4/26/2022

कौटिल्य के कानून/न्याय संबंधी विचार

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कौटिल्य के कानून तथा न्याय संबंधी विचार 

कौटिल्य ने राज्य की व्यवस्था को सही से चलाने के लिये अधिकरण 3 में कानून के महत्व का प्रतिपादन किया हैं। उसका मत है कि कानून-व्यवस्था के अनुसार राज्य के सभी व्यक्ति एक समान हैं। उसने राज्य-प्रशासन के संचालन के लिये 20 प्रकार के कानूनों का वर्णन किया हैं तथा उनकी व्याख्या भी की है जिसके अनुसार प्रजा के विभिन्न क्षेत्रों का साहस, सम्पत्ति, दास, श्रमिक आदि से जुड़े मामलों, स्वामित्व, मार-पीट और झगड़े तथा जुआ जैसे मुद्दों से संबंधित मामलों को नियंत्रित करने वाले कानूनों का वर्णन किया हैं। (अधिकरण-3, अर्थशास्त्र, पृ. 255-399.) 

कौटिल्य राज्य व्यवस्था के लिये न्याय तथा न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े प्रश्नों की भी सविस्तार विवेचना करता है। उसके अनुसार स्वधर्म का पालन करना मनुष्य का धर्म हैं, ऐसे कर्तव्यों का पालन न्याय व्यवस्था द्वारा कराया जाता हैं। अतः स्वधर्म की मान्यता है कि न्याय वास्तव में राज्य का जीवनाधार है तथा न्याय के अभाव में राज्य तथा समाज का ढाँचा ही नष्ट हो जाता है। न्याय की ही यह व्यवस्था है जिससे प्रजा तथा प्रजा और राज्य के संबंधों का निर्धारण होता हैं।

राजा कानूनों का निर्माण कर के उनके माध्यम से राज्य में न्याय की तथा न्याय को लागू करने वाले अधिकारियों एवं न्यायालयों को स्थापित करने वाला राज्य का सर्वोच्च अधिकारी होता है। कौटिल्य न्यायाधीशों को 'धर्मस्थ' कहता हैं। 

न्यायालयों की स्थापना के पीछे कौटिल्य की योजना है कि यह किसी एक केंद्रीय स्थान पर स्थापित न किया जाय अपितु इसकी शाखाओं की स्थापना विकेन्द्रित होना चाहिए। इस आधार पर, उसका मत है कि जहाँ दो जनपदों का सिंध-स्थल हो वहाँ "जनपद संधि" न्यायालय स्थापित हो, दस गाँवों को मिला कर उनके लिये 'संग्रहण' न्यायालय, चार सौ गाँवों के लिये 'द्रोणमुख' न्यायालय तथा आठ सौ गाँवों के लिये 'स्थानीय' न्यायालय स्थापित किये जाऐ। प्रत्येक न्यायालय में तीन-तीन 'धर्मस्थों' को नियुक्त किया जाय। न्याय सभी प्रजा को सुलभ हो सके, इस दृष्टि से कौटिल्य की न्यायालयों की स्थापना करने की यह योजना हैं। प्रकरण 56-57 के अध्याय एक में कौटिल्य ने इन विचारों की चर्चा की हैं। 

कौटिल्य दो प्रकार के प्रकार के न्यायालयों का वर्णन करता हैं, धर्मस्थीय तथा कण्टक-शोधन न्यायालय। धर्मस्थीय न्यायालय प्रजा के बीच में विवादों का निर्णय करता हैं। धर्म-विवाह, स्त्री-धन, उत्तराधिकार, शर्तनामों का लेखन, पुनर्विवाह, विवाह संबंध, क्रय-विक्रय, खेतों की सीमाएँ, दान दिये धन को न देना, ऋण लेना आदि इसी कोटि के विवाद है। ऐसे विवादों को अर्थशास्त्र 'व्यवहार' करता हैं। आधुनिक काल में ऐसे विवादों को 'सिविल' विवाद कहा जाता हैं। 

'कण्टक-शोधन' न्यायालय की विषय-वस्तु राजा, राज्य तथा का अपरानी 'शत्रु' हैं। कौटिल्य के अनुसार राज्य के शत्रुओं और अपराधियों तथा राज्य के विरूद्ध किये जाने वाले अपराधों को निपटाने का कार्य कण्टक-शोधन न्यायालय द्वारा किया जाता है। (अर्थशास्त्र, कण्टक-शोधन, चौथा अधिकरण पृ. 345-395)

संक्षेप में, अपराधों का दुसरा विषय-क्षेत्र 'कण्टक-शोधन' हैं जिसमें फौजदारी विवादों का निर्णय किया जाता हैं। शिल्पियों से प्रजा की रक्षा, व्यापारियों से प्रजा की रक्षा, गुप्त षड्यंत्रकारियों, दुष्टों, चोरो, राज्य के भ्रष्ट अधिकारियों, धरोहर में बेईमानी, दण्डपारूष्य (किसी को पीटना,चोट पहुँचाना आदि) वाक्पारूष्य (गाली-गलौज, निन्दा, धमकाना आदि) और द्दूत-क्रीड़ा जैसे अपराधों का शोधन कण्टक-शोधन हैं। इन कण्टकों का निपटारा कण्टक-शोधन के माध्‍यम से किया जाता हैं। 

इसके अतिरिक्‍त, कौटिल्य न्यायिक-प्रक्रिया संबंधी विचारों को भी स्पष्ट करता हैं। किसी विवाद में वादी, प्रतिवादी और साक्ष्य, सुनवाई, साक्ष्य का चरित्र, अभियुक्त को डराया-धमकाया जाना, घूस देना आदि जैसे न्यायिक प्रक्रिया से संबंधित विषयों पर सटीक विचार प्रस्तुत किये गये हैं। न्यायालय की कार्य-पद्धति कैसी होगी, उस प्रक्रिया का वर्णन भी अर्थशास्त्र में पाया जाता हैं। उदाहरणार्थ, धर्मस्थ वादी-प्रतिवादी के बयान लेता है, उनके नाम, जाति, ग्राम, धँधा, (यदि ऋण लिया गया हैं) ऋण की मात्रा संबंधी वाद-प्रतिवादी के प्रश्न-उत्तर आदि लिपिबद्ध करता हैं। इसके उपरांत धर्मस्थ अपना निर्णय देता हैं।

इस समूची न्यायिक-पद्धति का आशय यह है कि जिस व्यक्ति के साथ अन्याय किया गया हैं, उसे न्याय मिले तथा समाज में जितने दुष्ट अपराधी अथवा कर्मचारी हैं; ऐसे समाज कंटकों को न्यायिक तरीके से दण्डित किया जाये जिससे कि राज्य में शांति एवं व्यवस्था बनी रही, कर्तव्यों का पालना होता रहे तथा व्यक्तियों के जो अधिकार हैं, उनकी रक्षा हो।

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