रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएं
रीतिमुक्त काव्य के प्रमुख कवि रसखान, आलम, ठाकुर, घनानंद, बोधा, द्विजदेव आदि हैं। इन्हें स्वच्छंद कवि का भी नाम दिया गया हैं।
रीतिमुक्त काव्य में रीतिबद्ध कवियों के दोषों का लगभग अभाव है। इन कवियों के कारण ही कतिपय समीक्षकों की दृष्टि में श्रृंगारकालीन काव्य उन आरोपों से मुक्त कहा जा सकता है जिनके कारण श्रृंगारकालीन काव्य को भक्ति-काव्य से हेय बताया गया है। संक्षेप में, रीतिमुक्त काव्य की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. प्रतिपाद्य विषय अधिकतर निबंध एवं उदात्त प्रेम हैं।
2. भाव-पक्ष कला-पक्ष की उपेक्षा अधिक मुखर हैं।
3. पूर्ववर्ती लक्षण एवं लक्ष्य दोनों प्रकार के ग्रंथों का आधार इन्होंने कम से कम लिया हैं।
4. स्वानुभूति एवं मुक्त प्रेम पर अधिक बल दिया गया है। परानुभूति, परोक्ष प्रेम तथा परंपरा की उपेक्षा की गई हैं।
5. रसखान आलम, शेख, बोधा, सुजन तथा सुभान सभी की व्यक्तिगत प्रेम की कहानियां प्रसिद्ध हैं, ठाकुर भी वैयक्तिक प्रणयानुभूति से शून्य नहीं थे, इसी से इनके काव्य में तन्मयता, सहजता तथा स्वाभाविकता हैं।
6. रीति मुक्त काव्य की कृतियों में काव्य के साधन और साध्य एकाकार हो गए हैं, इसका कारण कवियों की तीव्र अनुभूति, भाव-सघनता और सहज अभिव्यक्ति हैं।
7. श्रृंगार के विप्रलंभ-पक्ष को सबसे अधिक प्रधानता इसी काव्य में प्राप्त है जिससे ऐहिक प्रेम का ऊर्जस्वीकरण हो गया है और प्रेम की यथार्थता को नष्ट किए बिना ही उसमें दिव्यता, पावनता, व्यापकता तथा अपार्थिविता आ गई है। त्याग और समर्पण की भावना इस काव्य को अनन्य तथा एकनिष्ठ आत्मा की पुकार में परिणित कर देती हैं।
8. विरह-वर्णनों में कल्पना और ऊहा के स्थान पर ऋजुता, यथार्थता एवं भावुकता की त्रिवेणी प्रवाहमान दृष्टिगोचर होती हैं।
9. रीतिमुक्त काव्य में वर्णित प्रेम उभय-पक्षी न होकर अधिकतर एकपक्षीय है, प्रेम के इस विषम पथ पर कामुकता लड़खड़ा कर धराशायी हो जाती है और केवल उत्सर्ग भावोत्प्रेरित साधना ही चरम गंतव्य तक पहुंचने के लिए अपेक्षित धैर्य एवं उत्साह जुटा पाती हैं।
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