12/08/2021

प्लेटो का न्याय का सिद्धांत

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प्लेटो का न्याय का सिद्धांत 

plato ka nyay sidhant;ग्रीक राजनीतिक चिंतन के इतिहास में प्लेटो एक उच्चकोटि के आदर्शवादी राजनीतिक विचारक तथा नैतिकता के एक महान पुजारी थे। प्लेटो की न्याय धारणा में एथेन्स की तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक बुराइयों जिनमें लोकतंत्र के नाम पर धनिकतंत्र का प्रभाव एवं शक्ति राजनीति की उथल-पुथल की गम्भीर समस्याओं का आदर्शवादी समाधान है। चूँकि सुकरात की मृत्यु से प्लेटो का हृदय लोकतंत्र से भर गया था। अतः अपनी न्याय धारणा के आधर पर प्लेटो एक ऐसे शासनतंत्र की कल्पना करने लगा, जिसका संचालन श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा होता हो। न्याय क्या है? यह प्लेटो की मुख्य समस्या रही है और इसी समस्या के समाधान के लिए 40 वर्ष की अवस्था में प्लेटो ने 'The Republic' की रचना की जिसका उपशीर्षक 'Concerning Justice' या “ न्याय के संबंध में है। 

प्लेटो ने आदर्श राज्य का निर्माण ही एक निश्चित उद्देश्य से किया, और वह उद्देश्य एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना करना है, जिसमें सभी वैयक्तिक, सामाजिक व राजनीतिक संस्थाएं न्याय से अनुप्राणित हो। इबन्व्हीन के अनुसार, "प्लोटो के न्याय संबंधी विवेचन में उसके राजनीति दर्शन के सभी तत्व सम्मिलित हैं।"

प्लेटो के न्याय का अर्थ वह नही है जिसे हम सामान्य बोलचाल की भाषा में न्याय कहते हैं। न्याय का अर्थ वैधानिक अथवा न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय भी नहीं हैं। प्लेटो के न्याय का अर्थ बहुत व्यापक हैं। जिसे हम नैतिकता कहते हैं वहीं प्लेटो के लिए न्याय हैं। 

न्याय संबंधी अपने सिद्धांत को स्थापित करने से पहले प्लेटो तत्कालीन यूनान में प्रचलित न्याय संबंधी विचारों और धारणाओं का खण्डन करता है। ये विचार सोफिस्ट विचारकों के द्वारा प्रतिपादित किए गए थे। सोफिस्ट विचारकों ने न्याय को जिस प्रकार परिभाषित किया, उन्हें तीन वर्गों में बाँटा जा सकता हैं-- 

1. न्याय की परम्परावादी धारणा 

प्लेटो ने सबसे पहले न्याय की परम्परागत धारणा का विश्लेषण किया, जो कि परम्परागत नैतिकता के विचार पर आधारित हैं। प्लेटो के संवादों में न्याय की इस धारणा का प्रतिपादन सिफालस और उसके बाद उसके पुत्र पोलीमार्क्स द्वारा किया हैं। सिफालस के अनुसार," सत्य बोलना और दूसरों के ऋण को चुका देना ही न्याय हैं।" पोलीमार्कस के अनुसार," मित्रों के साथ भलाई और शत्रुओं के साथ बुराई, यही न्याय हैं।" 

किन्तु प्लेटो न्याय की इस धारणा को स्वीकार नहीं करता और इसकी आलोचना करते हुए यह बातें कहता हैं-- 

1. परम्परावादी दृष्टिकोण न्याय को मनुष्य से बाहर की वस्तु मानता हैं। 

2. परम्परावादी दृष्टिकोण द्वारा शत्रु के प्रति बुराई करने को न्याय बताया जाना उचित नहीं हैं। 

3. व्यावहारिक जीवन में मित्र व शत्रु का भेद करना बड़ा मुश्किल हैं। 

4. परम्परावादी दृष्टिकोण उस समाज की उपेक्षा करता हैं, मनुष्य जिसका एक अंग हैं। 

इस प्रकार से न्याय के परम्परावादी सिद्धांत का प्लेटो ने खण्डन किया हैं। 

2. न्याय का क्रांतिकारी सिद्धांत 

न्याय के क्रांतिकारी सिद्धांत का प्रतिपादक थ्रेसीमेकस था। वह एक सोफिस्ट विचारक रहा हैं। यह विचारधारा 'शक्ति ही सत्य हैं' के विचार पर आधारित है और इसके अनुसार," शक्तिशाली का हित साधन ही न्याय हैं।" 

इस प्रकार थ्रेसीमेकस दो बातें कहता हैं-- 

1. शासक वर्ग स्वयं अपने हितों की रक्षा के लिए ही शासन करता हैं और 

2. अन्याय न्याय से श्रेयस्कर हैं। 

प्लेटो ने थ्रेसीमेकस के उक्त दृष्टिकोण का इन आधारों पर खंडन किया हैं-- 

1. न्याय व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि का साधन नहीं हैं। 

2. अन्याय न्याय से बढ़कर नहीं हैं तथा अन्यायी न्यायी से अधिक सुखी नहीं होता। 

इस प्रकार प्लेटो ने न्याय के क्रांतिकारी सिद्धांत का खण्डन किया हैं। 

3. न्याय का व्यवहारिक सिद्धांत 

न्याय के व्यावहारिक सिद्धांत का प्रतिपादन ग्लाकन करता हैं। उसका मत हैं," दुर्बल व्यक्ति का हित ही न्याय हैं।" शक्तिशाली व्यक्तियों से दुर्बलों की रक्षा करना ही न्याय हैं।

इस सिद्धांत का खण्डन करते हुए प्लेटो बोलता हैं, तुम सब लोग न्याय का इस प्रकार वर्णन कर रहे हो, मानो न्याय कोई बाहरी चीज हो, परन्तु न्याय मनुष्य के ऊपर से लादी जाने वाली कोई वस्तु नहीं हैं। वह तो प्रत्येक मनुष्य के भीतर, उसकी आत्मा में हैं।" 

न्याय का सही स्वरूप  

प्लेटो का न्याय वर्तमान में प्रचलित न्याय के विचार से अलग हैं। वर्तमान में न्याय को सामान्यतः न्यायाधीश द्वारा दिए गए फैसलों से जोड़ते हैं। आधुनिक काल में न्याय को नागरिकों के हित साधन के रूप में लिया जाता हैं पर प्लेटो के लिए ऐसा नहीं था। प्लेटो का न्याय सामाजिक नैतिकता के अधिक निकट था। वह न्याय को व्यक्तिगत नैतिक अच्छाई (Moral goodness) (शुभता) तथा सामाजिक नीतिपरायणता (Social righteousness) से जोड़ता हैं। इस रूप में प्लेटो का न्याय सिद्धांत व्यक्तिगत और सामाजिक नैतिकता का सिद्धांत हैं। आधुनिक समय में प्रचलित 'विधि' का सिद्धांत नहीं हैं। प्लेटो मानता है कि नैतिक शुभ के विचार में साहस, संयम तथा विवेक का समावेश होता है। जो स्थिति नैतिक शुभ के विचार को लेकर व्यक्ति की हैं वही स्थिति सामाजिक नीतिपरायणता को लेकर राज्य की हैं। न्याय का जो रूप व्यक्ति की आत्मा में है वहीं रूप राज्य में भी निहित हैं। 

न्याय का चिंतन करते समय दो प्रश्न प्लेटो के सामने उपस्थित होते हैं-- प्रथम तो उसे न्याय की वास्तविक प्रकृति की खोज करनी हैं, दूसरे, उसे 'न्याय' के निवास स्थान को ढूंढ निकालना हैं। न्याय उसे एक ओर तो व्यक्ति के मानस में स्थित होता है और दूसरी ओर उसे समस्त नगर (राज्य या समाज) में इसका निवास दिखलाई पड़ता हैं। उसके विचार से व्यक्ति तथा राज्य में एक प्रकार की वैसी ही एकरूपता विद्यमान हैं, जैसी कि बड़े अक्षरों में और छोटे अक्षरों में होती हैं। राज्य व्यक्ति से बहुत बड़ा हैं अतः इस बात की अधिक सम्भावना हैं कि राज्य मे स्थित न्याय की प्रकृति ढूंढ निकालने पर व्यक्ति में स्थित न्याय के स्वरूप को समझना अधिक सरल होगा। 

प्लेटो के अनुसार न्याय के दो रूप हैं-- व्यक्तिगत और सामाजिक। 

वह मानवीय आत्मा (व्यक्ति) में तीन तत्व या नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ मानता हैं-- 

1. इन्द्रिय तृष्णा या वासना (Appetite), 

2. शौर्य या साहस (Spirit) 

3. बुद्धि या ज्ञान (Wisdom)। 

ये तीनों गुण जब उचित अनुपात में मानव मस्तिष्क में विद्यमान रहते हैं, तभी व्यक्ति न्याय का पालन कर सकता हैं। दूसरे शब्दों में इन्द्रिय तृष्णा, शौर्य तथा बुद्धि का उचित समन्वय और सामंजस्य व्यक्ति के जीवन में न्याय की सृष्टि करता हैं। 

तृष्णा, साहस, और बुद्धि प्लेटो के दर्शन के प्रमुख आधार हैं और इनसे समाज के तीन वर्ग बनते हैं। 

प्लेटो की मान्यता है कि व्यक्ति की भाँति राज्य में भी तीन गुण-- वासना, साहस और बुद्धि विद्यमान होते हैं। इन्हें पूरा करने के लिए राज्य निर्माण के उपर्युक्त तीन तत्वों के आधार पर प्लेटो ने अपने राज्य में तीन वर्गों की सत्ता मानी हैं-- 

1. तृष्णा या वासना (Appetite) तत्व की पूर्ति करने वाले उत्पादक या कृषक वर्ग, 

2. शौर्य या साहस (Spirit) गुण के प्रतिनिधि सैनिक या संरक्षक (Auxiliary Guardians), तथा 

3. बुद्धि या विवेक (Wisdom) गुण का प्रतिनिधित्व करने वाले संरक्षक (Guardian)। 

प्लेटो के अनुसार राज्य में जब शासक निःस्वार्थ भाव से शासितों के हितों की रक्षा करते हुए शासन कार्य करता हैं, सैनिक वर्ग प्राणों की बाजी लगाते हुए देश की सीमाओं की रक्षा करता है और उत्पादक वर्ग सब कष्टों को सहन कर अपने उपयोग की सामग्रियां पैदा करता हैं-- तभी राज्य में न्याय स्थिर रहता हैं। न्याय वस्तुतः कर्त्तव्य पालन से परे कोई वस्तु नहीं हैं। 

राज्य के इन तीन वर्गों-- दार्शनिक शासक, सैनिक वर्ग तथा उत्पादक वर्ग द्वारा अपने-अपने कार्य क्षेत्र में विशिष्टता (specialisation) प्राप्त कर लेना तथा अपने कर्तव्यों का समुचित रूप से निर्वाह करने का नाम ही 'न्याय' हैं। यह राज्य के तथा व्यक्ति के हित में हैं कि व्यक्ति अपनी प्राकृतिक प्रतिभा एवं क्षमता के आधार पर अपना एक कार्यक्षेत्र निर्धारित करे और उस कार्य में अधिक से अधिक योग्यता बढ़ाकर अधिकतम श्रेष्ठता (Excellence) पूर्वक कार्य करे। न्याय के सिद्धांत की माँग है कि राजा विवेकशील (wise) हो, सैनिक साहसी (courageous) हो और उत्पादक वर्ग आत्मा संयम (temperance) युक्त हो। अगर ऐसा है तो उस राज्य में 'न्याय' का निवास हैं, अन्यथा नहीं।

न्याय क्या हैं? न्याय का अधिवास कहाँ हैं? इसका उत्तर देते हुए प्लेटो ने कहा है कि," यह अपने निश्चित स्थान में अपने कर्तव्यों का पालन करना और दूसरे के कर्त्तव्यों में हस्तक्षेप न करना ही हैं और इसका निवास स्थान अपना निश्चित कर्तव्य पूरा करने वाले प्रत्येक नागरिक के मन में हैं। प्लेटो का न्याय संबंधी विशेषीकरण (Specialisation) इस विचार पर आधारित हैं कि एक व्यक्ति को केवल एक ही ऐसा कार्य कुशलतापूर्वक करना चाहिए जो उसके स्वभाव के नितान्त अनुकूल हो। 

प्लेटो के न्याय सिद्धांत की विशेषताएं  

प्लेटो के न्याय सिद्धांत की व्याख्या करते हुये डाॅ. नागपाल नाखरे ने लिखा हैं," व्यक्तिगत रूप से एक मनुष्य अपने कार्यों को जानकर उनका पालन करता हुआ अच्छा व्यवहार करे और सामाजिक रूप से दूसरे वर्ग के कार्यों में हस्तक्षेप न करे यही न्याय हैं।" प्लेटो के न्याय सिद्धांत की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-- 

1. एकता का सिद्धांत 

यद्यपि कार्यों और गुणों के आधार पर समाज में तीन वर्ग हैं, परन्तु यह वर्ग विभिन्नता के नही बल्कि एकता के प्रतीक हैं। 

2. तीन गुणों का समावेश 

प्लेटो के अनुसार 'न्याय' राज्य तथा व्यक्ति के मौलिक सद्गुणों का एक अंग हैं। व्यक्ति में तीन नैसर्गिक गुण हैं-- तृष्णा, साहस एवं बुद्धि। इन तीन गुणों का सुव्यवस्थित सन्तुलन और जीवन संचालन ही न्याय हैं। 

3. अहस्तक्षेप का सिद्धांत

नागपाल नाखरे के अनुसार प्लेटो का न्याय सिद्धांत अहस्तक्षेप का सिद्धांत हैं, क्योंकि इसमें समाज के तीनों वर्गों के कार्य निर्धारित कर दिये गये हैं। समाज के ये तीनों वर्ग अपना कार्य करेंगे व दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।  

4. विशिष्टीकरण का सिद्धांत 

समाज में तीन वर्ग हैं ये वर्ग अपने-अपने कार्यों में विशिष्टता प्राप्त करेंगे। इन तीनों वर्गों का विभाजन भी कार्य की विशिष्टता के आधार पर हुआ हैं। वेपर के शब्दों में," व्यक्ति जिस कार्य को सर्वश्रेष्ठ रूप से करे, वही करता रहे यही न्याय हैं। 

5. न्याय आन्तरिक हैं 

प्लेटो का न्याय वस्तुतः बाहरी शक्ति द्वारा व्यक्ति पर लादा नहीं गया हैं अपितु यह तो मनुष्य की अन्तरात्मा की आवाज हैं। 

6. अति व्यक्तिवाद का विरोध 

प्लेटो का न्याय सिद्धांत नग्न व्यक्तिवाद का घोर विरोधी हैं। प्लेटो नहीं मानता था कि समष्टि (राज्य-समाज) से भिन्न एवं प्रतिकूल व्यक्ति का कोई अस्तित्व अथवा हित हैं। उसके विचार से, व्यक्ति तथा राज्य दोनों का लक्ष्य एक श्रेष्ठ जीवन का विकास हैं। राज्य के अंग के रूप में अपनी प्राकृतिक क्षमता तथा प्रशिक्षण के आधार पर निर्धारित क्षेत्र में अधिक से अधिक श्रेष्ठता प्राप्त करके ही व्यक्ति अपने जीवन का समुचित विकास कर सकता हैं। 

7. मनोवैज्ञानिक आधार 

प्लेटो के न्याय संबंधी विचार मनोवैज्ञानिक तत्व लिए हुए हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य हैं कि अपनी प्राकृतिक क्षमता एवं तदनुरूप प्रशिक्षण पर आधारित अपने विशिष्ट कार्य क्षेत्र में रहकर काम करने वाले व्यक्ति को किसी की कोई शिकायत नहीं होगी। स्वभावतः ही वह अपने कार्य में अधिक रूचि लेगा एवं अपने तथा समाज के लिए अधिकतम श्रेष्ठता प्राप्त करने का अविरल प्रयत्य करेगा। 

8. दार्शनिक शासक 

न्याय की प्राप्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक हैं कि राज्य की शासन व्यवस्था विवेकशील, निःस्वार्थी और कर्तव्यपरायण व्यक्तियों के हाथ में हो। इन्हीं गुणों से युक्त समूह को प्लेटो के द्वारा शासक का नाम दिया गया हैं। 

9. न्याय: जीवन का एक आन्तरिक तत्व और सन्तुलनकारी धारणा 

न्याय कृत्रिम या बाहरी वस्तु न होकर मनुष्य के अन्तःकरण की एक पवित्र भावना हैं जिसका आधार आत्मा-संयम एवं आत्म-त्याग हैं।

प्लेटो के न्याय सिद्धांत की आलोचना 

प्लेटो के न्याय सिद्धांत की काफी आलोचना हुई हैं। स्वयं प्लेटो के परमशिष्य अरस्तू ने भी इसकी आलोचना की हैं। आलोचना करने वालों के मुख्य तर्क निम्नलिखित हैं-- 

1. कठोर समरूपता का सिद्धांत

अरस्तु, प्लेटो के न्याय सिद्धांत की इस आधार पर आलोचना करता है कि प्लेटो ने संपूर्ण को तीन भागों में विभाजित कर दियि हैं। उसकी यह व्यवस्था अत्यन्त कठोर हैं। उसकी इस व्यवस्था से तो समाज तीन वर्गों में विभाजित हो जायेगा, जिनमें से कोई एक वर्ग में विविधता नहीं पायी जायेगी। 

2. कोरी नैतिकता का सिद्धांत 

बार्कर का कहना हैं कि न्याय के सिद्धांत में न्याय की गारण्टी के लिए अधिकारों का समावेश होता हैं। दूसरों के अधिकार छीनने वालों को दण्ड देने का प्रावधान होता हैं, परन्तु प्लेटो के न्याय सिद्धांत में केवल कर्त्तव्यों का उल्लेख हैं। अतः यह न्याय का नहीं, कोरी नैतिकता का सिद्धांत हैं। 

3. अवैज्ञानिक आधार 

प्लेटो का न्याय सिद्धांत अवैज्ञानिक हैं। वह मनुष्य की आत्मा को तीन गुणों में बाँटता हैं। परन्तु क्या वासना, साहस और विवेक के अतिरिक्त आत्मा के और गुण नहीं हो सकते? क्या आवश्यक है कि व्यक्ति सदा एक ही गुण से संचालित हों? एक अच्छा सैनिक भी किसी समय विशेष में वासना के आवेश में आ सकता हैं।

4. व्यक्ति को राज्य का अधीनस्थ बना देना 

प्लेटो का न्याय सिद्धांत व्यक्ति को पूर्णतया राज्य के अधीन कर देता हैं। इकाई के रूप में व्यक्ति का, चाहे वह किसी भी वर्ग का क्यों न हो कोई विशेष महत्व नहीं माना गया हैं। 

5. प्रजातंत्र विरोधी 

झेनोफोन तथा जोन बोवले के अनुसार," प्लेटो का न्याय सिद्धांत अप्रजातान्त्रिक हैं। इसमें एक वर्ग का राजनीतिक शक्ति पर एकाधिकार हैं, जो अल्पसंख्यक हैं, जबकि दूसरे वर्ग को, जो बहुसंख्यक हैं उससे वंचित रखा गया हैं। 

6. अत्यधिक एकीकरण 

अरस्तु ने प्लेटो के सिद्धांत को अत्यधिक एकीकरण की दिशा में ले जाने वाला कहा हैं। यह व्यक्ति को राज्य के हित साधन के लिए यन्त्रमात्र समझता हैं। वह अपनी आत्मा के केवल उसी गुण का विकास कर सकता है जो अन्य दो गुणों से कुछ ज्यादा प्रबल हैं। अतः प्लेटो के न्याय सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था में व्यक्ति के बाकी के दो गुणों के विकास की आहुति 'अत्यधिक एकीकरण' की वेदी पर चढ़ा दी जाती हैं। 

7. अत्यधिक पृथक्करण 

जहाँ अरस्तू ने प्लेटो के न्याय सिद्धांत को 'अत्यधिक एकीकरण' की दिशा में ले जाने वाला कहा हैं, वहीं कुछ आलोचकों ने प्लेटो को राज्य के 'अत्यधिक पृथक्करण' के लिए जिम्मेदार ठहराया हैं। उनके विचार में प्लेटो का राज्य एक इकाई नहीं हैं, बल्कि एक राज्य के नागरिकों का वर्गीकरण करके तथा उनमें कार्यों का विभाजन करके, प्लेटो ने राज्य की एकता को आँच पहुँचायी हैं। इस वर्गीकरण एवं कार्य विभाजन के कारण, राज्य के विभिन्न वर्गों में सामान्य हित की भावना का अभाव हो जाता हैं। उनका समूचा ध्यान अपने वर्गगत हितों की ओर केन्द्रित हो जाता है और वे वर्गहित साधन के सिवाय अन्य किसी प्रकार के उद्देश्यों को ध्यान में नहीं रखते।

निष्कर्ष 

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अपनी कई कमजोरियों के होते हुए भी प्लेटो का न्याय सिद्धांत कई विलक्षणताओं, समाज की सुदृढ़ व्यवस्थाओं और समाज के हित के विचार को लिए हुए हैं। प्लेटो ने इस बात पर जोर दिया है कि व्यक्ति स्वयं के लिए ही नहीं हैं, अपितु उसका सामाजिक नैतिकता के प्रति भी दायित्व हैं। अपने सामाजिक दायित्वों को पूर्ण करने के लिए व्यक्ति को निजी हितों और स्वार्थों को त्यागना चाहिए। प्लेटो के सिद्धांत को 'नैतिक सामयिक' का सिद्धांत कह सकते हैं।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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