3/29/2023

रीतिकाल की पृष्ठभूमि, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थिति

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प्रश्न; रीतिकाल की सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि बताइए। 

अथवा" रीतिकाल की राजनीतिक , सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिस्थिति का वर्णन कीजिए।

अथवा" रीति काव्य की पृष्ठभूमि का परिचय दीजिए।

अथवा" रीतिकाल की धार्मिक तथा साहित्यिक परिस्थिति का विवेचन कीजिए। 

उत्तर--

रीतिकाल की पृष्ठभूमि और उसके उदय की परिस्थितियाँ 

रीतिकाल में यद्यपि भक्ति, नीति, वीरता आदि अनेक विषयों पर कविताएं लिखी गई, किन्तु प्रधानता श्रृंगारिक रचनाओं की रही। वस्तुतः इस श्रृंगाराधिक्य के मूल में तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक परिस्थितियां कार्य कर रही थीं। जैसा कि डाॅ. चौहान ने लिखा हैं," राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों ने रीतियुग के काव्य के श्रृंगारपरक, शौर्यपरक एवं प्रेमपरक आदि वर्ण्य-विषयों की पृष्ठभूमि तैयार की। समस्त रीतियुग के काव्य के, चाहे वह रीतिबद्ध धारा का काव्य हो, चाहे रीतिमुक्त धारा का काव्य हो, यही तीन वर्ण्य थे। दरबार के चमक-दमकपूर्ण वातावरण ने तथा आश्रयदाता और उसके दरबारियों को फड़काने वाली कलात्मक बारीकियों की प्रवृत्ति ने ऊहात्मक कथन, वचन विद्गधता, उक्ति-वैचित्र्य, वक्रोक्ति आदि की कला-प्रवृत्तियों को जन्म दिया। पांडित्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति बहुज्ञता प्रदर्शन के रूप में उभरी और कला-पक्ष में कथन-भंगिमा के अनेक रूपों वचन विद्ग्ध्ता, उक्ति वैचित्र्य, वक्रोक्ति आदि रूपों में उभरी। उसके विविध कला-रूपों में तराश-खराश की बारीकी और पच्चीकारी, कटाव और खम उभारने की प्रवृत्ति थी, उसने उसमें शब्द-चयन और शब्दालंकारों के सौंदर्य उत्पन्न करने की प्रवृत्ति को जन्म दिया। नारी अंगों के सौंदर्य वर्णन में उसके अंगों की गोलाइयों और उभारों को चित्रित करने की प्रवृत्ति के मूल में मूर्ति एवं चित्रकला की तराश-खराश, कटाव औ खम तथा गोलाइयाँ उभारने की प्रवृत्ति का प्रभाव हैं। ये प्रवृत्तियाँ समस्त रीतियुगीन काव्य की प्रवृत्तियाँ हैं जो केशव से लेकर बिहारी, देव, मतिराम, पद्माकर, घनानंद, बोध आदि सभी में परिलक्षित होती हैं।

रीतिकाल में राजनीतिक परिस्थिति 

हिन्दी साहित्य में रीतिकाल रां. 1700 से 1900 तक स्वीकार किया जाता है। इस संपूर्ण कालावधि में निरंकुश राजतंत्र का बोलबाला रहा। कालांतर में मुगल सम्राट शाहजहाँ भारत का सम्राट था। शाहजहां का राज्य-विस्तार दक्षिण में अहमद नगर, गोलकुंडा, बीजापुर आदि रियासतों तक, उत्तर में कंधार तक और पश्चिम में सिन्ध से लेकर पूर्व में सिलहट तक था। राज्य में सुख, शांति, वैभव-विलास सभी कुछ था। किन्तु परिवर्तन-चक्र में पड़कर स्थिति बदली। धीरे-धीरे शाहजहां के समय में दक्षिण में उपद्रव शुरू हुए और उसकी मृत्यु की अफवाह उड़ी। उसके पुत्रों में सिंहासन के लिए युद्ध प्रारंभ हो गया। छल-प्रपंच की धूलि उड़ाती राजनीति का दामन रक्त-रंजित हो उठा। दारा और औरंगजेब के मध्य संघर्ष बढ़ा। एक ओर कुशल राजनीतिज्ञ और कट्टर सुन्नी औरंगजेब था और दूसरी ओर ज्ञानी, सहिष्णु और दयालु दाग था। संघर्ष में औरंगजेब को विजय मिली, परंतु उसके अत्याचारों से यत्र-तत्र विद्रोह भी होने लगे। औरंगजेब का भारतीय आकाश में एक धूमकेतु की भांति उदय हुआ, जो न खुद सुख-चैन से रह सका और न उसने जनता को ही खुख-चैन से रहने दिया। इस प्रकार रीतियुग का उदय सुख-शांति, वैभव-विलास में हुआ तथा उसकी परिणति विप्लव, अव्यवस्था और अधःपतन में हुई। 

औरंगजेब के उत्तराधिकारी सर्वथा अयोग्य, अकर्मण्य, विलासी एवं पंगु सिद्ध हुए। देसी नरेशों के महल भी विलास में मुगल-हरमों की होड़ ले रहे थे। ऐशोआराम का जीवन, वैभव प्रदर्शन, रसिकता और विलास का उद्दाम नर्तन, ये सब उस काल की विशेषताएं थी। 'यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार जनता भी सामंतीय वातावरण और उसकी विशेषताओं के प्रति आकृष्ट थी। इन्हीं परिस्थितियों का प्रभाव उस युग के साहित्य पर पड़ा। 

रातिकाल में सामाजिक परिस्थितियां 

भारतीय समाज को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता हैं-- 

1. उच्च वर्ग, इसमें बादशाह, शाही घराने, सामंत गण, बड़े व्यापारी, छोटे राजा तथा उच्च पदाधिकारी आते थे। यह वर्ग वैभवशाली होने के कारण विलासी, अपव्ययी और सुरा सुन्दरी में डूबा रहने वाला था।

2. निम्न वर्ग, इसमें साधारण जनता आती थी, जिसे दोनों समय की रोटी जुटाने के लिए कठोर श्रम करना पड़ता था और इनके ही खून-पसीने की कमाई पर उच्च-वर्ग ऐश करता था। 

3. कलाकार वर्ग, जिन्हें उच्च वर्ग द्वारा आश्रय मिला था और इनका उच्च वर्ग का मनोरंजन करना था। उच्च वर्ग की स्थिति बिगड़ने पर इन्हें जीविका के लिए दर-दर की ठोकरें भी खानी पड़ी। 

रीतियुगीन  समाज का एक दूसरा विभाजन शासक और शासित वर्ग में भी किया गया है। शासक वर्ग प्रभुत्व संपन्न था और उसी की प्रवृत्तियों का चित्रण कला और साहित्य में हुआ। शासित वर्ग तो नितांत उपेक्षित था। 

रीतियुग में नारी विलास का साधन मानी जाती थी। नारी-जीवन की सार्थकता पुरूष को रिझाकर उसकी विलास-क्रीड़ा का साधन बनने में समझी जाती थी। राज महलों में रूप खरीदा जाता था और उसका जी भर कर भोग किया जाता था। राजा और प्रजा विलास की मदिरा पीकर उन्मत्त हो रहे थे और वीरता अपने लिए कोई स्थान न देखकर धीरे-धीरे वहां से पलायन कर रही थी। विलासियों के अत्याचार और व्यभिचार से बचने के लिए समाज में सती-प्रथा, पर्दा-प्रथा और बाल-विवाह को प्रश्रय मिल रहा था। जन-साधारण में अंध-विश्वास तथा रूढ़ियां घर कर गई थी। जनता प्रायः अशिक्षित थी।

रातिकाल में धार्मिक परिस्थिति 

रीतिकालीन भारत में चार धर्म प्रधान थे-- हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख और ईसाई। धार्मिक और नैतिक दृष्टि से समाज पतनोन्मुखी था। भारतीय धर्म-साधना में श्रृंगारिकता को लेकर चलने वालों में नाथ, वज्रयान और शाक्त संप्रदायों को लिया जा सकता था। इन संप्रदायों में मांस, मदिरा और रमणी के प्रति विशेष आग्रह था। हिन्दू मंदिरों में दासी प्रथा भी प्रचलित हो उठी थी। इन सबने मिलकर धर्म-क्षेत्र में विलासिता और कामुकता को जन्म दे दिया था। फलतः पवित्र धार्मिक स्थान व्यभिचार के अड्डे बन चुके थे। हिन्दू धर्म में शंकर, रामानुज, वल्लभ आदि के संप्रदाय प्रचलित थे। वल्लभ संप्रदाय की सात गद्दियां थीं, जिनमें वैभव और विलास का तांडव-नर्तन होने लगा था। बंगाल का चैतन्य संप्रदाय भी इस दिशा में किसी से पीछे न था। कृष्ण-भक्ति में राधा-कृष्ण के बहाने प्रेम-व्यापार और विलास को प्रश्रय मिल चुका था। रामभक्ति धारा का स्वरूप भी परिवर्तित होने लगा था और राम-सीता किसी छैल-छबीले नायक-नायिका से कम न रह गए थे। हिन्दू धर्म में चैतन्य संप्रदाय के कारण परकीया भावना को भक्ति में जो महत्व मिल रहा था, उसने भक्ति के क्षेत्र में नायिका-भेद को स्थान दिया। रीतिकालीन साहित्य पर ये समस्त प्रभाव दृष्टिगत होते हैं। 

रीतिकालीन भारत का दूसरा प्रमुख धर्म मुसलमानों का धर्म था। यह राजधर्म था। इस्लाम धर्म को स्वीकार करने पर लोगों को धन और नौकरी मिलती थी, न स्वीकारने पर उन्हें 'जजिया' नामक कर देना पड़ता था। हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे को म्लेच्छ और काफिर कहते थे और घृणा करते थे। 

रीतिकाल का तीसरा धर्म सिक्ख धर्म था। सिक्खों का उदय हिन्दू-मुस्लिम एकता उत्पन्न करने के लिए हुआ था, किन्तु औरंगजेब की नीतियों के कारण वे मुसलमानों के विरोधी हो गए थे। उन्होंने अनेक बार मुसलमानों से संघर्ष किया और बलिदान भी किए। 

इस काल का चौथा धर्म ईसाई धर्म था, जो कि रीतिकाल के उत्तरार्ध में क्रमशः अपना विकास कर रहा था। 

रीतिकाल में धर्म की दशा अव्यवस्थित और विपन्न थी और धर्म में अंधविश्वास और पाखंड का बोलबाला था।

रीतिकाल में साहित्यिक परिस्थितियाँ 

रीतिकाल अलंकरण और चमक-दमक का काल था। जन सामान्य से लेकर राज दरबार तक इस प्रवृत्ति से परिचित और परिचालित थे। मन और मस्तिष्क की यह रंगीनी उस युग के साहित्य में रूपायित हो उठी है, क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण हैं। साहित्य का विषय केवल नारी, अलंकार श्रृंगार एवं शारीरिक सौंदर्य ही रह गया। शुक्ल जी ने इस संबंध में लिखा है कि," हिन्दी काव्य इस समय से पूर्व पूर्णता को पहुंच चुका था। सभी क्षेत्रों में चरम विकास इससे पूर्व ही हो चुका था, इसलिए यह काल हास का काल रहा। डाॅ. शिवलाल जोशी ने भी लिखा हैं," इस युग के समस्त भौतिक साधन श्रृंगार तथा विलास के उपकरण जुटाने में लगे हुए थे। समाज की दृष्टि जीवन के ऊपरी स्तर पर ही केंद्रित थी। जीवन की आध्यात्मिक गंभीरता का उसमें सर्वथा अभाव था। यही कारण है कि इस युग की कला तथा उसके साहित्य में एक दिव्य तथा आनंदमय जीवन आभासित नहीं हुआ था, जो अजंता तथा एलोरा के मंदिरों के चित्रों में है अथवा उस युग के साहित्य में हैं।" 

रीतियुग का साहित्य युगीन परिस्थितियों के प्रभाव के कारण बौद्धिकता, अलंकरण और विलास का आधिक्य रखता है। बौद्धिकता की अतिशयता के कारण साहित्य में वक्रोक्ति, उक्ति-वैचित्र्य और नजाकत के दर्शन होते हैं। 

रीतिकाल में कलात्मक परिस्थतियाँ 

रीतिकाल की कला में भी अन्य क्षेत्रों के समान प्रदर्शन का प्राधान्य था। सामंतीय वातावरण होने के कारण श्रृंगार और वासना इसकी आत्मा था। मौलिक प्रतिभा की अपेक्षा परंपरा पालन के प्रति विशेष आग्रह था। अतः इस काल की कला में सप्राणता का अभाव रहा। मूगल-सम्राटों में स्थापत्य-कला का सबसे अधिक प्रेमी शाहजहां था। उसकी बनवाई हुई इमारतों में दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, मोती मस्जिद, जामा मस्जिद तथा ताजमहल-अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। 

रीतिकालीन भारत में यत्र-तत्र हिन्दू कारीगर मूर्तियों का निर्माण करते थे। मुसलमानों के मूर्तिपूजा विरोधी होने के कारण इस क्षेत्र में उनके योगदान का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। श्री रायकृष्ण दास ने अपनी 'भारतीय मूर्तिकला' में इस संबंध में विचार करते हुए लिखा हैं, " 13 वीं शताब्दी के बाद उत्तर भारत की मूर्तिकला में कोई जान नहीं रह जाती। मुसलमान विजेता मूर्ति के विरोधी थे, फलतः उनके प्रभाववश यहां के प्रस्तर-शिल्प के केवल उस अंश में कला रह गई जिसमें ज्यामितिक आकृतियों व फल-बूटे की रचना होती थी। मूर्तियों के प्रति राज्याश्रय के अभाव में ऊंचे दर्जें की कारीगरी ने अपनी सारी प्रतिभा अलंकरणों के विकास में लगाई।" रीतिकाल में कला की दृष्टि से सर्वाधिक हास और पतन मूर्तिकला का ही हुआ हैं। 

रीतियुग में चित्रकला का पर्याप्त विकास हुआ। जहांगीर के काल में हिन्दू चित्रकला अपने चरमोत्कर्ष पर थी और उसमें अद्भुत स्वाभाविकता एवं सजीवता व्याप्त थी। शाहजहां यद्यपि वास्तुकला का प्रेमी था, फिर भी उसके समय में चित्रकला को यथेष्ट आश्रय तथा प्रोत्साहन मिला था। औरंगजेब के काल में अन्य कलाओं की भांति चित्रकला का भी पतन हुआ, क्योंकि वह कला को विलास का साधन मानकर उसको धार्मिक भावना का विरोधी मानता था। इस प्रकार हम देखते है कि रीतिकालीन चित्रकला में बारीकी, अलंकरण तथा यांत्रिक सौंदर्य का बाहुल्य था।

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यह जानकारी आपके लिए महत्वपूर्ण सिद्ध होगी

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