समता पर व्यापार क्या है?
जब किसी कम्पनी में स्वामी पूंजी की अपेक्षा ऋण पूंजी के आधार पर व्यवसाय का संचालन किया जाता है तो इसे 'समता पर व्यापार' कहा जाता है।
समता पर व्यापार की परिभाषा
गेस्टनवर्ग के अनुसार,'' जब एक व्यक्ति अथवा निगम स्वामित्व पूंजी के साथ-साथ ऋण पूंजी लेकर अपने नियमित व्यापार का संचालन करता है। तो उसे समता पर व्यापार कहा जाता है।''
गुथमैन एवं डूगल के अनुसार,'' एक व्यावासयिक फर्म को वित्तीय प्रबन्ध हेतु स्थायी लागत पर ऋण कोषों का प्रयोग समता पर व्यापार कहलाता है।
समता पर व्यापार के अर्थ एंव परिभाषाओं के अध्ययन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रबन्धको को यदि इस बात का विश्वास है कि फर्म ऋण पूंजी पर भुगतान किए जाने वाले ब्याज की जा सकती है। लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि फर्म को आय की स्थिरता एंव निश्चितता का विश्वास हो। इस सम्बन्ध में गेस्टनबर्ग ने उचित ही कहा है,''समता पर व्यापार मुख्यत: आय की स्थिरता एंव निश्चितता की परिसीमाओं से बंधा हुआ है।''
समता अंशो पर व्यापर के उद्देश्य
समता अंशो पर व्यापार के निम्न उद्देश्य है-
1. न्यूनतम पूंजीगत साधनों द्वारा अधिकतम वित्तीय साधनों पर नियंत्रण प्राप्त करना
2. इस नीति के प्रयोग का एक उद्देश्य यह भी है कि कम्पनी अपने वित्तीय साधनों का प्रयोग इस ढंग से करे जिससे कि समता अंशधारियों को अधिक-से अधिक लाभांश दिया जा सके।
3.अधिकतम मतदान शक्ति थोड़े व्यक्तियो में केन्द्रित होना।
4.वर्तमान प्रत्याय दर में सुधार करते हुए उसमें वृद्धि करना।
समता पर व्यापार नीति का महत्व
समता पर व्यापार नीति को अपनाने का सबसे बडा़ लाभ यह है कि संस्था जब ऋण पूंजी का प्रयोग करती है तो उसे उसकी लागत से अधिक आय प्राप्त होती है परिणामस्वरूप लाभांश की दर में वृद्धि हो जाती है जिससे अंशधारियो को अधिक लाभांश प्राप्त होता है लाभांश दर ऊंची होने के कारण संस्था की साख व ख्याति बढ़ती है तथा उसके अंशों के बाजार मूल्य में भी वृद्धि होती है। इसका परिणाम यह होता है कि संस्था को निम्न ब्याज पर पर्याप्त ऋण सरलता से प्राप्त होने लगता है। अत: संस्था व्यवसाय का कुशल संचालन करके अधिक आय कमा सकती है।
समता पर व्यापार की सीमांए/दोष
यदि किसी कम्पनी को यह विश्वास हो जाये कि वह ऋण पर जो ब्याज देगी इससे अधिक उसे लाभ होगा तो निश्चित रूप से उसे ऋण-पत्र निर्गमित करके ऋण प्राप्त करना चाहिए और समता अंशो पर व्यापार चलाना चाहिये, किन्तु यदि ऋण पत्रों के निर्गमन से जो कम्पनी को ब्याज देना पडे़ वह यदि कम्पनी को प्राप्त आय से अधिक है तो कम्पनी को कभी भी ऋण पूंजी द्वारा व्यापार नही चलना चाहिये। इस अवस्था में समता अंश पूंजी अधिक निर्गमित करनी चाहिये, जिससे व्यापार अच्छी प्रकार चलाया जा सके।
लाभो के साथ-साथ समता पर व्यापार करने के कुछ दोष भी है। लाभ होने कि स्थिति मे ही यह नीति सुखदायी प्रतीत हेाती है। कभी -कभी संस्था को लाभ नही होते अथवा होते भी है तो बहुत कम। ऐसी स्थिति में समस्त लाभ ऋणपत्रधारियों को ब्याज चुकाने में ही समाप्त हो जाते है और अंशधारियों को कुछ भी नहीं मिल पाता ओर इसी कारण कम्पनी की साख में गिरावट आ जाती है और साधारण अंशो का बाजार मूल्य गिर जाती है।
ऊपर दिये गये विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समता पर व्यापार की नीति आय की निश्चितता एंव नियमितता की सीमाओं सें बंधी हुई है। ऐसे व्यवसाय जिनमें आय नियमित रूप से होती है, किन्तु यह निश्चित रूप से नही कहा जा सकता कि आय कितनी होगी। ऐसी स्थिति में यदि समता पर व्यापार की नीति अपनाई जाती है तब उत्तम आय वाले वर्ष में लाभांश की दर बढ़ जावेगी और कम आय वाले वर्ष में लाभांश की दर कम हो जावेगी। इसी कारण यह कहा जाता है कि समता पर व्यापार की नीति न केवल लाभ में वृद्धि करती है बल्कि हानि में भी वृद्धि करती है।
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