धि कर उन्हे प्रश्न तथा सहायता प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। परन्तु यह सहायक प्रश्न पूछने का अधिकार उसी सदस्य को था जिसने पहले प्रश्न पूछा हो। इस प्रकार इस सम्बन्ध मे अनेक प्रतिबंध भी लगा दिये गये। सदस्यों को वित्तीय बजट पर बहस करने और प्रस्ताव पेश करने तथा सार्वजनिक हित सम्बन्धी प्रस्ताव प्रस्तुत करने और उस पर मत देने का अधिकार तो दिया गया किन्तु इन समस्त अधिकारो का प्रयोग वे विशेष नियम के अनुसार ही कर सकते थे। प्रस्ताव स्वीकार करना अथवा अस्वीकार करना सरकार की इच्छा पर निर्भर था। बजट के कुछ भाग को छोड़कर अधिकांश भाग पर सदस्यों को मत देने का अधिकार नही था, उस पर वे केवल बहस कर सकते थे। स्पष्ट है कि सम्पूर्ण शक्ति सरकार मे निहित थी।

7. कार्यकारिणी परिषदों के अधिकार मे वृद्धि तथा भारतीयों की नियुक्ति 

1909 के अधिनियम के अनुसार बम्बई और मद्रास की परिषदों की संख्या बढ़ाकर चार-चार कर दी गयी। अन्य प्रान्तों मे भी कार्यकारिणी परिषदों का निर्माण किया जा सकता था, लेकिन ब्रिटिश संसद ऐसा करने से रोक सकती थी। मद्रास तथा बम्बई की कार्यकारिणी परिषदों की अधिकतम सदस्य संख्या जो बढ़ायी गयी थी, उसमे से आधे सदस्यों को ऐसे होना चाहिए था जो 12 वर्ष तक सम्राट की सेवा मे रहे हो। अधिनियम के द्वारा कार्यकारिणी परिषदों मे भारतियों की नियुक्ति की इच्छा व्यक्त की गयी थी। परिषदों तथा ब्रिटिश नौकरशाही का विरोध होने पर भी ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल ने इसके लिये अपनी स्वीकृति दे दी। फलस्वरूप दो भारतीयों को भारत सचिव की कौंसिल का सदस्य बनाया गया था।

8. सीमित तथा भेदभाव पर आधारित मताधिकार 

1909 के अधिनियम मे अत्यन्त सीमित मताधिकार दिया था। जैसे केन्द्रीय विधानमण्डल के चुनाव मे, जमींदारों के चुनाव क्षेत्र से केवल उन्ही जमींदारों को मत देने का अधिकार था जिनकी आमदनी बहुत अधिक थी। मद्रास मे 15000 रूपये वार्षिक आमदनी वालो को या 10 हजार रूपये वार्षिक भूमि कर देने वालों को यह अधिकार दिया गया। बंगाल मे राजा या नबाव की उपाधि को, और मध्य प्रान्त मे आनरेरी मजिस्ट्रेट को यह अधिकार मिला।

प्रत्येक प्रान्त मे मुसलमानों को मे भी मताधिकार योग्यताएं भिन्न-भिन्न थी साथ ही मुसलमान और गैर मुसलमानों के मताधिकार की योग्यताएं भी भिन्न थी। तीन हजार रूपये वार्षिक आमदनी पर कर देने वाले अथवा भूमिकर देने वाले मुसलमानों को मताधिकार प्राप्त था किन्तु पारसी, हिन्दू या ईसाई मे उन्ही को यह अधिकार मिला जो तीन लाख रूपये पर कर देते थे। इसके अतिरिक्त प्रत्येक मुसलमान स्नातक, जिसने पाँच वर्ष पूर्व बी.ए. पास किया हो उसे मत देने का अधिकार था, किन्तु हिन्दू, ईसाई, पारसी आदि को 20 वर्ष पहले बी.ए. पास करने के बावजूद यह अधिकार नही दिया गया।

भारतीय परिषद अधिनियम 1909 की समीक्षा (मूल्यांकन)

मार्ले-मिंटो सुधार (अधिनियम 1909 के गुण) 

ब्रिटिश सरकार की दृष्टि मे यह अधिनियम एक प्रगतिशील सुधारवादी व्यवस्था थी। इस अधिनियम से प्रथम बार भारतीयों को प्रतिनिधित्व दिया गया था। कौंसिलों मे बहस तथा पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। अत्यधिक खर्च पर बहस कर प्रांतीय सभा अधिक व्यय का प्रश्न उठा सकती थी। किन्तु भारतीय मुसलमानों को अत्यधिक प्रसन्न कर अंग्रेजों को पक्षपाती बना दिया गया था।

भारतीय परिषद अधिनियम 1909 के दोष 

इस अधिनियम से अधिकांश भारतीय तथा उदारवादियों को ठेस पहुंची थी। सन् 1909 के अधिनियम से ब्रिटिश शासन भारतीयों को संतुष्ट नही कर सका। स्वायत्त शासन कांग्रेस की मांग थी। उसका कोई प्रावधान अधिनियम मे नही था। कौंसिलों मे हां मे हां करने वालो का बहुमत हो गया था, क्योंकि मनोनीत सदस्य वायसराय तथा गवर्नर के चमचे होते थे। अतः संसदीय प्रणाली एक दिखावा मात्र थी। निर्वाचन प्रणाली दोषपूर्ण थी। मतदाताओं की संख्या मे कोई वृद्धि नही की गई थी तथा वोट का अधिकार सीमित था। स्त्रियों को वोट देने का अधिकार नही दिया गया तथा सीमित संख्या के मतदाताओं को प्रलोभन तथा अन्य प्रकार से प्रभावित करना सरल था।

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