1917 की रूसी की क्रांति
1917 ki rusi kranti ka varnan karan mahatva prabhav parinam;रूस की क्रांति विश्व के समक्ष एक आश्चर्यजनक घटना थीं। जर्मनी के कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा वर्ग की कल्पना उस देश में की थी, जहां पूंजीवाद के शोषित विशाल संख्या में श्रमिक होते अर्थात् जहां औद्योगिक क्रांति और उसके परिणाम चरम सीमा पर पहुंच चुके होते परंतु क्रांति एक ऐसे देश में संपन्न हुई, जो उद्योग प्रधान तो था ही नहीं, बल्कि आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से सर्वाधिक पिछड़ा देश था, जहां श्रमिक संगठन की कल्पना असंभव प्रतीत होती थी। रूसी क्रांति के पूर्व रूस में अराजकता, पराजय, निरंकुशता, दमन और जार तथा सामंतों की अयोग्यता का वातावरण था। ऐसे में रूसी क्रांति का उदय होना एक स्वाभाविक घटना है।
1917 की रूसी क्रांति के कारण (1917 ki rusi kranti ke karan)
1917 की रूसी क्रांति के निम्नलिखित कारण थे--
1. आर्थिक एवं सामाजिक विषमता
1917 ई. के काल में रूस की सामाजिक स्थिति बैसी थी जैसी 1789 ई. से पहले फ्रांस की थी। पूरा रूसी समाज दो वर्ग में विभाजित था। प्रथम वर्ग वह था जो कई विशिष्ट अधिकारों से युक्त था, इसके अंतर्गत जार के कृपापात्र कुलीन लोग आते थे। ये लोग जार की निरंकुशता एवं स्वेच्छाचारिता को आवश्यक समझते थे। यह वर्ग बहुत धनी था, राज्य के अधिकांश महत्वपूर्ण पदों पर तथा अधिकांश भूमि पर इन्होंने अधिकार कर रखा था।
दूसरा वर्ग अधिकारहीन वर्ग था। इसमें किसान तथा मजदूर आते थे। इनकी आर्थिक व्यवस्था अत्यधिक दयनीय थी। इनको कुलीन वर्ग के अत्याचारों को सहना पड़ता था। दास प्रथा की समाप्ति पर भी इस वर्ग की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। इस प्रकार रूसी समाज में भारी आर्थिक एंव सामाजिक विषमता थी। फलतः यह वर्ग संघर्ष रूसी क्रांति का एक महत्वपूर्ण कारण था।
2. जारशाही की निरंकुशता
रूस में वह के राजा को जार कहा जाता था। रूस में जारशाही का बोलबाला काफी समय तक रहा। रूस में जार स्वंय को ईश्वर का प्रतिनिधि मानते थे। इनके आदेशों का जनता के दुःख दर्द से कोई सरोकार नहीं था। जारशाही के अदूरदर्शी निर्णय तथा आततायी प्रशासन से रूस की जनता जारशाही के विरूद्ध हो गई थीं।
क्रांति के समय रूस का जार निकोलस एक अयोग्य एंव नाकारा शासक साबित हुआ। युगो-युगो से जारशाही से ग्रस्त रूस की आन्तरिक एंव आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई थीं। जार के रानी एलिक्स एक भ्रष्ट, चरित्रहीन प्रतिक्रियावादी पादरी रासपुटिन के प्रभाव में थीं। रासपूटिन का रानी एलिक्स के माध्यम से प्रशासन पर बहुत अधिक प्रभाव था। सन् 1916 ई. में रासपुटिन की हत्या पर रूसी जनता ने जश्न मनाया था। फिनलैण्ड़ तथा रूसी जनता के जारशाही की निरंकुशता के विरूद्ध कई बार विद्रोहात्मक क्रांति की थीं।
3. औद्योगिक क्रांति
युरोप तथा ब्रिटेन में औद्योगिक विकास निरंतर तीव्र गति के साथ हो रहा था। यूरोप में औद्योगिक कारण की नींव रखने का श्रेय पीटर और केथरिन को जाता है। इन्होंने ही रूस में औद्योगिकरण की नींव डाली थी।
परिणामस्वरूप रूस में अनेक कारखाने लग चुके थे। इसके कारण ग्रामीण, पिछ़डी और निर्धन जनता काम और रोटी की तलाश में बड़ी संख्या में कारखानों की ओर आकर्षित हुई। कारखाने के स्वामियों ने भी सस्ते मजदूर और अधिक मुनाफा कमाने के लिये इन्हें आमंत्रित किया। इससे औद्योगिक शहर बने। इसी के साथ-साथ श्रमिक-पूंजीपति विवाद, श्रमिक-आवास, कार्य-दशा, पारिश्रमिक, जीवनस्तर आदि की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्यायें उत्पन्न हो गई। इससे साम्यवादियों को श्रमिक संगठन और साम्यवादी क्रांति करने का अवसर मिला।
4. बौद्धिक जागरण
जिस प्रकार का बौद्धिक जागरण फ्रांस में हुआ, उसी प्रकार का बौद्धिक जागरण रूस में भी हुआ। इसका मुख्य कारण रूस में पश्चिमी विचारों का प्रभाव और आगमन था। मध्यम वर्गीय रूसी इन विचारों से बहुत प्रभावित थे।
टाल्सटॉय, तुर्गनेव, दांतोविस्की के उपन्यासों ने रूसी जनता में परिवर्तन की आकांक्षा और जागृति उत्पन्न की। कार्ल मार्क्स, मैक्सिम गोर्की तथा बकुनिन के समाजवादी तथा अराजकतावादी विचारों ने रूसी समाज में भारी क्रांति उत्पन्न कर दी। शून्यवादी तो वर्तमान व्यवस्था को समाप्त करने के लियें हिंसक आंदोलन को चला रहे थे। इस प्रकार प्राचीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन होने लगा। बौद्धिक क्रांति में प्रेस का भी योगदान महत्वपूर्ण था।
5. नागरिक अधिकारों का दमन और जागृति
1905 में हुई हिंसक क्रांति से घबराकर निकोलस द्वितीय ने अक्टुबर 1905 ई. में क्रांति, संविधान, संसद, मतदान, निर्वाचन, मौलिक अधिकारों को और बंदी क्रांतिकारियों को मुक्त करना स्वीकार कर लिया था, परंतु अवसर मिलते ही वह पुनः दमन करने लगा। उसने चार बार ड्यूमा को भंग किया और क्रांतिकारी प्रजातंत्र की मांग को दबाया। अतः जनता में अपने अधिकारों की शक्ति का जागरण हुआ। उन्होंने जारशाही को जड़मूल से हटाने का फैसला कर लिया था।
6. युद्ध में रूस की पराजय
रूस को हाल ही के समय में कई युद्ध का सामना करना पड़ा था। उनमें सैनिक सफलतायें मिलने पर भी राजनीतिक, आर्थिक लाभों से रूस को वंचित रहना पड़ा। इससे जनता में यह धारणा व्याप्त हो गई कि जारों की आयोग्यता और राजनीतिक सूझ-बुझ के अभाव में रूस सदैव राजनीतिक पटल पर हारता रहा।
उन्नकियार स्कैलेसी और सेनस्टीफेनों में रूस को प्राप्त लाभों से क्रमशः लन्दन और बर्लिन में वंचित होना पड़ा। क्रीमियां युद्ध तो रूस के लियें अत्यधिक दूरगामी विनाशक युद्ध था। जापान ने 1904 ई. में रूस को हराकर रूस की शक्ति, प्रतिष्ठा और जारों की निरंकुशता को बहुत ही निर्बल कर दिया। 1914 ई. में रूस मित्र देशों की ओर से प्रथम विश्व युद्ध में लड़ा परन्तु उसे कोई विशेष सफलता भी नहीं मिली और युद्ध ने जनता को क्रांति का अवसर प्रदान कर दिया।
7. श्रमिकों का शोषण
कृषि का कुप्रबंधन तथा सामन्ती व्यवस्था ने किसानों के शोषण में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। फलस्वरूप ग्रामीण लोग शहरों की ओर पलायन करने लगें, जिसे शहर के कारखानों में मजदूर की संख्या में वृद्धि होने लगी थीं और यह गन्दी बस्तियों में रहकर नारकीय जीवन को व्यतीत करने में मजबूर हो गयें। शासन मजदूरों की समस्या के प्रति संवेदनहीन थीं। पूंजीपतियों के शोषण से मजदूर वर्ग त्रस्त हो गया। स्थिति बदतर होती गई और सन् 1905 ई. में मजदूरों ने विशाल जुलूस का आयोजन कर सेंटपीटर्सवर्ग का शासन अपने हाथ में ले लिया।
8. जार द्वारा संसद(ड्यूमा) को भंग करना
रूस का जार निकोलस मनमर्जी करने वाला तथा निरंकुश होने के साथ ही अयोग्य भी था। जन-आन्दोलनों के समय उसने संसद(ड्युमा) जनप्रतिनिधियों की सभा के गठन का आश्वासन दिया था। सन् 1906 ई. तथा 1907 ई. में प्रथम ड्युमा तथा द्वितीय ड्यूमा का चुनाव के आधार पर गठन किया गया। संसद जारशाही की आलोचना करती थीं। अतः जार ने संसद को अलोकतांत्रिक ढंग से भंग कर दिया। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप जन-आन्दोलन अधिक तेज हो गया।
9. विभिन्न विचारधाराओं एंव दलों का उदय
रूस में औद्योगीकरण के कारण पूंजीवादी व्यवस्था का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। मजदूरों व पूजींपतियों के मध्य संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। थी। कृषकों की दशा भी बिगड़ रही थी। इसी कारण रूस की परम्परागत सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में सुधार करने के विचार उत्पन्न होने लगे।
19वीं शताब्दी के अंत तक रूस में दो प्रकार की विचारधारओं का प्रभाव रहा- क्रांतिकारी समाजवादी जिनमें मार्क्सवादी और पापुलिस्ट दोनों सम्मिलित थे, जो क्रांति द्वारा रूस में निरंकुश सत्ता का अंत करना चाहते थेय दूसरे उदारवाद के समर्थक जो संवैधानिक शासन एंव सुधारों की नीति अपनाना चाहते थे। क्रांतिकारी समाजवादी दल में भी दो दल बन गए सोशल डेमोक्रेटिक दल और क्रांतिकारी समाजवादी दल। सोशल डेमोक्रेटिक दल मूलतः एक मार्क्सवादी दल था। कुछ मार्क्सवादी नेता जिनमें लेनिन प्रमुख था, विदेशों में रहकर दल के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने का प्रयत्न कर रहे थे। लेनिन प्लेहानोव और मार्तोव आदि ने मिलकर इस्करा नामक एक पत्रिका के माध्यम से अपने विचारों का प्रचार आरंभ किया।
10. रूसी क्रांति के तात्कालिक कारण
प्रथम विश्वयुद्ध का प्रभाव सर्वप्रथम किसी भी पड़ा तो वह रूस था। रूस में सामाजिक तथा आर्थिक विषमताओं तथा जारशाही की निरंकुशता, शासन के निकम्मेपन के साथ व्यापक भ्रष्टाचार आदि कई कारण कई वर्षो से क्रांति हेतु रूस में विद्यमान थे। रूस की क्रांति की आग 1905 ई. से ही धधक रही थीं।
प्रथम विश्वयुद्ध के प्रांरभ होने पर राष्ट्रभक्ति की लहर में यह जोश मन्द हो गया था। उदारवादी रूसी नेताओं का मत था कि निरंकुश जर्मनी तथा ऑस्ट्रिया के विरूद्ध उदारवादी विचारधारा के देश फ्रांस और इंग्लैण्ड़ का साथ देने से रूस का लाभ होगा। दुर्भाग्य से जार निकोलस की अयोग्यता से राजभक्त तथा उदारवादी नेताओं के मत पर पानी फिर गया। जनता युद्ध कालीन घटनाओं से उद्वेलित हो गई और व्यापक असन्तोष के कारण क्रांति व्याप्त हो गई। प्रथम विश्वयुद्ध की घटनांए ही रूसी क्रांति का तात्कालिक कारण बन गई।
युद्ध के चालु होते ही मित्र राष्ट्रो ने फ्रांस तथा इंग्लैण्ड़ के पक्ष में लाखों सैनिक युद्ध में उतार दिए गए। रूसी सेना ने युद्ध के आरंभ में अत्यधिक वीरता एंव शौर्य का प्रदर्शन किया। किन्तु हथियार तथा युद्ध के सामान कम पडने के कारण रूसी सेना की दुर्दशा हो गई और पराजय की श्रृंखला आरंभ हो गई। इसके लिए भ्रष्ट तथा निकम्मी नौकरशाही उत्तरदायी थीं। नौकरशाही में उच्च अधिकारी जर्मन थे। अतः इस युद्ध में उनका दृष्टिकोण अड़चने डालने का था। प्रधानमंत्री बोरिस स्टुमर्स ने सन् 1916 ई. में सैन्य सामग्री वितरण तथा सैनिकों की समस्याओं के प्रति कोई रूचि नहीं ली थी। ड्यूमा में उदारवादियों ने उस पर देशद्रोह का आरोप लगाया। गृहमंत्री प्रोटोपोपोव उदारवादियों के दमन में लग गया।
मार्च 1917 ई. की रूसी क्रांति
रूस में जारी अन्न कमी के कारण वहां की जनता में कभी असंतोष व्याप्त था इसी कारण से मार्च 1917 ई. भूखे मजदूरों ने एक प्रदर्शन कर पेट्रोग्राड की सड़कों पर प्रदर्शन कर लूटमार करना प्रारंभ कर दिया। निरंकुश रूसी सरकार ने सेना बुलाकर उन निहत्थें मजदूर पर गोली चलवाने का आदेश दिया लेकिन सेना ने मजदूरों के प्रति सहानुभूति रखकर गोली चलाने से इन्कार कर दिया। 8 मार्च को पेट्रोग्राड की सड़कों पर मजदूरों ने स्त्रियों को साथ लेकर पुनः एक विशाल प्रदर्शन कर ‘‘रोटी की मांग‘‘ तथा ‘‘युद्ध बन्द‘‘ करने के नारे दिए। सेना द्वारा गोली चलाने से इंकार करने की परिस्थिति मजदूरों के पक्ष में प्रबल हो गई। हड़ताली मजदूरों ने सैनिकों के साथ मिलकर ‘‘सैनिकों एंव मजदूरों‘‘ की एक क्रांतिकारी सोवियत समिति बना ली थी। अतः विवश जार ने समझौता कर पेट्रोग्राड का प्रशासन उदारवादी नेता जार्जल्वाव के अधीनस्था अस्थायी सरकार को सौंप दिया। जार को सिंहासन का त्याग करना पड़ा और बिना रक्त बहाए शांति के साथ जारशाही का अन्त हो गया। फ्रांसीसी क्रांति के समय भी पेरिस में यही सब हुआ था। किन्तु फ्रांसीसी सेना के समान ही युद्धरत रूसी सेना का रूख अनिश्चित था।
नवंबर 1917 ई. की क्रांति
रूस में जारशाही के अंत के बाद वहां पर अस्थायी उदारवादी सरकार का प्रधानमंत्री करेन्सीकी बना। उदारवादी प्रजातंत्र तथा वैधानिक राजतंत्र में विश्वास रखते थे। युद्ध सामग्री की कमी से रूसी सेना मोर्चो पर लगातार हार रही थीं। इस कारण वहां की सेना ने युद्ध करने से इंकार कर दिया। कृषकों ने जमींदारों की भूमि को छीनना प्रांरभ कर दिया। मजदूर आंदोलन करने लगे। अपने वेतन बढ़ाने की मांग करने लगे। केरेन्सकी की सरकार का पतन नजदीक था। देश में अराजकता आ गई। लोगों का विश्वास सरकार पर नहीं रहा। वोल्शेविकों ने 7 नवंबर को पेट्रोगेड पर अधिकार कर लिया। केरेन्सकी देश छोड़कर भाग गया। इस प्रकार बिना रक्त बहाए क्रांति हो गई। लेनिन की देखरेख में एक नई सरकार की स्थापना हुई। इसमें सभी सदस्य साम्यवादी दल के थे। इसमें ट्रोटस्की बाह्म सचिव और स्टालिन अधीन राष्ट्रों का सचिव बना। लेनिन ने क्रांति विरोधी विचारधाराओं का दमन किया। इस प्रकार रूस का शासन पूर्णतः लेनिन के पास आ गया।
रूस की क्रांति का महत्व (1917 ki rusi kranti ka mahatva)
इसमें कोई संशय नहीं की रूस की क्रांति फ्रांस की क्रांति के समान ही एक युगांतकारी घटना थी जिसका प्रभाव केवल रूस तक ही सीमित नहीं था।
रूस की क्रांति ने आर्थिक स्वतंत्रता को सर्वोपरि स्थान दिया और सर्वहारा वर्ग को शासन में प्रधानता प्रदान की। नवंबर में बोल्शेविक क्रांति हुई जिसने बुर्जुआ गणतंत्र को समाप्त कर सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित किया। बोल्शेविक क्रांति के फलस्वरूप विश्व में पहली बार मार्क्सवादी सिद्धांतों पर आधारित सरकार बनी जिसने रूस की राजनैतिक, सामाजिक एंव आर्थिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर दिया।
1917 ई. की रूसी क्रांति का प्रभाव
रूस क्रांति का प्रभाव केवल रूस तक ही सीमित नहीं था। बल्कि इसका प्रभाव विश्व के इतिहास पर भी था। जिस प्रकार बीसवीं शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण घटना फ्रांस की राज्य क्रांति है ठीक उसी प्रकार इस शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण घटना 1917 ई. की बोल्शेविक क्रांति थीं। 1917 ई. की रूसी क्रांति का प्रभाव निम्नलिखित क्षेत्रों पर पड़ा--
1. नई सभ्यता, नई संस्कृति व नए समाज का पक्षपाती
साम्यवाद नई सभ्यता, नई संस्कृति व नए समाज का पक्षपाती था। उसे फ्रांस, इंग्लैंड व अमेरिका की व्यवस्था किसी क्षेत्र में प्रिय नहीं था।
2. साम्यवाद का प्रचार
इस क्रांति के माध्यम से साम्यवाद का प्रचार बड़ी तीव्र गति से हुआ। साम्यवाद आधे यूरोप और 1ध्3 एशिया में फैल गया। अन्य क्षेत्रों में भी इसका प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
3. कृषक वर्ग और श्रमिक वर्ग का शासन सत्ता पर अधिकार
इस क्रांति ने पूर्व से चली आ रही जार शाही का अंत किया और किसान एंव मजदूरों के हाथ में शासन की सत्ता सौंप दी। सामाजिक, आर्थिक व औद्योगिक क्षेत्रों में समानता की ओर पग उठाया।
4. नवीन विचारधारा का जन्म
1917 क्रांति के फलस्वरूप साम्यवाद नामक विचारधारा का उदय हुआ। इस विचारधारा के अंतर्गत वर्गहीन समाज स्थापित हुआ और कृषक एंव श्रमिक शासन सूत्र को चलाने वाले बन गए। इस क्रांति ने सामाजिक, आर्थिक एंव औद्योगिक क्षेत्रों में भी अपना बिगुल बजाया।
5. अन्य देशो की नीति में परिवर्तन
जहां रूसी क्रांति द्वारा प्रतिपादित विचारधारा का प्रचार नहीं हुआ, वहां की सरकारे ने भी किसानों, मजदूरों की दशा को उन्नत करने का प्रयास करना शुरू कर दिया, किन्तु साम्यवादियों को इससे संतुष्टि न होगी, क्योकि अन्य क्षेत्रों में असफलता ही रहेगीं।
रूस की क्रांति के परिणाम (1917 ki rusi kranti ke parinam)
रूस की क्रांति के निम्नलिखित परिणाम हुऐ--
1. सैन्य शक्ति का संगठन
रूसी क्रांति का उद्देश्य सिर्फ भाषण तथा जुलूसों तक ही सीमित नहीं थी। रूसी क्राति का महत्वपूर्ण परिणाम लालसेना का सशक्त संगठन था। लाल सेना उच्च सैन्य शिक्षा तथा साम्यवादी सिद्धांतों के आधार पर उचित शिक्षा के साथ गठित की गई थी। लालसेना रूस के विशाल क्षेत्र की रक्षा के लिए कटिबद्ध थी। सेना के अन्दर यह भावना व्याप्त हो गई थी कि ‘‘वे रक्तपात के लिए नहीं वरन् सिद्धांतों की रक्षा के लिए युद्ध कर रहे हैं।‘‘
2. लेनिन का सफल नेतृत्व
रूस की क्रांति की सफलता में लेनिन का नेतृत्व एंव मार्गदर्शन उल्लेखनीय था। रूस को आर्थिक संकट के समय लेनिन ने घोषित किय, ‘‘हम पुरातन व्यवस्था को समाप्त कर उसके खण्डहरों पर मंदिर का निर्माण करेंगे।‘‘ हेजन ने लेनिन की प्रशंसा में लिखा है, ‘‘ लेनिन ने साम्यवादी सिद्धांतों के आधार पर रूस की सामाजिक तथा आर्थिक दशा में मूलभूत परिवर्तन किया था। लेनिन ने रूसी क्रांति 1917 ई. से 1924 ई. तक रूस का नेतृत्व किया था।
आप ने रानी के लिए चरित्र हीन शब्द का प्रयोग किया जो पूरे लेख में उचित नहीं था
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