12/03/2021

कौटिल्य के राजनीतिक/राज्य संबंधी विचार

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अथवा" कौटिल्य के राजनीतिक विचारों का वर्णन कीजिए।

अथवा" राजनीतिक चिंतन में कौटिल्य के योगदान का उल्लेख कीजिए।

अथवा" राजनीतिक विचारक के रूप मे कौटिल्य के महत्व का परीक्षण कीजिए। 

अथवा" एक राजनीतिक वैज्ञानिक के रूप मे कौटिल्य का मूल्यांकन कीजिए।

प्रश्न: कौटिल्य के राज्य संबंधी विचारों का वर्णन कीजिए।

अथवा" कौटिल्य के अनुसार राज्य के क्या कार्य हैं? 

अथवा" कौटिल्य के राज्य संबंधी विचारों का उल्लेख कीजिए। 

अथवा" कौटिल्य संसार का प्रथम यथार्थवादी राजनीतिक विचारक था।' विवेचन कीजिए। 

उत्तर--

कौटिल्य का पूरा नाम विष्णुगुप्त कौटिल्य था। अधिकांश भारतवासी उन्हें आचार्य चाणक्य के नाम से जानते हैं। कौटिल्य प्राचीन भारत के एक महान कूटनीतिज्ञ राजनितिशास्त्री थे। ये अरस्तू के समकालीन तथा प्रसिध्द मगध सम्राट चन्द्रगुप्त के राजनीतिक गुरू तथा महामंत्री थे। उन्होंने उनके शिष्य चन्द्रगुप्त को मगध का सम्राट बनाकर तत्कालीन भारत मे यवनों के आक्रमण की विदेशी दस्तक का मुँह-तोड़ जबाव देकर भारतीय राजनीति का लोहा मानने के लिये समकालीन विश्व राजनीतिज्ञों विशेषकर सिंकदर महान के उत्तराधिकारियों को विश्व कर दिया था। यह भी एक विचित्र संयोग हैं पाश्चात्य राजनीतिक दार्शनिक अरस्तु के शिष्य की पराजय कौटिल्य के शिष्य द्वारा हुई। अपने शिष्य चन्द्रगुप्त को एक बहुत बड़ा सम्राट बनाने का एकमात्र श्रेय कौटिल्य को ही जाता हैं। 

उन्होंने चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन के लिये ही अपने प्रसिद्ध ग्रंथ अर्थशास्त्र की रचना की थी। वे शस्त्र और शास्त्र दोनों के बहुत अच्छे ज्ञाता थे। वे सच्चे अर्थों में वह एक महान गुरू, देश प्रेमी, राजनीति विज्ञान के पंडित और महान कूटनीतिक दांव-पेचों के ज्ञाता थे।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के राजनीतिक विचार 

कौटिल्य प्राचीन भारत के श्रेष्ठ राजनीतिक विचारक ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के श्रेष्ठ राजनीतिक विचारकों मे से एक हैं। उनकी पुस्तक 'अर्थशास्त्र' विश्व के राजनीतिक साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में से एक हैं। यह पुस्तक राजनीतिक यथार्थ और शासन की कला पर लिखी गई एक महान पुस्तक हैं। 

डाॅ. भारती मुखर्खी के शब्दों में," शासन की कला पर कौटिल्य की 'अर्थशास्त्र' नाम से विख्यात पुस्तक को अर्थशास्त्रीय धारा के समस्त साहित्य का सार कहा जा सकता हैं।" 

अर्थशास्त्र एक विस्तृत पुस्तक हैं। इसमें मुख्य रूप से राज्य की प्रकृति, राज्य परिषद के कार्य तथा उसकी कार्यशैली, मंत्रिपरिषद् का संगठन और कार्य, गुप्चर व्यवस्था, अंतर्राज्य संबंध व इसके अंतर्गत मंडल व षड़गुण सिद्धांत का वर्णन किया गया हैं। न सिर्फ अर्थशास्त्र की विषय वस्तु बहुत व्यापक हैं, बल्कि कौटिल्य द्वारा विवेचन भी बहुत सूक्ष्म और पैना किया गया हैं। 

कौटिल्य का अर्थशास्त्र मूलरूप से राजनीति का गंथ्र हैं। इसकी विषय-वस्तु में जिन बातों को सहामाहित किया हैं वे सभी राजनीति से सम्बद्ध होने के कारण इसमें स्थान पा सकीं। अर्थशास्त्र के प्रमुख राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं--

राज्य की उत्पति  

कौटिल्य ने राज्य की उत्पति सिद्धान्त का संकेत दिया है। अर्थशास्त्र उपलब्ध वर्णन के अनुसार संसार में अराजकता विद्यमान रहने की स्थिति में भयंकर दुःख और निरन्तर असुरक्षा की भावना से पीड़ित होकर जन समुदाय ने मनु के समक्ष उपस्थित होकर उनसे राज पदको धारण करने तथा सम्प्रभु शक्ति के उपयोग के माध्यम से प्रजा के आवरण को नियंत्रित और नियमित करने की प्रार्थना की प्रजा ने मनु को आश्वासन दिया कि इसके प्रतिफल में जनता शासन के प्रति सदैव आज्ञाकारिता का भाव धारण करेगी, तथा निशिचत सिद्धान्तों के अनुसार अपनी आय और अर्जित सम्पदाओं में से निश्चित भाग 'कर' के रूप में राजा को प्रदान करेगी, ताकि उसे राजकीय दायित्वों का पूरा करने के लिए साधन उपलब्ध हो सकें। उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि कौटिल्य राज्य को एक प्राकृतिक संस्था, दैवीय उत्पत्ति का परिणाम नहीं मानते। 

राज्य की उत्पत्ति के विषय में कौटिल्य अपनी सुरक्षा द्वारा किये विवेचन में दो तथ्य अन्तर्निहित हैं-- 

1. राज्य मानवीय प्रयत्नों का परिणाम हैं, तथा मनुष्यों ने स्वयं राज्य की सत्ता को अपनी सुरक्षा और कल्याण के लिये स्वीकार किया है। 

2. लोगों द्वारा राज्य के बाध्यकारी नियंत्रण को, अपनी सुरक्षा और कल्याण के हित में स्वीकार करने के प्रस्ताव, तथा 'मनु' द्वारा प्रथम शासक के रूप में एक प्रस्ताव को स्पीकार कर लेने के परिणाम स्वरूप राज्य की उत्पत्ति हुई है। 

स्पष्ट है कि कौटिल्य ने आधुनिक अनुबंधवादी विचारकों (हॉब्स, लॉक व रूसो) की तरह ही राज्य को अनुबंध का परिणाम माना है। 

कौटिल्य ने राज्य से पूर्व की अवस्था का जो चित्रण किया है वह हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था से मिलता-जुलता है। कौटिल्य ने कहा कि उस अवस्था में मत्स्य न्याय प्रचलित था। इस स्थिति में औचित्य का नहीं, अपितु भौतिक शक्ति का बोलबाला था। ऐसी किसी संस्था के अभाव में जो दुर्बलों की रक्षा कर सके, दुर्बलों को बलवानों द्वारा पीड़ित किया जाता था। किन्तु राज्य की उत्पत्ति के विषय में हॉब्स और कौटिल्य के विवेचन में महत्वपर्ण अन्तर भी विद्यमान हैं। हॉब्स ने राज्य से पूर्व की अवस्था को प्राकृतिक अवस्था माना है। जिसमें न राज्य था, न समाज, और न ही उचित-अनुचित में भेद करने के लिये कोई मापदण्ड ही थे कौटिल्य ने राज्य से पूर्व की अवस्था को प्राकृतिक अपस्था नहीं, आजक अवस्था में समाज का भी अस्तिव था। कौटिल्य ने यह नहीं माना कि उस अवस्था में समाज का भी अस्तित्व नहीं था। कौटिल्य और हॉब्स के दृष्टिकोण के मध्य अन्तर का महत्व राज्य की प्रकृति के विवेचन में परिलक्षित होता है। 

हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था में समाज या औचित्य के मापदण्ड़ो का भी अस्तित्व न होने का परिणाम यह हुआ कि समाज की उत्पत्ति भी उसी समझौते के द्वारा हुई जिसके द्वारा हुई जिसके द्वारा राज्य उत्पन्न हुआ। इस प्रकार राज्य अपने अस्तित्व में आने से पूर्व ही विद्यमान किन्हीं मापदण्डों को लागू करने के लिए नहीं उत्पन्न हुआ, अपितु औचित्य के मापदण्ड पहली बार राज्य द्वारा ही निर्धारित किये गये। इस प्रकार हॉब्स के अनुसार राज्य की शाक्ति अनियंत्रित हैं, क्योंकि राज्य के बिना कोई मापदण्ड हो ही नहीं सकते थे। इसके विपरित कौटिल्य ने स्पष्टतः प्रतिपादित किया है कि राज्य धर्म के द्वारा प्रजा के व्यवहार को नियंत्रित करता है। इस प्रकार 'धर्म' राजकीय शक्ति के प्रजा पर प्रयोग की स्वाभाविक मर्यादा है। यह महत्त्वपूर्ण है कि कौटिल्य राजय को 'धर्म' का सृजनकर्ता नहीं, अपितु धर्म का संरक्षक मानते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि राज्य के एक संस्था के रूप में उत्पन्न होने से पहले भी, धर्म नैतिक मूल्यों औचित्य के मापदण्डों तथा मानवीय आचरण के उपयोगी सिद्धान्तों के रूप में अस्तिव में था। उस समय केवल यह था कि धर्म को लागू करने वाली कोई संस्था नहीं थी। इस स्थिति के कारण मत्स्य न्याय प्रचलित हो गया था, तथा धर्म-बल की अपेक्षा, भौतिक अवलम्ब प्रदान कर दिया कि उसे दुष्ट, आततायी व समाज कंटक चुनौती नहीं दे सकें।

राज्यों के प्रकार 

अर्थशास्त्र के अध्ययन से स्पष्ट है कि कौटिल्य राजतंत्र का पोषक था और वह समस्त भारत पर एक सशक्त और सम्पन्न राजा का शासन स्थापित करना चाहता था। उसी की मान्यता हैं कि राजतंत्र में राज्यशक्ति कुलीन वर्ग के हाथ में रहती है और उपयुक्त अनुशासन और प्रजा में स्वामीभक्ति की स्थापना की जा सकती हैं, परन्तु अर्थशास्त्र में अन्य प्रकार के राज्यों का उल्लेख भी मिलता हैं, क्योंकि उस काल में तथा उससे पूर्व भारत में ऐसे राज्यों का अस्तित्व था। अन्य प्रकार के राज्यों को दैराज्य, वैराज्य तथा संघराज्य कहा जाता था।

राज्य के सामान्य कार्य 

आचार्य कौटिल्य ने राज्य के कार्यों के संबंध में क्रमबद्ध विचार नही किया, परन्तु स्थान-स्थान पर प्रसंगानुसार राज्य के अनेकानेक कार्यों का वर्णन किया हैं, जो निम्नलिखित हैं-- 

1. समाज के असामाजिक तत्वों पर नियंत्रण करना तथा चोर, डाकू, लूटेरों व हत्यारों आदि का दमन कर, राज्य में शान्ति व्यवस्था की स्थापना करना, राज्य का कार्य हैं। इसे कौटिल्य ने कंटक शोधन कहा हैं। अर्थात राज्य असामाजिक तत्वों की तुलना कंटक से की हैं। 

2. बाह्रा आक्रमणों से रक्षा करने का दायित्व भी राज्य का हैं। इसके लिए कौटिल्य ने राज्य विस्तार की आवश्यकता को भी बताया हैं। 

3. विकास एवं रचनात्मक कोटि के कार्य भी राज्य कार्य कौटिल्य ने बताया हैं। इस रूप में कौटिल्य ने बताया है कि राज्य में कृषि तथा कृषकों के हित में कार्य करते हुए खेती के लिए कुओं और नहरों का निर्माण कराया जाये। अकाल के समय कृषकों को सहायता दी जाये। 

4. कौटिल्य ने पशुओं को भी राज्य की संपत्ति का एक प्रकार बताते हुए उसकी रक्षा करना राज्य का कार्य बतलाया हैं। 

5. कौटिल्य ने राज्य में व्यापार-व्यवसाय को बढ़ावा देना, आयात-निर्यात को नियंत्रित करना, व्यापारिक कर लगाना, नाप-तौल के मापदंड निर्धारित करना और बाजारों की स्थापना करना भी राज्य का कार्य बताया हैं, ताकि राज्य तथा उसकी प्रजा की आर्थिक समृद्धि बढ़ सकें।

सप्तांग सिद्धांत 

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राज्य में राज्य की प्रकृति का वर्णन किया हैं। उसने राज्य के सात अंग बताए। ये अंग हैं-- स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दंड और मित्र। 

राज्य के सात अंगों को ही 'सप्तांग' कहते हैं। कौटिल्य ने कहा कि अच्छे तथा सशक्त राज्य के लिए राज्य के सातों अंगों का समान महत्व हैं। 

यह भी पढ़े; कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत 

कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत के बारें में हमने एक विस्तृत लेख लिखा हैं, अधिक सप्तांग सिद्धांत के बारें में अधिक जानकारी के उसे जरूर पढ़े।

मंत्रिपरिषद्  

कौटिल्य ने शासन की शक्ति मंत्रिपरिषद को माना है तथा राजा से अपेक्षा की है कि वह अपने समस्त राजकीय कार्य मंत्रिपरिषद् की सहायता से पूर्ण करे। कौटिल्य ने मंत्रियों को राज्य रूपी गाड़ी का दूसरा पहिया बताते हुए, शासकीय कार्यों में मंत्रियों के महत्व को स्पष्ट किया है। 

मंत्रिपरिषद् की संरचना  

कौटिल्य ने राजा को परामर्श देने के लिये एक संस्था के रूप में मंत्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या के विषय में एक निश्चित व व्यावहारिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया है कौटिल्य का मत है कि पंत्रिपरिषद् की सदस्य संख्या को चार तक सीमित रखने का तार्किक औचित्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि एक ही मंत्री होने पर, राजा मंत्री से मतभेद होने पर ठीक-ठीक निश्चय नहीं कर पाता है, तथा ऐसी स्थिति में वह उच्छृंखल हो सकता है। दोनों मंत्री आपस में मिल जाएँ और राजा को अनुचित परामर्श देनें लगें तो राजकीय कार्य की गंभीर हानि हो सकती है। कौटिल्य आशंका व्यक्त करते है कि दो मंत्री परस्पर दुरभिसंधि करके राजा के विरूद्ध षड्यंत्र कर सकते हैं। यदि दो मंत्री षड्यंत्र न भी करें , तो भी दो मंत्रियों का रखा जाना कौटिल्य के अनुसार उचित नहीं है, क्योंकि उन दोनों में मतभेद हो जाने पर राजा के निर्णय करने में जटिल समस्या उत्पन्न हो सकती है। कौटिल्य की यम मान्यता है कि यदि तीन या चार मंत्री नियुक्त कियये जाएँगे तो इस प्रकार कठिनाइयों के उत्पन्न होने की आशंका कम होगी, तथा राजकीय कार्य ठीक ढंग से संचालित किये जा सकेंगे। कौटिल्य पंत्रिपरिषद् में चार से अधिक मंत्री रखे जाने के पक्ष में नहीं है, क्योंकि मंत्रियों की संख्या अधिक रहने पर मंत्र  (परामर्श व विचार-विमर्श) की गोपनीयता भंग होने का खतरा हो जायेगा। कौटिल्य ने राजा को मंत्रिपरिषद् में लगभग चार मंत्री नियुक्त करने का सामान्य परामर्श देते हुए भी, मंत्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या के विषय में राजा को परिस्थिति और आवश्यकतानुसार व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की सलाह दी है, तथा सुझाव दिया है कि अवसर और कार्य की आवश्यकता के अनुरूप राजा द्वारा मंत्रियों की सभा या राज सभा, तथा मंत्रिपरिषद्। 

कौटिल्य ने योग्यता के आधार पर मंत्रियों की तीन श्रेणियाँ स्वीकार की हैं उत्तम, मध्यम और क्षुद्र मंत्रियों के लिये अपेक्षित सारी योग्यताओं से युक्त व्यक्तियों को कौटिल्य ने उत्तम पंत्री, उनमें से तीन चौथाई गुणों से युक्त व्यक्तियों के मध्यम मंत्री और आधे गुणों से युक्त व्यक्तियों को क्षुद्र मंत्री की श्रेणी में रखा है। मंत्रियों के उपर्युक्त वर्गीकरण से यह संकेत मिलता है कि मंत्रियों की सभा में कौटिल्य की सभा में कौटिल्य के अनुसार तीन श्रेणियों के मंत्री सम्मिलित होते थे। राजा नीति के व्यापक प्रश्नों पर अथवा सामान्य कार्यों में मंत्रियों की सभा से परामर्श कर सकता था, वहीं जटिल कार्यों के संदर्भ में या कोई कठिन समस्या उत्पन्न हो जाने पर वह उत्तम श्रेणी के पंत्रियों से गठित मंत्रिपरिरषद् को परामर्श के लिये आमन्त्रित कर सकता था कौटिल्य ने मंत्रियों की सभा में मंत्रियों की निश्चित संख्या निर्धारित करने की अपेक्षा, शासक को परामर्श दिया है कि वह कार्यकुशलता और गोपनीयता की अपेक्षाओं का ध्यान में रखते हुए जितनी संख्या आवश्यक हो, विभिन्न श्रेणियों के मंत्रियों की नियुक्ति कर इस सम्बन्ध में कौटिल्य ने मनु, बृहस्पति व शुक्राचार्य के मतों का उदाहरण देकर यह सपष्ट किया है कि यद्य से आचार्य मंत्रिसभा में क्रमश : 12, 16, 20 मंत्रियों की नियुक्ति को उचित मानते हैं, किन्तु कौटिल्य का मत है कि समय और परिस्थियों के अनुरूप राजा को मंत्रियों की संख्या निर्धारित करनी चाहिए।

मंत्रियों से परामर्श का क्षेत्र व प्रक्रिया 

कौटिल्य ने पाँच प्रकार के विषयों में राजा को मंत्रियों से आवश्यक रूप से परामर्श करने का निर्देश दिया है-- 

1. राजकीय कार्यक्रमों की रूपरेखा का निर्धारण तथा उन्हें प्रारंभ करने के उपाय, 

2. उच्च पदों पर नियुक्ति व कर आरोपित करने के सिद्धान्त,  

3. राज्य में पड़ौसी राज्यों से विद्यमान स्थितियों व परिस्थियों का मूल्यांकन, 

4. राज्य के समक्ष संकट उपस्थित हो जाने पर संकट से निकलने के उपाय, 

5. राजकीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिये सामान्यतः अपनाई जाने वाली नीति।

मंत्रियों के परामर्श देने के क्षेत्र में उपर्युक्त पाँच आयामों को कौटिल्य ने मंत्र के अंगो की संज्ञा दी है। मंत्र के इन पाँच अंगों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि कौटिल्य शासन के समस्त महत्वपूर्ण कार्यों यथा नीति निर्धारण, योजना निर्माण कर व्यवस्था, नियुकित्यों, शांति व युद्ध आदि से मंत्रियों के परामर्श को आवश्यक मानते हैं। कौटिल्य ने राजा को पिषय के महत्व के अनुसार मंत्रियों से अलग-अलग या सामूहिक रूप से परामर्श लेने का सुझाव दिया है। किन्तु कौटिल्य यथा संभव राजा को मंत्रियों से सामूहिक परामर्श का ही सुझाव देते हैं । कौटिल्य का सुझाव है कि यदि कोई मन्त्री अनुपस्थित हो, या राजधानी से बाहर हो तो राजा पत्र के माध्यम से उससे उचित परामर्श प्राप्त कर सकता है। कौटिल्य का मत है कि राजा को मंत्रियों द्वारा कहे गए कथनों का विवेकपूर्ण विवेचन कर लेना चाहिए, तथा न तो मंत्रण को ज्यादा लम्बा खींचना चाहिए, औश्र न ही निर्णय में अनावश्यक विलम्ब करना चाहिए। कौटिल्य का मत है कि यदि मंत्रिपरिषद् में किसी प्रश्न पर सर्वसम्मति न हो तो राजा को बहुमत के आधार पर निर्णय करना चाहिए। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कौटिल्य निर्णय प्रक्रिया का पूर्णतः लोकतांत्रिक बनाने के पक्ष में हैं। कौटिल्य ने राजा को स्पष्ट परामर्श दिया है कि वह किसी मंत्री से अपनी निकटता के आधार पर उसके परामर्श को स्वीकार न करे, अपितु मंत्री के परामर्श के गुण-दोष का विवेचन कर उपयुक्त निर्णय करे। 

मंत्रियों के दायित्व 

कौटिल्य ने शासन के लिये 'मंत्र' या उत्तम परामर्श को सफलता का सबसे महत्वपूर्ण आधार माना है। शासन को मंत्र के महत्व के सम्बन्ध में सचेत करते हुए कौटिल्य ने कहा है कि मंत्रियों के परामर्श से विमुख रहने वाला राजा शत्रु के चंगुल में फँस जाता है, तथा मंत्रियों के परामर्श से चलने वाला शासक अपने राज्य में वृद्धि करता है। निर्भीक होकर सभी विषयों में शासक को उचित परामर्श देना, कौटिल्य मंत्रियों मा प्रमुख दायित्व मानते हैं। कौटिल्य की मान्यता है कि यदि मंत्री निर्भीकतापूर्वक राज्य के हित में निजी हानि-लाभ पर विचार किये बिना शासक को उचित परामर्श नहीं देगा तो राज्य के नष्ट होने की आशंका उत्पन्न हो जायेगी। कौटिल्य ने कहा है कि जब शासक उचित या अनुचित का निर्णय लेने में स्वयं समर्थ नहीं होता, या भ्रम में फँस जाता है तो मंत्रियों का उचित परामर्श ही उसे दीपक के समान प्रकाश दिखाता है। कौटिल्य ने राजकीय कार्यों में मंत्रियों की भूमिका में पाँच सन्दर्भों को स्पष्ट किया है-- 

1 . राजा द्वारा निर्णय लिये जाने के लिये, विषयों को पूर्णता के साथ और सही सन्दर्भ में प्रस्तुत करना, 

2. विचारों के लिये उपस्थित हुए विषय में निर्णय करने में राजा की सहायता करना, 

3. राजा द्वारा यदि कोई निर्णय कर लिया गया हो, तो उनका मूल्यांकन करके उस निर्णय की पुष्टि करना, अथवा खण्डन करना ताकि मंत्री के परामर्श से आश्वस्त होकर राजा दृढ़तापूर्वक निश्चय कर सके। 

4. यदि किसी बिन्दु पर मतभेद हो तो इस प्रकार का परामर्श देना कि कोई संशय न रह पाए, 

5. राजकीय निर्णयों का क्रियान्वित करना। 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कौटिल्य राजकीय कार्यों में मंत्रियों की महत्वपूर्ण व निर्णायक भूमिका को स्वीकार करते हैं। मंत्रियों के दायित्वों की परिधि शासक के समक्ष निर्णय के लिये सूचनाएँ प्रस्तुत करने , समुचित परामर्श देने तथा अन्ततः राजकीय निर्णयों को क्रियान्वित करवाने तक विस्तृत है। 

मन्त्रियों की योग्यताएँ  

कौटिल्य ने मंत्रियों के कार्यों के महत्व के अनुरूप उनके लिये आवश्यक योग्यताओं का विवेचन किया है। मंत्रियों के लिय कौटिल्य ने निम्नलिखित योग्यताओं को आवश्यक माना है-- 

1. स्वदेश में जन्म, 

2. विद्वता एवं गंभीरता, 

3. कार्यकुशलता,

4. ओजस्वी वक्तव्य देने की क्षमता, 

5. उत्साह व प्रभावशीलत, 

6. अविलम्ब निर्णय ले सकने की क्षमता, 

7. पवित्र आचरण, 

8. स्नेह की प्रवृत्ति, 

9. राजभक्ति, 

10. शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से सम्पन्न होना, 

11. लोकप्रियता, 

12. जड़ता एवं चपलता का अभाव, 

13. अकारण लोगों से बैर मोल लेने की प्रवृत्ति का अभाव। 

कौटिल्य ने उपर्युक्स समस्त गुणों से युक्त मंत्रियों को उत्, इनमें से तीन चौथई गुणों को धारण करने वाले मंत्रियों को मध्यम, तथा इनमें से आधे गुणों को धारण करने वाले मंत्रियों को शुद्र मंत्री की संश्रा दी है। उन्होंने राजा को परामर्श दिया है कि मंत्रियों की नियुक्ति में वह स्नेह, राग-द्वेष या अन्य किसी कारण से प्रभावित होने की अपेक्षा, केवल योग्यता को सर्वोपरि माने। कौटिल्य ने राजा को स्पष्ट निर्देश दिया है कि स्नेह के कारण राजा किसी अशिक्षित, उदण्ड या असदाचारी, अपने सम्बन्धी को भी मंत्री के पद पर नियुक्त न करे, और ऐसे व्यक्तियों को ही मंत्री पद पर नियुक्ति दे, जो शास्त्रों के विद्वान हों तथा जिनका पवित्र आचरण संदेह से परे हो। कौटिल्य ने मंत्रियों को उनकी योग्यता, राजभक्ति व जनता के कल्याण के प्रति निष्ठा का भली-भाँति परीक्षण करने के उपरांत ही नियुक्त करना उचित माना है। 

कौटिल्य के अनुसार राजा के मंत्रियों को स्थायी रूप से नियुक्त करने से पहले किन्ही राजकीय कार्यों राजकीय कार्यों में नियुक्त कर उनकी बुद्धि , स्मरणशक्त और कुशलता की परीक्षा कर लेनी चाहिए उनके साथ शास्त्रों पर चर्चा कर के उनके बोलने, व्याख्यान करने और शीघ्र उत्तर देने की शक्ति का परीक्षण करना चाहिए, उनके समक्ष कोई परिस्थिति प्रस्तुत कर उनके उत्साह, प्रभाव और सहनशक्ति आदि का परीक्षण करना चाहिए तथा उनके साथ तरह-तरह का व्यवहार करके उनके हृदय की पवित्रता, मित्रता और निष्ठा की परीक्षा लेनी चाहिए। 

यह उल्लेखनीय है कि कौटिल्य ने मंत्रियों की योग्यताएँ निर्धारित करते समय मनु की भाँति मंत्रियों के किसी वर्ण-विशेष का सदस्य होना आवश्यक नहीं माना हैं। जहाँ मनु ने शूद्रों को मंत्री नहीं बनाए जाने का स्पष्ट निर्देश दिया है, कौटिल्य ने मंत्री पद पर केवल ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त नहीं किये जाने का निर्देश दिया है, जिन्हें राजनीति व अन्य शास्त्रों का समुचित ज्ञान नहीं हो। 

मन्त्रणा की गोपनीयता  

कौटिल्य ने मन्त्रण की गोपनीयता को अत्यंत आवश्यक माना है। मन्त्रणा गोपनीय रहे, इस दृष्टि से कौटिल्य ने मन्त्रणा के लिए उपयुक्त समय का चयन आवश्यक माना है कौटिल्य के अनुसार मन्त्रणा का स्थान इतना सुरक्षित होना चाहिए कि वहाँ होने वाली बात कोई नहीं सुन सके। कौटिल्य की मान्यता है कि मन्त्रणा के स्थान पर पशु-पक्षी भी उपस्थित नहीं होने चाहिए। कौटिल्य ने राजा को सचेत किया है कि उसकी भावभंगिमाओं आदि से भी मन्त्रणा की गोपनीयता प्रकट हो सकती है, अतः राजा को पंत्रिपरिषद् से परामर्श करने के उपरांत लिये गए निर्णयों की क्रियान्विति से पूर्व अपनी भाव भंगिमाओं के माध्यम से भी यह प्रकट नहीं होने देना चाहिए कि क्या निर्णय लिया गया। कौटिल्य ने राजा को सतर्क किया है कि कई बार मंत्री भी अपने विश्वास के अन्य लोगों को मंत्रणा के बारे में बता सकते हैं, अतः राजा को मंत्रियों पर भी निगाह रखनी चाहिए, ताकि वे मंत्रण की गोपनीयता को भंग नहीं कर सकें। मन्त्रणा की गोपनीयता को कौटिल्य राज्य की सुरक्षा व हितों से जुड़ा हुआ बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न मानते हैं। अतः वे मन्त्रणा की गोपनीयता को भंग करने को कठोर दण्डनीय अपराध मानते हैं। मान्त्रणा की गोपनीयता को भंग करने के अपराध के लिये कौटिल्य ने देश से निकाला व मृत्यु-दण्ड जैसे कठोर दण्डों की व्यवस्था की हैं। 

मंत्रियों पर नियंत्रण  

कौटिल्य की मान्यता है कि यदि मंत्री स्वार्थ से मुक्त रहकर राजा को उसके हित के लिए परामर्श नहीं दे तो राज्य के हितों के समक्ष गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है। अतः कौटिल्य ने राजा को भली-भाँति सुनिश्चित करने का परामर्श दिया है कि उसके मंत्री राज्य के विरूद्ध कोई षड्यंत्र तो नहीं कर रहे हैं, अथवा किसी प्रकार के भ्रष्टाचार में तो लिप्त नहीं है। कौटिल्य ने गुप्त उपायों द्वारा अमात्य और मंत्रियों के आचारण का परीक्षण करते रहने का परामर्श दिया है कौटिल्य ने गुप्तचरों के माध्यम से समय-समय पर अमात्यों की चार प्रकार की परक्षाओं का उगेख कि है-- 

1. धर्मोपधा 

अर्थात् धर्म के द्वारा अमात्य के हृदय की पवित्रता का परीक्षण, 

2. कामोपध्या 

अर्थात् स्त्री समागम के अवसर उपस्थित करने के द्वारा उसके चाल चलन का परीक्षण, 

3. अर्थेपधा

अर्थात् गुप्त उपायों द्वारा मंत्री को धन का लोभ दिखाकर उसके आचरण का परीक्षण, 

4. भयोपधा 

अर्थात् भयभीत करके शासन के विरूद्ध आचरण करने के लिए प्रेरित करने के द्वारा मंत्री की निष्ठा का परीक्षण। 

कौटिल्य ने राजा को परामर्श दिया है कि वह धर्म, अर्थ, काम और भय द्वारा परीक्षित पवित्र आचरण वाले मंत्रियों को ही उनकी क्षमताओं के अनुसार विभिन्न कार्यों में नियुक्त करें। किन्तु कौटिल्य ने मंत्रियों पर निगरानी रखने के कार्य को अत्यंत सतर्कतापूर्ण किये जाने पर बल दिया है। उनकी मान्यता है कि यदि मंत्रियों को पता चले कि उनके आचरण पर निगरानी रखी जा रही है, तो वे राजा से अप्रसन्न हो सकते हैं। कौटिल्य ने राजा को यह भी परामर्श दिया है कि वह अपने अन्तरंग मंत्रियों की इस प्रकार से परीक्षा न ले, अपितु निम्न श्रेणी के मंत्रियों की ही परीक्षा लें उनका मत है कि राजा को अपने अन्तंग मंत्रियों की नियुक्ति तो पहले से ही भली-भाँति परीक्षा करके चाहिए, तथा एक बार नियुक्ति कर दिये जाने के पश्चात् राजा को उन पर अपने विश्वास का निर्वाह करना चाहिए।

कौटिल्य के अनुसार न्याय व्यवस्था का संचालन 

कौटिल्य ने न्याय को राज्य का अनिवार्य दायित्व माना है। कौटिल्य के अनुसार राज्य की उत्पत्ति ही मत्स्य न्याय के स्थान पर, औचित्य और नैतिकता के आधार पर न्याय की स्थापना के लिए हुई है। कौटिल्य ने अरस्तू की तरह न्याय के दो पक्ष किये हैं-- 

1. वितरणात्मक न्याय, 

2. सुधारात्मक न्याय 

वितरणात्मक न्याय कौटिल्य के मत में राज्य का कारात्कम दायित्व माना है। इस दायित्व की पूर्ति द्वारा राज्य यह सुनिश्चित करतता है कि प्रजा का कोई भी वर्ग अभावग्रस्त नहीं हो तथा समाज में साधनों का वितरण न्याय और औचित्य के सिद्धान्तों के अनुसार हो। 

सुधारात्मक न्याय के अन्तर्गत कौटिल्य ने राज्य पर यह दायित्व डाला है कि वह कानूनों के उल्लंघन करने वाले, प्रजा के अधिकारों को अतिक्रमण करने वाले व्यक्तियों को समुचित दंड देकर, तथा प्रजा के विभिन्न वर्गो मध्य, किसी अधिकार के प्रश्न पर मतभेद या विवाद हो जाने पर उसका समुचित निपटारा करके प्रजा के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करे। 

कौटिल्य ने राज्य से न्यायपालिका को संगठित स्वरूप प्रदान करने की अपेक्षा की है, तथा यह व्यक्त किया है कि न्यायिक कार्य का सम्पादन स्थापित विधि और प्रक्रिया के अनुसार किया जाना उचित है कौटिल्य के अनुसार राज्य न्याय को सुनिश्चित करने के अपने दायित्व की पूर्ति नहीं करता तो समाज में असुरक्षा और आशंका का बोलबाला हो जाता है। कौटिल्य ने शासक को न्यायिक शक्ति का अत्यंत सतर्कतापूर्वक प्रयोग करने का परामर्श दिया है तथा चेतावनी दी है कि न्यायिक शक्ति का दुरूपयोग करने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। कौटिल्य ने सामाजिक व्यवस्था के निर्वाह के लिये राज्य को उत्तरदायी माना है। कौटिल्य सामाजिक संगठन के सिद्धान्तों तथा समाज के विभिन्न वर्गों के मध्य सम्बन्धों के संचालन में राज्य की भूमिका को विनियमनकारी मानते हैं। कौटिल्य ने राज्य पर यह सुनिश्चित करने का दायित्व डाला है कि सामाजिक व्यवस्था का निर्वाह वेदों और शास्त्रों में स्वीकृत वर्ण व आश्रम व्यवस्था के अनुरूप् हो। किन्तु कौटिल्य ने राज्य को सामाजिक व्यवस्था के सम्बन्ध में नियमों का प्रतिपादन करने, अथवा विभिन्न वर्गों के कर्तव्यों की अपनी इच्छा से व्याख्या करने की शक्ति प्रदान नहीं की है कि वह व्यक्तियों द्वारा उनके कर्तव्यपालन, और अपने धर्मों के निर्वाह में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें। सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों, तथा विभिन्न वर्गों के आपसी सम्बन्धों तथा विवाह आदि को कौटिल्य ने राज्य की विधि द्वारा विनियमित और संचालिन किया जाना आवश्यक माना है। यही कारण है कि कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में विवाह धर्म स्त्री और पुरूषों के पारिवारिक दायित्वों का पालन भली-भाँति करता रहे। 

कौटिल्य के अनुसार यदि कोई व्यक्ति समर्थ होते हुए भी अपनी संतान, पत्नी, बहन, माता-पिता का भरणपोषण नहीं करता है, तो उसे राज्य द्वारा दण्डित किया जाना चाहिए। इसी प्रकार यदि कोई अपने पुत्र व पत्नी के जीवन निर्वाह की उचित व्यवस्था किये बिना ही सन्यास ग्रहण करना चाहे तो कौटिल्य उसे राज्य द्वारा दण्ति किया जाना उचित मानते हैं।

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