कबीर के काव्य की विशेषताएं
kabir ke kavya ki visheshta;कबीर के काव्य सृजन का उद्देश्य भव्य कविता करना नही बल्कि अपनी अनुभूतियों का शब्दांकन करना था। वह मूलतः सन्त थे और उन्होंने आध्यात्मिक साधना हेतु ही वाणी का माध्यम ग्रहण किया। उनकी आध्यात्मिक साधना एक और तो अगोचर, अगम्य, परब्रह्य से साक्षात्कार को संकल्पित है व दूसरी और इसी आध्यात्मिक साधना ने अद्वैतवाद के व्यावहारिक रूप से समाज में व्याप्त कदाचार व कुरीतियों को समूल नष्ट करने का निश्चय किया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का अभिमत है," कबीर ने कभी काव्य लिखने की प्रतिज्ञा नहीं की, तथापि उनके आध्यात्मिक रस की नगरी से छलके हुए रस से काव्य की कटोरी में रस इकट्ठा नहीं हुआ था।"
कबीर के काव्य में पौरूष सहज ही झलकता है। कबीर ऐसे कवि बिरले थे, जो अपने संकल्प, अनुभूति के प्रति निष्ठा भाव रखते थे। कबीर हिन्दी काव्य के वह सूत्रधार थे जिन्होंने कविता को आम ज़िन्दगी का दर्पण बनाया तथा समाज और धर्म को अपने वर्ण्य विषय का केंद्र बिन्दु चुना।
कबीर के काव्य की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. बौद्धिकता की प्रधानता
कबीर का काव्य असाधारण है। उनका समूचा जीवन सांसारिक वृत्तियों तथा सामाजिक बुराइयों को दूर करने में गया। उनका काव्य सायुक्त व मौलिकता से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता लिखने के लिए मात्र शब्दों का चयन नही किया, बल्कि उन शब्दों का चिन्तन व मन्थन किया। तत्पश्चात उसे काव्य में प्रयुक्त किया। इस प्रकार उनका काव्य भावुकता से परे बुद्धि तत्व की प्रधानता लिए हैं।
2. भाव-पक्ष
कबीर के साहित्य में रसानुभूति अद्भुत हैं। उपदेशात्मक सूक्तियां व हठ योग संबंधी कविताओं के अतिरिक्त उनका काव्य पूर्ण रससिक्त है। उनकी कविता में शान्त, को वह शान्त रस से आप्लवित करते हैं। उनके काव्य में भावपक्ष भी ज्ञान तत्व की भांति विद्यमान है। आध्यात्मिक विचारों को अपने काव्य का विषय बनाकर उसे सरलता व सहजता से लोकमात्र में प्रस्तुत कर कबीर ने सही अर्थों में काव्य की आत्म को पहचाना है। उनके काव्य में भक्ति भावों की प्रचुरता है। उन्होंने आत्म-परमात्मा समान अदृश्य पदार्थों को प्रतीक व उपयुक्त उपमानों के द्वारा सादृश्य के रूप में चित्रित किया है। आत्मा को प्रेयसी व परमात्मा को प्रेमी मानकर वह सरस काव्यवर्षण करते हैं।
कबीर ने संयोग व वियोग का सशक्त चित्रण कर अपनी पटुता का परिचय दिया हैं। उनके आध्यात्मिक संयोग व वियोग के चित्रों की तुलना में अन्य कवि सफलता के सोपान तक पहुंचने में असमर्थ रहे हैं। इस संदर्भ में एक विद्वान समीक्षक का मत प्रासंगिक हैं," कबीर की कविता में तो भावना नृत्य करती है और उसी से रस प्रवाह होता है। कबीर की रहस्यमयी कविताओं में जो रस की धारा बहती है, वह आत्मा की कामना और वासना के क्षेत्र से बाहर निकालकर निर्वाण के परमानन्द की स्थिति को प्राप्त कराने में समर्थ होती है। इस स्थिति को प्राप्त करके कवि स्वयं प्रेम रस का पान करता है और ब्रह्य के रंग में रंगकर मतवाला हो जाता हैं। कबीर की रचनाओं में इस रस की न जाने कितनी शीतल धाराएं बहती हुई मिलती हैं, जिनमें स्नान करके सह्रदय पाठक जीवन की वास्तविक शान्ति को प्राप्त कर सकता हैं।"
3. रसानुभूति
रस की दृष्टि से कबीर के काव्य में मुख्यतः तीन रसों यथा श्रृंगार, अद्भुत एवं शान्त का समावेश है किन्तु प्रधानता श्रृंगार की है। उनका भक्ति व आध्यात्मिक साहित्य प्रिय और प्रियतम की अटूट कड़ी है जो आत्मा परमात्मा की प्रतीक हैं। कबीर ने अपने काव्य का सृजन रस सिद्धान्त के अनुसार किया, काव्यशास्त्रीय परंपरा के अनुसार नहीं किया, फिर भी श्रृंगार उनके काव्य में प्रभावी रूप से उभरकर आया हैं।
4. अलंकार सौंदर्य
कबीर के काव्य में अनायास ही बहुलता में अलंकारों का समावेश है। कबीर के काव्य में उपमा, रूपकों की तो प्रचुरता है ही, साथ ही अन्योक्ति, लोकोक्ति, सांगरूपक, दृष्टान्त, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार भी दृष्टव्य है। यमक, श्लेष, अनुप्राय अलंकारों की भी आवृत्ति उनके काव्य को सौंदर्य प्रदान करती हैं।
कबीरदास ने अपने काव्य में अलंकारों का सहज ही प्रयोग किया है। काव्य प्रतिभासम्पन्न होने के उपरान्त भी कबीर के जीवन का लक्ष्य कविता करना नहीं, बल्कि इसके माध्यम से साधना, भक्ति भावना का प्रचार-प्रसार व सामाजिक कूप-मण्डूकता पर प्रहार करना रहा।
5. प्रतीक विधान
काव्य में सौंदर्य की दृष्टि से प्रतीक योजना का अपना विशेष महत्व है। प्रतीक का शाब्दिक अर्थ निशान, अंग, पता व अवयव है। प्रतीक के द्वारा जो मूलतः अप्रस्तुत है, हम प्रस्तुत के द्वारा उसके गुण-धर्म का स्मरण करते है। मानव जीवन प्रतीकों से आप्लावित है। कुछ प्रतीक सार्वभौमिक होते हैं, जैसे श्वेत रंग पवित्रता का एवं सिंह पौरूष का प्रतीक हैं।
कबीर की अनुभूतियां आध्यात्मिक रंगों से सराबोर है। अपने विचारों को बोधगम्य बनाने के लिए उन्हें अधिक प्रतीकों का आलम्बन करना पड़ा है। प्रतीक शैली वस्तुतः कबीर-काव्य की प्रमुख शैली कही जा सकती है। उनके काव्य में कुछ प्रतीक तो विचित्र है जिनका प्रतीकात्मक अर्थ खोजना कठिन है। इन प्रतीकों का आध्यात्मिक अर्थ जाने बिना उनके काव्य को समझना सरल नहीं है। उनके द्वारा प्रस्तुत प्रतीकों के उदाहरण इस प्रकार हैं--
(अ) दाम्पत्य प्रतीक
दुलहिनी गाबहुं मंगलाचार।
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लाली मेरे लाल की, जित देखौंतित लाल।
लाली देखनि में चली, मैं भी हो गयी लाल।।
(ब) पारिभाषिक प्रतीक
गंगतीर मोरी खेती बारी, जमुनातीर खरिहाना।
सातों बिरवी मोरे वीपजैं, पांचू मोर किसाना।।
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आकासे मुख औंधों कुवां, पाताले पनिहारि।
ताकां पाणि को हंसा पीवै, बिरला आदि विचारि।।
6. उलटबांसियां
कबीर के काव्य में उलटबांसि पद्धति उल्लेखनीय है। इनमें लोक-विपरीत बातें कही गई हैं। ऊपरी अर्थ बोध होने पर इन लोक विरुद्ध बातों की प्रस्तुति से श्रोता अथवा पाठक को आश्यचर्य होता है। लेकिन इन प्रतीकों के आध्यात्मिक अर्थों का जब उद्घाटन होता है तब हमें यह असंगत अथवा विरोधमूलक प्रतीक नही होती। कबीर के काव्य में अलंकार प्रधान उलटबांसी, प्रतीक प्रधान उलटबांसी व अद्भुत रस प्रधान उलटबांसी के दिग्दर्शन मुख्यतः होते हैं।
7. छन्द
कबीर ने अपने काव्य में मुख्य रूप से मुक्तकों का ही प्रयोग किया हैं। उन्होंने छन्दों में दोहा, चौपाई का प्रयोग किया है। साखियां दोहा छन्द में है और रमैनी में कुछ चौपाइयों के पश्चात एक दोहा है। इसी क्रम में रमैनी का सृजन किया हैं।
8. भाषा
कबीर की भाषा में राजस्थानी, गुजराती, पंजबी आदि भाषाओं का मिश्रण हैं। उनकी भाषा को साधुक्कड़ी भी कहा जाता है जिसमें बिना व्यतिक्रम के विभिन्न भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। कबीर की भाषा के संबंध में डाॅ. सुनीतिकुमार चटर्जी का कथन उल्लेखनीय हैं--
कबीर यद्यपि भोजपुरी क्षेत्र के निवासी थे, किन्तु तात्कालीन हिन्दुस्तानी कवियों की तरह उन्होंने ब्रजभाषा तथा कभी-कभी अवधी का भी प्रयोग किया। उनकी ब्रजभाषा में भी कभी-कभी पूर्वी (भोजपुरी) रूप झलक आता है, किन्तु जब वे अपनी भोजपुरी बोली में लिखते हैं जो ब्रजभाषा तथा अन्य भाषाओं के तत्व प्रायः दिखाई पड़ते हैं।
आचार्य श्यामसुन्दरदास का मत है कि", कबीर की भाषा का निर्णय करना टेढ़ी खीर है क्योंकि वह खिचड़ी है। खड़ी, ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी, अरबी, फारसी आदि अनेक भाषाओं का पुट उनकी उक्तियों पर चढ़ा हैं।"
विभिन्न विद्वानों की सम्मति से कबीर की भाषा के संबंध में यह विशेषताएं उभरकर आती हैं--
1. कबीर की बोली का प्रमुख आधार पूर्वी बोली (भोजपुरी व अवधी) हैं।
2. कबीर की भाषा पर खड़ी एवं ब्रजभाषा का अधिक प्रभाव हैं।
3. कबीर की भाषा में राजस्थानी एवं पंजाबी भाषा के शब्दों का भी प्रचुरता से प्रयोग हुआ है।
4. कबीर की भाषा साधुक्कड़ी मानी जाती है। जिसे पंचमेल खिचड़ी की संज्ञा दी जाती है। उसे किसी एक भाषा की परिधि में नहीं बांधा जा सकता।
9. साहित्य में स्थान
कबीर का प्रमुख ध्येय कविता कराना नहीं, वरन् अपनी आत्मानुभूतियों का प्रचार-प्रसार कर मानव को संयमित रास्ते का अनुसरण कराना था। भाषागत दोष होने के उपरांत भी कबीर का हिन्दी साहित्य में उच्च स्थान है। इन्होंने पहली बार कविता को धरातल से जोड़ा व आम-आदमी एवं कविता का परस्पर तादात्म्य स्थापित किया। कबीर का साहित्य वस्तुतः उच्च नैतिक आदर्शों का प्रतिस्थापक है। उनका जीवन और काव्यादर्श समान रहे। वह समरसता व मानवता के पुजारी है। हिन्दी साहित्य में कबीर मात्र कवि न होकर एक लोकनायक के रूप में अवतरित हुए है जो समाज की सड़ी गली प्रथाओं का समूल नाश करके इस धरा के स्वर्ग बनाने का उद्यम करते है। निर्गुण भक्तिधारा के श्रेष्ठ कवि कबीर काव्य में आध्यात्मिक प्रभाव के प्रवर्तक हैं। उनकी वाणी में कला पक्ष का अभाव होते हुए भी भावगत सरलता है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में कबीर हिन्दी जगत का वह व्यक्तित्व है जो समता, विश्वबन्धुत्व व सामाजिक न्याय का अनुयायी हैं।
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