4/12/2023

सूरदास के काव्य की विशेषताएं

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प्रश्न; सूर की भाव, भाषा तथा शैलीगत विशेषताएं लिखिए।

अथवा", सूरदास की काव्यगत विशेषताएं बताइए।

अथवा", महाकवि सूरदास की काव्य सौंदर्य की अद्भुत विशेषताएं कौन-कौन सी हैं? इस पर अपने विचार व्यक्त कीजिए। 

अथवा", सूरदास के काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

अथवा", 'सूर के काव्य में भाव पक्ष एवं कला का सुन्दर समन्वय हुआ है।' व्याख्या कीजिए। 

अथवा", सूरदास की काव्य कला पर प्रकाश डालिए। 

अथवा", सूरदास के काव्य की कला-पक्ष एवं भाव पक्ष संबंधी विशेषतायें बताइए। 

उत्तर-- 

सूरदास की काव्यगत विशेषताएं

surdas ki kavyagat visheshta;ब्रज-भाषा के प्रथम कवि, कृष्ण-काव्य के अमर प्रणेता, मानव की भावनाओं के सर्वश्रेष्ठ गायक सूर हिन्दी साहित्य की ही नहीं अपितु विश्व-साहित्य की अनुपम विभूति हैं। उनका काव्य भाव और कला की दृष्टि से आद्वितीय हैं, इसलिए उनको हिन्दी साहित्याकाश का सूर्य माना जाता हैं। भाव-पक्ष और कला-पक्ष की दृष्टि से सूरदास की काव्यात्मक विशेषताएं अवलोकनीय हैं-- 

सूरदास के काव्य की भाव-पक्ष संबंधी विशेषताएं 

मानव मन में उठने वाले समस्त भाव और उनकी अभिव्यक्ति भाव पक्ष के अन्तर्गत आती है। इस दृष्टि से सूरदास जी का वात्सल्य-वर्णन, भ्रमरगीत में गोपिकाओं के भावों की घुमड़न, विरह की विविध अवस्थाएं, प्रकृति-चित्रण तथा अन्य रसात्मक स्थल सभी भाव-पक्ष के अंतर्गत आते हैं। सूरदास के भाव-पक्ष की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं--

1. भक्ति भावना 

सूरदास सगुण भगवान श्रीकृष्ण के परमोपासक और अटल भक्त है। अपने आराध्य के प्रति महाकवि ने भक्ति दास्य, सख्य, माधुर्य, प्रेम-भाव सहित नवधा-भक्ति के विभिन्न रूपों में की है। संख्य भक्ति का एक उदाहरण दिखाई-- 

"हमारे प्रभु औगुन चित्त न धरौ।

समदरसी है नाम तिहारों, सोई पार कारौ।" 

2. सूरदास के काव्य में भावुकता 

सूर के विनय, बाल-लीला और गोपियों के प्रेम-प्रसंग में एक से एक अनूठे भावुकतापूर्ण उदाहरण मिल जाते है। विनय के पदों में सूर जहाँ आत्मानुभूति अभिव्यक्त करते है, वहाँ वात्सल्य से पूर्ण ह्रदय लेकर कृष्ण की बाल-लीलाओं का चारू चित्रांकन करते हैं। उनकी भावुकता संयोग-वर्णन में जहाँ आनंद सागर में उत्ताल तरंगे उठा देती है। वहाँ वियोग-वर्णन में मार्मिक अनुभूति से ह्रदय को विभोर बना देती हैं।

3. भावुकता में वाग्विदग्धता

सूर में जितनी सह्रदयता और भावुकता है उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी विद्यमान है। प्रेम-प्रसंगों में अनौचित्य से बचने के लिए सूर की भावुकता वाग्विदग्धा का ही आश्रय लेती है। सूर के कृष्ण बड़ी वाग्विदग्धता से ग्वालिनी को झूठा सिद्ध करते हैं-- 

झूठहि मोंहि लगावति ग्वारि।

खेलत ते मोंहि बोल लियो इत भुजभरि दीन्हीं अकबरि।

मेरे कर अपने कुछ धारति, आपुन ही चोली धरि फारि।। 

4. श्रृंगार विधान 

सूर ने श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्षों के जो चित्र प्रस्तुत किए है वे अनूठे और बेजोड़ सिद्ध हुए हैं। संयोग श्रृंगार का एक चित्र दिखाई-- 

'सूर स्याम देखत ही रीझै नैन-नैन मिलि परी ठगोरी।' 

5. उत्कृष्ट गीतकार  

सूरदास जी के समस्त पद संगीत की लय-ताल पर खरे उतरते हैं। उनके गीत-काव्य में शब्द चयन, चित्रमय-कल्पना, भाव-सौन्दर्य के दर्शन, वैयक्तिक राग-द्वेष, उल्लास, हर्ष-शोक आदि भावों की अभिव्यक्ति सफल संगीत की स्वर-लहरी में हैं। तभी सूर के पदों की प्रशंसा करते हुये कहा गया हैं--

"किंधा सूर को सर लग्यौ, किंधौ सूर की पीर। 

किंधौ सूर को पद लग्यौ, बेध्यौ सकल सरीर।।" 

6. वात्सल्य विधान 

सूरदास का वात्सल्य विधान सर्वश्रेष्ठ हैं। आप बलकोचित भावों और प्रक्रियाओं एवं स्वरूपों  का यथार्थ स्वाभाविक तथा रोचक चित्र प्रस्तुत करने में सबसे आगे हैं। श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप की बाल्यावस्था की क्रियाओं और स्वाभावों की रूप रेखाएं कवि ने इस प्रकार अत्यन्त प्रभावशाली रूप में वर्णन किया है। इसका एक उदाहरण देखियें--

"मैया मैं नहीं माखन खायो। 

ख्याण परै ये सखा सवै मिली मेरे मुख लपटायो।।

देखि तुही छींके पर माखन, ऊंचे धारि लटकायो।

है जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसे धरि पायो।।" 

7. प्रकृति चित्रण 

प्रकृति देवी का उद्दीपन चित्र सूरदास का सर्वाधिक सशक्त चित्रण है। गोपियों के साथ क्रीड़ा करते हुए श्रीकृष्ण और बाल ग्वालों के भावों और चेष्टाओं को रोचक रूप देने के लिए कवि ने प्रकृति का सहारा लिया है। गोपी-विरह प्रसंग में प्रकृति-चित्रण प्रधान होकर मार्मिक और ह्रदयस्पर्शी व सजीव बन गये हैं।

सूरदास के काव्य की कला पक्ष विशेषताएं 

भाव-पक्ष की तरह ही सूरदास जी के काव्य कला-पक्ष की सम्पूर्ण कलाओं से परिपूर्ण है। उनके काव्य में रीति, गुण, अलंकार, रस आदि प्रत्येक काव्यांग का सफल निरूपण हुआ है। महाकवि सूरदास की कलागत विशेषाताएं इस प्रकार हैं-- 

1. भाषा 

काव्य सौंदर्य की दृष्टि से सूरदास ने भाषा को विशिष्ट रूप दिया है। सूर की भाषा अवधी और ब्रजभाषा है। उनकी भाषा में ब्रज का माधुर्य बिखरा हुआ है। उन्होंने अपनी भाषा में तत्सम, तद्भव और विदेशी शब्दों का प्रयोग किया हैं। लोकोक्तियों और मुहावरों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। लोकोक्ति का एक उदाहरण देखिए-- 

"अपने स्वास्थ्य के सब कोउ, जो छोटी। 

तेई है खोटी, जाहि लगैं सोई पै जाने।।" 

2. अलंकारों का सफल प्रयोग 

सूर के काव्य में अलंकार भावाभिव्यक्ति में सहायक बनकर स्वयं ही समाविष्ट हो गये है। समतामूलक अलंकारों के प्रयोग से सूर की भावाभिव्यक्ति निखर उठी है। उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकारों का सफल प्रयोग उनके काव्य में मिलता हैं। दृष्टव्य है रूपक अलंकार का एक चित्र--

"चित्र रोंके हूँ न रही। 

स्याम सुन्दर सिन्धु सम्मुख उमंगि बही।।" 

3. शैली

सूर की काव्य की सर्वाधिक विशेषता हैं-- सजीवता, प्रौढ़ता और औजस्विता का रूपक देखिए--

" अविगत नाति कछु कहत न आवै। 

ज्यों गूंगे मीठे फलौ की रस अन्तरगत ही भावै।। " 

4. शब्दों के कुशल शिल्पी 

सूरदास जी के शब्द-शब्द में भावों की सरिता लहराती हुई प्रतीत होती है। उन्होंने लोक-प्रचलित ब्रजभाषा को सशक्त, प्रवाहपूर्ण और लोकप्रिय बनाने के लिये संस्कृत, अरबी, फारसी, खड़ी बोली, राजस्थानी, बुन्देलखण्डी आदि के शब्दों को भी अपनाया हैं। 

5. छन्द 

सूर का काव्य गैय होने के कारण उसमें छन्दों का विशेष महत्व नहीं है तथापि सूर सागर में जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है उसमें रोला, कुण्डल, राधिका, रूपमाला, हीर, सवैया, वीर, रीतिका आदि प्रमुख हैं।

उपर्युक्त विस्तृत विवेचन से स्पष्ट है कि जहाँ एक ओर सूर के काव्य में अनेक अमूल्य भाव-मुक्ता विद्यमान है तो दूसरी ओर उन अमूल्य मुक्ताओं में बेहद चमक भी है। सूरदास जी ने अपने भावों को अनुपम कला के द्वारा चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया हैं। वस्तुतः सूर रससिद्ध कवि हैं।

यह जानकार आपके लिए महत्वपूर्ण सिद्ध होगी

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