प्रश्न; समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र का वर्णन कीजिए।
अथवा" समाजशास्त्र के क्षेत्र की व्याख्या कीजिए।
अथवा" समाजशास्त्र के क्षेत्र के विषय में प्रचलित सम्प्रदायों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
उत्तर--
समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र
इंकल्स कहते हैं कि," समाजशास्त्र परिवर्तनशील समाज का अध्ययन करता है, इसलिए समाजशास्त्र के अध्ययन की न तो कोई सीमा निर्धारित की जा सकती है और न ही इसके अध्ययन क्षेत्र को बिल्कुल स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जा सकता है।"
क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि यह विज्ञान कहाँ तक फैला हुआ है।
अन्य शब्दों में क्षेत्र का अर्थ उन सम्भावित सीमाओं से है जिनके अन्तर्गत किसी विषय या विज्ञान का अध्ययन किया जा सकता है।
प्राय: कुछ लोग विषय क्षेत्र (Scope) तथा विषय-वस्तु (Subject-matter) को एक ही समझ लेते हैं जबकि दोनों में पर्याप्त अन्तर है। विषय क्षेत्र का तात्पर्य वे सम्भावित सीमाएँ हैं जहाँ तक किसी विषय का अध्ययन सम्भव होता है, जबकि विषय-वस्तु वे निश्चित सीमाएँ हैं जिनके अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता है। प्रत्येक सामाजिक विज्ञान व्यक्तियों के सामाजिक जीवन को तथा विभिन्न घटनाओं को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है। उदाहरणार्थ, अर्थशास्त्र आर्थिक दृष्टिकोण से राजनीतिशास्त्र राजनीतिक दृष्टिकोण से, मनोविज्ञान मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से तथा समाजशास्त्र सामाजिक दृष्टिकोण से घटनाओं का अध्ययन करते हैं। विभिन्न दृष्टिकोण होने के बावजूद किसी भी सामाजिक विज्ञान का विषय क्षेत्र निर्धारित करना एक कठिन कार्य है एक आधुनिक विज्ञान होने के नाते समाजशास्त्र में यह कठिनाई अन्य विज्ञानों की अपेक्षा कहीं अधिक है।
समाजशास्त्र एक नव-विकसित एवं प्रगतिशील विज्ञान हैं इस स्थिति में समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के विषय में विद्वानों में आपसी मतभेद होना स्वाभाविक ही हैं। समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के विवाद को लेकर दो विभिन्न सम्प्रदायों स्वरूपात्मक या विश्लेषात्मक सम्प्रदाय और समन्वयात्मक का विकास हो चुका हैं। ये दोनों सम्प्रदाय अपने-अपने ढंग से समाजशास्त्र के क्षेत्र का निर्धारण कर रहे है। ये सम्प्रदाय निम्नलिखित हैं--
(अ) स्वरूपात्मक अथवा विश्लेषात्मक सम्प्रदाय
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र का वर्णन करने वाला प्रथम सम्प्रदाय स्वरूपात्मक अथवा विशेषात्मक सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय को यथारूपेण सम्प्रदाय के नाम से भी जाना हैं। इस सम्प्रदाय को जर्मन सम्प्रदाय भी कहा जाता हैं। इसका कारण यह है कि इस सम्प्रदाय के संस्थापक तथा समर्थक ज्यादातर जर्मन समाजशास्त्री हैं। इस सम्प्रदाय के मुख्य अनुयायी विद्वान हैं-- जार्ज, सिमेल, वीरकान्त, वाॅनवीज, मैक्स वेबर, राॅस, पार्क, बरगेश तथा टाॅनीज आदि।
स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की विशेषताएं
स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की कुछ मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं--
1. स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र विशेष विज्ञान हैं।
2. इस सम्प्रदाय के विद्वानों ने समाज तथा इसके तथ्यों को दो भागों में बांटा हैं-- स्वरूप तथा अन्तर्वस्तु।
इस सम्प्रदाय के विद्वानों का विचार है कि समाजशास्त्र के अन्तर्गत सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन किया जाना चाहिए।
3. इस सम्प्रदाय के विद्वानों के अनुसार समाजशास्त्र शुद्ध विज्ञान हैं।
4. इस सम्प्रदाय के विद्वानों का विचार हैं कि समाजशास्त्र अमूर्त तथा विश्लेषणात्मक विज्ञान हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि इस सम्प्रदाय के सभी विद्वान समाजशास्त्र को विशिष्ट विज्ञान स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार समाजशास्त्र भी अन्य सामाजिक विज्ञानों की तरह एक स्वतंत्र विज्ञान हैं, जिसका अपना एक विशिष्ट अध्ययन क्षेत्र हैं। इस सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र मानवीय संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन हैं। यह सम्प्रदाय सामाजिक संबंधों के स्वरूपात्मक पक्ष पर अधिक जोर देता हैं। इस सम्प्रदाय के मुख्य विद्वानों के विचारों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं--
1. मैक्स वेबर के विचार
जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने यह विचार दिया कि मानव-संबंधों का क्षेत्र बहुत व्यापक है और इस कारण सभी प्रकार के संबंधों का अध्ययन करने से समाजशास्त्र को वैज्ञानिक नहीं बनाया जा सकता। इस दृष्टिकोण से समाजशास्त्र में केवल सामाजिक क्रियाओं का ही अध्ययन किया जाना चाहिए। मैक्स वेबर ने सामाजिक क्रिया को एक विशेष अर्थ में परिभाषित किया हैं। मैक्स वेबर के अनुसार सामाजिक क्रिया में दो मुख्य विशेषताएं होती हैं--
(अ) सामाजिक क्रिया वह क्रिया है जो एक-दूसरे लोगों के व्यवहारों से प्रभावित होती हैं, और
(ब) सामाजिक क्रिया अर्थपूर्ण होती हैं।
उदाहरण के लिए, यदि कोई जादूगर लोगों को जादू का खेल दिखा रहा हो अथवा एक चोर किसी ऐसे कमरे से सामना चुरा रहा हो जहाँ का मलिक गहरी नींद में सो रहा हो, तो इन व्यवहारों को हम सामाजिक क्रिया नहीं कहेंगे। क्रिया सामाजिक केवल तभी होती है जब उसका पूर्व-निर्धारित उद्देश्य होता हैं और वह दूसरों के व्यवहारों से प्रभावित होती हैं अथवा किसी के व्यवहार को प्रभावित करती हैं। इन दोनों उदाहरणों में क्रिया एकपक्षीय हैं, जो दूसरे लोगों के व्यवहार से प्रभावित नहीं होती। इसके विपरीत, किसी व्यक्ति से नेता अथवा अनुयायी के संबंध रखना अथवि किसी को सामाजिक नियमों के अनुसार कार्य करने को बाध्य करना 'सामाजिक क्रिया' हैं। मैक्स वेबर के अनुसार सामाजिक क्रिया सम्पूर्ण संबंधों का एक विशेष भाग हैं, इस कारण समाजशास्त्र को भी एक 'विशेष सामाजिक विज्ञान' की श्रेणी में ही रखा जा सकता हैं।
2. वानविज के विचार
वानविज भी स्पष्ट रूप से सामाजिक संबंधों के स्वरूपों के अध्ययन को ही समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र मानता है। उसने समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र को स्पष्ट करने के लिए सामाजिक संबंधों को 650 प्रकारों में वर्गीकृत किया हैं।
3. जार्ज सिमेलक के विचार
सिमेल ने अपने विचार व्यक्त करने के लिए सबसे पहले अन्तर्वस्तु तथा स्वरूप में अंतर स्पष्ट किया हैं, स्वरूप एवं अन्तर्वस्तु दो भिन्न तथ्य हैं। कोई कोई भी वस्तु स्वरूप एवं अन्तर्वस्तु के योग से बनती हैं। जार्ज सिमेल ने अन्तर्वस्तु एवं स्वरूप के इस अंतर को ही सामाजिक संबंधों पर भी लागू किया हैं। उसका कहना है कि समाजशास्त्र का संबंध सामाजिक संबंधों के स्वरूपों के अध्ययन से हैं। समाजशास्त्र विशिष्ट विज्ञान हैं तथा वह केवल सामाजिक संबंधों के स्वरूपोंका ही अध्ययन करता हैं।
4. टानीज के विचार
टानीज भी समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान की श्रेणी में रखने का पक्षपाती हैं। उसका कहना हैं कि समाजशास्त्र को विशिष्ट विज्ञान बनाने के लिए आवश्यक हैं कि इसके अन्तर्गत सामाजिक संबंधों के केवल विशेष स्वरूपों का अध्ययन किया जाये।
5. वीरकान्त के विचार
समाजशास्त्र के स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के एक अन्य समर्थक वीर कान्त के अनुसार भी समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान होना चाहिए जिसके अन्तर्गत सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन किया जाये। वीरकान्त के शब्दों में," समाजशास्त्र उन मानसिक संबंधों के अंतिम स्वरूपों का अध्ययन हैं जो मनुष्यों को आपस में बांधते हैं।
स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना
स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती हैं--
1. क्षेत्र का संकुचन
विशेषात्मक सम्प्रदाय के विचार को मानकर समाजशास्त्र का क्षेत्र अति संकुचित एवं सीमित हो जाता हैं। सामाजिक संबंधों के अमूर्त स्वरूपों का क्षेत्र सीमित एवं संकुचित हैं।
2. स्वरूप एवं अन्तर्वस्तु का अंतर सामाजिक संबंधों पर लागू नहीं
विशेषात्मक सम्प्रदाय के सदस्यों ने सामाजिक संबंधों के स्वरूप एवं अन्तर्वस्तु को ठीक उसी प्रकार पृथक-पृथक अस्तित्व वाला माना हैं जैसे कि भौतिक वस्तुओं में होता हैं। प्ररन्तु वास्तविकता यह है कि यह तथ्य सामाजिक संबंधों पर पूर्ण रूप से लागू नहीं होता।
3. शुद्ध शास्त्र नहीं
विशेषात्मक सम्प्रदाय के विचारक समाजशास्त्र को एक शुद्ध शास्त्र के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। परन्तु वास्तव में यह कल्पना व्यावहारिक नहीं हैं। वास्तव में किसी भी सामाजिक विज्ञान को अन्य सामाजिक विज्ञानों के प्रभाव एवं संपर्क से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं किया जा सकता।
4. अन्य विद्वानों द्वारा सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन
विशेषात्मक सम्प्रदाय के विचारकों का दावा हैं कि सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन केवल समाजशास्त्र ही करता हैं। परन्तु उनका दावा वास्तव में उचित नहीं हैं। अन्य सामाजिक विज्ञान जैस कि विधि शास्त्र, अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा राजनीतिशास्त्र आदि भी विभिन्न सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन करते हैं।
(ब) समन्वयात्मक सम्प्रदाय
समाजशास्त्र का दूसरा सम्प्रदाय समन्वयात्मक सम्प्रदाय हैं। समन्वयात्मक सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान हैं, इसे अन्य सामाजिक विज्ञानों का समन्वय माना जा सकता हैं। समन्वयात्मक सम्प्रदाय के समर्थक समाजशास्त्र को व्यापक विज्ञान मानते हैं।
इस सम्प्रदाय में दुर्खीम, साॅरोकिन और हाॅबहाउस के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। यहाँ पर इन विद्वानों के विचारों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा हैं--
1. हाॅबहाउस के विचार
हाॅब हाउस समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान मानने के पक्ष मे हैं। उनके अनुसार समाजशास्त्र का मुख्य कार्य अन्य विशिष्ट सामाजिक विज्ञानो का समाजशास्त्रीय अध्ययन करना है। इसके अतिरिक्त समाजशास्त्र अन्य विज्ञानों द्वारा प्राप्त विभिन्न सिद्धांतों का अध्ययन करता हैं तथा कुछ सामान्य तत्वों को ज्ञाय करना हैं। इस सामान्य तत्वों द्वारा समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का भी समाजशास्त्र ही अध्ययन करता हैं।
2. दुर्खीम के विचार
दुर्खीम के अनुसार प्रत्येक समाज में कुछ विचार-धारणायें एवं भावनायें होती हैं जिनका पालन संबंधित समाज के अधिकांश सदस्य करते हैं। ये विचार एवं धारणाएं संबंधित समाज के सामाजिक जीवन का 'सामूहिक प्रतिनिधित्व' करते हैं। दुर्खीम के अनुसार समाजशास्त्र का कार्य इसी 'सामूहिक प्रतिनिधित्व' का अध्ययन करना हैं। इस स्थिति मे स्पष्ट है कि समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान होना चाहिए।
3. सोरोकिन के विचार
सोरोकिन के विचारानुसार भी समाजशास्त्र सामान्य विज्ञान हैं। अपने मत की पुष्टि सोरोकिन ने इन शब्दों में की हैं, मान लीजिये यदि सामाजिक घटनाओं को वर्गो में वर्गीकृत कर दिया जाये और प्रत्येक वर्ग का अध्ययन एक विशेष सामाजिक विज्ञान करें, तो इन विशेष सामाजिक विज्ञानों के अतिरिक्त एक विज्ञान की आवश्यकता होगी जो सामान्य एवं विभिन्न विज्ञानों के संबंधों का अध्ययन करे।
समन्वयात्मक सम्प्रदाय की आलोचना
समाजशास्त्र के समन्वयात्मक सम्प्रदाय की भी विभिन्न आधारों पर आलोचना की गयी हैं। सामान्य रूप से कहा जाता है यदि समन्वयात्मक सम्प्रदाय के विचारों को मान लिया जाये तो उस स्थिति में समाजशास्त्र का महत्व ही समाप्त हो जायेगा। समाजशास्त्र उन्हीं तथ्यों का दुबारा अध्ययन करेगा जिनका अध्ययन पहले ही विभिन्न विशिष्ट विज्ञानों द्वारा हो चुका होगा। इसके अतिरिक्त समाजशास्त्र को सामान्य विज्ञान स्वीकार कर लेने से इसका क्षेत्र अत्यधिक होगा। इसके अतिरिक्त समाजशास्त्र को सामान्य विज्ञान स्वीकार कर लेने से इसका क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जायेगा, जिसका व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक अध्ययन कर पाना काफी मुश्किल हो जायेगा।
निष्कर्ष
उपर्युक्त वर्णित समाजशास्त्र के दोनों सम्प्रदायों के अवलोकन के बाद स्वरूप कहा जा सकता है कि भले ही समाजशास्त्र की विषय सामग्री अन्य सामाजिक विज्ञानों के ही समान है तो भी एक अंतर अवश्य हैं वह यह कि समाजशास्त्र के अध्ययन का दृष्टिकोण अन्य विज्ञानों के दृष्टिकोण से पर्याप्त भिन्न हैं। वास्तव में सभी सामाजिक विज्ञानों का अध्ययन क्षेत्र समाज ही हैं और वे अपने-अपने दृष्टिकोण से समाज के किसी न किसी पक्ष का विशिष्ट अध्ययन करते हैं। समाजशास्त्र से पृथक क्षेत्र होने की बात को ग्रीन ने इन शब्दों द्वारा प्रस्तुत किया हैं," सामाजिक संबंधों पर ध्यान का केन्द्रीत होना समाजशास्त्र को एक पृथक क्षेत्र बना देता हैं चाहे वह कुछ दूसरों से कितना स्पष्ट रूप से संबंधित क्यों न हों।"
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