3/11/2022

प्रतिस्पर्धा के प्रकार, महत्व या परिणाम

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प्रतिस्पर्धा के प्रकार या स्वरूप (pratispardha ke prakar)

प्रतिस्पर्धा के प्रकार अथवा स्वरूप निम्नलिखित हैं--
1. वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा 
यह प्रतिस्पर्धा का वह स्वरूप है जिसमे व्यक्तिगत हितों अथवा साधनों की पूर्ति का प्रयास किया जाता है।इसमे प्रतिस्पर्धा करने वाले एक-दूसरे को व्यक्तिगत रूप से भली-भांति जानते है। यह प्रतिस्पर्धा चेतन रूप मे होती है, प्रतिस्पर्द्धि केवल एक-दूसरे को नही जानते बल्कि एक-दूसरे के प्रयत्नों के प्रति भी जागरूक होते है। दो प्रतिद्वंद्वी प्रेमियों मे किसी युवती के प्रेम को प्राप्त करने के लिए होने वाली प्रतिस्पर्धा वैयक्तिक या चेतन प्रतिस्पर्धा का ही उदाहरण है, अन्य उदाहरणों मे हम किसी महाविद्यालय मे होने वाले वाद-विवाद या अखाड़े मे दो पहलवानों के बीच होने वाली कुश्ती को ले सकते है।
2. अवैयक्तिक प्रतिस्पर्धा
इस तरह की प्रतिस्पर्धा मे व्यापक हित निहित होते है सीमित वस्तुओं अथवा पदों को प्राप्त करने के लिए जब बहुत से व्यक्ति प्रतिस्पर्धा करते है तब उसे अवैयक्तिक प्रतिस्पर्धा कहते है यह अचेतन प्रक्रिया है।
आगे जानेंगे प्रतिस्पर्धा (प्रतियोगिता) का महत्व एवं परिणाम।
प्रतिस्पर्धा

ऊपर दिये गये दो स्वरूपों के अलावा प्रतिस्पर्धा के अन्य स्वरूप इस प्रकार हैं--
1. आर्थिक प्रतिस्पर्धा
व्यापारियों और उद्योगपतियों के बीच आर्थिक प्रतिस्पर्धा (प्रतियोगिता) पायी जाती है। उत्पादन, विनिमय, वितरण तथा उपभोग के क्षेत्र मे विभिन्न व्यक्तियों एवं समूहों के बीच पायी जाने वाली प्रतिस्पर्धा आर्थिक प्रतिस्पर्धा कहलाती है।
3. प्रस्थिति एवं भूमिका से संबधित प्रतिस्पर्धा
समाज मे कुछ भूमिकाएं और प्रस्थितियां अन्य की तुलन मे अधिक महत्वपूर्ण होती है। व्यक्ति और समूह उन भूमिकाओं को अदा करना या उन प्रस्थितियों को प्राप्त करना चाहते है जो उनकी स्वयं की, साथियों की और अन्य समूहों की दृष्टि मे उच्च मानी जाती है। उदाहरण के लिए, विशिष्ट प्रशासनिक पद समाज मे प्रतिष्ठा व शक्ति का आधार होता है अतः इन सीमित पदों को प्राप्त करने के लिए समाज मे प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से प्रतिस्पर्धा आयोजित होती है। इसी प्रकार धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों मे भी व्यक्ति सम्मानित स्थान पाने के लिए प्रतिस्पर्धा मे भाग लेता है।
3. सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा
जब दो संस्कृतियों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क मे आते है तो सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा प्रारंभ होती है। भारतीय संस्कृति मे अंग्रेज़ों के आगमन के पश्चात पश्चिमी सांस्कृतिक मूल्यों, व्यवहार के तरीकों, आदर्शों मे भिन्नता, विभिन्न संस्थाओं की कार्यप्रणाली मे भिन्नता के प्रभाव से काफी परिवर्तन आया। यह परिवर्तन सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा का परिणाम माना जा सकता है।
4. राजनीतिक प्रतिस्पर्धा
राजनीति के क्षेत्र मे राजनीतिक सत्ता को प्राप्त करने के लिए होने वाली प्रतिस्पर्धा राजनीतिक प्रतिस्पर्धा कहलाती है। प्रजातांत्रिक प्रणाली मे विभिन्न दलों के बीच इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा पायी जाती है।
5. प्रजातीय प्रतिस्पर्धा
प्रजातीय श्रेष्ठता की धारण के आधार पर समाज मे प्रजातीय प्रतिस्पर्धा पायी जाती है। एक प्रजाति और दूसरी प्रजाति मे शारीरिक विशेषताओं जैसे चमड़ी का रंग, कद, मुँह की आकृति, बालों की विशेष बनावट, आदि के आधार पर अन्तर पाये जाते है। कुछ प्रजातियाँ दूसरी प्रजाति की तुलना मे अपनी श्रेष्ठता का दावा भी करती है। काकेशायड, मंगोलायड व नीग्रोयाड प्रजाति के बीच हमेशा इसी आधार पर प्रतिस्पर्धा पायी जाती रही है।

प्रतिस्पर्धा (प्रतियोगिता) के परिणाम एवं महत्व (pratispardha ka Mahtva)

प्रतिस्पर्धा व्यक्ति एवं समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। हरबर्ट स्पेंसर ने सामाजिक प्रगति का आधार प्रतिस्पर्धा को माना है। दरअसल जो समाज जितना प्रतिस्पर्धाशील होगा उस समाज मे अर्जित गुणों का महत्व होने से व्यक्तियों की कार्यकुशलता, क्षमता वृद्धि की संभावना अधिक होगी। प्रतिस्पर्धा के माध्यम से व्यक्ति तथा समूह अपने निजी हित की पूर्ति करते है। प्रतिस्पर्धा सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाने मे भी सहायक होती है। जहाँ व्यक्तियों और समूहों मे नियमानुसार स्वस्थ प्रतिस्पर्धा चलती है वहां समूह की दृढ़ता (एकता) बनी रहती है। जब प्रतिस्पर्धा स्वतंत्र और उचित ढंग से चलती है तो प्रत्येक को अपनी योग्यतानुसार अपना कार्य सर्वोत्तम ढंग से करने का अवसर मिलता है। इससे समूह सम्बन्ध व्यवस्थित बने रहते है और समूह एकता सूत्र मे बंधा रहता है।
स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा समाज मे सदैव सकारात्मक परिणाम देती है लेकिन जब समाज मे प्रतिस्पर्धा स्वस्थ नही होती तो प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप समाज मे संघर्ष मे वृद्धि होती है। प्रतिस्पर्धा सदैव प्रगति और सामाजिक दृढ़ता मे ही योग नही देती। जब नवीन आविष्कारों के कारण समाज मे तेजी से परिवर्तन होते है तो सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है। यहाँ हमे यह नही भूलना चाहिए कि सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी कारक प्रमुखतः तेजी से होने वाले परिवर्तन है और प्रतिस्पर्धा तो केवल सहायता कारक है।
प्रतिस्पर्धा के कार्यों और परिणामों से इसका महत्व स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। प्रतिस्पर्धा व्यक्ति, समूह और समाज के लिए प्रकार्यात्मक है, अतः इसे एक सहचारी या संगठनात्मक प्रक्रिया माना जा सकता है, न कि असहचारी या विघटनात्मक प्रक्रिया। प्रतिस्पर्धा मे सफल होने के लिए व्यक्ति और समूह को परिश्रमपूर्वक उत्तम तरीके से कार्य करने की प्रेरणा मिलती है।
शायद यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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