4/06/2023

कबीर के रहस्यवाद के प्रकार, विशेषताएं

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प्रश्न; कबीर के रहस्यवाद को स्पष्ट कीजिए। 

अथवा" कबीर के रहस्यवाद के प्रकार बताइए।

अथवा" कबीर के रहस्यवाद के विविध रूप बताइए। 

अथवा", कबीर के रहस्यवाद की विशेषताएं लिखिए। 

उत्तर-- 

हिन्दी साहित्य में कबीर रहस्यवादी कवि माने जाते हैं। वे वेदांती थे। इसी कारण वे जीव तथा ब्रह्य की एकता के समर्थक थे। दूसरी तरफ वे सूफियों के प्रेम की पीर से भी प्रभावित थे। अतः उनके रहस्यवाद में अद्वैतवाद का माया तथा चिंतन व सूफियों का प्रेम भाव स्पष्टतः देखा जा सकता है। डाॅ. रामकुमार वर्मा का कथन दर्शनीय है। कबीर का रहस्यवाद एक तरफ तो हिन्दुओं के अद्वैतवाद की क्रोड़ में पोषित है और दूसरी ओर मुसलमानों के सूफी-सिद्धांतों को स्पर्श करता है। इसका विशेष कारण यही है कि कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों प्रकार के संतों की सत्संग में रहे तथा वह प्रारंभ से ही यह चाहते थे कि दोनों धर्म वाले आपस में दूध-पानी की तरह मिल जायें।

"इसी विचार से वशीभूत होकर उन्होंने दोनों मतों से संबंध रखते हुए अपने सिद्धांतों का निरूपण किया। रहस्यवाद में भी उन्होंने अद्वैतवाद तथा सूफीमत की 'गंगा-जमुना' साथ ही बहा दी।" 

इसके अतिरिक्त कबीर पर हठयोग का प्रभाव भी स्पष्ट परिलक्षित होता है। हठयोगी साधन-पद्धति के आधार पर उन्होंने कुंडलिनी इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, मूवधार आदि छः चक्रों, सहस्त्रार या हरन्ध्र आदि पर प्रकाश डाला हैं।

कबीर के रहस्यवाद के प्रकार (kabir ke rahasyavad ke prakar)

मुख्यतः रहस्यवाद दो तरह का होता हैं-- साधनात्मक और भावात्मक। 

साधनात्मक रहस्यवाद में परमात्मा तक पहुंचने की प्रक्रिया का वर्णन किया जाता है तथा भावात्मक में आत्मा के विरह-मिलन के विविध प्रसंगों की सुंदर झांकी प्रस्तुत होती हैं। 

कबीर के काव्य में साधनात्मक और भावात्मक दोनों प्रकार का रहस्यवाद दृष्टिगत होता हैं-- 

1. साधनात्मक रहस्यवाद 

कबीर के साधनात्मक रहस्यवाद का विकास योगियों के नाथ संप्रदाय से हुआ है। अतः उन पर योगियों तथा हठयोग का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता हैं। उनका मत है कि जब साधक की कुंडलिनी जाग्रत होकर सुषुम्ना के मार्ग से छहों चक्रों को पार करके ब्रह्यरंध में पहुंच जाती है तो एक अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। यह आनंद मोक्ष का द्वारा है। कबीर कहते हैं-- 

रस गगन गुफा में अजर झरै। 

बिना बाजा झनकार उठै जहाँ, जहं समुझि परै। 

जब ध्यान धरै। 

कबीर के साधनात्मक रहस्यवाद पर भारतीय अद्वैत का भी प्रभाव है। उसे व्यक्त करने के लिए उन्होंने वेदांतियों की तरह मायावाद को भी स्वीकार किया है तथा विभिन्न दृष्टांतों से अद्वैत का प्रतिपादन किया है। शंकर के अद्वैतवाद का समर्थन करते हुए वे कहते हैं-- 

पाणी ही ते हिम भया, हिम व्है गया विलाई। 

जो कुछ था सोई भया अब कछू कहा न जाई। 

कबीर के रहस्यवाद में कहीं अनहद सुनाई पड़ता है तथा कहीं गगन घंटा का घहराना सुनाई पड़ता है। उन्होंने अपने साधनात्मक रहस्यवाद को भक्ति और प्रेम का पुट देकर सरस और मधुर भी बना दिया है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि कबीर का साधनात्मक रहस्यवाद नीरस और शुष्क न होकर सरस तथा मधुर हैं।

2. भावात्मक रहस्यवाद 

कबीर में भावात्मक रहस्यवाद भी पाया जाता है। इसमें जीवात्मा अपने आधार से प्रेम करती है तथा उसके अभाव में विरह-व्यथा से दग्ध रहती है। इस पर सूफियों की प्रेम पद्धति का अभाव है पर कबीर ने इसे भारतीय रूप दे दिया है। उन्होंने साधक, जीव व आत्मा की प्रेमिका तथा पत्नि रूप में ब्रह्य का प्रियतम रूप में चित्रित किया हैं। 

यथा; 

दुलहिन गावहु मंगलचार। 

हमारे घरि आए हो राजा राम भरतार। 

अथवा 

नैना अंतरि आव तू, ज्यू हौं नेन झैपेउं। 

ना हौं देखूं और कू, ना तोहि देखन देउं।।

भावात्मक रहस्यवाद का मूलाधार प्रेम हैं। कवि ने प्रेम की विभिन्न स्थितियों का चित्रण किया। आत्मा परमात्मा को प्रतीक्षा करते-करते कह उठती हैं-- 

आंखड़ियाई झाई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।

जीभड़िया छाला पड़ा, राम पुकारि-पुकारि।।

प्रियतम के विरह में आत्मा बहुत दुःखी है। आठों पहर का यह कष्ठ उसे असह्य हो उठता है। इसलिए कहती हैं--

कै विरहनि कू मींच दे, कै आपा दिखलाई।

आठ पहर का दाझणा, मोपै सहा न जाइ।।

कबीर के ह्रदय में परमात्मा को खोजने की तीव्र अभिलाषा जाग उठी। अपनी स्थिति का वर्णन करते हुए वे कहते हैं-- 

परवति परवति में फिरया, नैन गंवाई रोई। 

सो बूंटी पाऊ नहीं, जाते-जीवनि होई।।

अंत में आत्मा को अपने चिर प्रतीक्षित प्रियतम के दर्शन हो जाते हैं तथा वह कह उठती हैं-- 

बहुत दिनन में प्रीतम आए। भाग बड़े घरि बैठे आए।। 

इस प्रकार भावात्मक रहस्यवाद में कवि ने आत्मा के कई भावों आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, विरह-मिलन आदि के विविध चित्र प्रस्तुत किये हैं।

कबीर के रहस्यवाद की विशेषताएं (kabir ke rahasyavad ki visheshta)

रहस्यवाद का विकास क्रम है-- सीमा का असीम के प्रति कुतुहल, विस्मय, जिज्ञासा, तादात्म्य अनुभव, अनुराग, नम्रता, तन्मयता, विरह तथा मिलन। कबीर ने इन सभी स्थितियों का निर्वाह किया हैं। कबीर के रहस्यवाद की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-- 

1. साधनात्मक रहस्यवाद 

कबीर के रहस्यवाद की एक विशेषता यह है कि कबीर का रहस्यवाद साधनात्मक है। कबीर ने साधना के लिये अनेक निर्गुण पंथों को अपनाया है। उन्होंने पूर्ववर्ती सिद्धों और नाथ-पंथियों से 

हठयोग-साधना और क्रिया संबंधी विचार ग्रहण किये हैं। दृष्टव्य हैं-- अनहद नाद का वर्णन--

"कबीर कँवल प्रकासिया ऊग्या निर्मल सूर।

निसि अंधियारी मिटि गई, बागे अनहद नूर।।" 

2. प्रेम-मूलकता 

कबीरदास जी का रहस्यवाद साधनात्मक होकर भी प्रेममूलक है। उसमें साधनात्मक और भावात्मक, दोनों का समन्वित रूप देखा जा सकता है। यही कारण है कि उनका रहस्यवाद, नीरस न होकर सरस एवं मार्मिक हैं। इस दृष्टि से दृष्टव्य यह चित्र-- 

"काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी।

जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।।"

3. जिज्ञासा की भावना 

कबीर निर्गुण तथा निराकार ब्रह्य के उपासक है। वैसे उनकी दृष्टि में न तो उनके इष्टदेव का कोई रूप है तथा न कोई आकार। फिर भी वह सर्वत्र विद्यमान है। कोई भी स्थान ऐसा नही है जहाँ उसका अस्तित्व न हो। कबीर की यह अस्तित्व बुद्धि ही अपने इष्टदेव के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करती है तथा इसी से वे यह जानना चाहते है कि वह ब्रह्य कैसा है? कहाँ हैं?और किस तरह अपनी क्रियाएं करता हैं? वास्तव में कोई भी व्यक्ति इस मर्म को नही जानता है इसलिए कबीर बड़े बेचैन रहते हैं। उनका कहना है जब इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना आदि नाड़ियां ही नहीं है तो फिर समस्त गुण कहाँ समा जाते हैं?

4. भौतिक विध्न एवं वेदना की प्रवृत्ति 

कबीर ने अपने रहस्यवाद में साधनापथ के अनेक विध्नों तथा कष्टों का भी उद्घाटन किया है। सबसे पहले कबीर ने उस ठगिनी माया का ही उल्लेख किया है जो बड़ी मीठी है, जिसका छोड़ना कठिन है जो अज्ञानी पुरूष को बहका-बहका कर खाती रहती हैं-- 

"मीठी-मीठी माया तजी न जाई।

अग्यानी पुरूष को भोली-भाली खाई।।" 

फिर कहते है कि यह 'मोर तोर को जेवडी' है और यह इतनी विश्वास-घातनी है कि इसके आकर्षण के कारण भक्त भगवान का भजन नहीं कर पाता। यह ऐसी पापिनी है कि एक वैश्या की तरह संसार रूपी हाट में जीवों को फंसाने का फंदा लिए बैठी रहती हैं-- 

"कबीर माया पापिणी, फंद लैं बैठी हाटि।।" 

कबीर ने इस माया के दो रूप बतायें हैं-- 'कंचन और कामिनी।' इन दोनों के रूप में यह जीवों को ठगती है जिसके कारण जीव जन्म-मरण के चक्कर में फंसकर संसार में भटकता रहता हैं। 

5. अथक एवं अगोचर सत्ता के दर्शन का आभास 

कबीर ने इस स्थिति का अत्यंत मनोहारी वर्णन किया है। कबीर कह रहे है कि मैंने देह तथा आकार का ऐसा कौतुक देखा है तथा बिना कार्य और चंद्रमा के प्रकाश का दर्शन किया हैं-- 

"कौतुक दीठि देह बिन, रवि ससि बिना उजास।।" 

यह प्रकाश असीम एवं अनंत हैं, उसे देखकर ऐसा लगता है मानों सूर्य की सेना हो या अनेक सूर्य एक साथ उदित हो रहे हों-- 

"कबीर तेज अनंत का मानो अगी सूरज सेणि।।" 

इस तरह कबीर ने उस अव्यक्त एवं अगोचर सत्ता के दर्शन का बड़े प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया हैं। 

6. सांसारिक ज्ञान एवं अपरोक्ष अनुभूति 

कबीर ने अपनी इस अपरोक्ष अनुभूति का अत्यंत मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। कबीर कहते है कि जिस उत्कृष्टता तथा तीव्रता के साथ मन माया जन्म विषयों में रमता है उतनी ही उत्कृष्टता तथा तीव्रता के साथ मन राम में रम जाये तो वह साधक तारामंडल से भी परे वहाँ पहुँच जाता है। राम के गुण-गान करने के त्रिगुणात्मक माया का पाश कट जाता है। कबीर यह भी कहते है कि यहाँ पर राम नाम की लूट हो रही हैं जिससे जितना लूटा जाये लूट लो-- 

"लूटि सकै तो लूटियों, राम नाम की लूटि। 

पीछे ही पछिताहुगे, यह तन जैहे छूटि।। 

कबीर की इस अनुभूति का मूलाधार प्रत्यक्ष जीवन है। कबीर ने "तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता हूँ आँखों की देखी" कहकर अपने अपरोक्ष अनुभूति की वास्तविकता को स्पष्ट कर दिया हैं।

7. चिर-मिलन 

रहस्यवाद की अंतिम स्थिति आत्मा तथा परमात्मा का 'चिर मिलन' मानी गई है। कबीर ने बड़े ही ओजस्वी शब्दों में इस अंतिम स्थिति का भी उद्घाटन किया हैं। इस मिलन की अवस्था का रूपक बांधते हुए उन्होंने स्वयं को दुलहिन तथा राम को प्रियतम कहा है और विवाह होने पर जिस प्रकार पति-पत्नि मिलते है उसी प्रकार अत्यंत प्रेमपूर्वक आत्मा और परमात्मा का मिलन हो रहा है तथा जिस प्रकार एक पत्नी अपने पति के साथ एक शय्या पर शयन करती हैं उसी प्रकार आत्मा और परमात्मा एक होकर शयन कर रहे हैं-- 

"बहुत दिनन थे प्रीतम पाए, भाग बड़े बैठे आए।

मंदिर मांहि भया उजियारा, लै सूती अपना पिय प्यारा।।" 

विवाह के उपरांत जैसे पत्नी अपने प्रियतम से मिलती है उसी प्रकार 'अंक भरे भर भेंठिया, मन में नाही धीर' कहकर कबीर ने उस दृश्य को प्रकट किया है। इस मिलन के उपरांत अनिर्वाचनीय आनंद की उपलब्धि होती है। इससे स्पष्ट है कि इस स्थिति में भगवान साधक और साध्य तथा जीव तथा ब्रह्य एक हो जाते हैं, दोनों का भेद मिट जाता है और पूर्ण अद्वैत की स्थापना हो जाती हैं।

यह जानकार आपके लिए महत्वपूर्ण सिद्ध होगी

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