4/17/2023

जायसी के प्रकृति-चित्रण का विवेचन कीजिए

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प्रश्न; जायसी के प्रकृति-चित्रण का विवेचन कीजिए। 
अथवा" जायसी के प्रकृति चित्रण की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 
उत्तर--

जायसी का प्रकृति चित्रण 

प्रकृति अनादिकाल से मानव की सहचारी रही है। मानव और प्रकृति का पुरातन संयोग है। दोनों ही सदा एक-दूसरे पर मुग्ध रहे है। कवियों की अनुभूतियाँ प्रकृति की गोद में पल्लवित एवं विकसित हुई है। प्रकृति ने कविता के श्रृंगार में सर्वाधिक योग प्रदान किया है। देश और काल के भेद से कवियों ने विविध रूपों में प्रकृति को निहारा है। प्रकृति ने जायसी पर भी अपना मनोमुग्धकारी प्रभाव डाला है। पद्मावत के अनेक सुंदर और ह्रदयग्राही स्थलों से उनके सूक्ष्म निरीक्षण और अनुभव शक्ति का पता चलता है। जायसी ने प्रकृति के क्रीड़ा-कलाप को भावपूर्ण दृष्टि से देखा है तथा प्रकृति के व्यापारों के साथ मानव व्यापारों का साम्य स्थापित करते हुए सूक्ष्म मनोभावों के सरस एवं सुंदर चित्र अंकित किए है। यही कारण है कि जायसी का 'पद्मावत' प्रकृति परी पर अंकित मानव-भावनाओं का आकर्षण चित्र है तथा विभिन्न अलंकारों से सुसज्जित प्रकृति-वधू का श्रृंगार है। जायसी ने प्रकृति के कई रूपों को उभारा हैं। 
1. आलंबन रूप 
प्रकृति के इस रूप चित्रण में कई शैलियाँ अपनायी गई हैं। डाॅ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार एक तो कवि ने बिम्ब ग्रहण-प्रणाली के आधार पर रम्य एवं भयंकर रूप में चित्रित करते हुए प्रकृति के संश्लिष्ट एवं बिम्बग्राही चित्र प्रस्तुत किये हैं और दूसरी ओर नाम परिगणन प्रणाली को अपनाकर प्राकृतिक वस्तुओं के केवल नाम ही गिना दिये हैं। 
(अ) बिम्ब ग्रहण प्रणाली 
इसके दो उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं। 'मान सरोदक' का वर्णन करते हुए कवि ने प्रकृति के रमणीक रूप की अत्यंत भव्य एवं आकर्षक झाँकी प्रस्तुत की हैं-- 
मान सदोदक बरनौ काहा। भवा समुद अस अति अवगाह। 
पानी मोति असि निरमल तास। अमृत आनि कपूर सुवास।।
लंकदीप कै सिला अनाई। बाँधा सरवर घाट बनाई।।
खँड खँड सीढ़ी भई गरेरी। उतरहिं लोग चहूँ फेरी।।
फूला कवल रहा होइ राता। सहस-सहस पखुरिन कर छाता।।
इसी के साथ कवि ने प्रकृति के भयानक रूप की झाकी अंकित करते हुए 'किलकिला' समुद्र का वर्णन करते हुए कहा कि जिसकी गगनचुंबी लहरों को देखते ही धैर्य जाता रहता है और जो भूमि से आकाश तक लहरों में खड़ा-सा प्रतीत होता हैं-- 
पुनि किलकिला समुद महँ आए। गा धीरज देखत डर खाए।। 
भा किलकिस अस उठै हिलोरा। जनु अकास टूटै चहुँ ओरा।। 
उठे लहरि परवत कै नाई। फिर आवै जोजन सौ ताई।। 
धरती लेई सरग लहिं बाढ़ा। सकल समुद्र जानहुँ भा ठाढ़ा।।
(ब) नाम परिगणन शैली
इस प्रणाली का अनुसरण करते हुए जायसी ने सिहलद्वीप के उन समस्त वृक्षों के नाम गिना डाले हैं जो वहाँ उपवनों में विद्यमान हैं। 
फरे आंव अति सघन सोहाये। औ जस फरे अधिक सिर नाये।। 
कटहर डार पींडसन पाके। बड़हर सो अनूप अति ताके।। 
खिरनी पाकि खाँड अस मीठी। जामुन पाकि भंवर अति डीठी।। 
नारिअर फरे फरहरी। फुरै जानु इन्द्रासन बुरी।।
लवंग सुपारी जायफल, सब फर फरे अपूर।। 
आस-पास घन इमली, और घन तार खजूर।।
2. उद्दीपन रूप 
इस रूप में प्रकृति के सुखदायी और दुखदायी दोनों रूपों का चित्रण हुआ है। रत्नसेन और पद्मावती के मिलनकाल में प्रकृति, दोनों के ह्रदय सुखद भावनाओं का संचार करती दिखाई देती हैं-- 
पद्मावती चाहत ऋतु पाई। गगन सोहावन भूमि सौहाई।
चमकि बीजु बरसै जल सीना। दादुर मोर सबइ सुठि लोना।।
रंग राती पीतम संगी जागी। गरजै गगन चौंकि गर लागी।।
सीतल बूँद ऊंच चौवारा। हरिअर जब देखहिं संसारा।। 
पद्मावती चाहत ऋतु पाई। गगन सोहावन भूमि सौहाई।
चमकि बीजु बरसै जल सीना। दादुर मोर सबइ सूठि लोना। 
सीतल बूँद ऊंच चौवारा। हरिअर जब देखहिं संसारा।। 
वहीं यही प्रकृति वियोग काल में पीड़ादायक भी है। विरह-व्यथित नागमती के मन में प्रकृति सुखद भावों को उद्दीप्त करती हुई उसे पीड़ा प्रदान कर रही हैं-- 
खड़ग बीज चमकें चहुँ ओरा। बुंदबान बरसहिं घन घोरा।। 
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी। कंत! उबारू मदन हौं घेरी।। 
दादुर मोर कोकिला पीऊ। गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ।।
3. रहस्यात्मक रूप 
इस शैली में जायसी ने प्रकृति के कण-कण में अपने प्रियतम की छाया देखी है। स्थान-स्थान पर वै लौकिक सौंदर्य द्वारा अनंत सौंदर्य का संकेत देते हैं। 
यथा-- 
(अ) रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती। 
रतन पदारथ मानिक मोती।।
(ब) नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर।
हँसत जो देखा हँस भा, दसन ज्योति नग हीर।। 
अपने इस आध्यात्मिक संकेतो में कवि इतना सिद्धहस्त है कि वह सारी प्रकृति को सजीव चित्रित करता है। पद्मावती जब नहाने जाती है तो सरोवर भी उसके रूप पर मुग्ध हो जाता हैं--
सरवर रूप विमोहा, हिऐ हिलोरई लेई। 
पाँव छुवै मकु, पावौ एहि मिस लहरेहिं देई।। 
4. प्रतीकात्मक रूप 
इस शैली में कवि प्रकृति की कुछ विशेष वस्तुओं को प्रतीक रूप में ग्रहण करता है। जायसी ने भी इस शैली को अपनाया है और इससे कथा भाग भी स्पष्ट हो गया है तथा उन प्रतीकों के माध्यम से अपने आशय को भी स्पष्ट कर दिया है। 'पद् मावत' में सूरज, चाँद, कँवल, भँवरा आदि प्रतीकों को आध्यात्मिक अर्थ की व्यंजना के लिए बार-बार प्रयोग किया हैं। 
यथा--
कँवल जो बिगसा मानसर बिनु जल गयउ सुखाई।। 
अबहु बेलि फिर पलुहैं जो पीउ सींचे आइ।।
5. मानवीकरण रूप 
कवि ने प्रकृति के मानवीकरण रूप की झाँकी भी अंकित की है। जायसी का मान सरोवर एक व्यक्ति की भाँति चेष्टा करता दिखाई देता है। भा निरमल तिन्ह पायन्ह परसे, कहकर पद्मावती के चरण-स्पर्श द्वारा पवित्र होते हुए दिखाया गया है तथा 'भा सीतल गै तपनि बुझाई' कहकर पद् मावती के शरीर की मधुर एवं शीतल गंध का स्पर्श करते ही उसकी उसकी सभी प्रकार की तपन शांत होने लगती है तथा वह शीतलता का अनुभव करने लगता है-- भी अंकित है। इस प्रकार मान सरोवर को मानवों की तरह चेष्टाएं करते हुए दिखाकर कवि ने प्रकृति के मानवीकरण रूप की चर्चा की है। 
6. वातावरण निर्माण 
जायसी ने प्रकृति को वातावरण निर्माण के लिए भी प्रयोग किया है। जिस समय राजा रत्नसेन साधना-पथ के सभी विनों को पार करके सिद्धि प्राप्ति के निकट जा पहुँचते हैं, उस समय उस वातावरण की सृष्टि करने के लिए कवि ने सातवें समुद्र 'मानसर' का वर्णन किया है, जिसमें पहुँचते ही सभी प्रसन्न एवं हर्ष से परिपूर्ण हो जाते है उनका यह उल्लास सरोवर में विद्यमान पुरइन की भाँति छा जाता है। अज्ञान की रात्रि व्यतीत हो जाती है और प्रभात होते ही ज्ञान का आलोक चारों ओर फैल जाता हैं-- 
देखि मानसर रूप सुहावा। हिय हुलाह पुरइन होई छावा।।
गा अंधियार रैनि-मसि छूटी। भा भिनसार किरनी रवि फूटी।।
7. संवेदनात्मक रूप 
जायसी ने प्रकृति को इस रूप में भी प्रयोग किया है। प्रकृति वियोगिनी नागमती के प्रति संवेदना भी प्रकट करती है। एक पक्षी वियोगिनी नागमती के प्रति संवेदना प्रकट करते हुए, नागमती से उसकी विरह-व्यथा के बारे में पूछता हैं--
तू फिर फिर दाहै सब पाँखी। केहि दुख रैन न लावसि आँखी।।
पक्षी वियोगिनी नागमती की व्यथा सुनकर उसके विरह-जन्य दुःख को दूर करने के लिए उसका संदेश सिंहलद्वीप तक ले जाने को तैयार हो जाता हैं। 
8. संदेशवाहक रूप 
जायसी ने प्रकृति को इस रूप में भी चित्रित किया है। एक पक्षी नागमती का संदेश लेकर सिंहलद्वीप जाता है, उसका संदेश पाकर राजा रत्नसेन चित्तौड़ लौटने पर विवश हो जाता हैं-- 
लेई सो संदेस विहंगम चला। उठी आगि सगरौं सिंघला।।
9. आलंकारिक रूप 
अलंकारों की गहरी भावात्मक व्यंजना हेतु प्रकृति का प्रयोग करते हुए कवि ने प्रकृति के अनेक सादृश्यों को अपनाया है। रूप-वर्णन हो या विरह-वर्णन जायसी ने सभी स्थलों पर एक-से-एक सुन्दर एवं मौलिक उपनामों की सृष्टि की हैं-- 
(अ) बरनौ माँग सीस उपराहीं। सेंदुर अबहि चढ़ा तेहि नाहीं।।
बिनु सेंदुर जानहु दिया। उजियर पंथ रैन महंकिया।। 
(ब) कित कर मुँह नैन भये, जीनु हरा जेहि बाट। 
सूखा नीर बिछोह जिमी दराकि गएउ हिए फाट।। 
इस प्रकार के अनेक चमत्कारपूर्ण कल्पना प्रसूत वर्णन जायसी में मिलेंगे।  दरअसल उपमान रूप जायसी के पद्मावत में प्रकृति-वर्णन बहुत अधिक मात्रा में मिल जाता है। यह भी माना जाता है कि कदाचित सारे हिन्दी-काव्य में प्रकृति की इतनी खोज किसी कवि ने की हो। जब वे समासोक्ति का सहारा लेते हैं तो छोटे-छोटे इंगित में आध्यात्म संबंधी बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं-- 
जेइ वह पाई छाँह अनूपा। फिरि निहिं आइ सहै वह धूपा।।
अस अमराउ सघन घन, बरनि न पादौ अंत।।
फूलै फलै छहौ ऋतु, जानहु सदा बसंत।।

उपसंहार 

यद्यपि जायसी ने प्रकृति के चित्रण की सभी शैलियों को अपनाया है, पर वे प्रकृति का भव्य-रूप उपस्थित नहीं कर सके। वे अपने आध्यात्मिक दृष्टिकोण के प्रतीकों में खोये रहे या मनुष्य के सुख-दुःख के रंगों में ही उसको देखा। प्रकृति का स्वतंत्र मनोमुग्धकारी स्वरूप उनकी आंखों से ओझल रहा। किन्तु यह सब होते हुए भी, उनकी काव्यानुभूति पर कोई आंच नहीं आती है। प्रकृति के माध्यम से अपने प्रियतम की जो छवि प्रस्तुत की है, वह अद्वितीय है। उसके साथ-साथ रागात्मक वृत्ति के सुख-दुःख की जो वैविध्यपूर्ण अभिव्यंजना वे कर पाये हैं, उससे उनके सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण एवं सह्रदयता का पता लगता है। प्रेम और प्रकृति को एक रंग में रंग कर जायसी ने अपने काव्य में अद्भूत आकर्षण उत्पन्न कर दिया हैं। 
-डॉक्टर देवीशरण रस्तोगी 
डाॅ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार सबसे अधिक कवि का ध्यान षट्-ऋतु वर्णन एवं बारहमासों के वर्णन की ओर गया है। वे ऋतु-वर्णन मनुष्य की रागात्मिका वृत्ति के आलंबन रूप में अंकित होने के कारण अत्यंत सरस एवं प्रभावोत्पादक हैं। इनमें कवि की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति के साथ-साथ परिवर्तनों की जानकारी भी विद्यमान हैं। इसलिए कवि ने ग्रीष्म काल में सूखे हुए तालाबों की दरारों को वर्षा का पहला जल कैसे मिलाकर एक कर देता है। इसका बड़ा ही प्रभावशाली वर्णन किया हैं-- 
सरवर-हिया घटत निति जाई। टूक-टूक होइ कै बिहराई।
विहतर हिया करहु पिउ टेका। दीठि दवँगरा मेखहु एका।
कवि ने प्रकृति में ऐसी विराट सत्ता के दर्शन किए हैं। जिसके उदर में संपूर्ण विश्व समाया हुआ हैं तथा जो अनंत सौंदर्य के साथ प्रकृति के कण-कण में विद्यमान हैं।

यह जानकार आपके लिए महत्वपूर्ण सिद्ध होगी

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