10/01/2020

आंग्ल फ्रांसीसी संघर्ष मे अंग्रेजों की सफलता के कारण

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 प्रश्न; भारत मे अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की असफलता के कारण। 

अथवा

आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष मे अंग्रेजों की विजय या फ्रांसीसियों की पराजय के कारणों का वर्णन।

अथवा

आंग्ल फ्रांसीसी संघर्ष मे अंग्रेजों की सफलता के कारणों पर प्रकाश डालिये।

अथवा 

कर्नाटक युद्धों मे अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की हार के क्या कारण थे?

अथवा 

आंग्ल फ्रांसीसी संघर्ष के कारणों एवं परिणामों की विवेचना कीजिये।

अथवा 

कर्नाटक युद्धों मे अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की हार के क्या कारण थे।

अथवा

आंग्ल फ्रांसीसी संघर्ष मे अंग्रेजों की सफलता के कारण बताइये।

दक्षिण भारत मे अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के बीच कर्नाटक मे 1740 ई. से लेकर 1763 ई. के बीच लगातार तीन युद्ध हुए--

1. प्रथम कर्नाटक युद्ध (1740-1748 ई.)

2. द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1748-1754 ई.)

3. तृतीय कर्नाटक युद्ध (1756-1763 ई.)

जिनमे अंत मे अंग्रेजों की विजय तथा फ्रांसीसियों की पराजय हुई। इस संघर्ष मे अंग्रेजों की सफलता तथा फ्रांसीसियों की असफलता के कई कारण थे, जिनमे से मुख्य इस प्रकार है--

आंग्ल फ्रांसीसी संघर्ष मे अंग्रेजों की सफलता और फ्रांसीसियों की पराजय  के कारण

1. राजनीतिक कारण

फ्रांसीसी सरकार भारत स्थित फ्रेंच कंपनी के कार्यों तथा नीति मे अभिरूचि नही लेती थी। जब अंग्रेज यूरोप मे विजयी तथा फ्रांसीसी पराजित हुए तो इसका कुप्रभाव फ्रांसीसी कंपनी की आर्थिक दशा और राजनीतिक सत्ता पर पड़ता था और फ्रांस की सरकार कंपनी के भारत मे स्थित अधिकारियों के प्रति अच्छा व्यवहार नही करती थी। डूप्ले को बंदी बनाना, लैली को मृत्युदण्ड देना इसके उदाहरण है। इसके प्रतिकूल इंग्लैंड की सरकार अंग्रेज अधिकारियों को सहयोग तथा सहायता देती थी। इससे कंपनी के अधिकारियों तथा कर्मचारियों पर अच्छा प्रभाव पड़ता था।

2. अंग्रेजों की बंगाल विजय  

अंग्रेजों की बंगाल मे विजय एक महत्वपूर्ण कारण थी। न केवल इससे इनकी प्रतिष्ठा बड़ी अपितु इससे बंगाल का अपार धन तथा जनशक्ति उन्हे मिल गयी। जिस समय काउण्ट लैली को अपनी सेना के वेतन देने की चिंता थी, बंगाल से कर्नाटक को धन तथा जन दोनों भेजे जा रहे थे। दक्खिन इतना धनी था कि डूब तथा लैली की महत्वाकांक्षाओं को साकार कर सकता। यद्यपि उत्तरी सरकार बुसी के पास था परन्तु वह केवल डेढ़ लाख रूपये ही भेज पाया।

3. स्वरूप मे भिन्नता

अंग्रेजी कंपनी एक निजी व्यापारिक कम्पनी थी। उसके प्रबंध मे कोई विशेष हस्तक्षेप नही किया जाता था। प्रशासन इस कंपनी के कल्याण मे विशेष रूचि दर्शाता था। जबकि फ्रांसीसी कम्पनी के मामलों मे सरकार का अत्यधिक हस्तक्षेप था।

4. फ्रांसीसी कंपनी की आर्थिक दुरावस्था 

फ्रांसीसी कम्पनी की आर्थिक स्थिति सोचनीय थी। डूप्ले की महत्वाकांक्षी योजनाओं, फ्रांसीसी सरकार ने कभी आर्थिक सहयोग नही दिया। इसके विपरीत बंगाल जैसे समृद्ध सूबे के व्यापार से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक स्थिति अत्यंत सुदृढ़ थी।

5. भारत मे योग्य फ्रांसीसी सेनापतियों का अभाव

इंग्लैंड के क्लाइव, लाॅरेन्स एवं आयरकूट जैसे उच्च कोटि के सेनानायक, कुशल संगठनकर्ता एवं सक्षम फ्रांस के पास नही थे। डूप्ले, बूसी एवं लैली अपने अनेक गुणों के बावजूद सफल राजनीनिज्ञ नही थे तथा उनके व्यक्तिगत दोषों ने कंपनी का अहित संपादन किया। अंग्रेज नेता, सेनापति सदैव पारंपरिक विश्वास से एकजुट होकर कार्य करते थे परन्तु फ्रांसीसी अफसरों मे बहुधा द्वेषभाव, प्रतिद्वंद्विता और स्वार्थपरता रहती थी अतः उनकी योजनाएँ सफल नही हो पाती थी।

6. अंग्रेजों की श्रेष्ठ जल सेना

अंग्रेजों की जल सेना फ्रांस की बजाय ज्यादा श्रेष्ठ और सुदृढ़ थी, समुद्र तट के कुछ विशिष्ट स्थानों पर फ्रांस की बजाय उनका अधिकार अच्छा, व्यापक और दृढ़ था। श्रेष्ठ जल सेना ने व्यवधान पैदा करने वालों को परास्त भी किया व युद्ध के समय संकटकाल मे वे अपनी सेना को रसद तथा सैनिक मदद भी पहुँचाते रहे। इससे प्रतिकूल फ्रांसीसी जल सेना दुर्बल थी। युद्धकाल मे फ्रांसीसी कम्पनी का व्यापार शत्रुओं के कारण लगभग बंद सा हो जाता था। इससे व्यापार तथा युद्धों मे असफलता हाथ लगी।

7. शक्ति केन्द्र 

भारत मे अंग्रेजों का अधिकार कलकत्ता, मद्रास एवं बम्बई पर था। ये तीनों ही उनकी शक्ति के केन्द्र थे। तीनों स्थान एक दूसरे से काफी दूर स्थिति होने के कारण शत्रु तीनों स्थानों पर एक साथ अधिकार नही कर सकता था, जबकि पांडिचेरी के छिन जाने पर फ्रांसीसियों की पराजय निश्चित थी।

8. डूप्ले की नीतियाँ 

डूप्ले एक उत्तम नेता होते हुये भी फ्रांसीसियों की हार के लिये उत्तरदायी था। वह राजनीतिक षड्यंत्रों मे इतना उलझ गया था कि उसने वित्तीय पक्षों की अवहेलना की, अतः उनका व्यापार जो पहले भी बहुत अधिक नही था, अब और भी कम होना शुरू हो गया। यह एक बहुत ही आश्चर्यपूर्ण बात है कि डूप्ले जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति ने यह समझा कि दक्षिण मे अनुसरण की गयी नीति राजनीतिक रूप से उचित है। सन् 1751 ई. मे मुजफ्फरजंग द्वारा डूप्ले को कृष्ण नही के पास के मुगल क्षेत्रों का गवर्नर नियुक्त किये जाने को अंग्रेज सुगमता से स्वीकार नही कर सकते थे। दूसरे, वह यह भी नही समझ पाया कि भारत मे दोनों कम्पनियों का झगड़ा वास्तव मे यूरोप तथा अमरीका मे दोनों राष्ट्रों के झगड़े का ही एक अंग है। इसके अतिरिक्त उसे अत्यधिक आत्मविश्वास था और उसने पेरिसे मे अपने अफ़सरों को कुछ अति महत्वपूर्ण सैनिक तथा सामुद्रिक सामरिक दुर्बलताओं एवं कठिनाईयों के विषय मे नही बताया और यदि उसे सामयिक सहायता नही मिली तो यह केवल उसका अपना ही दोष था।<

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