मृदा अपदन किसे कहते है? (mrida apardan kise kya hai)
mrida apardan arth karan prabhav prabhavit karne vale karak rokne ke upay ;मृदा अपरदन मृदा (मिट्टी) के आवरण को हटाना या स्थानान्तरित होना मृदा अपरदन कहलाता है। मृदा अपरदन से आशय मिट्टी के विनाश (नुकसान) से है। वनस्पतिविहीन नरम मृदा पर अपरदन की प्रक्रिया तीव्र होती है। अपरदन की तीव्र गति के कारण भारत मे मिट्टियों की उर्वरा शक्ति प्रतिवर्ष कम होती जा रही है। भूमि के अपरदन की यह समस्या देश के लिए चिन्ताजनक है। मृदा अपरदन का यह परिणाम भूमि तक ही सीमित नही है। इसका फल मनुष्यों को भी भुगतना पड़ता है, क्योंकि इससे भूमि की पैदावार निरंतर क्षीण होती जाती हैं।
मृदा अपरदन मुख्य रूप से दो रूपो मे देखने को मिलता है--
1. परत अपरदन
जब मिट्टी की क्षैतिज परते तेज हवा या भारी वर्षा द्वारा उड़ाकर या बहाकर ले जायी जाती है तो इस प्रकार का अपरदन परत अपरदन कहलाता है। परत अपरदन मुख्य रूप से वनस्पतिविहीन क्षेत्रों के अलावा जलोढ़ मिट्टी वाले क्षेत्रों मे होता है।
2. अवनालिका अपरदन
ढालयुक्त भूमि पर जलीय अपरदन द्वारा प्रायः लम्बी तथा सँकरी नलियां निर्मित हो जाती है। यह अवनालिकाएं प्रायः पर्वतीय ढालो तथा मुलायम व बुलुई मिट्टी वाले क्षेत्रों मे बहुतायत से निर्मित होती है। प्रवाहित जल द्वारा पतली एवं लम्बी नालियो के रूप मे होने वाला मृदा अपरदन अवनालिका अपरदन कहलाता है।
मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले कारक (mrida apardan prabhavit krne vale karak)
मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले कारक इस प्रकार है--
1. जलवायु कारक
मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले जलवायु कारकों मे वर्षा की मात्रा, तापमान तथा वायु का वेग प्रमुख है। सामान्यतया वर्षा की अधिक मात्रा मृदा अपरदन को बढ़ाती है, जबकि कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मृदा अपरदन का कम प्रभाव देखने को मिलता है। बर्षा द्वारा होने वाले मृदा अपरदन की मात्रा वनस्पति आवरण से संबंधित होती है। सघन वनाच्छादित क्षेत्रो मे अधिक वर्षा होने पर भी न्यूनतम मृदा अपरदन होता है, जबकि वनस्पति रहित क्षेत्रो मे सामान्यतया बर्षा तथा मृदा अपरदन मे सीधा संबंध मिलता है।
तापमान का मृदा अपरदन पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है। तापान्तर अधिक रहने पर चट्टानें अपक्षयित होकर ढीली हो जाती है तथा इससे यह चट्टाने मृदा अपरदन के प्रति पूर्व की तुलना मे अधिक संवेदनशील हो जाती है। यही कारण है कि उष्ण तथा उपोष्ण भू-भागों मे जहां वार्षिक व दैनिक तापान्तर अधिक रहते है, मृदा अपरदन की दर अधिक मिलती है।
विश्व के उन शुष्क तथा अर्द्धशुष्क भागो मे जहां धरातल पर बालू व रेत जमाव मिलते है, हवाओ द्वारा उच्च स्तर पर मृदा अपरदन किया जाता है। सहारा, थार तथा अरब के रेगिस्तानी भागो मे वायु के प्रबल वेग से रेत के छोटे-बड़े टीले एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होते रहते है।
2. धरातलीय ढाल
धरातलीय ढाल मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले कारको मे महत्वपूर्ण है। जिन भू-भागो मे तीव्र ढाल प्रवणता होती है, उनमें कम ढाल प्रवणता वाले भू-भागों की तुलना मे अधिक भृदा अपरदन होता है। तीव्र ढाल प्रवणता वाले भू-भागों मे प्रवाही जल चट्टानों को तीव्र प्रवाह के कारण शीघ्रता से अपरदित करता है।
3. वनस्पति कारक
वनस्पति मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाला सर्वाधिक प्रभावी कारक है। एक तो सघन वन आवरण वर्षा के जल को रोकते है, दूसरे, मिट्टी को अपनी जड़ो मे बाँधे रखते है। वनो के काटे जाने पर जल का बहाव बढ़ जाता है, जिससे वर्षा का जल अपेक्षाकृत अधिक मात्रा मे मिट्टी कटाव करने मे सक्षम हो जाता है।
4. मृदा कारक
मृदा की अपरदनशीलता मृदा अपरदन की दर से सीधा संबंध रखती है। मृदा की अपरदनशीलता मिट्टी के कणों के आकार, मिट्टी की संरचना, मिट्टी की पारगम्यता और प्रवेशता तथा मिट्टी मे पादप जड़ो के घनत्व आदि पर निर्भर करती है। जिन मिट्टियों मे अपरदनशीलता अधिक होती है वह अपरदन कारको द्वारा शीघ्र अपरदित कर दी जाती है, जबकि न्यून अपरदनशीलता (जैसे प्राचीन कठोर चट्टानें) वाले भू-भाग मे मिट्टी कटाव की दर न्यून रहती है।
5. अत्यधिक पशूचारण
भूमि पर घास के आवरण मे कमी होने के साथ-साथ मिट्टी कटाव को बढ़ावा मिलती है। जिन स्थानो पर पशुओं की संख्या अधिक है और चरागाह सीमित है उन निरन्तर चराई करने से मृदा अपरदन को बढ़ावा मिलता है।
6. मानवीय क्रियाये
मृदा अपरदन से संबंधित मानवीय क्रियाएं कभी-कभी प्राकृतिक क्रियाओं की अपेक्षा अधिक प्रभावशील होती है, जो निम्न है--
(अ) जुताई के गलत ढंग
ढालू धरातल पर ढाल की दिशा के अनुरूप जुताई एवं बुवाई करना कुछ ऐसे गलत तरीके है जो कि मृदा अपरदन मे सहायता प्रदान करते है। खेत को जोतकर खुला छोड़ देना भी एक गलत ढंग है। इससे मिट्टी के उपजाऊ तत्व या तो उड़ जाते या बह जाते है। इन कारणों मे टनो मिट्टी बहकर या उड़कर समुद्र या आन्तरिक जलाशयों मे एकत्र होती रहती है।
(ब) अस्थाई कृषि
इस प्रकार की कृषि पहाड़ी भागो मे रहने वाली आदिम जातियाँ ही मुख्य रूप से करती है जिसके अंतर्गत एक छोटे क्षेत्र मे झाड़ियो एवं वृक्षो आदि को काटकर जला दिया जाता है। उस स्थान पर दो या तीन वर्ष खेती करने के बाद उसे छोड़कर नये स्थान पर खेती की जाती है। इस प्रकार आदिवासियों के क्षेत्रों मे निरन्तर वनों को काटा जा रहा है और वृक्षारोपण पर कोई ध्यान नही दिया जाता, जिसके फलस्वरूप मृदा अपरदन मे वृद्धि हो रही है।
(स) वर्षा ऋतु मे फसलों का न बोना
जिन क्षेत्रों मे वर्षा ऋतु मे कोई फसल नही बोयी जाती, उनमे मिट्टी कटाव बड़ी शीघ्रता से होता है जिसका प्रमुख कारण वर्षा के जल का भूमि पर सीधा प्रभाव ही है।
(द) अस्थिर ढालों पर खेती करना
जिन ढालो पर मिट्टी असंगठित एवं वनस्पतिविहीन पायी जाती है उन ढालों पर खेती करने से भी मृदा अपरदन होता है।
मृदा अपरदन के प्रभाव/हानियां
मृदा अपरदन के प्रभावस्वरूप निम्न समस्याएं उत्पन्न होती है--
1. मिट्टी की कटती हुई उर्वरा शक्ति
जिन क्षेत्रों मे मिट्टी का कटाव वृहद् स्तर पर होता है, उन क्षेत्रों मे मिट्टी की गहराई कम हो जाती है जिससे पानी को अधिक समय तक रोकने की उनकी क्षमता भी घट जाती है। इसके अतिरिक्त मिट्टी की अत्यधिक उपजाऊ ऊपरी परत, जिसमे वनस्पति का भोजन (जीवांश सहित) विद्यमान रहता है, नष्ट हो जाती है। इसके बाद की परत इतनी ऊपजाऊ नही होती।
2. भयंकर बाढ़े
उन क्षेत्रों मे जहां वनो को पूर्णतया साफ कर दिया गया है, बाढ़े कम समय के अन्तर से एवं भयंकर रूप से आती है, जिससे लाखों की संख्या मे पशु तथा मनुष्य मर जाते है। फसलों, यातायात, संचार-व्यवस्था, व्यापार आदि सभी पर मृदा अपरदन का कुप्रभाव पड़ता है। भारत की कोसी, सोना, स्वर्ण रेखा, तिस्ता, ब्रह्रापुत्र, महानदी, गोदावरी और गंगा एवं यमुना नदियो मे प्रायः बाढ़े आती रहती है जो काफी भयंकर साबित होती है। इसका प्रमुख कारण पहाड़ी क्षेत्रों मे वनो का काटा जाना ही है। यह अनुमान लगाया गया है कि गंगा नदी, मिसीसिपी नदी की अपेक्षा आठ गुना अवसाद बहाकर ले जाती है। चीन की पाली नदी बंजर उच्च भूमि से 2500 मिलियन टन प्रतिवर्ष की दर से मिट्टी का प्रवाह करती है।
3. नदियों तथा तालाबों मे मिट्टी का जमाव
जल के साथ कटी हुई या हवा द्वारा उड़ायी गयी मिट्टी नदियो, झीलो या तालाबों मे एकत्र होती रहती है। आँधी या बाढ़ के समय मिट्टी के वहन एवं जमाव का कार्य बड़ी तेजी के साथ होता है। इसके अतिरिक्त जिन नदियों पर बाँध बने है उन नदियों के साथ बहकर आने वाली मिट्टी निरन्तर बाँधों मे एकत्र होती रहती है। नदियों मे मिट्टी के निरन्तर जमाव से कालान्तर मे नदियां अपना मार्ग ही बदल देती है। झीलें उथली हो जाती है और कभी-कभी समाप्त भी हो जाती है।
4. मिट्टी की निचली परत के जल स्तर मे कमी होना
वनस्पतिविहीन क्षेत्रो मे निरन्तर तीव्र वर्षा के कारण मिट्टी की ऊपरी परत का तो क्षरण होती है, इसके साथ-साद मिट्टी की निचली पतर भी पानी को इतनी शीघ्रता से नही सोख पाती है। अतः जल का स्तर नीचा हो जाता है जिसका कृषकों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और सिंचाई के साधनों-- कुओं एवं ट्यूबवैलों से पानी प्राप्त करने के लिए अधिक व्यय करना पड़ता है। सूखे के वर्षों मे तो बहुत ही कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे क्षेत्रों मे वृक्षों को भी भूमि से पानी नही मिल पाता।
मृदा अपरदन रोकने के उपाय (मृदा संरक्षण) (mrida apardan rokne ke upay)
बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण प्राकृतिक संसाधनों का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ है। जिसमे अनेक प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने का खतरा पैदा हो गया है। इसलिए मृदा संरक्षण द्वारा विनाश रोकना आवश्यक है। मृदा संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं---1. पहाड़ी एवं पर्वतीय क्षेत्रों में सीढ़ीदार खेतों मे फसल उगाना।
2. खेतों मे बँधिकाएं बनाकर नालीदार अपरदन को रोकना।
3. शुष्क प्रदेशों मे पवन की गति को रक्षकमेखला (पेड़ पौधों की बाड़) द्वारा कम करके मृदा अपरदन को रोकना। पहाड़ी ढालों पर तथा बंजर भूमि मे वृक्षारोपण करना तथा पशुओं की चराई पर नियंत्रण रखना।
4. पर्वतीय ढालों एवं ऊँचे-नीचे क्षेत्रों मे बहते हुए जल का संग्रह करना।
5. ग्रामीण क्षेत्रों मे चारागाहों का विकास करना।
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