मूल्य या कीमत निर्धारण (mulya nirdharan kya hai)
mulya nirdharan meaning in hindi;एक उधमी के लिए किसी वस्तु या सेवा का उत्पादन करना ही महत्वपूर्ण नही है, बल्कि उसके लिए ऐसा मूल्य निर्धारित करना आवश्यक है जिससे उसका माल ज्यादा से ज्यादा बिक सके एवं वांछित लाभ प्राप्त हो सके।सामान्य रूप से किसी वस्तु या सेवा के क्रय प्रतिफल के रूप मे क्रेता द्वारा मोद्रिक भुगतान किया जाता है, वह कीमत कहलाता है। जैसे-- एक ओरियेण्ट पंखे के लिए 400 रूपये चुकान उसकी कीमत कहलायेगा " कीमत निर्धारण" एक अगल शब्द है। इसका अभिप्राय यह है कि एक फर्म अपने उत्पाद का मूल्य कितना तय करे, अपने माल को किस भाव पर बेजे, ताकि उद्देश्यों की पूर्ति हो सके।
मूल्य निर्धारण के उद्देश्य (mulya nirdharan ke uddeshya)
एक निर्माता द्वारा मूल्य निर्धारण सम्बन्धी उद्देश्य निर्धारित करते समय वस्तु की माँग एवं उसकी विशेषताएं, उसकी लागत, उसका वितरण, उसकी प्रतियोगिता, क्रेताओं की विशेषताएं आदि निर्णय लिया जाना चाहिए। एक संस्था के मूल्य निर्धारण सम्बन्धी उद्देश्य निम्न मे से कोई भी हो सकते है-1. मलाई उतारना
यदि किसी संस्था का उद्देश्य मलाई उतारना है तो वस्तु का मूल्य निश्चित ही ऊंचा रखा जायेगा ताकि अधिक से अधिक लाभ हो सके। यह नीति तब तक चलती रहती है जब तक की बजार मे कोई प्रतिस्पर्धी पैदा नही हो जाता है।
यह नीति तब अपनीयी जाती है जब वस्तु एक विशेष तरह की होती है। इसमे वस्तु के बेचने के लिए खूब विज्ञापन किया जाता है।
2. निर्धारित प्रतिफल
निर्धारित प्रतिफल की दर दो बातों मे से किसी एक पर आधारित हो सकती है--
(अ) विनियोग पर निर्धारित प्रतिफल
इसमे प्रत्येक निर्माता या विक्रेता मूल्यों का निर्धारण इस प्रकार करता है कि उसको (लगायी गयी पूंजी पर) पर निश्चित दर के रूप मे लाभ अवश्य ही प्राप्त हो।
(ब) विक्रय पर निर्धारित प्रतिफल
विक्रय पर निर्धारित दर वाली नीति थोक एवं खुदरा व्यापारियों के द्वारा अपनाई जाती है। वे अपने मूल्यों का निर्धारण इस तरह करते है कि उनको कुल बिक्री पर एक निश्चित दर से लाभ अवश्य मिल जाए। इसके लिए कुछ वस्तुओं पर कम व कुछ पर अधिक लाभ हो सकता है।
3. मूल्य स्थिरता
बार-बार मूल्यों मे परिवर्तन की नीति एक अच्छी मूल्य नीति नही मानी जा सकती। अस्थिर मूल्यों वाले उत्पादों पर से ग्राहकों का विश्वास उठ जाता है। मूल्यों को स्थायी बनाये रखने से फर्म अथवा कम्पनी की साख बढ़ती है। इसे बनाये रखने हेतु कच्चा माल, मजदूरी एवं अन्य लागतों मे मामूली परिवर्तन होता है तो भी उत्पादक को मूल्य अपरिवर्तित ही रखना चाहिए। वे संस्थाएं इस तरह की नीति को अपनाती है जो कि सामाजिक उत्तरदायित्व के महत्व को समझती है।
4. सम्पूर्ण उत्पादन की बाजार मे खपत सुनिश्चित करना
अगर मूल्य निर्धारण इस तरह किया गया है कि फर्म का सकल उत्पाद बाजार मे विक्रय नही हो पा रहा है तो इसकी मूल्य नीति दोषपूर्ण है। अतः कम्पनी किसी महत्वपूर्ण प्रमाणित तथा लोकप्रिय उत्पादन का मूल्य कम करके ग्राहकों को ऐसे उत्पाद के प्रति आकर्षित करने की मूल्य नीति तय करती है।
5. प्रतियोगिता से बचाव
मूल्य नीति का एक उद्देश्य बाजार मे प्रतियोगिता को रोकना एवं प्रतिस्पर्द्धियों को दूर रखना भी है। इसलिए बाजार मे पूर्व-स्थापित फर्म अपनी वस्तु का मूल्य इतना कम रखती है कि अन्य प्रतियोगी फर्म के लिए बाजार मे रह पाना कठिन हो जाता है।
6. बाजार मे प्रवेश
कुछ कम्पनियों द्वारा वस्तुओं का मूल्य इसलिए कम रखा जाता है ताकि अपनी वस्तु को बाजार मे बेच सकें। इसमे निर्माणी एवं वितरण लागत (उत्पादन बढ़ाने पर) घट जाती है।
7. लाभों को अधिक करना
मूल्य निर्धारण के लिए ज्यादातर संस्थाओं द्वारा इसी उद्देश्य को अपनाया जाता है। दीर्घकाल मे लाभ को अधिकतम करने की नीति निर्माता तथा उपभोक्ता दोनों के लिए ही लाभदायक रहती है।
मूल्य निर्धारण की नीतियाँ/विधियां (mulya nirdharan ki nitiya)
1. समान मूल्य नीति
समान मूल्य नीति के अन्तर्गत उत्पादक या वितरक अपने माल को सभी स्थानों एवं सभी व्यक्तियों को एक भाव पर बेचता है। स्थानीय करों एवं भाड़े के कारण मूल्य मे कुछ अंतर हो सकता है, लेकिन मूलतः कीमत एक-जैसी ही रहती है। साबुन, बिस्कुट, सौंदर्य प्रसाधन आदि के लिये समान मूल्य नीति अपनाई जा सकती है।
2. विभेदात्मक मूल्य नीति
इस नीति के अंतर्गत उत्पादक या वितरक अपनी एक - जैसी वस्तु या सेवा का अलग-अलग व्यक्तियों से अलग-अलग मूल्य वसूल करता है। उसके लिए वह वस्तु या सेवा के स्तर मे थोड़ा-सा फेरबदल कर देता है। अमीर व्यक्तियों को ऊंची कीमत या गरीबों से कम मूल्य वसूला जाता है। जैसे-- रेलवे अलग-अलग श्रेणियों का किराया अलग-अलग दर से वसूल करती है।
3. एकाधिकार मूल्य नीति
यदि किसी व्यक्ति या फर्म को किसी वस्तु या सेवा की पूर्ति पर एकाधिकार प्राप्त हो, तो वह मनचाहा मूल्य निर्धारित कर सकती है, लेकिन वह ऐसी मूल्य नीति अपनाता है कि उसे अधिकतम लाभ प्राप्त हो।
4. दोहरी मूल्य नीति
इस प्रकार की मूल्य नीति सामान्यतया उधार एवं नकद विक्रय, कम मात्रा ज्यादा मात्रा मे विक्रय के लिए अपनायी जाती है। विक्रेता उधार मात्रा ज्यादा कीमत पर बेचता है एवं नकद माल कम कीमत पर बेचता है। इसी प्रकार बड़ी मात्रा मे खरीदने वाले को कम मूल्य पर माल बेचना एवं छोटी मात्रा मे खरीदने वाले का ज्यादा मूल्य पर माल बेचना दोहरी मूल्य नीति कहलाती है।
5. नेता मूल्य नीति
इस प्रकार की मूल्य नीति मे किसी वस्तु विशेष के प्रमुख एवं ख्याति प्राप्त विक्रेता की मूल्य नीति का बाकी विक्रेता अनुसरण करते है। जैसे- टूथपेस्ट के उत्पादकों मे कोलगेट कम्पनी सबसे महत्वपूर्ण है, इसके अनुसार अपनाई गई नीति का अनुपालन अन्य टूथपेस्ट उत्पादक करते है।
6. अवसर मूल्य नीति
इस प्रकार की मूल्य नीति उन उत्पादकों व विक्रेताओं द्वारा अपनायी जाती है, जो ऐसी वस्तुओं का व्यापार करते है, जिनकी मांग तथा पूर्ति मे बहुत ज्यादा परिवर्तन होते रहते है। मांग बढ़ने पर मूल्य बढ़ा दिये जाते है तथा मांग घटने पर मूल्य कम कर दिये जाते है।
7. बट्टा मूल्य नीति
इस नीति को ललचाने वाली मूल्य नीति बी कहते है। इसमे विक्रता अपना माल ग्राहक को आकर्षण छूट या उपहार देने का प्रलोभन देता है। उपभोक्ता वस्तुओं (विशेषकर रेडीमेड) वस्त्र, जूते, सौन्दर्य प्रसाधन आदि) पर इस प्रकार की मूल्य नीति अपनायी जाती है।
8. प्रतियोगी मूल्य नीति
जब किसी वस्तु के बाजार मे कई उत्पादक या विक्रेता हो, तो प्रत्येक ज्यादा से ज्यादा माल बेचने के लिए प्रतियोगी मूल्य नीति अपनाता है। कभी-कभी इस प्रकार कि मूल्य नीति मे हानि उठानी पड़ती है। इस प्रकार की मूल्य नीति पूराने उत्पादन नये उत्पादकों को समाप्त करने के लिए अपनाते है।
9. बाजार प्रवेश मूल्य नीति
जब कोई उत्पादक नया उत्पादन करता है या नया उत्पादक बाजार मे प्रवेश करता है, तो वह अपना माल अपेक्षाकृत कम मूल्य पर बेचता है, ताकि वस्तुओं की माँग उत्पन्न हो सके। इसे बाजार प्रवेश मूल्य नीति कहते है।
मूल्य निर्धारण मे लागतों का स्थान
मूल्य निर्धारण मे वस्तु की लागत का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वस्तु की लागत मे वृद्धि या कमी होने पर उस वस्तु का मूल्य बढ़ाया या घाटाया जाता है लेकिन लागत के आधार पर मूल्य परिवर्तन करते समय वस्तु की माँग पर भी ध्यान रखना चाहिये।कई बार वस्तु की लागत एवं विकास को वस्तु के मूल्य के अनुसार समायोजित किया जाता है। उपभोक्ता किसी वस्तु का कितना मूल्य दे सकता है, उसी आधार पर वस्तु के उत्पादन मे लागत लगानी होती है। कभी-कभी लागत बढ़ाने पर मूल्य मे वृद्धि न करके वस्तु की किस्म गिरा दी जाती है तथा लागत घटने पर किस्म अच्छी कर दी जाती है।
अल्पकाल मे चाहे लागतों का महत्व कुछ कम हो जाए, लेकिन दीर्घकाल मे तो मूल्य लागत को पूरा करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए नही तो उत्पादक उधोग बन्द कर देंगे। इसलिए कम्पनी की दीर्घकालीन मूल्य नीति का आधार वस्तु की लागत ही होती है।
किसी नई वस्तु के उत्पादन मे ऐसी मूल्य नीति अपनाई जानी जानी चाहिए ताकि उसका बाजार मे स्थान बन सके लेकिन दीर्घकाल मे प्रत्येक वस्तु से संयुक्त लागतों को पूरा करने व लाभ के लिए समुचित अंशदान प्राप्त होना आवश्यक होता है।
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Bahut achha bataya gaya hai 👌
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