3/06/2022

समाजशास्त्र उद्भव/विकास की ऐतिहासिक, सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि

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प्रश्न; समाजशास्त्र के उद्भव की ऐतिहासिक, सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि को लिखिए। 

अथवा" समाजशास्त्र की उत्पत्ति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझाइए। 

अथवा" समाजशास्त्र के विकास की सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि को लिखिए। 

अथवा" भारत में समाजशास्त्र के उद्भव के ऐतिहासिक, सामाजिक पृष्ठभूमि की व्याख्या कीजिए। 

उत्तर-- 

प्राचीनकाल से ही अनेक विद्वानों ने समाज का अध्ययन कर उसे समझने का प्रयास किया हैं परन्तु एक विशिष्ट परिप्रेक्ष्य से सामाजिक घटनाओं को स्पष्ट करने का प्रयास फ्रांसीसी दार्शनिक ऑगस्त काॅम्ट ने किया और उसी ने 1838 ई. में 'समाजशास्त्र' शब्द का निर्माण किया। बाद में हर्बर्ट स्पेन्सर, इमाइल दुर्खीम, कार्ल मार्क्स आदि विद्वानों ने इस विज्ञान के विकास में विशेष योगदान किया। 

समाजशास्त्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

1. प्राचीन भारत में समाजशास्त्र की उत्पत्ति

भारत के प्राचीतम ग्रंथ ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के पुरूसूक्त में समाज की कल्पना शरीर के रूप में करते हुये कहा गया है कि परन् पुरूष के मुख से ब्राह्माण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार भारतीय मनीषियों ने मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानकर उसके कर्तव्यों पर विस्तार से विचार किया और इन्हीं सामाजिक विचारों से समाजशास्त्र की उत्पत्ति हुई।

2. यूरोप में समाजशास्त्र की उत्पत्ति 

पश्चिम जगत में प्राचीन यूनान के नगर राज्य सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से उन्नत माने जाते हैं। वहाँ विचारकों में प्लेटो और अरस्तु का नाम उल्लेखनीय हैं। प्लेटो ने समाज की कल्पना एक शरीर के रूप में की और कहा कि जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अवयव एक-दूसरे पर निर्भर हैं। उसी प्रकार समाज के विभिन्न सदस्य भी पारस्परिक रूप से निर्भर हैं। अरस्तु का कथन हैं कि, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं जो समाज में रहकर ही अपने योग क्षेत्र का साधन करता हैं। मनुष्य की यह प्रकृति हैं कि वह दूसरे लोगों के साथ मिलकर रहे। मानव जीवन के जो सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य और लक्ष्य हैं मनुष्य उन्हें समाज में ही प्राप्त कर सकता हैं। मानव और समाज के सम्बन्धों की इसी विचारधारा से समाजशास्त्र की उत्पत्ति हुई। 

समाजशास्त्र की सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि 

1. प्राचीन भारत 

प्राचीन भारत के वेद, महाभारत, अर्थशास्त्र, मनु स्मृति आदि सभी प्रमुख ग्रंथों में मानव के सामाजिक, आर्थिक जीवन के बारे में विस्तार से विचार किया गया हैं। सामाजिक जीवन के लिये यह जरूरी हैं कि प्रत्येक मनुष्य मर्यादा में रहें। यद्यपि प्राचीन भारतीय विचारकों ने समाजशास्त्र का एक पृथक विज्ञान के रूप में विकास नही किया। परन्तु दण्डनीति, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र संबंधी अपने ग्रंथों में प्रकारान्तर में ऐसी बातों का समावेश किया है जिनका सम्बन्ध सामाजिकता से हैं।

2. मध्ययुगीन यूरोप 

प्लेटो और अरस्तु के बाद सिसरो, सेण्ड ऑगस्टीन और टाॅमस आदि विद्वान हुये जिन्होंने समाज विषयक समस्याओं पर सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से विचार किया। इन विचारकों ने राजनीति, अर्थनीति, धर्म और नैतिक आदर्शों पर एक साथ विचार किया हैं। अतः इनके ग्रंथों में समाजशास्त्र संबंधी विवेचन सूत्ररूप में प्राप्त होता हैं। 

3. आधुनिक युग 

इस काल में ज्ञान, विज्ञान का असाधारण रूप से विकास हुआ हैं। अतः विद्वानों ने मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक संबंधों को अपने अध्ययन का विषय बनाया जिससे सामाजिक परिप्रेक्ष्य पर आधारित समाजशास्त्र की उत्पत्ति हुई। अर्थशास्त्र भी समाज विज्ञान का एक आवश्यक अंग हैं अतः इस बात की आवश्यकता अनुभव हुई कि मनुष्य की सामाजिकता पर सामाजिक, आर्थिक परिप्रेक्ष्य में पूर्णरूपेण विचार किया जाये। इन्हीं विचारों के फलस्वरूप एक नवीन समाजशास्त्र की उत्पत्ति हुई। 

4. रोमवासियों के सामाजिक, आर्थिक विचार

रोम विचारकों ने कृषि अर्थ व्यवस्था को उचित ठहराया तथा सादा जीवन का उपदेश दिया। वे सूदखोरी, मजदूरी, मुनाफाखोरी आदि व्यवसायों को अनुचित ठहराते थे। 

सिसरो के अनुसार," लाभ की प्राप्ति के समस्त साधनों में कृषि की अपेक्षा कुछ भी श्रेष्ठ नहीं हैं, न ही कुछ अधिक उत्पादक हैं, नहीं कुछ अधिक आनन्दायक हैं और न ही कुछ उदार मस्तिष्क के व्यक्ति के योग्य हैं।" 

5. मध्यकालीन सामाजिक, आर्थिक विचार 

अधिकांश विद्वान 5वीं शताब्दी से 15 वीं शताब्दी तक के काल को मध्यकाल मानते हैं। इस काल में ईसाई धर्म ने रोमन संस्थाओं का विरोध किया तथा जर्मन रीति-रिवाजों ने सामाजिक, आर्थिक जीवन को प्रभावित करना आरंभ कर दिया। इस काल की अर्थव्यवस्था में जहाँ सामन्तवाद का बोल-बाला था वहीं धार्मिक दृष्टि से चर्च को प्रधानता दी गई थी। दोनों से ही सामाजिक, आर्थिक विचार प्रभावित हुये। 

6. सामन्तवादी सामाजिक, आर्थिक विचार 

कृषि तथा ग्रामीण समाज सामंतवाद की दो मुख्य विशेषतायें थीं। समाज में दो प्रमुख वर्ग थे भू-स्वामी तथा कृषि दास। इस काल में भूमि प्रमुख सम्पत्ति थी। भू-स्वामी अधिक शक्ति प्राप्त करके स्वच्छंद हो गये थे। इससे किसानों पर उनके अत्याचार बढ़े। 

7. भारतीय सामाजिक, आर्थिक विचार 

प्राचीन भारत में सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिये वर्ण-व्यवस्था की स्थापना की गई थी जिसका आधार कर्म था। बाद में वर्ण अनेक जातियों और उपजातियों में विभाजित हो गये। मनु स्मृति के अनुसार, धरती पर पहला मानव मनु था इन्हीं से सृष्टि का विस्तार हुआ और समाज की रचना हुई। भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के लिये अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। उन्होंने बताया कि समाज में यदि उच्च स्थान पा सकेंगे। यही विचार समाजशास्त्र का आधार बने।

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