3/28/2023

निर्गुण भक्ति काव्यधारा की विशेषताएं

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प्रश्न; निर्गुण भक्ति धारा की विशेषताएं लिखिए। 

अथवा", निर्गुण भक्ति काव्यधारा की सामान्य विशेषताएँ बताइए। 

अथवा", निर्गुण भक्ति काव्य की विशेषताओं का विवेचन कीजिए।

उत्तर-- 

निर्गुण भक्ति काव्यधारा की विशेषताएं

nirgun bhakti dhara ki visheshtayen;संत मत का आविर्भाव हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। देश की विचित्र परिस्थितियों ने इस मत को जन्म दिया और संत मत के सामान्य भक्ति मार्ग में विविध वादों का समन्वय हुआ। इसमें हिन्दू-मुस्लिम, गोरख पंथी, वेदान्ती, सूफियों एवं वैष्णवों के धार्मिक सिद्धान्तों का भी समन्वय हुआ। संक्षेप में इस मत के कवियों की सामान्य विशेषताओं को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जा सकता हैं-- 

1. काव्य-रचना मुख्य उद्देश्य नहीं 

संत कवियों का लक्ष्य काव्य रचना नहीं था। उनकी रचनाओं में जन-जन के हित और उद् बोधन की भावना सन्निहित हैं। भावों के स्पष्टीकरण के लिए उन्होंने प्रतीकों, उपमाओं, रूपकों की योजना अवश्य की है, किन्तु इसमें संदेह नहीं कि काव्योत्कर्ष अथवा काव्य सौष्ठव उनका साध्य नही था, उनकी भाषा का रूप भी स्थिर नहीं है। कविता को ये संत अपनी अनुभूत सत्यों का मर्म दूसरों के समक्ष अभिव्यक्त करने का एक उत्तम माध्यम समझते थे।

2. तत्व चिन्तन का स्वरूप 

संत कवि मूलतः दार्शनिक थे फिर भी उनकी भक्ति रस से सिक्त बनियों में दार्शनिक तत्वों के निरूपण का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रयत्न अवश्य दृष्टिगोचर होता हैं। डाॅ. बड़थ्वाल के मत से संत कवियों का परम तत्व एकेश्वरवादी विचारधारा से पुष्ट अद्वैतवाद के अधिक निकट है। संतों का ब्रह्या त्रिगुणातीत, द्वैताद्वैत, विलक्षण, अलख, अगोचर, सगुण, निर्गुण से परे, प्रेम पारावार और दार्शनिकवादों तथा तर्कों के ऊपर है। वह अनुभूतिगम्य और सहज प्रेम से प्राप्य हैं।

3. साधन मार्ग

संतों की साधना का भवन ज्ञान, कर्म, योग और भक्ति इन चारों स्तम्भों के सहज संतुलन पर टिका हुआ है। जिस प्रकार संत लोग अन्य विचारों में प्रगतिशील है वैसे ही साधना मार्ग के निर्धारण में भी पर्याप्त सजग है। निर्गुण संत ज्ञानत्मिका भक्ति के उपासक है। कोरा ज्ञान उन्हें अहंकार मूलक प्रतीत हुआ है। पोथी ज्ञान के भी वे विरोधी है। पोथी ज्ञान के भार से लदा हुआ आदमी उस गधे के समान है जो चन्दन का भार ढोकर भी उसकी सुगंध का सुख नहीं प्राप्त कर सकता। इसी प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और अप्रत्यक्ष इन तीनों प्रमाणों में से ये संत केवल प्रत्यक्ष या अनुभूति जन्य ज्ञान को ही प्रमाणिक मानने के पक्ष में हैं। कबीर ने कहा भी है 'तू कहता कागज की लेखी मैं कहता आखिन की देखी।' 

4. भक्ति मार्ग 

सत्य भाषण और सत्याचरण को संत कवि भक्ति का सर्वप्रमुख तत्व मानते हैं। इसी को वे अपने शब्दों में कथनी की समरसता की संज्ञा देते हैं। नाम जप या 'नाम स्मरण' संतों की भक्ति का मूल आधार है। भक्ति के प्रेरक तत्वों में श्रद्धा, सत्संग, उपदेश, गुरू, जीवन तथा जगत की क्षण भंगुरता के ज्ञान से उत्पन्न वैराग्य भावना आदि का स्थान महत्वपूर्ण हैं। संत कवियों ने इन सबकी आवश्यकता और महत्ता का विवेचन विस्तार से किया हैं। आश्रय में निहित प्रेम या भक्ति को अभिव्यक्त करने वाले तत्वों में दैन्य, आत्म-निवेदन मय आसक्ति आदि मुख्य हैं। 

5. सूफीमत का प्रभाव 

संत मत पर सूफी प्रेम साधना का प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता हैं। कबीर ने लिखा हैं-- 

प्रेम बिना धीरज नहीं, विरह बिना वैराग। 

सतगुरू बिन जावै नहीं, मन मनसा का दाग। 

जोगी जनम से बड़ा, सन्यासी दरवेस। 

बिना प्रेम पहुंचे नहीं, दुरलभ सतगुरू देस। 

6. रहस्यवाद की प्रवृत्ति 

संत कवियों ने शंकाराचार्य के अद्वैत मत को लेकर अपनी रहस्यवादी भावनाओं की अभिव्यक्ति की है किन्तु इनका रहस्यवाद माधुर्य भाव से वेष्टित हैं। इन संत कवियों के विरह में लौकिक दाम्पत्य भाव के सहारे आत्मा का शाश्वत क्रन्दन व्यक्त किया गया है और यह मिलन सहज नहीं हैं। 

7. रूढ़ियों और आडम्बरों का विरोध 

प्रायः सभी संत कवियों ने रूढ़ियों, मिथ्याडम्बरों तथा अन्धविश्वासों की कटु आलोचना की है। इन्होंने मूर्ति पूजा, धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा, तीर्थ, व्रत, रोजा, नमाज, हज्ज आदि विधि विधानों, बाह्याआडम्बरों, जाति-पांति भेद आदि का हटकर विरोध किया हैं। 

8. नारी के प्रति दृष्टिकोण 

संत कवियों ने नारी को माया का प्रतीक माना है। उनके विश्वासानुसार कनक और कामिनी ये दोनों दुर्गम घाटियां है। कबीर का कहना हैं कि-- 

"नारी की झाई पतर, अन्धा होत भुजंग। 

कबीरा तिनकी कौन गति, नित नारी के संग।।"

जहां इन्होंने नारी की इतनी निन्दा की है वहीं दूसरी और सती और पतिव्रता के आदर्श की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा भी की है। कबीर ने कहा हैं--

"पतिव्रता कैसी भली, काली कुचित वुरूप। 

पतिव्रता के रूप पर, बारो कोटि सरूप।।"

9. लोक संग्रह की भावना 

इस वर्ग के सभी कवि पारिवारिक जीवन व्यतीत करने वाले थे। नाथ पंथियों की भांति योगी नहीं थे। संतों ने आत्म शुद्धि पर बहुत बल दिया है। जहाँ एक और संत लोग कवि और भक्ति आंदोलन के उन्नायक है, वहां समाज सुधारक भी। संत काव्य में उस समय का समाज प्रतिबिम्बित हैं।

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