12/05/2021

कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत

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कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राज्य में राज्य की प्रकृति का वर्णन किया हैं। उसने राज्य के सात अंग बताए। ये अंग हैं-- स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दंड और मित्र। 

राज्य के सात अंगों को ही 'सप्तांग' कहते हैं। 

अरस्तू को इसलिए प्रथम 'राजनीतिक वैज्ञानिक' कहा जाता है कि चूँकि उसने 'राजनीति' को अलग विज्ञान के रूप में प्रतिपादित किया और राज्य के स्वरूप का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। 

कौटिल्य ने सप्तांग सिद्धांत में राज्य की प्रकृति का बहुत सुन्दर चित्रण किया हैं। 

कौटिल्य के अनुसार राज्य की सात 'प्रकृति' हैं अथवा सात 'अंग' होते हैं। ये अंग निम्नलिखित हैं--

1. स्वामी 

कौटिल्य ने राजा या स्वामी को राज्य का शीर्षस्थ अंग माना है। कौटिल्य के अनुसार राजकीय शक्ति का उपयोग राजा द्वारा ही किया जाता है। अतः राजा ही राज्य के दायित्वों की पूर्ति के लिये अन्तिम रूप से उत्तरदायी है। 

कौटिल्य ने जटिल दायित्वों की पूर्ति करने में समर्थ हो पाने के लिए राजा की समुचित शिक्षा और प्रशिक्षण पर बल दिया है, तथा यह अपेक्षा की है कि राजा उज्च चरित्र वाला और सगुण सम्पन्न हो।  

2. अमात्य 

कौटिल्य ने अमात्य या मंत्री को राज्य का अनिवार्य अंग माना है, और कहा है कि अमात्य राज्य रूपी रथ के दूसरे पहिये की तरह ही है। अमात्य को राज्य का आवश्यक अंग मानकर कौटिल्य ने मनु की भाँति ही यह स्पष्ट कर दिया है कि शासन की शक्ति प्रजा में निजी रूप से निहित नहीं है, अपितु राजा उस शाक्ति का सामूहिक रूप से उपयोग करने के लिए बाध्य है। 

कौटिल्य ने राजा को स्पष्ट निर्देश दिया है कि," वह महत्त्वपूर्ण राजकीय निर्णय अनिवार्य रूप से अमात्यों के परामर्श से ही करे।" 

राजकीय कार्यों में अमात्यों के महत्व को देखते हुए कौटिल्य ने उचित परीक्षण के बाद, अत्यंत सुयोग्य अमात्यों के परामर्श से ही करे। कौटिल्य ने अमात्यों की निश्चित संख्या का निर्धारण नहीं किया है तथा यह माना है कि राजकीय कार्यों हेतु राजा आवश्यकतानुसार संख्या में अमात्यों की नियुक्ति करे। 

3. जनपद 

कौटिल्य ने जनपद शब्द में राज्य की सीमाओं, और उनके अन्तर्गत निवास करने वाले लोगों को सम्मिलित किया है। कौटिल्य ने प्लेटों की भाँति राज्य की जनसंख्या अथवा भौगोलिक क्षेत्र की कोई सीमा निर्धारित नहीं की है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कई प्रसंगों में जनपद शब्द को राज्य के प्रशासन के लिए भौगोलिक आधार पर संगठित एक इकाई के रूप में भी प्रयुक्त किया है। इस अर्थ में जनपद को आधुनिक जिला के पर्यायवाची के रूप में समझा जा सकता है। 

कौटिल्य ने अपेक्षा की है कि जनपद की भौगोलिक परिस्थितियाँ होनी चाहिए। जिनके कारण उसकी रक्षा करना सुगम हो। कौटिल्य ने जनपद की भूमि को उपजाऊ होना आवश्यक माना हैं, ताकि थोडे परिश्रम से ही अन्न उत्पन्न किया जा सके। जनपद में सरोवरों, नदियों, पर्वतों और वनों के भी प्रचुर मात्रा में होने को कौटिल्य ने श्रेष्ठ माना है। उनकी मान्यता है कि जनपद का स्थल और जल मार्गों से जुड़ा होना उचित है।

4. दुर्ग

कौटिल्य ने दुर्ग को राज्य का एक आवश्यक अंग मानकर यह अपेक्षा की है कि राज्य अपनी सीमाओं कों सुरक्षित रखने के लिए उपयुक्त दुर्ग का निर्माण करे। उनके अनुसार राज्य की सीमाओं पर चारों ओर, तथा उपयुक्त स्थानों पर सीमाओं के मध्य दुर्ग बनाए जाने चाहिए। कौटिल्य ने चार प्रकार के दुर्गों का उलेख किया है। 

(अ) औदक दुर्ग 

ऐसा दुर्ग जिसके चारों ओर पानी भरा हुआ हो, 

(ब) पार्वत दुर्ग 

ऐसा दुर्ग जो बड़े-बड़े पत्थरों से बना हुआ हो, पर्वतों और कंदराओं में व्याप्त हो, 

(स) धान्वन दुर्ग 

ऐसा दुर्ग जो चारों ओर से दलदल और वृक्षो व झाड़ियों आदि से घिरा हुआ हो। 

(द) वन दुर्ग

ऐसा दुर्ग जो चारों ओर से दलदल और वृक्षों व झोपड़ियों आदि से घिरा हुआ हो। 

कौटिल्य ने राजा को प्राकृतिक दृष्टि से उपयुक्त स्थानों जैसे पहाड़ आदि पर दुर्ग बनाने का परामर्श दिया है जिनका युद्ध के लिए उपयोग किया जा सके। कौटिल्य का मत है कि औदक दुर्ग और पार्वत दुर्ग राज्य की रक्षा की दृष्टि से उपयोगी होते हैं। धान्वन दुर्ग और वन दुर्ग वनों में बनाए जाते हैं तथा राजा आपत्ति के समय उनमें छिपकर अपनी रक्षा कर सकता है। 

5. कोष 

कौटिल्य ने कोष को राजकीय कार्यों को सम्पन्न करने के लिए आवश्यक अंग माना है। कौटिल्य ने राजा से समुचित साधनों से अपने कोष में वृद्धि करने की अपेक्षा की है। कोष संग्रह के कार्य को कौटिल्य ने व्यवस्थित ढंग से पूरा किया जाने पर बल दिया है तथा इसके लिए उपयुक्त संख्या में विश्वासपात्र कर्मचारियों और अधिकारियों की नियुक्ति का सुझाव दिया है। 

कौटिल्य ने राजा को परामर्श दिया है कि वह कोष संग्रह के कार्य में लगे हुए कर्मचारियों और अधिकारियों पर पूरी तरह निगरानी और नियंत्रण रखे। कौटिल्य ने अपेक्षा की है कि कोषाध्यक्ष को कोष की स्थिति की पूर्ण जानकारी सदैव रखनी चाहिए ताकि राजा द्वारा सूचना माँगे जाने पर वह तत्काल सूचना दे सके। 

6. दण्ड 

दण्ड या सेना को राज्य का आवश्यक अंग मानते हुए कौटिल्य ने इसे प्रजा की आंतरिक और बाह्रम शत्रुओं से रक्षा के लिये आवश्यक माना है। कौटिल्य ने शौर्य आदि गुणों की परीक्षा के उपरांत सैनिकों की नियुक्ति का परामर्श दिया है तथा सैनिकों को युद्ध कार्य में कठोर प्रशिक्षण दिये जाने तथा सेना को अनुशासित रखे जाने पर बल दिया है कौटिल्य ने सेना में सामान्यत चारों वर्णों के सैनिकों को उचित माना है। फिर भी कौटिल्य सेना में भर्ती के लिये क्रमश : क्षत्रिय, वैश्य व शूद्रों को प्राथमिकता दिया जाना उचित मानते हैं। कौटिल्य ने यथासंभव ब्राह्मणों को सेना में भर्ती न किये जाने का परामर्श किया है, क्योंकि उन्हें आशंका है कि यदि ब्राह्मण सेना में नियुक्त किए तो शत्रु द्वारा नमस्कार या आदर सत्कार करने पर उन्हें क्षमा कर सकते हैं। 

7.  मित्र 

कौटिल्य ने मित्र को राज्य के आवश्यक अंग के रूप में मान्यता दी है। कौटिल्य का स्पष्ट मत है कि राज्य अपनी प्रजा के कल्याण के कार्यों में तभी लगा रह सकता है जब उसे बाहरी आक्रमणों की आशंका कम से कम हो। इसलिए कौटिल्य मित्र संग्रह को राज्य के लिए अत्यंत आवश्यक मानते हैं। क्योंकि अन्य राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध होने पर राज्य अपनी सीमाओं की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त रह सकता है। मित्र को राज्य का आवश्यक अंग मानकर कौटिल्य ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह राज्य के साम्राज्यवादी स्परूप के पक्ष में नहीं है।

कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत की आलोचना 

कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती हैं-- 

1. कौटिल्य ने राज्य के सावयव सिद्धांत का समर्थन किया हैं। राज्य को शरीर बताना अनुचित हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि सावयव सिद्धांत में सत्यांश है, यह पूर्णतः सत्य नहीं हैं, परन्तु इस आधार पर कौटिल्य की आलोचना करना उचित नहीं हैं। पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन में भी इस सिद्धांत का समर्थन प्राप्त होता हैं। 

2. आधुनिक युग में राज्य के चार आवश्यक तत्व जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा सम्प्रभुता आवश्यक माने जाते हैं। ऐसा कहा जाता है की कौटिल्य ने इनका वर्णन नहीं किया हैं। लेकिन कौटिल्य की यह आलोचना उचित नहीं हैं। जनपद में जनसंख्या तथा भू-भाग, अमात्य में सरकार तथा राजा में सम्प्रभुता का गुण निहित हैं। 

3. कौटिल्य ने दुर्ग, कोष, सेना और मित्र को राज्य का आवश्यक अंग माना हैं। राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से ये अंग आवश्यक हो सकते हैं परन्तु इनके अभाव में राज्य नष्ट नहीं हो जाता। कौटिल्य के समर्थन में कहा जा सकता हैं कि यद्यपि युद्ध के परिवर्तित स्वरूप ने दुर्ग की आवश्यकता को समाप्‍त कर दिया हैं तथापि कोष, सेना और मित्र की राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से अवहेलना नहीं की जा सकती। 

4. कौटिल्य ने केवल राजन्त्रात्मक शासन व्यवस्था का वर्णन किया हैं, प्रजातंत्र की उसमें उपेक्षा की गई हैं। प्रजातंत्र में सम्प्रभुता का निवास स्थान कहाँ होगा! 

5. भारत की राजतन्त्रीय व्यवस्था में पुरोहित का पद हमेशा महत्वपूर्ण रहा हैं। कौटिल्य ने अपने सप्तांग सिद्धांत में इसे कोई स्थान नहीं दिया हैं। इस सन्दर्भ में यह जान लेना उचित होगा कि उसने पुरोहित को राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान न देकर लौकिक और धर्मनिरपेक्ष राज्य की आधारशिला रखी।

यह भी पढ़े; कौटिल्य के कानून/न्याय संबंधी विचार

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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