प्रश्न; राजनीतिक अभिजन वर्ग से आप क्या समझते हैं? इन पर विस्तार से प्रकाश डालिए।
अथवा," राजनीतिक अभिजन की अवधारणा को समझाइए।
अथवा" राजनीतिक अभिजन से आप क्या समझते हैं? इनकी राजनीति में भूमिका पर संक्षिप्त लेख लिखिए।
अथवा" राजनीतिक सभ्रांत वर्ग या अभिजन से आप क्या समझते है? इसकी वर्तमान राजनीतिक व्यवस्थाओं में भूमिकाओं के महत्व पर संक्षेप में प्रकाश डिलिये।
अथवा" राजनीतिक अभिजात कौन हैं? व्याख्या कीजिए।
अथवा" राजनीतिक सम्भ्रांत का क्या अर्थ हैं? राजनीतिक सभ्रांत की क्या विशेषताएँ हैं?
अथवा" सभ्रांत की अवधारणा की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
उत्तर--
राजनीतिक अभिजन या सभ्रांत का अर्थ (rajnitik abhijat kya hai)
अभिजन या अभिजात वर्ग शब्द उन व्यक्तियों या समूहों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में शक्ति संपन्न होते हैं और सामान्य जनता की गतिविधियों को प्रभावित करते हैं। अभिजात वर्ग का अर्थ स्पष्ट करते हुए परेटो ने लिखा हैं कि," किसी विशिष्ट कार्य क्षेत्र में सर्वोत्तम योग्यता रखने वाले व्यक्तियों के वर्ग को हम अभिजन या विशिष्टजन के नाम से पुकारते हैं।"
आधुनिक राजनीति विज्ञान की एक महत्वपूर्ण अवधारणा राजनीतिक सभ्रांत की हैं। इस अवधारणा के विकास के परिणामस्वरूप विश्व की समस्त शासन व्यवस्थाओं का नग्न रूप हमारे समाने प्रस्तुत हो गया है। इसके कारण समस्त शासन व्यवस्थाओं का पर्दाफाश हो गया हैं तथा उनका वास्तविक स्वरूप हमारे समक्ष प्रस्तुत हो गया है। शासन व्यवस्था का स्वरूप चाहे कोई भी क्यों न हो, वह वास्तव में उस प्रकार की नही होती।
अभिजन शब्द एलीट का हिन्दी रूपांतरण है। एलीट शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के एल्गेन शब्द से हुयी हैं। जिसका अर्थ होता है-- पसंद द्वारा चुनाव। परन्तु अंग्रेजी भाषा में एल्गेन शब्द का आशय सामान्यतः नेतृत्व से लिया जाता है। वर्तमान विचारकों ने इसका विशिष्ट अर्थों में प्रयोग किया हैं। पैरेटो ने इसे शासक अभिजन, मोस्का ने इसे शासक वर्ग, राॅबर्ट ए. डहल ने इसे शासक अभिजन उपकल्पना के नाम से सम्बोधित अभिजन शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 17वीं शताब्दी में विशेष श्रेष्ठता वाली वस्तुओं के लिये किया गया था परन्तु बाद में इसका प्रयोग उच्च सामाजिक समुदायों या कुलीन वर्गों के लिया जाने लगा। यों तो इसका आरम्भ प्लेटो और अरस्तु के विचारों में भी पाया जाता हैं परन्तु इसके विवेचन को वैज्ञानिक रूप देने का श्रेय एच.डी.लासवैल, मोस्का, पैरेटो, जेम्स बर्नहम, राॅबर्ट ए. डहल, मिचेल्स, सारटोरी, रीसमैन, डवाइट, वाल्डी, सी. राइटमिल्स, मेरियम, फ्लायडहन्टर, मेरीकोलाबिन्सका, टी. बी. बोटोमोर, कार्ल मैनहीम और शुम्पीटर आदि विचारकों को जाता हैं।
राजनीतिक अभिजन या संभ्रांत वर्ग की परिभाषा (rajnitik abhijat ki paribhasha)
विभिन्न विद्वानों अपने-अपने विचार से अभिजन की परिभाषा निम्नलिखित रूप से दी हैं--
सी. राइट मिल्स के शब्दों में," हम शक्ति अभिजन की व्याख्या शक्ति के साधन के रूप में कर सकते हैं। शक्ति अभिजन वे हैं जो आदेश देने वाले पदों को धारण करते हैं।"
पैरेटो के शब्दों में," वे व्यक्ति जो अपने कार्य-क्षेत्र के अंतर्गत सर्वाधिक उच्च श्रेणी पर हैं, वे ही अभिजन हैं।"
मोस्को के अनुसार," अभिजात वर्ग को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। प्रथम भाग को हम शासक वर्ग और दूसरे को शासित वर्ग के नाम से पुकारते हैं। शासक वर्ग के अभिजनों में बुद्धिजीवी व्यक्तियों को शामिल किया जाता है और उनकी संख्या समाज में कम होती हैं। शासित वर्ग में जनता को शामिल किया जाता हैं। अभिजन वर्ग के कारण समाज में अल्पसंख्यक वर्ग बहुसंख्यक वर्ग पर शासन करता हैं।"
मिल्स के अनुसार," अभिजात वर्ग सामान्यतः समुदाय के सर्वोत्कृष्ट लोगों का वह समूह हैं जो धन शक्ति और प्रतिष्ठा में सर्वोपरि हैं, जो अन्यों के विरोध के बावजूद भी अपनी इच्छा को आरोपित करने में समर्थ होता हैं।"
अभिजनों के प्रकार
आदिम समाज में भी वृद्धों, पुरोहितों अथवा योद्धा-राजाओं के अल्पसंख्यक वर्ग होते हैं जो अभिजनों के कार्यों का सम्पादन करते हैं। जैसे-जैसे कोई समाज आकार में बड़ा तथा जटिल होता जाता हैं, वैसे ही विशेषीकृत भूमिकाओं का अनिवार्यतः उदय होने लगता हैं। फलस्वरूप समाज में अभिजनों के कार्यक्षेत्रों की वृद्धि के साथ-साथ उनकी संख्या भी बढ़ने लगती हैं। अभिजनों का वर्गीकरण करने के प्रयत्न इस संकल्पना के विकास के प्रारंभिक काल में ही शुरू हो गये थे। इस प्रकार की एक सबसे पहली योजना सेंट साइमन की थी; उसने 1807 में अभिजनों को वैज्ञानिकों, आर्थिक संगठनकर्ताओं तथा धार्मिक-सांस्कृतिक नेताओं के वर्गों में विभक्त किया था। 1935 में कार्ल मनहाइम ने अभिजनों को मोटे तौर पर दो प्रकारों में वर्गीकृत किया--
(अ) संगठन तथा संचालन करने वाले अभिजन जो ठोस लक्ष्यों तथा कार्यक्रमों की देखभाल करते हैं, और
(ब) अनौपचारिक रूप से संगठित तथा विकीर्ण (बिखरे हुए) अभिजन नैतिक एवं आध्यात्मिक समस्याओं से निपटते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से अभिजनों के निम्नलिखित रूप देखने को मिलते हैं--
1. शासक जाति
समाज का एक स्तर सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक कार्यों का सम्पादन करता हैं, और इसके अतिरिक्त वह बन्द होता हैं तथा धर्म, बन्धुत्व, आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर शेष समाज से पृथक माना जाता हैं। उसके सदस्यों की भर्ती का स्त्रोत जैविक प्रजनन होता हैं, और वह धार्मिक कर्मकांड के द्वारा अपने लिए वैधता प्राप्त करता हैं।
2. अभिजात वर्ग
समाज का कोई एक स्तर महत्वपूर्ण सामाजिक कार्यों के सम्पादन का एकाधिकार प्राप्त कर लेता हैं; उसमें कुछ परिवार सम्मिलित होते हैं जो रक्त-संबंध, धन तथा एक विशिष्ट जीवन शैली द्वारा परस्पर आबद्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त उसकी आय का स्त्रोत भौतिक सम्पत्ति होती हैं।
3. शासक वर्ग
कोई एक वर्ग जिसके हाथों में प्रमुख सामाजिक कार्यों का भार होता हैं, वह अपने सदस्यों की भर्ती रक्त अथवा धार्म के आधार पर नही बल्कि धन और सम्पत्ति के आधार पर करता हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से शासक वर्ग के हाथों में आर्थिक शक्ति रही हैं, न कि राजनीतिक, किन्तु उसका प्रभाव दूरगामी होता है और समाज के कार्यकलाप के सभी वर्गों तथा क्षेत्रों में फैला होता हैं।
4. कार्यकुशल अभिजन
समाज में कोई एक वर्ग सभी महत्वपूर्ण सामाजिक कार्यों का सम्पादन नहीं करता। बल्कि ये कार्य विशेषीकृत तथा विभेदीकृत होते हैं, और इसलिए अभिजन भी इसी प्रकार के होते हैं। अभिजनात्मक स्थिति धारण करने का आधार रक्त अथवा धन नहीं बल्कि योग्यता तथा विशेषीकृत कौशल होते हैं। अनिवार्यतः ऐसे अभिजन उन तरीकों के द्वारा भर्ती किये जाते हैं जो उनके विभेदीकृत कार्यों के अनुरूप होते हैं, इसके अतिरिक्त उनमें विविधता होती हैं, तथा वे अस्थायी होते हैं।
अभिजनों का उन चार कार्यों के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता हैं जिनका सम्पादन करना प्रत्येक समाज के लिए अनिवार्य होता हैं; लक्ष्यों की प्राप्ति, अनुकूलन, एकीकरण, तथा प्रतिरूप अनुरक्षण एवं तनाव प्रबन्धन। इस दृष्टि से कार्यकुशल अभिजनों को निम्नलिखित चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता हैं--
(अ) विद्यमान राजनीतिक अभिजन, (लक्ष्य प्राप्ति से संबंधित अभिजन),
(ब) आर्थिक, सैनिक, राजनीतिक तथा वैज्ञानिक अभिजन (अनुकूलन के अभिजन),
(स) नैतिक सत्ता का प्रयोग करने वाले अभिजन-- पुरोहित, दार्शनिक, शिक्षक तथा प्रमुख परिवार (एकीकरण के अभिजन), तथा
(द) वे अभिजन जो समाज की संवेगात्मक तथा मानसिक एकता कायम रखते हैं-- कलाकार, लेखक, मनोरंजन के क्षेत्र में शीर्षस्थ लोग (प्रतिरूप अनुरक्षण के अभिजन)।
अभिजात या संभ्रात वर्ग की विशेषताएं
मोस्को ने अपनी रचना 'दि रूलिंग एलीट', सी. राइटमिल्स ने 'दि पावर एलिट' और टी.बी. बोटोमोर ने 'एलिट एंड सोसाइटी' में संभ्रांतजन का विशेष-विश्लेषण प्रस्तुत किया हैं। इन रचनाओं के अध्ययन के आधार पर संभ्रांतजन की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता हैं। जो निम्नलिखित हैं--
1. अभिजन अल्पसंख्यक उच्च वर्ग होता हैं
पैरेटो की मान्यता है कि प्रत्येक समाज का शासन एक ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग के हाथ मे होता है जिसके पास संपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक सत्ता पर अधिकार स्थापित कर लेने के आवश्यक गुण होते हैं। पेरेटो के अनुसार समाज में दो वर्ग होते हैं--
(अ) एक ऐसा ऊँचा वर्ग जिसे हम अभिजन या संभ्रांत वर्ग कहते हैं और जो शासक अभिजन तथा शासन के बाहर अभिजन इन दो उपवर्गों में बांटे जा सकते हैं।
(ब) एक निम्न वर्ग अथवा गैर अभिजन वर्ग जो बहुसंख्यक होता हैं।
2. संभ्रांत वर्ग सुविधा संपन्न होता हैं
संभ्रांत वर्ग की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी होती हैं। वे उच्च पदों पर आसीन होते है। वे बड़े उद्योगपति हो सकते हैं। जनसाधारण के मुकाबले उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी होती हैं।
3. विशिष्ट महत्व
सभी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं में संभ्रांत वर्ग का विशिष्ट महत्व होता हैं। संभ्रांत वर्ग देश की, राजनीतिक दिशा निश्चित करता हैं और यह भी निर्णय करता हैं कि किन उपायों को अपनाकर इस लक्ष्य को प्राप्त किया जाएगा। संभ्रांत वर्ग सत्ता के केंद्र में स्थित होता हैं। यह उल्लेखनीय हैं कि सामान्य जनता भी चाहती हैं कि संभ्रांत वर्ग को यह स्थिति प्राप्त रहे। जनता यह सोचती है कि अभिजन की यह विशिष्ट स्थिति उनके हितों की रक्षा और वृद्धि में सहायक हैं।
4. इस वर्ग के विशिष्ट हित होते हैं
चूँकि यह विशिष्ट वर्ग होता हैं अतः जीवन के प्रति भी उनका सामान्य जनों की उपेक्षा विशिष्ट दृष्टिकोण होता हैं। इसे इस रूप में कहा जा सकता है कि सामान्य जन की उपेक्षा अभिजन की भौतिक और मानसिक आवश्यकताएं विशिष्टता लिए होती हैं और ये आवश्यकताएं ही उनके विशिष्ट हितों को जन्म देती हैं। परिणामतः सामान्य जनता और अभिजनों के हितों में अंतर उत्पन्न हो जाता हैं।
5. शासन के निर्णयों में हाथ
चूँकि शासक अभिजन वर्ग के हाथ में सत्ता होती हैं। अतः सामान्य रूप से शासन के समस्त सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक निर्णयों में इनका हाथ होता हैं।
6. सामान्यतः अभिजन कुलीन परिवारों से आते हैं
संभ्रांत वर्ग के अधिकांश लोग कुलीन परिवारों से होते हैं। कभी-कभी गरीब परिवार में भी प्रतिभा-संपन्न लोग उत्पन्न हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में उन्हें भी संभ्रांत वर्ग में सम्मिलित कर लिया जाता हैं।
7. अभिजन में परिवर्तन होता रहता हैं
अभिजन वर्ग का यह भी प्रमुख लक्षण है कि इस वर्ग में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। आज जो अभिजन हैं उनका विरोध करने के लिए प्रति-अभिजन का जन्म होता हैं और यह प्रति-अभिजन स्वयं के लिए शासक अभिजन की स्थिति प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता हैं। जब प्रति-अभिजन स्वयं के लिए शासक अभिजन की स्थिति प्राप्त कर लेता हैं तो इससे अभिजन वर्ग मे परिवर्तन हो जाता हैं। अभिजन वर्ग में परिवर्तन सभी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं में होता हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस परिवर्तन हेतु संवैधानिक मार्ग होता हैं किन्तु अन्य प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं में ऐसा परिवर्तन क्रांति या बल प्रयोग के आधार पर होता हैं।
8. सामाजिक प्रतिष्ठा
संभ्रांत वर्ग को प्रत्येक समाज में एक विशिष्ट प्रतिष्ठा प्राप्त होती हैं। समाज में उनका विशेष सम्मान होता हैं। जनसाधारण भी उन्ही की इज्जत करता हैं तथा उनकी प्रशंसा में गीत गाता रहता हैं।
9. सामाजिक सुरक्षा
संभ्रांत वर्ग को सामाजिक सुरक्षा प्राप्त होती हैं। चाहे कोई भी सत्तारूढ़ हो, उसके अस्तित्व तथा सुविधाओं पर किसी प्रकार की आँच नहीं आती। वास्तविकता तो यह हैं कि शासन तंत्र पर उसी का कब्जा रहता हैं, सुरक्षा की व्यवस्था करने वाले व्यक्तियों पर भी उसी का नियंत्रण रहता हैं। अनेक उतार-चढ़ावों के बाद भी संभ्रांत वर्ग के हितों को किसी प्रकार की आँच नही आती।
भारतवर्ष में इसी दृष्टि से सभी प्रमुख दलों के बड़े नेता, समस्त उद्योगपति, समस्त उद्योगों तथा संस्थानों के उच्च वेतनभोगी प्रबन्धक, इंजीनियर, डाॅक्टर, विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर, सेना, पुलिस प्रशासन के बड़े अधिकारी, संपन्न व्यवसायी, फिल्मी अभिनेता, जमींदार, अखबारों के सम्पादक आदि संभ्रांत वर्ग में सम्मिलित हैं। शासन सत्ता वास्तव में इन्हीं के हाथों में हैं। शासन के परिवर्तन से इनकी सुविधाओं में किसी प्रकार का अंतर नहीं पड़ता।
आलोचना
संभ्रांत वर्ग की अवधारणा ने राजनीति विज्ञान की महान् सेवा की है। इसने विश्व की विभिन्न शासन व्यवस्थाओं को समझने तथा उनका वास्तविक स्वरूप समझाने में हमारी मदद की हैं।
1. अतिरंजित वर्णन
यद्यपि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि शासन मे संभ्रांत वर्ग की स्थिति महत्वपूर्ण होती हैं, परन्तु यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण हैं कि शासन सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण संभ्रांत वर्ग का ही होता हैं। यह मान्यता भी उचित नही है कि समाज हमेशा दो वर्गों में विभाजित रहता हैं-- शासक और शासित।
प्रजातांत्रिक विचारधारा में संभ्रांत की अवधारणा पूर्णतः लागू नहीं हो सकती। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री संभ्रांत नहीं थे। गांधी जी जनसाधारण के प्रतिनिधि थे। लोकतंत्र में उच्च पदों को प्राप्त करने के अवसर प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होते हैं। एक सामान्य व्यक्ति भी उच्च पद पर आसीन हो सकता हैं। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम जानी जैलसिंह जनसाधारण वर्ग के ही व्यक्ति थे।
संभ्रांत की धारणा लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा से मेल नहीं खाती। लोक-कल्याणकारी राज्य 'सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय' की भावना से कार्य करता हैं। केवल संभ्रांत वर्ग के हितों का संरक्षक वह नहीं होता।
2. यथास्थिति का समर्थन
संभ्रांत की धारणा एक निराशावादी दर्शन है जो कि यथास्थितिवाद का समर्थक हैं। इस धारणा की यह मान्यता है कि सभी राज्यों में कोई अल्पवर्ग ही शासन करता हैं। एक संभ्रांत वर्ग यदि सत्ताच्युत हो जाता हैं तो दूसरा संभ्रांत उसका स्थान ग्रहण कर लेता हैं। क्या इसका आशय यह नही होगा कि यदि कोई दुष्ट अथवा भ्रष्ट शासक सत्ताच्युत होता है तो उसके स्थान पर ऐसा ही शासक सत्तारूढ़ होगा?
3. संभ्रांत भी एक प्रतिस्पर्द्धापूर्ण वर्ग हैं
संभ्रांत की धारणा से तो ऐसा प्रतीत होता हैं कि यह एक वर्ग का नाम है जो निष्कंटक शासन करता रहता हैं, परन्तु वास्तविकता तो यह है कि संभ्रांत वर्ग के लोगों से भी गलाकट प्रतिस्पर्द्धा चलती रहती हैं। इसका अर्थ तो यह हुआ कि संभ्रांत भी कोई सुदृढ़ वर्ग नही हैं। इसके साथ ही विभिन्न व्यक्तियों के आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षणिक स्तर में भी अंतर होता हैं। ऐसी कोई विभाजन रेखा नहीं खींची जा सकती, जिसके द्वारा यह कहा जा सके ये व्यक्ति संभ्रांत वर्ग के हैं तथा ये जनसाधारण के; वास्तविकता तो यह है कि समाज के लोगों को कठोर रूप से दो वर्गों में विभाजित ही नहीं किया जा सकता।
4. साम्यवादी व्यवस्था पर लागू नहीं होती
संभ्रांत की अवधारणा को साम्यवादी व्यवस्था पर लागू नही किया जा सकता। साम्यवाद का उद्देश्य एक वर्गविहिन समाज की स्थापना करना हैं। साम्यवादी व्यवस्था समस्त वर्गों को समाप्त करने के पक्ष में हैं। यह एक तथ्य है कि साम्यवादी व्यवस्था में भी कुछ अधिकारियों की स्थिति अपेक्षाकृत श्रेष्ठ होती हैं, परन्तु उन्हें संभ्रांत नहीं कहा जा सकता। डाॅ. एस. पी वर्मा के शब्दों में," यद्यपि हमें यह स्वीकार करना होगा कि रूस तथा साम्यवादी देशों में शासन के बड़े अधिकारी काफी प्रभावशाली होते हैं। यद्यपि उन्हें शासक वर्ग नहीं कहा जा सकता।"
Bahut bahut dhanywad
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