9/27/2021

राष्‍ट्रसंघ का संगठन, उद्देश्य

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राष्‍ट्रसंघ की उत्‍पत्ति 

प्रथम विश्‍व के चलते विश्व में शांति संगठन की स्थापना करने का विचार जोर-शोर से जोर पकड़ने लगा था। इसी दौरान सन् 1915 को अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति टफ्ट के नेतृत्‍व में एक शांति लागू करने के उद्देश्य से एक संघ नामक संस्था की स्थापना की गई। इस संघ के कार्यक्रमों को अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति का भी समर्थन प्राप्‍त हुआ।

युद्ध के दौरान 8 जनवरी 1918 ई. को विल्‍सन ने अपने प्रसिद्ध चौहदा सूत्रों को प्रतिपादित किया। इसका अंतिम सूत्र राष्‍ट्र-संघ के निर्माण से संबंधित था। इन्‍हीं चौहदा सूत्रों को युद्धविराम का आधार माना गया था। युद्ध समाप्‍त होने पर सभी राष्‍ट्र एक विश्‍व शांति संगठन की स्‍थापना के लिए सहमत हो गए थे। जब जनवरी 1919 ई. में पेरिस में शांति सम्‍मेलन आरंभ हुआ तब नियुक्‍त की गई। राष्‍ट्रपति विल्‍सन इसके अध्‍यक्ष बनाए गए। विचार-विमर्श के पश्‍चात् राष्‍ट्रसंघ की रूपरेखा तैयार हुई। इसें शांति सम्‍मेलन की आम सभा में प्रस्‍तुत किया गया जिसे आवश्‍यक संशोधनों के बाद सर्वसम्‍मति से स्‍वीकार कर दिया गया। इसके विधान में 26 धाराएं थीं। विल्‍सन की इच्‍छा को स्‍वीकारते हुए राष्‍ट्रसंघ विधान को सभी संधियों के आधीन रखा गया। तत्पश्‍चात् 10 जनवरी 1920 ई. को राष्‍ट्रसंघ का जीवन विधिवत प्रारंभ हुआ। 

राष्‍ट्रसंघ के उद्देश्‍य (rashtra sangh ke uddeshy)

राष्‍ट्रसंघ के तीन मुख्‍य उद्देश्‍य थें--

1. यह शांति-संधियों के नियमों और उपबन्‍धों को लागू करने का एक मात्र साधन था। इस हैसियत से इसका काम पेरिस-शांति-सम्‍मेलन द्वारा स्‍थापित यथास्थिति को बनाये रखना था। इसको कुछ प्रशासकीय कार्य भी दिये गये थे। उदाहरण के लिए, पन्‍द्रह साल तक के डान्जिग नगर की व्‍यवस्‍था और सार के शासन का भार इसके ऊपर था। संरक्षण-पद्धति को चलाना और अल्‍पसंख्‍यक जातियों की देखभाल करना भी राष्‍ट्रसंघ का कार्य था। 

2. राष्‍ट्रसंघ को सार्वजनिक हित के लिए काम करना था। मनुष्‍य मात्र के कल्‍याण के लिए विविध उपाय करना राष्‍ट्रसंघ का एक प्रमुख लक्ष्‍य था। इसके अतंर्गत महामारियों को रोकना, स्‍वास्‍थ्‍य की दशा को उन्‍नत करना, दास-प्रथा का उन्‍मूलन करना, स्त्रियों के क्रय-विक्रय को रोकना आर्थिक, सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्रों में सहयोग स्‍थापित करना और इसी प्रकार के अन्‍य सर्वहितकारी मामलों से सम्‍बन्धित विषय आते थे। 

3.राष्‍ट्रसंघ का तीसरा, परन्‍तु महत्‍वपूर्ण उद्देश्‍य युद्ध का निराकरण एंव शांति की स्‍थापना करना था। राष्‍ट्रसंघ शांति की रक्षा के लिए कोई भी कदम उठा सकता था। राष्‍ट्रसंघ के सभी सदस्‍यों ने उसके साथी सदस्‍य-राज्‍यों की प्रादेशिक अखण्‍ड़ता बनाये रखने की शर्तो को स्‍वीकार किया था। इस तरह अन्‍तर्राष्‍ट्रीय सहयोग, शांति और सुरक्षा, को प्रोत्‍साहित करना राष्‍ट्रसंघ का एक दूसरा प्रमुख कार्य था। इसके लिए राष्‍ट्रसंघ को युद्धोत्‍पादक कारणों को दूर करना भी एक काम था। हथियारबन्‍दी की होड़ को रोकना और राज्‍यों के झगड़ों को युद्ध के अतिरिक्‍त अन्‍य शांतिमय उपायों से फैसला कराने का यत्‍न करना राष्‍ट्रसंघ का वास्‍तविक उद्देश्‍य था। 

राष्‍ट्रसंघ का संगठन 

राष्‍ट्रसंघ की सदस्‍यता 

राष्‍ट्रसंघ की सदस्‍यता का दायरा सीमित न था। इसका निर्माण होते ही 31 राज्‍यों ने इसकी सदस्‍यता ग्रहण की। इस बात का भी उल्‍लेख किया गया था कि कौन से सदस्‍य इसकी सदस्‍यता ग्रहण कर सकते थे। अन्‍तर्राष्‍ट्रीय नियमों का अनुसरण करने की प्रतिज्ञा के साथ दिये गये प्रार्थना पत्र को यदि सभा दो-तिहाई के बहुमत को स्‍वीकृति प्रदान करती थी, तो सदस्‍यत प्राप्‍त हो जाती थी। राष्‍ट्रसंघ की सदस्‍यता से मुक्ति भी प्राप्‍त हो सकती थी। राष्‍ट्र संघ के विधान की प्रथम धारा के अनुसार कोई भी राष्‍ट्र दो वर्ष पूर्व सूचना देकर इसकी सदस्‍यता से मुक्ति पा सकता था। 1932 में ब्राजील तथा आस्‍टारिका ने इसकी सदस्‍यता का परित्‍याग किया। दूसरे ही वर्ष जर्मनी तथा जापान भी इसके सदस्‍य नहीं रहे। 

राष्‍ट्र संघ के नियमों की उपेक्षा करने पर भी किसी सदस्‍य राष्‍ट्र को इसकी सदस्‍यता से वंचित किया जा सकता था। इसी आधार पर 1939 ई. में सोवियत संघ को  इसकी सदस्‍यता से वंचित कर दिया गया। राष्‍ट्र संघ के विधान में किये गये संशोधनों को न मानने वाले राज्‍य भी उसकी सदस्‍यता से वंचित किये जा सकते थे। संशोधन का कार्य सभा करती थीं किन्‍तु इसके लिए कौंसिल की सहमति के साथ ही साथ सदस्‍य राष्‍ट्रों का समर्थन भी आवश्‍यक था। 

राष्‍ट्रसंघ के प्रमुख अंग 

राष्‍ट्रसंघ के विधान की दूसरी धारा के अनुसार राष्‍ट्रसंघ के तीन प्रमुख अंग थे--

1 .सभा

2. परिषद

3. सचिवालय 

राष्‍ट्रसंघ के यही तीन प्रधान अंग थे इनसे मिलकर ही इसका संगठन हुआ था। इनके अतिरिक्‍त अन्‍तर्राष्‍ट्रीय न्‍यायालय और अन्‍तर्राष्‍ट्रीय संघ भी राष्‍ट्रसंघ के महत्‍वपूर्ण अंग थे। संघ के सभी सदस्‍य राष्‍ट्र सभा के सदस्‍य होते थे। यह एक प्रकार से विश्‍व संसद कही जा सकती थी। परिषद कार्यपालिका कहलाती थी और सचिवालय में राष्‍ट्रसंघ के अधिकारी और एक महा सचिव होता था। 

1. सभा

सभा राष्‍ट्रसंघ की प्रतिनिधि सभा थी और इसमें सभी देशों के प्रतिनिधि रहते थे। इसके सभी सदस्‍य राज्‍यों के अधिकार समान थे। नये उम्‍मीदवारों को राष्‍ट्रसंघ की सदस्‍यता प्रदान करने का कार्य सभा द्वारा ही होता था। एक सदस्‍य राज्‍य अधिक से अधिक तीन प्रतिनिधि भेज सकता था, लेकिन वोट देने का अधिकार एक ही को प्राप्‍त थे। विधान के अनुसार राष्‍ट्रसंघ का कोई भी निर्णय बैठक में उपस्थित तमाम सदस्‍य राष्‍ट्रों की राय से होता था। सामान्‍यता सभा का अधिवेशन सितम्‍बर माह में जिनेवा में होता था। आवश्‍यकता पड़ने पर इसके विशेष अधिवेशन भी होते थे। जब सभा का अधिवेशन प्रारंभ होता तो वह व्‍यक्ति उसके सभापति पद को ग्रहण करता था जो उस समय राष्‍ट्र-कौंसिल का अध्‍यक्ष रहता था। बाद में सभा अपने सभापति और छः उपसभापतियों का निर्वाचन स्‍वयं करती थीं। 

सभा का काम राष्‍ट्रीय संसद की तरह स्‍थायी समितियों द्वारा होता था। इसमें निम्‍नलिखित छः विषय की समितियां होती थी--

1. वैधानिक और कानून सम्‍बंधी विषयों के लिये, 

2. टेक्निकल संस्‍थाओं के लिए, 

3. निरस्‍त्रीकरण के लिए, 

4. बजट और राष्‍ट्रसंघ की आन्‍तरिक व्‍यवस्‍था के लिए, 

5. सामाजिक समस्‍याओं के लिए तथा 

6. राजनीतिक प्रश्‍नों  के लिए।

सभा इनके अतिरिक्‍त भी आयोग या समितियों का सृजन कर सकती थीं। 

तरह-तरह का चुनाव कराना सभा का प्रमुख होता था। दो-तिहाई वोट में नये सदस्‍यों का चुनाव, कौसिल के अस्‍थायी सदस्‍यों का चुनाव, अन्‍तर्राष्‍ट्रीय न्‍यायालय के न्‍यायाधीशों की नियुक्ति और राष्‍ट्रसंघ के महासचिव की नियुक्ति को स्‍वीकार करना इसका काम था। सभा राष्‍ट्रसंघ के वार्षिक बजट को स्‍वीकार करती थी और कौंसिल के कार्यक्रम की जांच-पड़ताल करती थी। वह राष्‍ट्रसंघ के विधान में संशोधन भी कर सकती थीं। 

विधान की तीसरी धारा के द्वारा सभा को बहुत बड़ा अधिकार प्राप्‍त था। इसके अनुसार सभा उन सभी स्थितियों पर विचार कर सकती थी, जिनसे विश्‍व शांति पर खतरा पहुंचने का भय था। कोई सदस्‍य किसी भी समस्‍या को सभा के सम्‍मुख पेश कर सकता था। सभा केवल अपने सदस्‍य-राज्‍यों के आंतरिक मामलों में हस्‍तक्षेप नहीं कर सकती थी। इसके अधिवेशन में सदस्‍य राज्‍यो के प्रतिनिधि किसी भी ऐसे प्रश्‍न को उपस्थित कर सकते थे जो राष्‍ट्रसंघ के उद्देश्‍यों और प्रयोजनों से संबंध रखते हों । वे अपनी शिकायतों को यहां पेश कर सकते थे, अपनी समस्‍याओं को अन्‍य राज्‍यों के सम्‍मुख ला सकते थे और अन्‍य राज्‍यों की नीति की आलोचना भी कर सकते थे। सभी निर्णय, प्रस्‍ताव पास करके ही होते थे। 

2. परिषद्

यह राष्‍ट्रसंघ का महत्‍वपूर्ण अंग थी, जो कार्यकारिणी का कार्य करती थीं। संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका, इंग्‍लैण्‍ड, फ्रांस, जापान तथा इटली जैसी महाशक्तियां इसकी स्‍थायी सदस्‍य थीं। संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका ने परिषद् की सदस्‍यता स्‍वीकार नहीं की थीं। 1922 के पश्‍चात् जर्मनी तथा रूस को भी स्‍थायी सदस्‍य बनाया गया था। अस्‍थायी सदस्‍यों का चयन महासभा करती थीं। 

परिषद्  के निम्‍नलिखित कार्य थे--

1.ऐसी समस्‍या पर विचार करना जो विश्‍वशांति को भंग कर सकती हों। 

2.सैनिक अस्‍त्र-शस्‍त्रों के निर्माण पर प्रतिबंध। 

3.युद्ध की स्थिति उत्‍पन्‍न नहीं होने देना। 

4.अन्‍तर्राष्‍ट्रीय विवादों का शांन्तिपूर्ण हल ढूंढना। 

5.महासचिव की नियुक्ति का अनुमोदन करना। 

परिषद् के निर्णय यथासम्‍भव सर्वसम्‍मति से होते थे। विशेष स्थिति में बहुमत के आधार पर निर्णय लिये जाते थे। अन्‍तर्राष्‍ट्रीय शान्ति स्‍थापना में परिषद् का कार्य महत्‍वपूर्ण था। 

3. सचिवालय 

राष्‍ट्रसंघ के प्रशासकीय कार्यों के लिए जिनेवा में स्थित एक स्‍थायी सचिवालय था। राष्‍ट्रसंघ का प्रबन्‍धपत्र-व्‍यवहार और व्‍यवस्‍था आदि के कार्य इसी के द्वारा होता था। सचिवालय का प्रधान महासचिव कहलाता था। राष्‍ट्रसंघ के सभी कार्यो को संचालित करना उसका मुख्‍य काम था। महासचिव कहलाता प्रशासन की देखभाल करता था। इस काम में उसकी सहायता के लिए दो सहकारी सचिव और दो उप-सहाकारी सचिव होते थे। इन पदों पर महान राज्‍य के नागरिक ही नियुक्‍त किये जाते थे। इसके अतिरिक्‍त महासचिव के अधीन सात सौ के लगभग राष्‍ट्रसंघ के कर्मचारी काम किया करते थे। राष्‍ट्रसंघ के विचारार्थ विविध समस्‍याओं आवश्‍यक सूचना प्राप्‍त करना। 

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स्‍थायी अन्‍तर्राष्‍ट्रीय न्‍यायालय 

इसकी स्‍थापना 20 दिसम्‍बर, 1920 ई. को हेग में की गयी थीं। इसमें कुल ग्‍यारह न्‍यायाधीशों की नियुक्ति की गयी थी जिनकी संख्‍या बाद में बढ़ाकर 15 कर दी गयी। न्‍यायाधीशों का कार्यकाल 9 वर्ष निश्चित किया गया। इनकी नियुक्ति महासभा और परिषद् की संयुक्‍त सहमति से की जाती थी। अंतराष्‍ट्रीय संधियों व समझौतों के अर्थ तथा उद्देश्‍य की व्‍याख्‍या करना, विभिन्‍न राज्‍यों के मध्‍य उत्‍पन्‍न होने वाले विवादों पर कानूनी सलाह देना, राष्‍ट्र संघ के संविधान की व्‍याख्‍या करना और अंतर्राष्‍ट्रीय विवादों के विषय में महासभा तथा परिषद् को सलाह देना इसके प्रमुख कार्य थे। 

अन्‍तर्राष्‍ट्रीय श्रम-संघ

यूरोप में प्रथम विश्‍व युद्ध के पश्‍चात् मजदूर आंदोलन ने बहुत जोर पकड़ा। चारों तरफ असन्‍तोष का वातावरण था और मजदूर-वर्ग में अपनी दशा सुधारने के लिए काफी खलबली थी। पेरिस सम्‍मेलन में बैठे हुए पूंजीपति-देश के प्रतिनिधियों को रूसी नारे और मजदूरों की जागृति को समझने में देर नहीं लगी। उन्‍होंने देखा कि अगर मजदूरों की दशा में सुधार नहीं होता हैं तो सम्‍भवतः सारा यूरोप लाल हो जायेगा। इस संकट से बचने के लिए उन्‍होंने श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए ठोस कदम उठाने का निर्णय किया। पर व्‍यक्तिगत रूप से कोई एक देश श्रमि‍कों की दशा उन्‍नत नहीं कर सकता था, क्‍योंकि पारस्‍परिक प्रतियोगिता पूंजीपति-राज्‍य मिल जुलकर काम करें तो मजदूरों की दशा में सुधार होगा और समाजवाद की बाढ़ भी रूकेगी। इसी भावना से पेरिस शांति-सम्‍मेलन में भाग लेने वाले राज नेताओं ने राष्‍ट्रसंघ के तत्‍वावधान में एक अन्‍तर्राष्‍ट्रीय श्रम-संघ की स्‍थापना की। इसका प्रधान कार्यालय जिनेवा में स्‍थापित किया गया। इसकी स्‍थापना का मुख्‍य लक्ष्‍य संसार भर के श्रम कानून में समानता लाना तथा मजदूरों को संतुष्‍ट रखना था। यह कोई जरूरी नहीं था कि राष्‍ट्रसंघ के सदस्‍य ही श्रम-संघ के सदस्‍य हों। कोई भी राज्‍य इसका सदस्‍य हो सकता था। जर्मनी उस समय भी इस संघ का सदस्‍य था जबकि उसे राष्‍ट्रसंघ की सदस्‍यता प्राप्‍त नहीं हुई थीं।

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