3/25/2023

संत काव्य की विशेषताएं

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प्रश्न; संत काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएं लिखिए। 
अथवा", संत काव्य की पृष्ठभूमि और परम्परा बताइए।
अथवा", संत काव्य धारा की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कीजिए। 
अथवा", सन्त काव्य की कलापक्ष संबंधित विशेषयएं बताइए। 
अथवा", संत काव्यधारा की भावपक्ष संबंधी विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
अथवा" संत काव्य की प्रवृत्तियाँ अथवा मान्यतायें लिखिए। 
उत्तर-- 

संत काव्य की पृष्ठभूमि और परंपरा 

भारत में ब्रह्य के निर्गुण रूप की उपासना तो प्राचीन काल में ही प्रारंभ हो चुकी थी, पर कालक्रम से सर्वप्रथम महाराष्ट्र के निर्गुण कवियों को 'संत' की संज्ञा दी गयी। विट्ठल या वारकरी सम्प्रदाय के साधक 'संत' ही कहलाते थे। सम्भवतः उन्हीं के अनुकरण पर, आगे चलकर कबीरादि को भी 'संत' और उनकी रचनाओं को 'संत काव्य' कहा जाने लगा जो कालान्तर में रूढ़ ही बन गया। यूँ, कबीर से पहले भी जयदेव, सधना, वेणी, नामदेव, त्रिलोचन, रामानंद और सेना आदि सन्तों के उल्लेख मिलते हैं। कबीर के समकाल तथा परवर्तीकाल में तो इनकी पूरी श्रृंखला ही मिलती हैं। रैदास, पीपा, धन्ना, कमाल, धर्मदास, सिंगा जी, दादू, रज्जब, मलूकदास, सुन्दरदास, प्राणनाथ, धरनीदास, यारी साहब, बुल्ला, दरिया, दूलनदास, चरनदास, गुलाल, गरीबदास, पलटू, भीखा और तुलसी साहब इसी संत-परम्परा के प्रमुख नाम हैं। साथ ही साथ नानक, अंगद, अमरदास, रामदास अर्जुनदेव आदि सिक्ख-गुरू, जम्भनाथ का बिश्नोई सम्प्रदाय, बाबालाली सम्प्रदाय, साईदास, जसनाथी सम्प्रदाय, हीरादासी सम्प्रदाय आदि के कविगुण भी इसी वर्ग में आते हैं। सच तो यह है कि संत तथा सन्त-मत न तो कोई संप्रदाय विशेष है, न निश्चित दर्शन। यह तो विविध कवियों के सामान्य विचारों से युक्त रचित काव्य की सामूहिक संज्ञा है। निःसंदेह इस प्रकार का काव्य कालांतर में, उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक रचा जाता रहा हैं। जहाँ तक प्रश्न है, इसके उदय का तो वास्तव में यह पूर्ववर्ती नाथपंथ का ही विकसित रूप था जिसमें समयानुसार शंकर का अद्वैतवाद, रमानुज का विशिष्टाद्वैत, इस्लाम का एकेश्वरवाद, योगियों का यौगिक साधना एवं सूफियों का प्रेम-पीर आदि को मिलाकर एक सर्वथा नये रंग-रूप में ग्रहण किया गया था। 

सन्त काव्य का वर्गीकरण 

सन्तकाव्य का वर्गीकरण दो आधारों पर किया जा सकता हैं-- 
(अ) शुद्ध दर्शन की दृष्टि से तथा 
(ब) सन्त कवियों की साधना-प्रणाली की दृष्टि से। 
प्रथम के प्रमाण हैं-- पूर्णतया अद्वैतवादी सन्त कवि (यथा कबीर दादू, मलूकदास) जबकि दूसरे के भेदाभेदवादी गुरूनानक। साधना-प्रणाली से देखें तो एक तरफ सुन्दरदास जैसे पूर्ण योग-साधक हैं तो दूसरी ओर दादू, नानक, रैदास ओर मलूकदासादि आंशिक योगसाधक, जिनके यहाँ योग उल्लेख मात्र ही हैं। 

संत काव्य की प्रवृत्तियाँ/मान्यतायें अथवा विशेषताएं 

संत काव्य की प्रवृत्तियां या विशेषताएं को निम्नलिखित 2 भागों में बांटा जा सकता हैं-- 

(अ) संत काव्य की भावपक्ष संबंधी विशेषताएं 

संत काव्य की भावपक्ष संबंधी विशेषताएं या मान्यतायें इस प्रकार हैं-- 
1. निर्गुण की उपासना 
सभी संत कवि निर्गुण के उपासक है। उनका ब्रह्य अविगत् हैं। उसका न तो कोई रूपाकार है एवं न निश्चित आकृति। वह तो अनुपम, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् और सर्वसुलभ हैं। घट-घट में बसता है तथा ब्राहोन्द्रियों से परे है। स्वयं सन्तकवि कबीर के शब्दों में-- 
'जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप। 
पहुप बास से पातरा, ऐसा तत्त अनूप।। 
इसी निर्गुणोपासना के कारण वे सगुण का विरोध करते हैं तथा तर्कोधार पर उसकी निस्सारता प्रकट करते हैं; यथा-- 
"लोका तुम ज कहत हौ नन्द कौ, पन्दन नन्द धू काकौ रे।
धरनि अकास दोऊ नहिं होते, तब यह नन्द कहाँ धौ रे।।"
2. समन्यवयपरक एकेश्वरवाद की स्थापना 
सन्त कवि जीवन के सभी क्षेत्रों में समन्यवादी हैं। नि:सन्देश धर्म तथा दर्शन भी इसका अपवाद नहीं हैं। यही कारण है कि, मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्न: में यकीन न कर ये ईश्वर के एक सामान्य, सहज, सुलभ रूप को ही मानते हैं। कबीर में यह बात और भी अधिक रूप-मात्रा में मिलती है। वे तो सगुण-निर्गुण को भी एक ही मानते हैं," गुण में निर्गुण, निर्गुण में गुण, बारि छाँडि क्यूं बहिये।"
एकेश्वरवाद मूलतः निर्गुण वैष्णव विचारधारा है। इसके अनुसार ब्रह्य एक ही है, जो लीला में भरकर 'स्व-विस्तार' करता हैं। माया-बाधा से ही वह भिन्न प्रतीत होता हैं। यह माया-बाधा अज्ञान की देन है तथा इसको गुरू-ज्ञान से दूर किया जा सकता है। कबीर इसी एकेश्वरवाद की स्थापना करते हैं। 
3. रहस्यवाद
सन्त कवियों ने स्थान-स्थान पर अपनी उक्तियों को रहस्यमय रूप में प्रकट किया है। फलतः उनकी उक्तियाँ अस्पष्ट, अटपटी तथा गूढ़-गहन बन गई। कबीर की उलटवासियों में ये सभी बातें उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त रहस्यवाद की अन्य स्थितियाँ और रूप भी इनमें भरपूर मात्रा में मिलते हैं। कहा तो यहाँ तक गया है कि," रहस्यवादी कवियों में कबीर का आसन सबसे ऊँचा हैं। शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं का हैं।" यहाँ पर दृष्टव्य बात यह भी है कि कबीर की रहस्यवादी उक्तियाँ केवल शुष्क और बौद्धिक मात्र नहीं हैं वरन् इनमें तो सूफियों के 'प्रेम' तथा वैष्णवों की भक्ति के साथ-साथ काव्यात्मकता भी पूरी-पूरी मात्रा में हैं। इन गुणों ने निःसंदेह कबीरीय रहस्यवाद को 'मौलिक' बना दिया है। 'फलतः कबीर का रहस्यदिव भारतीय अद्वैतवाद तथा इस्लामी सूफीवाद की संगमस्थली होने पर भी इनसे विशिष्ट हैं।" 
4. उभयपक्षी श्रृंगार 
श्रृंगार का मूल भाव हैं 'रति' (प्रेम) तथा उभय पक्ष हैं-- संयोग एवं वियोग। ध्यान दें तो "प्रेम की व्यंजना की तीव्रतम् रूप पति-पत्नि-संबंध मे ही होता है। कारण पति-पत्नि में अन्तराल नहीं रहता। सन्तों ने इसी कारण अपनी प्रेमासक्ति राम को पति तथा स्वयं को उनकी पत्नी मानकर, व्यक्त की हैं।" इन्होंने वैष्णर्वों तथा सूफियों से उनका दाम्पत्य श्रृंगार ग्रहण किया एवं उसके दोनों पक्षों का विशद् चित्रण किया। यही कारण है कि इनके यहाँ संयोग और वियोग दोनों के बड़े मार्मिक और विविध अवस्थाओं से युक्त चित्र मिलते हैं।
5. सामाजिक अन्याय का विरोध 
मध्यकाल के अधिकतर सन्त कवि समाज के निम्न-वर्ग से संबंधित थे। उन्होंने अपने जीवन में सामाजिक विषमता तथा तद्जनित अन्यायों को देखा, भोगा था। अतएव उनमें इसके प्रति विरोध-भावना होनी स्वाभाविक ही थी। प्रारंभ में, विशेषतः महाराष्ट्री सन्तों में, विरोध का यह स्वर सरल-सहज था, पर कबीर में आकर तो यह आक्रोशमय एवं कटूतर तक बन गया। निःसंदेह इसका एक कारण कवि की निर्भीकता एवं अखण्डता भी थी। कबीर ने अपने समकालीन समाज और उसके विविध पक्षों पर कटु-तीखे प्रहार किये हैं। सच तो यह है कि उनकी उन व्यंगोक्तियों ने उनको सुधारक तथा युग-नेता तक बना दिया हैं।" 
6. बाह्याडम्बरों का विरोध 
संत कवियों ने अपने युगीन समाज को आँखें खोल कर देखा एवं उसके सच्चे रूप को जनता के सामने जैसे का तैसा रखा भी था। कबीर निःसंदेह इस दृष्टि से भी अग्रणी कवि हैं। उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमान दोनों में प्रचलित धार्मिक-सामाजिक आडम्बरों के ढोल की पोल खोली है। शैव हो या शाक्त, ब्राह्मण हो या मुल्ला, मुंड-मुंडाने वाला साधु हो या माला फेरने वाला पण्डित, सभी के पाखण्डी रूप कबीर ने उजागर किये हैं। इसी तरह मूर्ति-पूजा, माला, छापा-तिलक, तीर्थांटन, वेद-शास्त्र, कुरा-पुरान, मक्का-मदीन, रोजा-नमाज, न जाने कितने आडम्बरों का विरोधपरक मजाक उड़ाया हैं, न जाने कितनी रीति-परम्पराओं का उन्मूलन किया है कबीर ने। सच में तो उन्होंने तत्कालीन समाज में प्रचलित समस्त अन्धविश्वासों, रूढ़ियों एवं मिथ्या सिद्धान्तों द्वारा प्रचारित सामाजिक विषमताओं का मूलोच्छेद करने का बीड़ा उठाया और निर्ममतापूर्वक सभी पर प्रहार किया।" 
6. लोक-कल्याण की भावना
ये संत कवि मात्र विरोधी नहीं हैं। गहराई में झांकें तो उनके व्यंग्य-विरोध का मूलोद्देश्य लोक-कल्याण करना तथा सच्ची मानवता की प्रतिष्ठा करना है। वे तो सबको 'हरि का बन्दा' मानते हैं एवं जागृति के लिये समझाते हैं। ये कवि लोक-कल्याण भी ब्राह्याडम्बरों से नहीं, 'मन की पवित्रता' मानते हैं। 
7. नारी के कामिनी रूप के विरोधी
सन्त कवि मूलतः नारी के नही बल्कि उसके 'कामिनी' रूप के विरोधी हैं। निःसंदेह इसका सबसे बड़ा कारण तत्कालीन समाज में नारी के इसी भोग्या रूप की प्रधानता का होना है। कबीरादि ने नारी को प्रायः इसी रूप में ग्रहण किया हैं, यद्यपि 'सती' को अंग और पतिव्रता निहकरमी को 'अंग' एवं दाम्पत्यमूलक प्रतीकों वाले पदों (गीतों) में उन्होंने नारी की प्रशंसा भी की है। माया को कामिनी रूप प्रदान कर कबीर भी, अन्य सन्तों की भाँति, नारी को त्याज्य बताते हैं। उनके मतानुसार, नारी नरक का द्वारा, अवगुणों की जन्मदाता, मोहिनी, ठगिनी, विषैली, भुजंगिनी आदि न जाने क्या-क्या हैं। 
8. गुरू-महिमा का गान
सन्त-काव्य में गुरू वह शक्ति मानी गयी है, जो साधक-भक्त की अज्ञानता को दूर करके उसको सच्चा ज्ञान प्रदान करती है। सूफियों की भाँति यह गुरू अनुपम, अत्यधिक पूज्य, ब्रह्य-ज्ञान प्रदाता और मायादि विकारों से दूर करने वाला है। इसी से ये कवी गुरू को न केवल इन गुणों से युक्त मानते है, बल्कि उसको ब्रह्य के समक्षक रख उसका आदर भी करते हैं।

(ब) संत काव्य की कलापक्ष संबंधी विशेषताएं या प्रवृत्तियाँ 

संत काव्य की कलापक्ष संबंधी विशेषताएं अथवा मान्यतायें इस प्रकार हैं--
1. सरल मिश्रित भाषा 
उस काल में भी संस्कृत यद्यपि सारे भारत में व्याप्त थी, पर वह प्रायः विद्वत् वर्ग तक सिमट कर रह गयी थी। दूसरी तरफ, जनसमाज के अधिकाधिक निकट रहने वाला और विशेषकर अपने काव्योपदेशों से उसी को झिंझोरने वाला कवि वर्ग प्रान्तीय या लोकसभाओं की अलख जगा रहा था। काव्य की रीति-नीति तक की उपेक्षा कर देने में इसको आपत्ति नहीं थी। निःसंदेह इनमें सर्वाधिक अग्रणी रहे थे-- संत कवि, विशेषतः कबीर। सोचें तो ' मसि कागद छुओ नहीं ' वाले सन्त-कवियों के लिए यह स्वाभाविक भी था। उन्मुक्त भाव से रचे गये जन-काव्य के लिए नियमबद्ध-शुद्ध भाषा लाभप्रद नहीं थी और न ही ये कवि (एकमात्र सुन्दरदास को छोड़कर) काव्यशास्त्र-ज्ञाता थे। ये तो निम्न-वर्ग से आये थे, उसी से संबंधित थे। स्वयं का इनका घुमक्कड़पन (देशाटन) और अलग-अलग स्थानों से संबंधित इनका अनुयायी-समुदाय भी इसी प्रवृत्ति को बढ़ाने में सहायक था। समग्रतः इन्होंने 'सुधुक्कड़ी' या 'खिचड़ी' कही जाने वाली, किन्तु एकदम सर्वसुलभ, सर्वसरल भाषा को ही अपनाया और कबीर के शब्दों में, यही माना कि-- 
"संसकितर है कूप-जल, भाखा बहता नीर।
जब चाहों तब ही डुबौ, सीतल होय सरीर।।" 
से तो सीधी बात सीधे तरीके से कहने के कायल थे तथा उसूलन कथित अथवा सर्वसाधारण के रोजमर्रा की बोलचाल की भाषा में ही अपना संदेश रखने के पक्षपाती भी थे, यद्यपि इसी फलस्वरूप ये प्रान्तीयता के भाषा-रंग भी बच नहीं सके। नानक में पंजाबीपना तथा कबीर में बनारसीपना की भरमार इसी का प्रमाण है। साथ ही, इनकी काव्य-भाषा का एक रूप स्थिर कर पाना भी मुश्किल बन गया है, यथा कबीर की भाषा, जिसको स्वयं कबीर ने 'पूरवी' किन्तु दूसरों ने 'बनारस-मिर्जापुर-गोरखपुर की बोली', भोजपूरी का ही एक रूप, राजस्थानी-पंजाबी मिश्रित खड़ी बोली या सधुक्कड़ी', 'संध्या भाषा' अवधी तथा ब्रज के समीप' आदि न जाने क्या-क्या कहा एवं माना।समग्रतः मिश्रणप्रधान होने से इसको 'मिश्रित भाषा' ही माना जा सकता हैं।
2. प्रतीक योजना 
सन्त काव्य के प्रतीक मुख्यतः बौद्ध तथा नाथ-सम्प्रदायों से या फिर सीधे-सीधे जन-जीवन के लिए गये है। मुख्यतः ये चार प्रकार के हैं-- 
(अ) पारिभाषिक (यथा गगन गुफि, गगन मंडल, चन्द्र, सूर्य, सरस्वती, गंगा-यमुना, बाधिन, पाताली आदि), 
(ब) संख्यावाचक शब्दों से युक्त (यथा दुई पाठ, त्रिकुटी, तीन गाउ, चार चोर, अष्ट कमल, दशम् द्वारादि), 
(स) अन्योक्ति परक (यथा चौराहा, बालम, चदरिया, गांव, दुलहिन, भरतार आदि) तथा 
(द) उलटबाँसी वाले प्रतीक (यथा मछली, मृग, सर्प, कुंआ, खरगोश आदि)। उक्ति-वैचित्र्य तथा भाव-वृद्धि इनकी अपनी विशिष्टताएं हैं।
3. छन्द तथा अलंकार 
संत कवि न तो काव्यशास्त्र के अध्येता थे एवं काव्यशास्त्रीय नियमों से बद्ध होकर काव्य-सृजन करना इनका लक्ष्य था। 'काव्यगत' तो इनके यहाँ बाइ-प्रौडक्ट है अर्थात् अपने-आप बन जाने वाला। फलस्वरूप छन्द-अलंकारों के नियमबद्ध रूप या पाँडित्य प्रदर्शन करने वाली चमत्कारिता इन कवियों में नहीं मिलती। फिर भी छन्द-अलंकार, दोनों ही इनके मध्य में पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं, किन्तु सिर्फ साधन रूप में। साखी (दोहा) और सबद (गीत या पद) इनके प्रिय छन्द हैं यद्यपि चौपाई, कवित्तादि भी मिल जाते हैं। सुन्दरदास तो 'सवैये के बादशाह' माने गये। जहाँ तक प्रश्न हैं-- अलंकारों का तो मुख्यतः यहाँ रूपक, उपमा, दृष्टान्त, उत्प्रेक्षा, श्लेष तथा अनुप्रासादि बहुप्रचलित अलंकार ही प्रयुक्त हुए हैं। 
4. युगबोध 
संत काव्य का मूल दृष्ट हैं, युग-चेतना को जागृत करके युगबोध का संदेश देना। वास्तव में, ' अपने समय के सजग प्रहरी' ये ही थे। इन्होंने अपने युग को आँख खोलकर देखा ही नहीं उसकी कटुता, विषमताओं, विसंगतियों तथा आडम्बरादि का हटकर, निर्भीकतापूर्वक, अधिक स्पष्टवक्ता, क्रांतिदर्शी, समाज-सुधारक एवं निर्भीक कवि अन्य किसी भी वर्ग संप्रदाय में नहीं मिलते। कबीर इसका सर्वोत्तम प्रमाण हैं।
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