रेग्यूलेटिंग एक्ट 1773 के पारित होने के कारण
रेग्यूलेटिंग अधिनियम पारित होने से पूर्व बंगाल की स्थिति अत्यंत दयनीय तथा नाजुक बन चुकी थी। कंपनी के सेवकों को बहुत कम वेतन मिलता था। कंपनी के सेवक बंगाल की जनता का शोषण करते थे। कंपनी के अंग्रेज कमचारी निजी स्वार्थ के लिए धन एकत्रित करने मे लगे रहते थे तथा अधिक धन एकत्रित करके इंग्लैंड वापस लौट जाते थे। जब वे इंग्लैण्ड वापस लौटते थे तो वहां उन्हें ऐश्वर्य तथा संपन्न होने पर नवाब कहा जाता था। अधिक धन होने पर प्रभावशाली होकर इंग्लैंड की संसद के सदस्य हो जाते थे। इस तरह ये सदस्य कंपनी के शेयर्स खरीद लेते थे।
इस परिस्थिति मे कंपनी की स्थिति बिगड़ती जा रही थी तथा उसकी आर्थिक स्थिति डावांडोल होने लगी। कंपनी को बिहार, बंगाल और उड़ीसा के क्षेत्र मे लगान वसूल करने के लिए ज्यादा खर्चा करना पड़ता था। सन् 1771 ई. तक कंपनी दिवालियेपन की स्थिति तक पहुंच चुकी थी। कंपनी के घाटे मे चलने के कारण अंशधारियों को भी लाभ नही मिल पा रहा था।
इसी समय एक घटना और घटी। कंपनी अब बिना आर्थिक सहायता के जीवित नही रह सकती थी। कंपनी ने अपने जीवन को बचाने के लिए ब्रिटिश शासन से कर्जा मांगा। इंग्लैंड की सरकार का मत था कि जब कंपनी के नौकर धनाढय हो रहे है तो कंपनी को भी धनी होना चाहियें। अगर कंपनी की आर्थिक स्थिति खराब है तो इसका अर्थ है कि कंपनी के ढांचे एवं प्रशासन मे अवश्य ही कोई कमी है।
इसी बीच बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा मे भीषण अकाल पड़ा। यह अकाल अत्यंत भयानक था। इस अकाल मे बंगाल की कुल जनसंख्या के 1/5 हिस्से की मृत्यु हो गयी। इस तरह सन् 1773 तक कंपनी की कमियां प्रत्येक व्यक्ति के सामने उजागर हो चुकी थीं। उस समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लाॅर्ड नाॅर्थ ने पाया कि जब तक कंपनी के प्रबंध को वैज्ञानिक नही बनाया जाता है तब तक बंगाल की स्थिति मे कोई भी सुधार नही किया जा सकता है। ब्रिटिश सरकार ने कंपनी को ऋण देने की प्रार्थना स्वीकार कर ली। परन्तु कंपनी पर नियंत्रण भी लगाया।
कंपनी की माली हालत को सुधारने के लिए सन् 1773 मे रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया गया। यह भी जरूरी समझा गया कि भारत मे कंपनी की स्वतंत्रता समाप्त करके उस पर ब्रिटिश संसद की श्रेष्ठता स्थापित की जाए।
इस तरह रेग्यूलेटिंग एक्ट का मुख्य उद्देश्य था कंपनी के प्रबंध मे सुधार करना तथा कलकत्ता के लिए एक प्रभावशाली एवं शक्तिशाली न्यायालय की स्थापना करना जो कंपनी के सेवकों तथा सरकार पर नियंत्रण स्थापित कर सकने मे सक्षम हो। अतः इंग्लैंड की संसद ने सन् 1773 मे रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया।
रेग्यूलेटिंग एक्ट (1773) की धाराएं (regulating act dharaye)
रेग्यूलेटिंग एक्ट (अधिनियम) की धाराएँ इस प्रकार से है--
1. बंगाल के गवर्नर को भारत मे ईस्ट इंडिया कंपनी का गवर्नर जनरल बनाया गया तथा बम्बई एवं मद्रास के गवर्नर उसके अधीन कर दिये गये।
2. इंग्लैंड के कोर्ट ऑफ प्रोप्राइटर्स मे वोट देने का अधिकार केवल उन लोगों को दिया गया जो चुनाव से कम से कम एक वर्ष पहले से ही एक हजार पौण्ड के शेयर्स के स्वामी रहे हों।
3. कंपनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की कार्यावधि चार वर्ष निश्चित की गई। डायरेक्टर्स की संख्या 24 रखी गई। इनमे से प्रतिवर्ष 25% को अवकाश दे दिया जायेगा।
4. डायरेक्टर्स को वित्त विभाग एवं राजसचिव के सम्मुख सैनिक एवं असैनिक सभी प्रशासनिक पत्र-व्यवहार को प्रस्तुत करना पड़ेगा।
5. बंगाल मे गवर्नर जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद बनाई गई। इसमे निर्णय बहुमत से पारित होने थे। अध्यक्ष केवल मत बराबर होने की स्थिति मे ही निर्णायक मत दे सकता था। कोरम अथवा गणपूर्ति की संख्या तीन थी। प्रथम गवर्नर जनरल वाॅरेन हेस्टिंग्ज तथा पार्षद फिलिप फ्रांसीसी, क्लैवरिंग, माॅनसन एवं बारवेल का नाम तो अधिनियम मे ही लिख दिया गया था। ये सदस्य पाँच वर्ष के लिए नियुक्त किये गये थे तथा केवल कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की अनुशंसा पर सम्राट के द्वारा ही हटाये जा सकते थे। भावी नियुक्तियाँ कंपनी द्वारा की जानी थीं। गवर्नर जनरल सपरिषद् को बंगाल का सैनिक एवं असैनिक प्रशासन का अधिकार एवं कुछ विशेष मामलों मे मद्रास तथा बम्बई की प्रेसीडेन्सी के अधीक्षण का भी अधिकार प्राप्त हुआ।
6. रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा यह आधारभूत सिद्धांत निश्चित किया गया कि-- "कोई भी व्यक्ति जो कंपनी के अधीन सैनिक अथवा असैनिक पदाधिकारी हो, वह किसी भी व्यक्ति से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कोई उपहार, दान, पुरस्कार आदि नही ले सकता।
7. कंपनी कर्मचारियों के वेतन बढ़ा दिये गये। गवर्नर जनरल को 25,000 पौंड, पार्षद को 10,000 पौंड, मुख्य न्यायाधीश को 8,000 पौंड तथा कनिष्ठ न्यायाधीशों को 6,000 पौंड वार्षिक वेतन देने का प्रावधान किया गया।
रेग्यूलेटिंग एक्ट की कमियां, दोष या आलोचना (regulating act ki kamiya)
1. गवर्नर जनरल का पद तो बना दिया गया किन्तु उस पर परिषद का नियंत्रण था, अतः वह जरूरी मामलों मे भी तत्काल निर्णय नही ले सकता था। बहुमत का निर्णय उसे लाचार कर देता देता था।
2. सर्वोच्च न्यायालय का कार्य क्षेत्र निश्चित नही किया गया।
3. गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् के सदस्य सर्वोच्च न्यायालय के अधीन हो गये।
4. मद्रास एवं बम्बई प्रेजिडेंसी पर गवर्नर जनरल के प्रभुत्व का स्वरूप निश्चित नही किया गया।
5. ब्रिटिश सरकार तथा संसद कंपनी के मामलों मे पूर्ण रूप से हस्तक्षेप नही कर सकते थे।
6. मतदाता की योग्यता के स्तर मे वृद्धि होने से कंपनी पर कुछ धनी व्यक्तियों का अधिकार हो गया।
रेग्यूलेटिंग एक्ट का महत्व (regulating act ka mahatva)
किसी भी यूरोपीय समुद्रपारीण शक्ति द्वारा दूसरे देश मे प्रशासन स्थापित करने का यह प्रथम प्रयास था।
इसके द्वारा बम्बई, मद्रास एवं कलकत्ता मे बिखरी हुई ब्रिटिश व्यापारिक बस्तियों को एक सुनियंत्रित कुशल एवं ईमानदार प्रभुसत्ता के अंतर्गत राजनीतिक शक्ति मे बदलने का प्रयास किया गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एकरूप न्यायिक प्रणाली की प्रथा भी प्रारंभ हुई, किन्तु भारतीय परिवेश से अनभिज्ञ होने के कारण यह अधिनियम त्रुटिपूर्ण था। इसने वाॅरेन हेस्टिंज की कठिनाईयाँ बढ़ा दीं। रेग्यूलेटिंग एक्ट ग्यारह वर्षों तक चला फिर 1784 मे पिट्स इंडिया एक्ट को इसके स्थान पर लागू किया गया।
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itna acha explanation maine aaj tak ki upsc ki preparation mein nahi dekha bahut bahut dhnyawad apka
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