प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन का स्वरूप एवं विशेषताएं
prachin bhartiya rajnitik chintan ka savrup visheshtaen;राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में भारतीय चिंतन की एक गौरवशाली परम्परा रही। अपने चिंतन एवं दार्शनिक विचारों के आधार पर ही भारत को विश्व गुरू कहा जाता था।
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन का स्वरूप उसकी विशेषताओं से स्पष्ट झलकता हैं। प्राचीन भारत में जो सामाजिक चिंतन किया गया था उसकी कुछ अपनी अलग विशेषताएं हैं जो कि उसे पाश्चात्य देशों के राजनीतिक चिन्तन से अलग बनाती हैं। ये विशेषताएं उस समय के भारत की सामाजिक परिस्थितियों, आर्थिक प्रगतियों, राजनीतिक उथल-पुथल एवं बौद्धिक विकास के स्तर से प्रभावित थीं।
हिन्दु राजनीतिक विचारों तथा संस्थाओं का विकास अति प्राचीनकाल से ही विविध सामाजिक और धार्मिक परिस्थतियों से प्रभावित रहा हैं। युगों के मूल्यों के अनुसार ही राजनीतिक व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन होते रहे हैं।
पाश्चात्य राजनीतिक विद्वान यह मानते है कि राजनीति-दर्शन का आरंभ यूनान में हुआ था। उनका कहना था कि प्राचीन भारत, राजनीतिक विचारों से अनभिज्ञ था। परन्तु उनके ये विचार उनके अज्ञान पर आधारित हैं। जबकि सत्य तो यह है कि पश्चिमी सभ्यता के जन्म से भी शताब्दियों पहले भारत में उच्चकोटि की राजनीतिक संस्थाएँ विद्यमान हुआ करती थी । साथ ही अत्यंत प्राचीनकाल में ही भारत में राजनीतिक विचारों का विकास हो चुका था।
डाॅ. ओम नागपाल के अनुसार," प्लेटो और अरस्तू से शताब्दियों पहले ही भारत में राजनीतिशास्त्र पर पर्याप्त लिखा जा चुका था। अरस्तु के समकालीन कौटिल्य के, जिसे व्यावहारिक राजनीति का पिता कहा जा सकता हैं, विचार इस बात के साक्षी हैं कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारत कभी भी किसी से पीछे नहीं था।"
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. आध्यात्मिक की ओर झुकाव
भारत को एक आध्यात्मिक देश कहा जाता हैं चूँकि भारत का झुकाव प्रारंभ से ही आध्यात्मिकता की ओर रहा हैं। यहाँ के लोगों ने आत्मा तथा परमात्मा जैसे आदि भौतिक तत्वों पर जिस गहराई के साथ विचार किया हैं उसका उदाहरण विश्व के किस भी देश में प्राप्त नहीं होता। यही कारण है कि भारत को संसार का आध्यात्मिक गुरू कहा जाता हैं। यहाँ जीवन के प्रत्येक पहलू पर जो विचार किया गया, उसमें दृष्टिकोण हमेशा ही आध्यात्मिक रहा हैं।
लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि भारतीय विचारकों ने जीवन की वास्तविकताओं के संबंध में कोई विचार नही किया अथवा उसे तिरस्कार की दृष्टि से देखा। वास्तविक जीवन के प्रति उनमें पर्याप्त आकर्षण था, तथापि उनका मूल्य उद्देश्य आत्मा का विकास था। इस उद्देश्य की पूर्ति को ही उन्होंने अपनी समस्त संस्थाओं को, यहाँ तक कि जीवन को भी इसका आधार बनाया।
2. राजा सर्वोपरि नहीं
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में राजा के संबंध में विस्तार से विचार किया गया हैं। प्राचीन भारतीय राजशास्त्र में राजा के पद को अत्यधिक ऊँचा स्थान प्रदान किया गया हैं। प्रायः सभी लेखकों ने राजपद को दैवी-माना और राजा में दैवी गुणों का समावेश किया।
लेकिन राजा सर्वोपरि नहीं हुआ करता था। सभी विचारकों और स्मृतियों ने राजा की उत्पति, शक्तियाँ, दायित्व और उसकी स्थिति के संबंध में विचार किया हैं। प्रजा को राज्याज्ञा मानने के संबंध में भी विचार किया हैं। राज्याज्ञा का औचित्य और किस सीमा तक प्रजा को राज्याज्ञा माननी चाहिए तथा कब राज्याज्ञा को स्वीकार करने से मना करना चाहिए, इन सभी प्रश्नों पर भी विचार किया हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि राजा का स्थान बहुत महत्वपूर्ण होता था लेकिन राजा ही सर्वोपरि नही होता था। राजा को अत्यधिक ऊँचा स्थान देते हुए भी उसे निरंकुशता की स्थिति प्रदान नहीं की गयी थी। राजा पर प्रमुख रूप से धर्म का प्रतिबन्ध होता था और वह मंत्रिपरिषद् की सलाह लेने के लिए भी बाध्य था।
3. राजनीति एवं धर्म का समन्वय
भारतीय प्रशासन परम्परा में धर्म तथा राजनीति का पारस्परिक संबंध समय-समय पर बदलता रहा हैं। कभी धर्म राजनीति के अधीन, कभी राजनीति धर्म के अधीन रही हैं। वेद, ब्राह्मण, उपनिषद, स्मृतियाँ, महाभारत, रामायण, पुराण तथा अन्य साहित्यिक ग्रंथों का धार्मिक एवं राजनीतिक दृष्टियों से महत्व निःसंदेह हैं। राज्य को धर्म का प्रतिष्ठापक तथा मापदंड माना गया हैं। राजा के प्रति प्रजा की स्वामी भक्ति का आधार मुख्य रूप से धार्मिक था और क्योंकि धर्म की व्याख्या करने वाला पुरोहित होता था अतः उसकी शक्तियाँ अपरिमित थीं।
4. सामाजिक व्यवस्था का प्रभाव
प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था राजनीतिक व्यवस्था का आधार होती हैं। प्राचीन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था भी इससे अछूत नही थीं। प्राचीन भारत में जो सामाजिक व्यवस्था रही और उसमें समय-समय पर जो परिवर्तन आए उसके अनुरूप ही वहाँ राजनीतिक व्यवस्था भी अपना स्वरूप बदलती रही।
संपूर्ण समाज का विभाजन वर्ण व्यवस्था के अनुसार चार वर्णों में हो जाने के कारण राज्य का प्रमुख इस व्यवस्था की रक्षा करना था और प्रत्येक व्यक्ति को उससे संबंधित वर्ग में बनाए रखना था। समाज में जब नये-नये धर्म के उदय से अथवा विदेशी आक्रमणकारियों के आगमन से जब वर्ग भेद बढ़ गया तो राज्य शक्ति पर क्षत्रियों का एकाधिकार समाप्त हुआ और राज्य का मुख्य कार्य इन वर्गों के बीच समन्वय स्थापित करना बन गया।
5. राज्य एक आवश्यक एवं उपयोगी संस्था
प्राचीन राजनीतिक विचारक इस बात का समर्थन करते थे कि राज्य का होना सामाजिक जीवन के लिए बहुत ही जरूरी और उपयोगी हैं। जीवन के तीनों लक्ष्यों-- धर्म, अर्थ और काम की राज्य के बिना प्राप्ति नहीं हो सकती, ऐसा सभी प्राचीन राजनीतिक विचारों का मानना था।
इस प्रकार से प्राचीन भारत में व्यक्तिवादी और अराजकतावादी विचारकों का पूर्ण अभाव हुआ करता था। अराजकतावादियों को मानना है राज्य अनावश्यक और अनुपयोगी संस्था है और व्यक्तिवादी राज्य को आवश्यक बुराई मानते हैं। इनके विपरीत प्राचीन भारतीय राजनीतिशास्त्री का विस्तृत कार्यक्षेत्र मानते थे। उनके अनुसार राज्य एक आवश्यक और उपयोगी संस्था है, जो आज के लोकल्याणकारी राज्य से बहुत साम्य रखता हैं।
6. राजा के कर्त्तव्यों का विशद् वर्णन
वैदिक काल से ही राजा को महत्व तो दिया गया पर उसे देवत्व प्रदान नहीं किया हैं। वह निरंकुश और स्वेच्छाचारी नहीं हो सकता। हिन्दू राजनीतिक गंथ्रों में राजपद की योग्यता, महत्व तथा कार्यों का विशद् वर्णन हैं। राजा को अपने दायित्वों का निर्वाह किस प्रकार से करना चाहिए और प्रजापालन के लिए कौन से साधनों का प्रयोग करना चाहिए आदि बातों का विस्तार के साथ उल्लेख किया गया हैं। इन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से बताया गया हैं कि एक राजा का धर्म क्या हैं? उसे राजधर्म का अनुशीलन किस प्रकार से करना चाहिए? राजा को दुष्टों का दमन करने के लिए क्या चाहिए? पड़ोसी राज्यों से उसे किस तरह के संबंध विकसित करने चाहिए तथा दण्ड नीति का कब और किस प्रकार करना चाहिए, कूटनीतिक व्यवहार में अपनाने योग्य सावधानियाँ कौन-सी हैं, आदि।
7. दण्ड-नीति का महत्व
भारतीय दार्शनिक मानवीय जीवन में आसुरी प्रवृत्तियों की प्रबलता को स्वीकार करते हैं और इसी कारण उनके द्वारा दण्ड की शक्ति को बहुत अधिक महत्व दिया गया हैं। प्राचीन भारतीय राजनीति में दण्ड के महत्व का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसका नामकरण अनेक लेखकों ने दण्डनीति के रूप में किया हैं।
महाभारत व मनु के अनुसार," दण्ड ही शासक हैं।" दण्ड को धर्म कहा हैं क्योंकि यह हर व्यक्ति को उसकी मर्यादा में बनाये रखता हैं, दण्ड राज्य का आधार हैं।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र दण्डनीति को सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हुए अन्य सभी विधाओं को उसी के अंतर्गत मानता हैं। प्राचीन राजनीतिक दृष्टिकोण ने दण्ड-नीति को त्रिवर्ग विधा (धर्म, अर्थ एवं काम) की संज्ञा दी हैं।
दण्ड व्यवस्था को सुचारू रूप से लागू न करने के दुष्परिणामों का वर्णन भी विषद् रूप से भारतीय ग्रंथों में किया गया हैं।
कौटिल्य के मतानुसार," दण्ड-नीति का न्यायोचित रूप में प्रयोग किया जाना आवश्यक हैं। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो राज्य में अव्यवस्था तथा अराजकता फैल जाएगी।"
8. धर्म सर्वोपरि
भारतीय चिंतन की एक विशेषता यह है कि प्राचीन भारतीय में धर्म को सर्वोपरि माना गया हैं। भारतीय चिंतन ने न तो राजा को ईश्वर का अवतार माना और न उसे स्वेच्छाचारी और निरंकुश माना और न उसे कानून का स्त्रोत माना और न उसे कानून का एकमेव व्याख्याकार माना। भारतीय चिंतन में धर्म को सर्वोपरि माना गया हैं। राजा को धर्मानुसार आचरण करना अनिवार्य है। यदि राजा धर्मानुसार आचरण नहीं करता, तो प्रजा को उसके विरोध में विद्रोह करने का पूरा अधिकार हैं।
9. लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन का सर्वाधिक उज्जवल पक्ष यह है कि इसमें राज्य को एक लोक-कल्याणकारी संस्था माना गया हैं। राज्य को लोक-कल्याण के अनेक कार्य सौंप गए हैं। जैसे-- तालाबों और कुओं का निर्माण, मार्गों व सड़कों का निर्माण। यात्रियों की सुविधा हेतु धर्मशालाएँ बनाई जाती थी। राजा सांस्कृतिक समारोहों में भाग लेता था। अकाल, बाढ़ आदि से पीड़ित व्यक्तियों को सहायता देने का प्रावधान भी था। इस प्रकार प्राचीन भारत में राज्य का कार्यक्षेत्र संकुचित न होकर, पर्याप्त विस्तृत था और इसमें जनता की भलाई के कार्यों की सूची बहुत लम्बी थी।
10. राजनीतिक सिद्धांत धर्म के अभिन्न अंग
यह भारतीय राजनीति की सबसे प्रमुख विशेषता तथा विश्व को प्रमुख देन है कि हिन्दू राजशास्त्रवेत्ताओं ने राजनीति और धर्म को एक-दूसरे से अलग नही किया। प्राचीन भारत में राजनीतिक सिद्धांतों का विकास धर्म के अंग के रूप में हुआ। राजा और शासक का प्रमुख कर्तव्य धर्म का पालन करना समझा गया और शत्रु से भी धर्मयुद्ध करने का निर्देश दिया गया। इसी कारण प्राचीन भारत की राजनीति मे नैतिकता का समावेश रहा और राजशास्त्र को नीतिशास्त्र कहकर पुकारा गया। धर्म का रक्षण राज्य का प्रमुख दायित्व था। धर्म और राजनीतिक विचार एक-दूसरे से गुँथे हुए हैं।
11. विचारों की अपेक्षा संस्थाओं को अधिक महत्व
प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अध्ययन का केन्द्रबिन्दु राजनीतिक संस्थाएँ हैं। इन संस्थाओं का महत्व, संगठन तथा कार्य आदि का विशद् रूप से वर्णन किया गया हैं। इनमें राजनीतिक मान्यताओं तथा सिद्धांतों का केवल प्रासंगिक रूप में किया गया हैं। समस्त अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु मूल रूप से राजनीतिक संगठनों तथा उनके कार्यों को बनाया गया हैं।
12. राजशक्ति पर अंकुश का कारगर तरिका
राजशक्ति पर अंकुश लगाने के संबंध में कारगर तरीका क्या हो सकता हैं? यह प्रश्न उस समय अधिक महत्व का हो जाता हैं जब राजा आततायी और निरंकुश प्रवृत्ति का हो। साधारणतः ऐसी स्थिति में धर्मपालन के ऊपर जोर देने के अतिरिक्त अन्य कोई व्यवस्था, जिसे वैधानिक बाध्यता की शक्ति प्राप्त हो प्राचीन समय में नही मिलती हैं, परन्तु प्राचीन काल धर्मभीरू और लौकिक तथा पारलौकिक विचारों से प्रभावित काल था। अच्छे कर्मों का अगले जन्म में अच्छा फल मिलेगा, बुरे कर्मों का बुरा फल मिलेगा, यह विश्वास भारतीय जीवन में बहुत अधिक गहरा था। स्वर्ग-नरक का भय राजा सहित सभक व्यक्तियों के जीवन, सांसारिक जीवन के व्यवहारों को नियंत्रित करता था। निरंकुश और आततायी शासक के कार्यों को मर्यादित करने के लिए और धर्मानुसार आचरण करने हेतु उसे प्रवृत्त करने के लिए इस भय की बहुत बड़ी भूमिका थी।
13. प्रजा को विद्रोह का अधिकार
हिन्दु धर्मग्रन्थों में प्रजा को अधिकार दिया गया हैं कि वह आततायी राजा से छुटकारा पाने के लिए राजा को यह चेतावनी दे कि वह अपना व्यवहार बदले और यदि वह अपना व्यवहार नहीं बदलता तो उसे राज्य से बाहर चले जाने की चेतावनी भी दे। सहज विचार तो यह है कि ऐसा करने से राजा संभल जाएगा और उसके आचरण में सकारात्मक बदलाव आएगा, पर यदि चेतावनी के बाद भी राजा का आचरण नहीं बदलता है तो शुक्र नीति में कहा गया है कि यदि राजा इतने पर भी न सुधरे, तो उसे गद्दी से उतार देना चाहिए और राजपरिवार के किसी योग्य व्यक्ति को राजा की गद्दी पर बिठा देना चाहिए। महाभारत तो कोई मार्ग न निकलने पर राजा के वध की भी अनुमति देता हैं।
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन का मूल्यांकन
prachin bhartiya rajnitik chintan ka mulyankan;प्राचीन भारतीय राजशास्त्र एवं चिंतन की कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने आलोचना की है जिसका उद्देश्य उसके स्वतंत्र अस्तित्व का खंडन करना है। ये आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की गई हैं--
1. प्राचीन भारतीय राजशास्त्र, धर्मशास्त्र से पृथक नहीं है
आलोचना का सर्वप्रथम आधार यह है कि हिंदुओं ने राजनीति को धर्मशास्त्र व आध्यात्मवाद से स्वतंत्र नहीं किया। डनिंग के शब्दों में," भारतीय आर्यों ने अपनी राजनीति को धार्मिक और आध्यात्मवादी पर्यावरण से, जिसमें कि यह आज भी गड़ी हुई है, कभी भी स्वतंत्र नहीं किया।"
जर्मन विद्वान मैक्समूलर का कहना है कि," भारतीयों को राष्ट्रीयता की भावना का ज्ञान नहीं था।" धर्म का भारतीय मन पर इतना घनिष्ठ प्रभाव था कि वह राज्य संबंधी विचार की धारणा से वंचित रहा।
2. स्वेच्छाचारी शासन की स्थापना
प्राचीन भारत के राजदर्शन पर दूसरा यह आरोप लगाया गया कि यहां पर एकमात्र स्वेच्छाचारी शासन की स्थापना की गई थी। हेनरी मेन ने लिखा है कि," पूर्व के बड़े साम्राज्य मुख्यतः कर एकत्रित करने वाली संस्थाएं थीं राजा समय-समय पर अपनी प्रजा पर हिंसात्मक बल का प्रयोग करते थे।" इन आरोपों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि पाश्चात्य आलोचक ऐसा मानते हैं कि भारतीय मस्तिष्क की गतिविधि धार्मिक व दार्शनिक विचारों में समाप्त हो गई जिसके परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीयता की भावना का कोई विकास न हो सका और राज्य के बारे में कोई धारणा न बन सकी।
लेकिन प्रो . मैक्सी जैसे अनेक पाश्चात्य विद्वान उपरोक्त मत से सहमत नहीं हैं उन्होंने भारतीय योगदान की सराहना की है। मैक्सी लिखते हैं कि," हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का राजनीतिक इतिहास यूरोप के इतिहास से अधिक प्राचीन हैं और राजनीतिक विचारों से निष्फल नहीं है। अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता की अनेक शताब्दियों में भारतीय उप महाद्वीप ने प्रायः सभी प्रकार के छोटे और विशाल राज्यों के उदय एवं पतन को देखा। यहां ग्रामीण गणतंत्र से लेकर चंद्रगुप्त व अशोक के मौर्य साम्राज्य थे। ये साम्राज्य ब्रिटेन के वर्तमान भारतीय साम्राज्य से अधिक विस्तृत थे और अपने काल में विश्व के महान राज्य थे। यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि इतने दीर्घकाल में अपनाई गई परिवर्तनशील और विभिन्न प्रकार की राजनीतिक प्रक्रियाओं ने राजनीतिक विचारों को जन्म न दिया हो।"
गैटल ने भी माना है कि," हिंदू राज्य धर्मतंत्रात्मक नहीं थे। राज्य धार्मिक संगठन से स्वतंत्र था पुजारी प्रशासन कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते थे राजनीतिक दर्शन को ज्ञान की एक पृथक शाखा माना गया, उसका विस्तृत साहित्य है और उसके रचयिता राजशास्त्र को सबसे महत्वपूर्ण शास्त्र मानते हैं।" प्राचीन भारतीयों को राजनीति के अनेक सिद्धांतों का ज्ञान था। वेदों में वर्णित राजा, सभा व समिति जैसी लोकप्रिय संस्थाएं, राजा का पदच्युत किया जाना आदि बातों से वैदिककालीन राजनीतिक जागृति का स्पष्ट दिग्दर्शन होता है। प्राचीन भारत में विशालाक्ष, इंद्र, बृहस्पति, शुक्र, मनु, भारद्वाज, पराशर, कात्यायन आदि राजशास्त्र के अनेक प्रचंड विद्वान हुए हैं जिनका स्पष्ट उल्लेख महाभारत तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है। इसके अतिरिक्त धर्मसूत्रों, स्मृतियों आदि में भी राजनीति के तत्वों का विवेचन किया गया है तथा रामायण एवं महाभारत में भी अनेक राजनीतिक विचारों एवं संस्थाओं का वर्णन है जिनसे अनेक विकसित राजनीतिक सिद्धांतों का संकेत मिलता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजनीति का विवेचन लौकिक दृष्टि से और स्वतंत्र विज्ञान के रूप में किया है। पाश्चात्य लेखकों की यह धारणा भी निराधार है कि भारतीय विद्वान कानून की सकारात्मक धारणा से अपरिचित थे। शुक्र-नीति में उल्लेख है कि कतिपय कानूनों को केवल राजा द्वारा ही लागू किया जाना चाहिए जैसे नाप तोल व सिक्कों के बारे में किसी प्रकार के मिथ्या व्यवहार की आज्ञा नहीं होनी चाहिए, घूस लेना व देना, चोरों को रक्षा प्रदान नहीं करनी चाहिए। यह सत्य है कि संस्कृत साहित्य में राजनीतिक सिद्धांतों एवं व्यवहार पर अविरल सामग्री है। किन्तु उनमें से बहुतों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद न होने के कारण पाश्चात्य जगत उनसे अनभिज्ञ है। बी. के. सरकार ने स्पष्ट किया है कि," संस्कृत साहित्य की प्रत्येक शाखा में राजनीतिक सिद्धांतों एवं व्यवहार पर लेख हैं और राजनीति व लोक प्रशासन पर कई विख्यात विशिष्ट ग्रंथ भी हैं जो यूरोपीय देशों के साहित्य में प्राप्त ग्रंथों से सभी बातों में तुलना कर सकते हैं परंतु उनमें से अधिकतर का अंग्रेजी अनुवाद नहीं हुआ है और पाश्चात्य जगत उनसे अपरिचित है। बी. के. सरकार के अनुसार भारतीय राजनीतिक विचारधरा के कतिपय प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार हैं--
(अ) शासक का यह कर्तव्य है कि वह प्रजा का मत जाने। प्रजा का यह कर्तव्य है कि वह प्रशासन में सहयोग दें और कानूनों का पालन करें।
(ब) शासन के लिए ऐसे सभी कार्य करना उचित है जो सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार उपयोगी हो।
(स) शासकों को मंत्रियों तथा परामर्शदाताओं से मार्गदर्शन ग्रहण करना चाहिए तथा उन्हीं के द्वारा नियंत्रित होना चाहिए। राजत्व एक लौकिक संस्था है जिस पर मंत्रियों व जनता द्वारा संवैधानिक सीमाएं व प्रतिबंध लगे हैं। प्रजा को अत्याचारी शासन का विरोध करने तथा उसे उलट देने का अधिकार है। जहां तक संभव हो सके युद्ध मानवीय और वीरतापूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए।
(द) राज्य के द्वारा ही धर्म और अर्थ की प्राप्ति संभव है।
संक्षेप में प्राचीन भारत में राजतंत्र स्वेच्छाचारी न होकर सीमित था। राजाओं के निर्वाचन की भी प्रथा थी तथा वे मंत्रियों एवं परामर्शदाताओं की सहायता से शासन करते थे। वैदिक काल में सभा व समिति जैसी लोकप्रिय संस्थाएं विद्यमान थीं तथा उत्तर वैदिक काल में गणतंत्र राज्य भी पाये जाते थे।
प्राचीन भारतीय चिंतन की राजशास्त्र को देन
प्राचीन भारत में राज्य और शासन की अनेक संस्थाओं का विकास हुआ तथा साथ ही साथ राज्य और शासन के विषय में प्राचीन आचार्यों ने अनेक मूल्यावान सिद्धांत एवं विचार दिए। इनका संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है--
1. धर्म एवं राजनीति का समन्वय
प्राचीन हिंदू विचारकों की यह एक महत्वपूर्ण देन है। उनका उद्देश्य था कि नैतिकता विहीन राजनीति प्रजा के हितों के विरूद्ध है प्रजा के हित के लिए उन्होंने धर्म को सर्वोपरि सत्ता माना। प्रजा धर्मानुसार जीवन यापन करती थी। राजा भी धर्म के अधीन था। परंतु धर्म का अर्थ आज के Religion से भिन्न था जिससे संपूर्ण समाज का पूर्ण तथा सर्वांगीण विकास हो वहीं धर्म था। धर्म की रक्षा करना राजा का प्रमुख कर्तव्य माना गया तथा धर्म के विरूद्ध आचरण करने वाले को दंड देने की व्यवस्था की गई। यह शासन का नियमन आज के विधि के शासन के सदृश है। भारतीय विचारकों ने व्यक्ति और समाज की पूर्णता एवं अम्युदय के लिए वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था की।
2. राज्य तथा शासन संबंधी सिद्धांत
(क) राज्य की उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत
राज्य की उत्पत्ति के आधुनिक काल के चारों सिद्धांतों देवी सिद्धांत, शक्ति सिद्धांत समझौतावादी सिद्धांत तथा विकासवादी सिद्धांत का उल्लेख पाश्चात्य विद्वानों से बहुत पहले प्राचीन भारतीय विचारक प्रतिपादित कर चुके हैं। वेदों में इन चारों सिद्धांतों का वर्णन है।
(ख) राज्य के स्वरूप के संबंध में सिद्धांत
पाश्चात्य विद्वानों ने आधुनिक काल में राज्य के 4 अनिवार्य तत्वों का प्रतिपादन किया है। जबकि प्राचीन भारतीय विद्वानों ने राज्य के 7 अंग स्वामी (राजा), अमात्य (मंत्री), दुर्ग (राजधानी), कोष, दंड, बल और सुहृद (मित्र) माने हैं।
इसके अतिरिक्त प्राचीन भारत में मध्ययुगीन यूरोप की भांति कभी भी राज्य सत्ता तथा धर्मसत्ता के मध्य संघर्ष नहीं हुआ।
(ग) राज्य का ध्येय
राज्य का ध्येय धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति द्वारा मोक्ष की प्राप्ति में सहायक होना था। प्राचीन भारतीय राज्य का मुख्य उद्देश्य प्रजा की समृद्धि तथा सभी क्षेत्रों में इसके कल्याण के लिए आवश्यक और उपयोगी कार्य करना था। इस प्रकार प्राचीन भारतीय राज्य का मुख्य उद्देश्य मानव की सर्वागीण उन्नति था जिसे बहुत बाद में अरस्तु ने व्यक्त किया।
(घ) कल्याणकारी राज्य
प्राचीन हिंदू राज्य अपने कार्य क्षेत्र के विषय में किसी सीमा से बंधे हुए नहीं थे। इसके कार्य व्यापक रूप से पितातुल्य थे। महाभारत, स्मृतियों तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णित राज्य अपने आदर्श रूप में आज के कल्याणकारी राज्य से अधिक ही थे।
(ड़) शासन के विभिन्न रूप
प्राचीन भारत में राजतंत्र अधिक समय तक प्रचलित रहा परंतु अनेक गणतंत्रों का उदय एवं विकास भी हुआ। राजतंत्र भी प्रजातंत्रात्मक रूप में स्थापित था। प्रजातंत्रात्मक आदर्श हिंदू चिंतन की एक प्रमुख विशेषता रही है। राजतंत्र में सभा और समिति जैसी जनप्रिय संस्थाओं का अपना विशेष महत्व रहा है । शासन उनके परामर्श एवं सहयोग से ही संचालित होता था। यद्यपि हिंदू राजा सिद्धांततः निरंकुश माने जाते हैं तथापि व्यवहार में वे प्रजा की इच्छाओं का आदर करते थे। राजा प्रजा में पिता और पुत्र जैसा संबंध था। आज भी हम रामराज्य की स्थापना की कल्पना करते हैं।
3. प्रशासन के क्षेत्र में योगदान
प्रशासन के क्षेत्र में प्राचीन भारतीय राज्य अत्यंत विकसित थे। न्याय प्रशासन और न्यायिक प्रक्रिया अत्यंत विकसित थी तथा न्याय संबंधी उच्च सिद्धांतों पर आधारित थी। आय-व्यय की व्यवस्था, कर प्रणाली लोक सेवाओं प्रशासन कार्य का विभिन्न विभागों में विभाजन, सचिवालय आदि का समुचित विकास हो चुका था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तार में उल्लेख किया गया है जबकि इस प्रकार का प्रशासन के क्षेत्र में विकास पश्चिम के देशों में कई शताब्दी बाद हुआ।
4. स्थानीय स्वशासन
प्रारंभ से ही भारत में भिन्न-भिन्न प्रकार की स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं का अस्तित्व विद्यमान रहा है। जैसे ग्राम सभा, नगर परिषद, राजधानी परिषद, कुल श्रेणी आदि। इनके द्वारा जनता स्वयं या प्रतिनिधियों के द्वारा प्रशासन में भाग लेती थी।
5. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में
प्राचीन भारतीय विद्वानों ने राज्यों के पारस्परिक संबंधों के विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। प्राचीन षड्गुण्य सिद्धांत मंडल सिद्धांत, दूत एवं चर व्यवस्था एवं सन्धि के सिद्धांत आदि महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं जो आज भी अपनाये जाते हैं। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत में राजनीति के अनेक सिद्धांतों का ज्ञान था तथा राजशास्त्र को वैज्ञानिक आधार पर विकसित किया गया था। इतना हीं नहीं कुछ विद्वानों का मत है कि भारतीय चिंतन ने पश्चिमी चिंतन को प्रभावित किया है।
लंदन विश्वविद्यालय के प्रो. डरविक ने अपनी पुस्तक (Message of Plato) में लिखा है कि जो व्यक्ति प्लेटो की रिपब्लिक को समझना चाहे उसे हिंदू विचारधारा पहले जाननी चाहिए। उनका कहना है कि जैसे मनु ने मनुष्य की सात्विक, राजसिक तथा तामसिक मनोवृत्तियों के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के रूप में वर्ण व्यवस्था का प्रतिपादन किया ठीक वैसे ही प्लेटो ने मनुष्य के तीन मानसिक तत्वों के आधार पर समाज को तीन श्रेणियों में बांटा। प्लेटो की सामाजिक व्यवस्था की श्रेणी में निम्नतम स्थान किसानों तथा व्यापारियों का है जो मनु के वैश्यों के समान है। सामाजिक श्रेणी व्यवस्था में इसके ऊपर की श्रेणी प्लेटो के शब्दों में सेना की सिपाहियों की है जो मनु के क्षत्रियों के समान है। सबसे उच्च श्रेणी को प्लेटो ने संरक्षक (Guardian) कहा है जिसे मनु ने ब्राह्मण का नाम दिया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ग्रीक चिंतन पर भी प्राचीन भारतीय चिंतन का बड़ा भारी प्रभाव है रोम के राजनीतिक चिंतन पर भी भारतीय चिंतन का प्रभाव देखने को मिलता है।
यह भी पढ़े; भारतीय एवं पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन में समानताएं और अंतर
Swami Vivekanand ke bare mein bataen
जवाब देंहटाएं