12/15/2021

अरस्तु के न्याय संबंधी विचार

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अरस्तु के न्याय संबंधी विचार 

arastu ke nyay sambandhi vichar;अरस्तु ने न्याय की महत्ता, अनिवार्य रूप से राज्य के लिए व्यक्त की हैं किन्तु वह 'नैतिकता' को उसका आधार न मानकर 'साधुता' को स्वीकार करता हैं। उसके न्याय संबंधी विचारों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता हैं। 

अरस्तु ने भी अपने गुरू प्लेटो की तरह ही राज्य के लिए न्याय को अति आवश्यक माना हैं। वह न्याय को एक प्रकार से समानता के निकट मानता हैं  अरस्तु ने अपने न्याय संबंधी विचारों की व्याख्या अपने ग्रंथ 'पाॅलटिक्स' में की हैं। उसके अनुसार न्याय का विशाल दृष्टिकोण (नैतिक) तथा संकुचित दृष्टिकोण, दोनों से देखा जा सकता हैं। 

अरस्तु ने न्याय की परिभाषा निम्न रूप से दी हैं," नेक कार्यों को व्यवहार रूप में प्रकट करना ही न्याय हैं।" 

बार्कर ने इस विषय में कहा हैं कि," अरस्तु ने न्याय शब्द का प्रयोग साधुता के लिए किया हैं। 

अरस्तु ने अपने न्याय-विचार संबंधी सिद्धांतों को दो भागों में विभक्त किया हैं--

1. सामान्य न्याय 

अरस्तु के अनुसार, सामान्य न्याय के अन्तर्गत वे सभी कार्य आते हैं, जिनमें नैतिक गुण और अच्छाई सम्मिलित होती हैं। अरस्तु सभी सद्गुणों को कार्य रूप न्याय मानता हैं। अर्थात् अरस्तु ने अच्छाई के समस्त कार्यों, समस्त सद्गुणों तथा समग्र साधुता को 'सामान्य न्याय' माना हैं। 

2. विशेष न्याय 

अरस्तु के अनुसार विशेष न्याय का तात्पर्य भलाई के विशेष रूप से हैं। अरस्तु ने विशेष न्याय का अर्थ यह बताया हैं कि वह जो कुछ, जिस व्यक्ति को मिलना चाहिए, उसे उसकी प्राप्ति अवश्य होनी चाहिए। अरस्तु विशेष न्याय का आनुपातिक समानता के अर्थ में लेता हैं। अरस्तु इस विशेष न्याय को भली प्रकार से समझाने हेतु दो भागों में विभक्त करता हैं-- 

(अ) वितरणात्मक न्याय 

अरस्तु के अनुसार," अनेक विभिन्न व्यक्तियों में पदों का न्यायोचित वितरम करने में व्यक्ति के व्यक्तिगत गुणों का विचार विद्यमान रहना चाहिए।" अर्थात् राज्य में राजनीतिक पदों एवं उपाधियों का वितरण न्याय के अनुसार होना चाहिए। उसके अनुसार किसी भी सम्मानीय पद पर किसी वर्ग विशेष की बपौती न होकर, जो जिस योग्य हो, उसे वह स्थान, पद या सम्मान मिलना चाहिए। अतः स्पष्ट हैं कि अरस्तु 'निरपेक्ष समानता' के पक्ष में नहीं हैं। अरस्तु ने वितरणात्मक न्याय व्यवस्था में आनुपातिक समानता को अत्यधिक महत्व दिया हैं।

(ब) संशोधनात्मक न्याय 

संशोधनात्मक अथवा सुरक्षात्मक न्याय से अरस्तु का आशय लोगों के पारस्परिक संबंधों अथवा व्यवहार को नियंत्रित करके व्यक्तियों के आपसी संबंधों में सुधार लाना हैं। यह न्याय एक-दूसरे व्यक्ति के संबंध को नियंत्रित करता हैं। संशोधनात्मक न्याय का अर्थ इस प्रकार भी लगाया जा सकता हैं कि," यह प्रत्येक व्यक्ति के क्षेत्र को निश्चित करता हैं और प्रत्येक व्यक्ति की उचित स्थिति का बोध करता हैं।" यह न्याय भी दो प्रकार के होते हैं--

(A) ऐच्छिक (Desired), 

(B) अनैच्छिक (Undesired) 

ऐच्छिक न्याय मे शक्ति एक-दूसरे से विभिन्न संधियों व समझौतों से व्यवहार करता हैं। इन संधियों व समझौतों को तोड़ने पर न्यायालय उनको ठीक करता हैं। 

अनैच्छिक न्याय के अन्तर्गत जब कोई नागरिक किसी दूसरे को कष्ट पहुँचाने की कोशिश करता हैं, तो राज्य कष्ट उठाने वाले व्यक्ति की सुनवाई करता हैं तथा अपराधी को उचित दण्ड देता हैं।

अरस्तु और प्लेटो के न्याय संबंधी विचारों में तुलना 

1. प्लेटो के न्याय का आधार नैतिकता के सिद्धांत पर टिका हुआ प्रतीत होता हैं, उसके अनुसार प्रत्येक को अपना-अपना कार्य सुचारू रूप से करते रहना चाहिए तथा किसी दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। 

अरस्तु के अनुसार न्याय का अर्थ हैं कि," प्रत्येक व्यक्ति को राज्य द्वारा उसकी योग्यता के आधार पर पद देना ही न्याय का सच्चा स्वरूप हैं।" 

2. प्लेटो न्याय में किसी भी प्रकार के भेद को नहीं स्वीकारता, जबकि अरस्तु सामान्य न्याय तथा विशिष्ट न्याय में अंतर मानता हैं। 

3. प्लेटो के न्याय की कल्पना विस्तृत परन्तु अस्पष्ट हैं, जबकि अरस्तु की न्याय की कल्पना स्पष्ट तथा वैज्ञानिक हैं। 

4. प्लेटो के न्याय सिद्धांत में अधिकारों की उपेक्षा कर्त्तव्य को अधिक महत्व दिया गया हैं, जबकि अरस्तु के सिद्धांत में अधिकारों का पुट ज्यादा हैं। प्लेटो समाज को श्रम-विभाजन तथा कार्य के विशेषीकरण के अनुसार बाँटता हैं, अरस्तु आनुपातिक समानता को लेकर चलता हैं।

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